गूजर आंदोलन कर रहे हैं. क्या यह आंदोलन आकस्मिक है. ये किसान सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग क्यों कर रहे हैं. गूजरों को गांव में रहने वाले राजपूतों का समर्थन क्यों मिल रहा है. गांव में रहने वाले उच्च जाति के लोग भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर क्यों आवाज़ उठाने लगे हैं. क्या वजह है कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग शहर के व्यापारी नहीं करते. कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार को अपनी नीतियों और प्राथमिकताओं को पूरी तरह से बदलने का व़क्त आ गया है. विकास के मायने को नया रूप देने का व़क्त आ गया है.
भारतीय लोकतंत्र का यह अजीब चेहरा है. देश के किसानों को जब भी कोई बात सरकार तक पहुंचानी होती है, उन्हें आंदोलन करना पड़ता है. वहीं देश के बड़े-बड़े उद्योगपति सीधे मंत्रालय जाकर नियम-क़ानून बदल कर करोड़ों का फायदा उठा लेते हैं. लोकतंत्र से मिलने वाले अवसर और फायदे से भारत की बहुसंख्यक आबादी बहुमत से लगातार दूर होती जा रही है. भारत किसानों का देश है. वह ग़रीब है. सरकार की योजनाओं एवं नीतियों से फायदा मिलना तो दूर, उल्टे नुकसान हो रहा है. किसी भी लोकतंत्र में आंदोलन तब होता है, जब उसकी संस्थाओं के ज़रिए लोगों के बुनियादी सवालों, उनकी समस्याओं का हल निकलना बंद हो जाता है. जब समस्याओं का हल सरकारी तंत्र न कर सके या फिर सरकारी तंत्र की वजह से समस्याएं पैदा होती हों, तब आंदोलन होता है. किसी भी आंदोलन में जनता का समर्थन तब मिलता है, जब पेट में पीड़ा होती है. वैसे भारत के लोग बड़े ही संतोषी हैं. इतनी महंगाई के बावजूद आंदोलन नहीं करते हैं. फिर अगर गूजर आंदोलन कर रहे हैं तो ज़रूर कोई वजह होगी.
गूजरों का आंदोलन कोई आकस्मिक आंदोलन नहीं है. वे किसी हत्याकांड के विरोध में आंदोलन नहीं कर रहे हैं. गूजर कई सालों से रोज़ी-रोटी के सवाल को लेकर आंदोलन कर रहे हैं. यह आंदोलन दिल्ली से सटे इलाकों और राजस्थान में फैला है. गूजर सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग कर रहे हैं. उनकी मांग यह है कि उन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिले और सरकारी नौकरियों में आरक्षण. अब सवाल यह है कि गूजर अपने पारंपरिक व्यवसाय को छोड़कर सरकारी नौकरियां करना क्यों चाहते हैं. सरकार को लगता है कि अगर गूजरों की मांग मान ली गई तो देश की दूसरी जातियां भी आरक्षण के लिए आंदोलन शुरू कर सकती हैं. यही वजह है कि सरकार इसे राजनीतिक रंग देने में लगी है. गूजरों के आंदोलन को राजनीति के चश्मे से देखना ग़लत है.
