भ्रष्‍टाचार और काले धन के खिलाफ आंदोलन में बाबा रामदेव चूक गए

Share via

baba ramdeo chuk gayeराजनीति भी अजीबोग़रीब खेल है, इसलिए इसे गेम ऑफ इंपोसिबल कहा गया है. यह ऐसा खेल है, जिसमें बड़े-बड़े खिलाड़ी को धराशायी होने में व़क्त नहीं लगता है, छोटे खिलाड़ी बाज़ी मार ले जाते हैं और कभी-कभी सबसे अनुभवी खिलाड़ी भी किसी नौसिखिए की तरह खेल जाता है. यह किसने सोचा था कि बाबा रामदेव के आंदोलन का ऐसा अंत होगा. यह किसने सोचा था कि मनमोहन सिंह जैसे शांत चित्त वाले लोग रात के एक बजे सो रही महिलाओं और बच्चों पर लाठियां बरसाने और अहिंसक आंदोलन पर अश्रु गैस के गोले दागने का फरमान जारी कर देंगे. बाबा के आंदोलन का ऐसा हश्र क्यों हुआ और सरकार ने इस आंदोलन को शक्ति से कुचलने का फैसला क्यों लिया? ग़लतियां दोनों तऱफ से हुईं. सरकार ने तो ग़लत किया ही, लेकिन बाबा रामदेव से भी चूक हो गई. बाबा रामदेव जिस स्थिति में हैं, उसके लिए वह स्वयं ज़िम्मेदार हैं.

रामदेव का घोषित अनशन बहुत सही मुद्दों पर था और लोग भी विश्वास लेकर आए थे, पर पुलिस की ओर से जो कार्रवाई हुई, वह निंदनीय है. लेकिन दोनों तऱफ से कुछ ज़्यादा होशियारी बरतने की वजह से अविश्वास का वातावरण बना. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बाबा रामदेव ने सरकार के साथ समझौता किया और उस समझौते को लोगों से छिपाया. दूसरी तऱफ सरकार चाहती थी कि रामदेव आरएसएस की राजनीति न करके उसकी बनाई हुई गाइड लाइन पर आंदोलन करें, बाबा रामदेव के आंदोलन से कांग्रेस पार्टी को फायदा हो. जब केंद्र के एक मंत्री ने बाबा रामदेव से यह कहा कि आप एक सद्भावना पूर्ण संदेश सरकार को दीजिए, ताकि आप में और सरकार में संवाद क़ायम हो. रामदेव इसके लिए मान गए. उन्होंने यह बयान दिया कि प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल बिल के दायरे में नहीं लाना चाहिए. इसी बयान से सरकार को यह भरोसा हुआ कि अब रामदेव कांग्रेस के फायदे के लिए अपनी बात कहेंगे. इसी सद्भावना पूर्ण माहौल में कलैजियर्स होटल में दोनों के बीच पत्रों का आदान-प्रदान हुआ, लेकिन बाबा के जो सलाहकार थे, वही आरएसएस के भी सलाहकार हैं. उनकी रणनीति थी कि जैसे ही सरकार बाबा की सारी बातें माने, वैसे ही रामदेव यह घोषणा करेंगे कि उन मांगों से जुड़े हुए सवालों पर अब अध्यादेश लाया जाए. इस बात की जानकारी बाबा के ही किसी आदमी ने उस मंत्री को दे दी, जो मुख्य मध्यस्थ था. वह मंत्री तत्काल प्रधानमंत्री के पास गया और आनन-फानन में यह फैसला ले लिया गया कि बाबा रामदेव के  साथ अब वार्ता नहीं करनी है. न केवल वार्ता नहीं की जानी है, बल्कि रामदेव की विश्वसनीयता देश के लोगों के सामने भी लानी है. इसका ज़िम्मा कपिल सिब्बल को सौंपा गया. इस समय यह फैसला नहीं लिया गया था कि रामलीला मैदान से लोगों को खदेड़ा जाएगा. सुबोध कांत सहाय ने यह घोषणा की कि सरकार ने बाबा की मांगें मान ली हैं और वह चिट्ठी भेज रहे हैं. पर आईबी ने सूचना दी कि चेन्नई में बैठे आरएसएस के एक नेता ने रामदेव को यह सलाह दी है कि वह चिट्ठी पाने के बाद यह घोषणा कर दें कि जब तक अध्यादेश नहीं आएगा, तब तक वह अनशन समाप्त नहीं करेंगे. आरएसएस के इस नेता का पिछले 8 महीनों से फोन टेप हो रहा है, जिससे यह बात पता चली. फिर प्रधानमंत्री के स्तर पर यह फैसला लिया गया कि रामलीला मैदान रात में खाली करा लिया जाए.