गूजर मुख्यत: किसान हैं. उनका जीवन पशुपालन पर निर्भर है. पशुपालन और दूध ही उनकी आय का मुख्य ज़रिया है. सदियों से ये लोग गाय, बकरी और भेड़ पालते रहे, उनका दूध बेचते रहे हैं, लेकिन धीरे-धीरे पशुपालन का भैंसीकरण हो गया. मतलब यह कि भैंस का दूध बाज़ार में छा गया. 1950 से पहले हमारे देश में लोग भैंस नहीं पालते थे. 1950 के बाद से एडीडीपी (एग्रीकल्चर एंड डेयरी डेवलपमेंट प्रोग्राम) की मदद से मिल्क को-ऑपरेटिव का आंदोलन शुरू हुआ. उसी समय दूध की गुणवत्ता मापने का जो मापदंड बना, उसने पशुपालन और दूध के बाज़ार की पूरी दिशा बदल दी. दूध की गुणवत्ता को फैट परसेंटेज से जोड़ दिया गया. मतलब यह कि जिस दूध में जितना ज्यादा फैट, उतना ही बेहतर दूध. मज़े की बात यह है कि फैट को गुणवत्ता का मापदंड इसलिए बनाया गया, क्योंकि इसे लैक्टोमीटर से आसानी से मापा जा सकता है. हमारे अधिकारियों को दूध की गुणवत्ता मापने का सबसे आसान तरीका यही लगा. पांचवें दशक के बाद से जब यह मिल्क को-ऑपरेटिव आंदोलन चला तो उसी के साथ दूध का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल चाय में होने लगा. चाय के अंदर अगर दूध ज़्यादा गहरा हो तो चाय अच्छी मानी जाती है. इन दोनों वजहों से गाय के दूध से ज़्यादा भैंस के दूध की खपत होने लगी. बाज़ार में भैंस के दूध की मांग बढ़ी. देश में पशुपालन के मायने बदल गए. पशुपालन का अर्थ स़िर्फ भैंस पालना रह गया. इससे बहुत बड़ा बदलाव आया. गाय की तरह भैंस खेतों में नहीं चरती. इससे उसका काम नहीं चलता. गांवों में गाय को खरीद कर चारा देने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. इस वजह से दूध के लिए गूजरों को अब खेत से लाए गए चारे और बाज़ार से खरीदे गए चारे की ज़रूरत पड़ने लगी. अब पिछले 25 सालों में भैंसों के खाने के सामानों (चारा और अन्य उत्पाद) पर नज़र डालें तो भैंसों पर किए गए खर्च और दूध की कीमत में काफी अंतर था. कुछ सालों तक यह एक और तीन के अनुपात में रहा. मतलब भैंसों के खाने पर अगर कोई एक रुपये खर्च करता तो उसे तीन रुपये का दूध मिलता था. गूजरों को फायदा होता था, लेकिन पिछले 10 सालों में तस्वीर बदल गई.
भैंस के चारे की कीमत बढ़ गई. इसकी कई वजहें हैं. खेती का तरीका बदला और फसलों में भी बदलाव आया. चारे का उत्पादन कम होता गया. साथ ही पानी की किल्लत शुरू हो गई. वहीं बाज़ार में फैट की इतनी मांग बढ़ती गई कि किसानों ने भैंसों को फूड कांस्नट्रेट (ऐसा खाना जिससे ज्यादा फैट का निर्माण होता है) खिलाना शुरू कर दिया. फूड कांस्नट्रेट को खली से बनाया जाता है. जब सरसों या किसी बीज से तेल निकाला जाता है तो तेल निकालने के बाद जो बच जाता है, उसे खली कहते हैं. जब तेल महंगे हुए तो खली की कीमत बढ़ गई. इस तरह भैसों को जो खिलाया जाता था, वह कई गुना महंगा हो गया, लेकिन सरकार ने शहरी उपभोक्ताओं की वजह से दूध की कीमत नहीं बढ़ने दी. दूसरी परेशानी यह हुई कि बाज़ार में सिंथेटिक (नकली) दूध का अंबार लग गया, जिसकी वजह से बाज़ार के अंदर डिमांड एंड सप्लाई के आधार पर दूध की जो कीमत होनी चाहिए, वह हुई नहीं. साथ ही घी का कारोबार भी गूजरों के लिए मुसीबत हो गया. नकली घी का कारोबार असली घी के कारोबार से कई गुना ज़्यादा है. इसने भी दूध की कीमत नहीं बढ़ने दी. यही वजह है कि पिछले दस सालों से गूजरों को नुकसान होने लगा. आमदनी कम होने की वजह से गूजरों की चिंता बढ़ने लगी. उन्हें अब लगने लगा है कि अपने पारंपरिक व्यवसाय की वजह से वे ग़रीब होते चले जा रहे हैं. अब इससे उनका गुज़ारा नहीं होने वाला है.
ऐसे मौके पर जब कोई राजनीतिक दल या नेता अच्छे भविष्य के सपने दिखाएगा तो ग़रीबी से जूझ रहे किसानों का समर्थन मिलना लाज़िमी है. अब गूजरों को लग रहा है कि उनके अपने व्यवसाय में फायदा नहीं है और नेता उन्हें नौकरियों में आरक्षण का लालच भी दे रहे हैं. ऐसे में गूजर समुदाय को लग रहा है कि परिवार के किसी एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी मिल गई तो उनकी समस्या हल हो जाएगी. गूजरों ने जब आरक्षण की मांग शुरू की तो उनके सामने एक उदाहरण था, मीणा जाति का. मीणाओं को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने के कारण ही आज सिविल सेवा में उनकी संख्या सबसे अधिक है. गूजर मीणाओं को अपना सबसे बड़ा प्रतियोगी मानते हैं और उन्हें लगता है कि मीणाओं ने सरकारी नौकरियों की वजह से सरकारी संसाधनों पर एकाधिकार स्थापित कर लिया है. गूजरों को लगता है कि आरक्षण मिलने के बाद उनकी भी सामाजिक हैसियत मीणाओं जैसी हो जाएगी. गूजर आंदोलन को जातीय पहचान की लड़ाई समझना ग़लत होगा, क्योंकि इसकी जड़ में आर्थिक और सामाजिक विषमताएं हैं. हां, यह बात ज़रूर है कि विषमताओं के खिला़फ लड़ने और लोगों को संगठित करने के लिए किसी पहचान की ज़रूरत होती है, जो आंदोलन की धुरी बने. इस आंदोलन में गूजर जातिसूचक न होकर किसानों की समस्याओं और सरकारी नीतियों की विफलताओं के खिला़फ मुहिम का नाम है. किसानों के प्रति सरकार की जो अनदेखी है, वह कहीं गूजर, कहीं यादव या कहीं कुर्मी के नाम से आंदोलन शुरू कर सकती है.
70 के दशक में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महेंद्र सिंह टिकैत ने एक किसान आंदोलन खड़ा किया था. उन्हें किसानों का ज़बरदस्त समर्थन मिला. उस समय भी गन्ना, गेहूं, जौ और चने की खेती करने वाले किसानों की हालत वैसी ही थी, जैसी आज गूजरों की है. गन्ना, गेहूं, जौ और चना पैदा करने की लागत ज़्यादा हो गई और सरकार ने इन फसलों की कीमत नियंत्रित कर रखी थी. किसानों को खेती से नुक़सान हो रहा था. बाद में स्थिति में बदलाव आया तो यह किसान आंदोलन शांत हुआ. महेंद्र सिंह टिकैत और गूजर आंदोलन की वजह एक है, लेकिन फर्क़ स़िर्फ इतना है कि गूजर अब अपने व्यवसाय में फायदा-नुकसान को छोड़कर सरकारी नौकरी के लिए आंदोलन कर रहे हैं.
1991 के उदारीकरण के बाद से सरकारी नीतियों का ध्यान किसानों और मज़दूरों की समस्याओं से दूर हटकर उद्योगपतियों, व्यापारियों और शहरी लोगों पर टिक गया. विकास का मापदंड बदल गया है. सरकार ने अपने दायित्व को ही नए ढंग से परिभाषित कर दिया है. सरकार मूलभूत ढांचे को बेहतर करती है तो औद्योगिक विकास एजेंडे पर होता है. विकास की परिभाषा विदेशी निवेश, जीडीपी और सेंसेक्स से तय की जाती है. जब भी सरकार बाज़ार को मुक्त करने की बात करती है या इस संदर्भ में कोई फैसले लेती है तो उसका सारा फायदा बड़े-बड़े उद्योगपति ले जाते हैं. शिक्षा में सुधार की बात होती है तो मामला विदेशी विश्वविद्यालयों को देश के शहरों में जगह देने पर रुक जाता है. गांवों में चलने वाली सरकारी योजना भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाती है. कृषि हो या उद्योग, विदेशी कंपनियों को सारी सुविधाएं और भारतीय बाज़ार उपलब्ध कराने को सरकार अपनी सफलता बताती है. ओबामा, बेन जियाबाओ या फिर सरकोजी आते हैं तो फैसले देश के बड़े-बड़े उद्योगपतियों के साथ मिल-बैठकर लिए जाते हैं. हद तो यह है कि अब दुनिया के बड़े-बड़े उद्योग घरानों को खुदरा बाज़ार में लाने की तैयारी हो गई है. वैसे भी अंबानी और बिरला पहले से ही खुदरा बाज़ार में स्थापित हो चुके हैं. सरकारी नीतियों से लगातार कृषि और उससे जुड़े उत्पादों पर आश्रित लोगों को नुकसान ही नुकसान हो रहा है.