बाबा रामदेव की कोशिशों से तैयार जन समर्थन का फायदा उठाने के लिए एक ख़ास रणनीति के तहत अन्ना हजारे ने रामलीला मैदान में हुए पुलिसिया दमन के ख़िला़फ 8 जून को जंतर-मंतर पर अनशन करने का फैसला लिया, लेकिन आख़िरी समय पर जगह बदल कर राजघाट कर दिया. अन्ना को लोग गांधीवादी बता रहे हैं, लेकिन गांधी के आंदोलनों की पहली ख़ासियत ही अन्ना भूल गए. गांधी का आंदोलन तो क़ानून तोड़ने के लिए होता था. अगर जंतर-मंतर पर सरकार ने अनशन करने से रोक दिया था तो अन्ना और उनके सहयोगियों को विनती पूर्वक गिरफ़्तारियां देनी थीं.

जब कोई ग़ैर राजनीतिक व्यक्ति राजनीति करने लग जाता है तो ग़लतियां होने का ख़तरा बढ़ जाता है. बाबा रामदेव वैसे तो योग गुरु हैं, राजनीतिक व्यक्ति नहीं हैं. उनकी सबसे बड़ी भूल यही है उन्होंने राजनीति शुरू कर दी. बाबा रामदेव से कई ग़लतियां हो गईं. बाबा रामदेव को राजनीतिक दलों के  साथ डील करना नहीं आया. किस राजनीतिक दल से कितना सटना है, किससे कितना दूर जाना है, बाबा इसका सही आकलन नहीं कर सके. बाबा ने आंदोलन के कुछ दिनों पहले से ऐसे संकेत दिए, जिनसे यह लग रहा था कि वह आंदोलन भी करना चाहते हैं और कांग्रेस और भाजपा दोनों को ख़ुश भी रखना चाहते हैं. वह संघ के सलाहकारों की बात भी सुन रहे थे और कांग्रेस के नेताओं के साथ बात भी कर रहे थे. बाबा राजनीतिक दोस्त और दुश्मन में फर्क़ नहीं कर पाए. यही वजह है कि वह इस बात का आकलन नहीं कर पाए कि साध्वी ॠतंभरा को मंच पर बैठाना और उनसे भाषण दिलवाना उन्हें कितना महंगा पड़ सकता है. बाबा रामदेव को भनक भी नहीं थी कि कांग्रेस पार्टी इस मुद्दे को उठाकर उनके पूरे आंदोलन की हवा निकाल देगी. बाबा कांग्रेस पार्टी के  मीडिया मैनेजमेंट की ताक़त को नहीं पहचान सके. यह बाबा की राजनीतिक अपरिपक्वता को दर्शाता है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ नज़दीक दिखना बाबा रामदेव के लिए महंगा साबित हुआ. मीडिया बाबा के ख़िला़फ हो गया. वैसे संघ के पदाधिकारी बताते हैं कि संघ का बाबा रामदेव पर कोई नियंत्रण नहीं है. वह अपनी ही मर्जी से सारा कुछ करते हैं. बाबा रामदेव उनकी एक बात भी नहीं सुनते हैं.

लोगों को लगता है कि रामदेव दिल के सा़फ हैं, जो मन में आता है, वह बोल देते हैं, लेकिन असलियत यह है कि बाबा रामदेव अविश्वासी हैं. वह किसी पर विश्वास नहीं करते हैं. वह स़िर्फ अपनी बुद्धि और विवेक से काम लेते हैं. समझने वाली  बात यह है कि जब फरवरी में रामलीला मैदान में बाबा रामदेव ने रैली की, तब उस रैली में अन्ना हजारे, राम जेठमलानी, सुब्रमण्यम स्वामी, गोविंदाचार्य, किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल और विश्वबंधु गुप्ता आदि कई दिग्गज थे. रामलीला मैदान में इस बार इनमें से कोई नज़र नहीं आया. ये लोग कहां ग़ायब हो गए. बाबा और इनके बीच ऐसी क्या बात हुई, जिसकी वजह से इन लोगों ने बाबा के साथ आने से इंकार कर दिया. बाबा अपने आंदोलन और रैलियों में लोगों को बुलाते तो हैं, लेकिन उनसे कोई राय नहीं लेते. अगर कोई राय देता भी है तो उसे वह नहीं मानते हैं. आंदोलन की प्लानिंग बाबा ने अपनी बुद्धि और विवेक से की. एक उदाहरण देता हूं. रामलीला मैदान में साध्वी ॠतंभरा के बगल में बैठे थे शिया धर्मगुरु और इस्लामिक स्कॉलर कल्बे रुशैद रिज़वी. उन्हें पता ही नहीं था कि साध्वी ॠतंभरा भी आने वाली हैं. उन्हें यह भी पता नहीं था कि और कौन-कौन लोग आने वाले हैं. जबकि वह पिछले एक साल के दौरान बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान आंदोलन के  प्रचार के लिए देश के कई शहरों में गए. उन्होंने बाबा रामदेव के आंदोलन को फैलाया, लेकिन जब रामलीला मैदान में अनशन की योजना बनी, तब उनसे भी कोई सलाह-मशविरा नहीं किया गया. उन्हें यह भी नहीं मालूम था कि सरकार के साथ बैकडोर बातचीत हो रही है. इसका मतलब यह है कि बाबा रामदेव किसी से राय लेने में विश्वास नहीं रखते हैं और न किसी पर भरोसा करते हैं. इसी कमी की वजह से बाबा कांग्रेस पार्टी के जाल में फंस गए.