सरकार की प्राथमिकता सा़फ है. उद्योगपतियों, व्यापारियों और शहर के लोगों का चेहरा देखकर सरकार योजना बनाती है. महंगाई पर हाय-तौबा तब मचती है, जब उन उत्पादों की कीमत बढ़ती है, जिनका रिश्ता शहर में रहने वाले लोगों से है. अ़खबार में महंगाई को लेकर खबर छपती है तो सरकार भी नीतियां बदल देती है. विपक्ष भी हंगामा करने लगता है. मीडिया भी एक्टिव हो जाता है. अ़खबार और टीवी वाले पेट्रोल की कीमत पर हाय-तौबा करते हैं तो यह बात समझ में भी आती है कि अ़खबार के पाठक और टीवी दर्शक शहरी होते हैं, लेकिन राजनीतिक दल इतने मूर्ख हैं कि मीडिया के साथ वे भी सुर में सुर मिलाकर हंगामा करने लगते हैं. इन राजनीतिक दलों को यह समझ में ही नहीं आता है कि वे जिनके लिए लड़ रहे हैं, वे तो वोट भी देने नहीं जाते. शहरों में तो वोटिंग 30 फीसदी होती है. लेकिन शहरी उच्च और मध्य वर्ग को खुश करने के लिए राजनीतिक दल अपनी शक्ति झोंक देते हैं. वहीं जब किसानों और ग्रामीणों की मुसीबतें बढ़ती हैं तो न मीडिया, न सरकार और न ही विपक्ष उनकी आवाज़ उठाता है. उन्हें अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ती है. भारत के ग्रामीण बेसहारा हो चुके हैं. उनकी मुसीबतें बढ़ रही हैं, लेकिन उन्हें सुनने वाला कोई नहीं है. अब ऐसे में सरकारी नीतियों के सताए हुए किसान कहां जाएं? क्या करें? किससे अपनी गुहार लगाएं? सांसद उनकी आवाज़ नहीं उठाते. अधिकारियों तक उनकी आवाज़ नहीं पहुंचती. देश की विभिन्न संस्थाओं ने किसानों की परेशानियों को अनसुना करने की कसम खा रखी है. ऐसी सोई हुई व्यवस्था तक अपनी आवाज़ पहुंचाने और उसे जगाने के लिए आंदोलन के अलावा और क्या रास्ता है. यही वजह है कि गूजर आंदोलन कर रहे हैं. यही वजह है, जब किसानों की ज़मीन हड़पी जाती है तो उन्हें प्रदर्शन करना पड़ता है. यह प्रदर्शन कभी-कभी हिंसक रूप भी अख्तियार कर लेता है. जहां-जहां किसानों को नुक़सान होता है, वहां वे आंदोलन करते हैं. देश चलाने वाली सारी संस्थाओं को इन सवालों पर ग़ौर करना होगा, हल निकालना होगा.
गूजर आंदोलन को अगर स़िर्फ जातीय व आरक्षण के चश्मे से देखा गया तो भयंकर भूल हो जाएगी. आज गूजर आंदोलन कर रहे हैं, कल दूसरे किसान आंदोलन करेंगे. आज वे रेल और सड़क जाम कर रहे हैं, कल हथियार भी उठा सकते हैं. अगर ऐसा हो गया तो सरकारी तंत्र के पास उनसे लड़ने का कोई हथियार नहीं बचेगा. यह देश चलाने लायक नहीं रह पाएगा.