बाबा के आंदोलन को सबसे बड़ा झटका तब लगा, जब कपिल सिब्बल ने उस चिट्ठी को सार्वजनिक कर दिया, जिसमें बाबा रामदेव ने यह आश्वासन दिया था कि वह दो-तीन दिनों में अनशन तोड़ देंगे. किसी भी आंदोलन से पहले और आंदोलन के दौरान सरकार और आंदोलनकारियों में बातचीत होना कोई नई बात नहीं है. ऐसा हर आंदोलन में होता है, होना भी चाहिए. अगर बातचीत ही बंद हो जाएगी तो फिर निगोशिएशन कैसे होगा, लेकिन इस बातचीत को सार्वजनिक करना उचित नहीं माना जा सकता है. कपिल सिब्बल ने बालकृष्ण के पत्र को दिखाकर ग़लती की. लेकिन बाबा रामदेव की ग़लती यह है कि उन्हें स्वयं सरकार से इस तरह बातचीत नहीं करनी चाहिए. बाबा ने अगर किसी दूसरे व्यक्ति या ग्रुप को सरकार से बातचीत करने की ज़िम्मेदारी दी होती तो आज स्थिति कुछ और ही होती. वैसे कांग्रेस पार्टी अब बालकृष्ण को नेपाली नागरिक बताकर बाबा से हिसाब चुका रही है. चौथी दुनिया कई महीने पहले ही इस ख़बर को छाप चुका है, यह कोई नई बात नहीं है, लेकिन कपिल सिब्बल को यह तो बताना ही पड़ेगा कि क्या भारत सरकार एक नेपाली नागरिक से समझौता कर रही थी? मीडिया के सामने जो पत्र उन्होंने दिखाया, क्या वह किसी नेपाली नागरिक का था?

बाबा ने एक और ग़लती रामलीला मैदान में की. जिस तरह वह पुलिस के डर से भागे और महिलाओं का वस्त्र धारण कर पुलिस को चकमा देने की कोशिश की, उससे बाबा रामदेव के बारे में लोगों में संदेह पैदा हो गया है. बाबा को पुलिस के सामने डटकर भाषण देना था और आराम से ख़ुद को गिरफ़्तार करा लेना था. गांधी जी के सत्याग्रह को याद करें तो उसमें यही होता था. गांधी जी क़ानून तोड़ते थे, पुलिस आती थी, उन्हें गिरफ़्तार करती थी. गांधी जी कहते थे, पूरा देश ही जब जेल है तो जेल के अंदर क्या और बाहर क्या! जेल भरो आंदोलन शुरू हो जाता था, लेकिन बाबा रामदेव ने ऐसा कुछ नहीं किया. उल्टा जान बचाने के लिए वह एक घंटे से ज़्यादा छिपे रहे. यह इस बात को साबित करता है कि बाबा सचमुच अराजनीतिक व्यक्ति हैं. राजनीतिक व्यक्ति तो इस बात के लिए लालायित रहता है कि लोग उस पर हो रही पुलिसिया कार्रवाई को देखें और उसे गिरफ़्तार किया जाए.

बाबा रामदेव से चूक हुई, लेकिन कांग्रेस की भी ग़लतियों की लिस्ट लंबी है. अब कांग्रेस पार्टी बाबा रामदेव को ठग बता रही है. अगर बाबा रामदेव ठग हैं तो कुछ सवालों का जवाब कांग्रेस पार्टी को देना चाहिए. अगर बाबा रामदेव ठग हैं तो कांग्रेस के नेता एवं मंत्री उनके शिविर में क्या करने जाते थे, बाबा रामदेव अगर ठग हैं तो कांग्रेस शासित राज्यों में उन्हें शिविर लगाने की अनुमति क्यों मिलती है, अगर बाबा ठग हैं तो दिल्ली एयरपोर्ट पर उनसे मिलने मंत्रीगण क्यों गए थे, अगर बाबा ठग हैं तो उनके साथ कपिल सिब्बल होटल के कमरे में क्यों डील कर रहे थे, अगर बाबा ठग हैं तो सरकार ने उन्हें गिरफ़्तार क्यों नहीं किया और हवाई जहाज से हरिद्वार क्यों छोड़ा गया, अगर बाबा ठग हैं तो पतंजलि फूड पार्क के लिए कांग्रेस की सरकार ने पैसे क्यों दिए और बाबा रामदेव अगर ठग हैं तो राहुल गांधी उनसे क्यों मिलते हैं? असलियत तो यह है कि इस आंदोलन से पहले तक बाबा रामदेव के कांग्रेस के कई नेताओं के साथ अच्छे रिश्ते रहे हैं. जब बाबा रामदेव ने नई पार्टी बनाने की घोषणा की तो कांग्रेस के  कुछ नेताओं ने बाबा को प्रोत्साहन भी दिया. कांग्रेस पार्टी की योजना यह थी कि अगर बाबा चुनाव में उम्मीदवार खड़े करते हैं तो वह भारतीय जनता पार्टी के वोट काटेंगे, लेकिन जबसे बाबा ने पार्टी बनाने से मना किया और वह संघ परिवार के साथ खड़े नज़र आने लगे, तबसे कांग्रेस और रामदेव में युद्ध शुरू हो गया.

सरकार ने तो हद ही कर दी. रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार और काले धन के ख़िला़फ आंदोलन चल रहा था. पुलिस डंडा चला रही थी. उसी दौरान मनमोहन सिंह सरकार के मंत्री की करतूत उजागर हो रही थी. ए राजा से पहले यूपीए सरकार के टेलीकॉम मंत्री दयानिधि मारन के कारनामे सामने आए. पिछले एक साल से लगातार एक के बाद एक घोटाले का पर्दाफाश हो रहा है. भ्रष्टाचार को लेकर लोगों की नाराज़गी चरम पर है, लेकिन केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के ख़िला़फ कोई कड़े क़दम उठाने के बजाय बाबा रामदेव को डराने में लग गई है. इनकम टैक्स डिपार्टमेंट और ईडी को बाबा रामदेव के पीछे लगा दिया गया है. बाबा के पास इतने पैसे कहां से आए, बाबा ने विदेश में कितना पैसा निवेश किया, बाबा ने कहां-कहां क़ानून तोड़ा, बाबा का पैसा और कहां-कहां लगा है जैसे कई सवाल हैं, जिन्हें सरकारी एजेंसियां खंगाल रही हैं. देश के क़ानून की स्थिति यह है कि बाबा रामदेव क्या, कोई भी व्यक्ति, जिसके पास इतना सारा धन है, वह क़ानून की नज़र में कहीं न कहीं गुनाहगार बन ही जाता है. सरकार क़ानून की दृष्टि से सही हो सकती है, लेकिन यह पहल भ्रष्टाचार को ख़त्म करने की पहल नहीं हो सकती है. सरकार अगर बाबा रामदेव के खातों की जांच कर रही है तो इसके साथ ही देश के बड़े-बड़े उद्योगपतियों के ग़ैर क़ानूनी धन के बारे में भी जांच होनी चाहिए. ऐसा क्यों है कि 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में छोटी-छोटी मछलियां जेल के अंदर हैं, जबकि जिन कंपनियों को सबसे ज़्यादा फायदा हुआ, उसके मालिक टाटा और अंबानी को क्लीन चिट दे दी गई. इस सवाल का जवाब भी सरकार को देना चाहिए. रात के अंधेरे में हुई पुलिसिया कार्रवाई की जितनी भी निंदा की जाए, वह कम है. सरकार के एक फैसले ने उसे गुनाहगार बना दिया.

प्रजातंत्र में किसी भी आंदोलन या राजनीतिक गतिविधि के लिए जनता का समर्थन ज़रूरी होता है. बाबा रामदेव के साथ जनता का अपार समर्थन है. जिस तरह भीड़ इकट्ठा करने की क्षमता उनमें है, वह देश के किसी दूसरे नेता में नहीं है. बाबा रामदेव के आंदोलन का सबसे ज़्यादा फायदा अन्ना हजारे को मिला है. अन्ना के पास एजेंडा तो है, लेकिन समर्थन का अभाव है. तीन महीने पहले जब बाबा रामदेव ने रामलीला मैदान में रैली की थी तो अन्ना मंच पर बाबा रामदेव के पीछे बैठे थे. रैली में उमड़ी भीड़ देखकर उन्होंने पास में बैठे विश्वबंधु गुप्ता से कहा, मैं भी अब दिल्ली में आंदोलन करना चाहता हूं. विश्वबंधु गुप्ता ने पूछा कि लोगों को कहां से लाएंगे? तो अन्ना ने रामलीला मैदान में मौजूद भीड़ को दिखाकर कहा कि जब सब लोग साथ हैं तो लोग स्वयं आ जाएंगे. अन्ना पहले भी भ्रष्टाचार के ख़िला़फ आंदोलन करते रहे हैं, लेकिन उनके आंदोलन ने कभी देशव्यापी जनांदोलन का रूप नहीं लिया. वह महाराष्ट्र तक ही सीमित थे. आंदोलन से पहले तक अन्ना का नाम दिल्ली के लोगों के लिए नया था. दिल्ली में कोई अब स़फेद टोपी पहने नज़र नहीं आता है, इसलिए दिल्ली के एलीट वर्ग के लिए अन्ना एक अनोखा व्यक्तित्व थे. अन्ना के  आंदोलन में ग़रीब नहीं हैं, अल्पसंख्यक नहीं हैं, दलित नहीं हैं, मज़दूर और किसान नहीं हैं, लेकिन मीडिया, मोबाइल फोन, एसएमएस और इंटरनेट के सटीक इस्तेमाल ने अन्ना के लिए अलादीन के चिराग़ का काम किया. अन्ना के आंदोलन का दायरा शहरी है. टेक्नालॉजी के इस्तेमाल से दिल्ली का उच्च और उच्च-मध्यम वर्ग आंदोलित हो गया.

बाबा रामदेव का आंदोलन अचानक ख़त्म होने से अन्ना के  सहयोगियों को लगा कि यह एक अच्छा मौक़ा है, जब भ्रष्टाचार के ख़िला़फ बने जनमत को अन्ना की तऱफ मोड़ा जाए. इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले दो सालों से भ्रष्टाचार के ख़िला़फ लोगों को जागरूक करने का काम बाबा रामदेव ने किया. लोगों में नाराज़गी है. लोग भ्रष्टाचार के ख़िला़फ देश में आंदोलन चाहते हैं. बाबा रामदेव की कोशिशों से तैयार जन समर्थन का फायदा उठाने के लिए एक ख़ास रणनीति के तहत अन्ना हजारे ने रामलीला मैदान में हुए पुलिसिया दमन के ख़िला़फ 8 जून को जंतर-मंतर पर अनशन करने का फैसला लिया, लेकिन आख़िरी समय पर जगह बदल कर राजघाट कर दिया. अन्ना हजारे को लोग गांधीवादी बता रहे हैं, लेकिन एक बात यह समझ में नहीं आई कि उन्होंने जंतर-मंतर की जगह राजघाट को क्यों चुना. गांधी के आंदोलनों की पहली ख़ासियत ही अन्ना भूल गए. गांधी का आंदोलन तो क़ानून को तोड़ने के लिए होता था. अगर अन्ना गांधीवादी आंदोलन करना चाहते हैं तो गांधी के इस मूलमंत्र को उन्हें याद रखना होगा. अगर जंतर-मंतर पर सरकार ने अनशन करने से रोक दिया था तो अन्ना और उनके सहयोगियों को विनती पूर्वक गिरफ़्तारियां देनी थीं. जंतर-मंतर की जगह राजघाट में अनशन करना आंदोलन के भविष्य पर सवाल खड़ा करता है. साफ है कि अन्ना का आंदोलन भी सरकार के दबाव का शिकार हो रहा है. अन्ना ने 16 जून से जंतर-मंतर पर आमरण अनशन का ऐलान किया है. क्या यह आमरण अनशन जंतर-मंतर पर होगा, क्या लोकपाल बनाने वाली कमेटी की बैठकों का लाइव टेलीकास्ट होगा, क्या लोकपाल को प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के जजों, वरिष्ठ अधिकारियों और सांसदों के भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाही का अधिकार होगा और क्या सरकार फिर से आंदोलनकारियों के साथ डील करेगी आदि जैसे कई सवाल हैं, जिनका उत्तर अन्ना के आमरण अनशन के दौरान मिलेगा.

Share via

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *