यूरोप और अमेरिका सहित हर विकसित देश ने बायोमैट्रिक डाटा पर आधारित विशिष्ट परिचय पत्र देने का ़फैसला किया, लेकिन जैसे ही उन्हें ख़तरे का आभास हुआ, उन्होंने यह प्रोजेक्ट बीच में ही रोक दिया. भारत एक ऐसा अनोखा देश है, जहां ग़रीबों को फ़ायदा पहुंचाने के नाम पर यह प्रोजेक्ट आज भी जारी है. यहां कोर्ट से लेकर संसद समिति तक चीख-चीखकर कह रहे हैं कि आधार प्रोजेक्ट बंद कर देना चाहिए, लेकिन सरकार के कान में जूं तक नहीं रेंगती. सरकार से जब पूछा जाता है कि इस प्रोजेक्ट में कुल कितना खर्च होगा, तो वह कहती है, पता नहीं. सरकार से जब पूछा जाता है कि लोगों ने जो बायोमैट्रिक डाटा जमा कराए हैं, उन्हें किन-किन कंपनियों और देशों के साथ शेयर किया गया है, तो वह कहती है कि पता नहीं. आधार कार्ड, जिसके बारे में यूपीए सरकार ने बड़े-बड़े सपने दिखाए थे, वह एक घोटाले के रूप में विकसित होता जा रहा है, जो देश के कई विशिष्ट लोगों की इज्जत तार-तार कर देगा.
कोई साधारण व्यक्ति झूठ बोलकर, झांसा देकर पैसे की हेराफेरी करता है, तो अदालत उसे सजा देती है. देश में कई ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें धारा 420 के तहत सौ या पांच सौ रुपये की हेराफेरी में कई लोग बरसों से जेल में बंद हैं. कई सरकारी अधिकारी जनता के पैसे का उलट-फेर या गलत इस्तेमाल करने के जुर्म में सजा भुगत रहे हैं. देश का बड़ा उद्योगपति हो या प्रधानमंत्री का दोस्त, चाहे वह कोई भी हो, अगर देश की जनता को धोखा देकर जनता के ही पैसे को बर्बाद कर देता है, तो क्या उसे सजा नहीं मिलनी चाहिए? अगर जनता के पैसे का गलत इस्तेमाल जुर्म है, तो बंगलुरू से कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार नंदन नीलेकणी को अब तक गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया है? उनके ख़िलाफ़ धोखाधड़ी का मुकदमा क्यों नहीं चला? क्या हम ऐसे देश में रहते हैं, जहां अगर कम पैसे की धोखाधड़ी हो, धोखाधड़ी करने वाला कम रसूख वाला हो, तो उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई होगी और अगर धोखाधड़ी करने वाला रसूख वाला हो, प्रधानमंत्री का दोस्त हो, मीडिया वाले, टीवी एंकर और संपादक जिसे सलाम ठोंके, तो वह झांसा देकर सरकार के हजारों करोड़ रुपये बर्बाद भी कर दे, फिर भी उसके ख़िलाफ़ एक भी आवाज़ नहीं उठेगी?
नंदन नीलेकणी देश में आधार कार्ड बनाने वाली योजना के जनक हैं. उन्होंने झांसा देकर यह योजना देश पर लादी है. वह देश के पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जो बिना शपथ लिए कैबिनेट मंत्री के बराबर ओहदे पर मौजूद रहे. वह आधार कार्ड बनाने वाले भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के प्रमुख रहे. फिलहाल वह बंगलुरू से लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी बनकर. उनके प्रत्याशी बनने के बाद जब हंगामा हुआ, तो उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस बीच कुछ ऐसे आदेश जारी किए हैं, जिनसे उनकी परेशानी बढ़ गई है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आधार कार्ड अनिवार्य नहीं है और आधार कार्ड को सबके लिए अनिवार्य बनाने का आदेश सरकार तुरंत वापस ले. न्यायालय ने भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण को भी निर्देश दिया कि वह बायोमैट्रिक डाटा किसी दूसरी संस्था को नहीं दे. सुप्रीम कोर्ट ने बाम्बे उच्च न्यायालय के उस ़फैसले पर भी रोक लगा दी, जिसके तहत आतंकवाद और बलात्कार के मामलों में यह डाटा साझा करने की छूट दी गई है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि आधार कार्ड न होने से किसी भी व्यक्ति को सरकारी सेवा हासिल करने से वंचित न किया जाए. इसका मतलब यह है कि चाहे रसोई गैस हो या कोई और सेवा, अब बिना आधार कार्ड के भी आप इन सेवाओं को ले सकते हैं. वैसे आधार कार्ड को लेकर एक मामला कोर्ट में चल रहा है, जिसके बाद सरकार एवं नंदन नीलेकणी की और भी किरकिरी हो सकती है. आधार कार्ड विवादों में इसलिए है, क्योंकि चौथी दुनिया साप्ताहिक अख़बार ने सबसे पहले आधार कार्ड से होने वाले ख़तरों का खुलासा किया था. हमने यह खुलासा किया था कि किस तरह आधार कार्ड सीआईए और अन्य विदेशी खुफिया एजेंसियों के पास हमारी और आपकी सारी जानकारी पहुंचाने की साजिश है. समय के साथ-साथ चौथी दुनिया की सारी बातों पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लग रही है.
सूचना का अधिकार क़ानून के तहत निकली एक जानकारी के मुताबिक, यह बताया गया है कि बायोमैट्रिक सिस्टम 100 फ़ीसद एक्यूरेट नहीं है और दूसरी बात यह कि आधार कार्ड की विशिष्टता भी काल्पनिक है. यह जानकारी योजना आयोग के साथ करार करने वाली एर्नेस्ट एंड यंग प्राइवेट लिमिटेड और नेटमैजिक सोल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड ने दी है. इस सूचना के साथ ही आधार कार्ड का आधार ख़त्म हो जाता है. इस कार्ड को लेकर नंदन नीलेकणी ने जो बड़े-बड़े दावे किए थे, वे सब झूठे साबित होते हैं. नंदन नीलेकणी ने इस योजना की शुरुआत में दावा किया था कि यह अब तक का सबसे सटीक व अति विशिष्ट कार्ड है और इसकी नकल नहीं की जा सकती. नंदन नीलेकणी को यह बताना चाहिए कि उन्होंने देश को गुमराह क्यों किया? केंद्र सरकार ने जब आधार कार्ड की योजना लॉन्च की, तो उसकी शान में जमकर कसीदे काढ़े गए थे. बड़े-बड़े दावे हुए कि आधार कार्ड बनने के बाद लोगों को तरह-तरह के पहचान पत्र दिखाने के झंझट से आज़ादी मिल जाएगी, लेकिन यूपीए सरकार के इस ड्रीम प्रोजेक्ट में धांधली चरम पर है. चंद रुपये खर्च करके कोई भी आधार कार्ड बनवा सकता है. हाल में एक साइट के स्टिंग ऑपरेशन के जरिये यह खुलासा हुआ है कि अवैध बांग्लादेशी चंद रुपये देकर आसानी से आधार कार्ड बनवा लेते हैं और भारत के मान्यता प्राप्त नागरिक बन जाते हैं और फिर मतदान में हिस्सा लेने के लिए वैध हो जाते हैं. जबकि यूपीए सरकार के मंत्री और इस प्रोजेक्ट के सर्वेसर्वा नंदन नीलेकणी ने भरोसा दिलाया था कि कोई भी अवैध प्रवासी हमारे देश का फर्जी पहचान पत्र नहीं बनवा पाएगा और न उसका कोई डुप्लीकेट बन सकता है. आधार कार्ड का प्रोजेक्ट पूरी तरह एक घोटाले की शक्ल ले चुका है. सुप्रीम कोर्ट को अब ़फैसला करना होगा कि क्या नंदन नीलेकणी पर कोई आपराधिक मामला बनता है या नहीं.
यह एक घोटाला इसलिए भी है, क्योंकि अब आधार कार्ड का तकनीकी और क़ानूनी आधार ही सवालों के घेरे में है. इससे जुड़ी संस्थाओं ने तकनीकी खामियां मानकर उन सारे दावों की पोल खोल दी, जो नंदन नीलेकणी ने अब तक बेचते आए हैं. इस खुलासे के बाद सरकार और प्राधिकरण को सुप्रीम कोर्ट में जवाब देना मुश्किल हो जाएगा. हमें यह याद रखना चाहिए कि आधार कार्ड का कोई क़ानूनी आधार ही नहीं है. यह देश का अकेला ऐसा कार्यक्रम है, जिसे संसद में पेश करने से पहले ही लागू करा दिया गया. असलियत यह है कि यूपीए सरकार इस क़ानून को संसद में पास भी नहीं करा सकती है, क्योंकि संसदीय कमेटी ने इस योजना पर ही सवाल खड़ा कर दिया है. संसदीय कमेटी ने कहा है कि आधार योजना तर्कसंगत नहीं है. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में एक केस चल रहा है. आधार के ख़िलाफ़ केस करने वाले स्वयं कर्नाटक हाईकोर्ट के जज रहे हैं. जस्टिस के एस पुट्टास्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट पिटीशन दायर की है. इस पिटीशन पर देश के सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कई जजों ने सहमति दिखाई है. सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि देश के किस क़ानून के आधार पर लोगों के बायोमैट्रिक्स को एकत्र किया जा रहा है? देश में मौजूद सारे क़ानून खंगालने के बाद पता चलता है कि ऐसा क़ानून स़िर्फ जेल मैन्युअल में है. यह स़िर्फ ़कैदियों का लिया जा सकता है और इसमें भी एक शर्त है कि जिस दिन वह ़कैदी रिहा होगा, उसके बायोमैट्रिक्स से जुड़ी फाइलें जला दी जाएंगी, लेकिन इस योजना के तहत सरकार लोगों की सारी जानकारियां एकत्र कर रही है और विदेश भेजने पर तुली है. सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दे दिया है कि प्राधिकरण लोगों के बायोमैट्रिक डाटा किसी को नहीं दे सकता है. यह जनता की अमानत है और इसे दूसरी एजेंसियों के साथ शेयर करना मौलिक अधिकारों का हनन है.
अब यहां एक टेक्निकल सवाल उठता है. प्राधिकरण ने तो लोगों की सारी बायोमैट्रिक जानकारियां स़िर्फ शेयर नहीं की हैं, बल्कि उन्हें विदेशी कंपनियों के सुपुर्द कर दिया है. यही आधार कार्ड के काम करने का तरीका है. जितनी भी बायोमैट्रिक जानकारियां हैं, उनकी देखरेख और ऑपरेशन उन कंपनियों के हाथों में है, जिनका रिश्ता ऐसे देशों से है, जो जासूसी कराने के लिए कुख्यात हैं और उन कंपनियों के हाथों में है, जिन्हें विदेशी खुफिया एजेंसियों के रिटायर्ड अधिकारी चलाते हैं. इसका क्या मतलब है? क्या हम जानबूझ कर अमेरिका और विदेशी एजेंसियों के हाथों अपने देश को ख़तरे में डाल रहे हैं? हाल के दिनों में एक खुलासा हुआ था कि अमेरिका की सुरक्षा एजेंसी एनएसए जिन देशों के इंटरनेट और फोन रिकॉर्ड इकट्ठा कर रही है, उनमें पहला नंबर भारत का है. भारत का टेलीफोन और इंटरनेट डाटा इकट्ठा करने के लिए एनएसए ने अपने दो कार्यक्रमों का सहारा लिया है. मजेदार बात यह है कि अमेरिकी सरकार के खुफिया निदेशालय ने भी एक तरह से जासूसी कराने के आरोपों को स्वीकार किया था. निदेशालय ने कहा था कि वह सार्वजनिक तौर पर इस बात का जवाब नहीं देना चाहता, क्योंकि यह उसकी खुफिया नीति का ही एक हिस्सा है. कांग्रेस सरकार को अमेरिका के इस दुस्साहस, ऐसी निगरानी और जासूसी के ख़िलाफ़ कड़ा विरोध जताना चाहिए था, लेकिन हुआ ठीक उल्टा. विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद विरोध करने की बजाय अमेरिकी हरकत को सही ठहराने के लिए उल्टी-पुल्टी दलीलें देने लग गए. सलमान खुर्शीद ने कहा कि यह जासूसी नहीं है, यह तो महज कंप्यूटर अध्ययन और कॉलों के पैटर्न का विश्लेषण है. अगर यह जासूसी नहीं है, तो सलमान खुर्शीद को बताना चाहिए कि जासूसी क्या होती है?
वैसे अमेरिका के जासूसी प्रकरण पर उसकी नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (एनएसए) के साथ काम करने वाले एडवर्ड स्नोडेन ने हाल में कई खुलासे किए. उन्होंने बताया कि आज के इन्फारमेंशन वारफेयर में भारत कई देशों के निशाने पर है. इसलिए भारत के योजना आयोग ने एर्नेस्ट एंड यंग, साफ्रान ग्रुप, एसेन्चर, इन-क्यू-टेल एवं मोंगो डीबी जैसी कंपनियों से करार करके देश की सुरक्षा और लोगों के मौलिक अधिकारों के साथ मजाक किया है. ये कंपनियां उन देशों की हैं, जिनका गठजोड़ पूरी दुनिया पर निगरानी के लिए नेटवर्क तैयार कर रहा है. स्नोडेन ने ही अमेरिकी और ब्रिटिश जासूसी कार्यक्रम का सनसनीखेज ब्योरा मीडिया को लीक किया था. अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी एनएसए द्वारा संचालित एक्स की स्कोर जासूसी कार्यक्रम 2008 की एक प्रशिक्षण सामग्री में वह नक्शा भी शामिल था, जिसमें दुनिया भर में लगे सर्वर का ब्योरा था. उस नक्शे के मुताबिक, उनमें से एक अमेरिकी जासूसी सर्वर भारत की राजधानी नई दिल्ली के किसी समीपवर्ती इलाके में लगा हुआ प्रतीत होता है. समझने वाली बात यह है कि जिन कंपनियों को यूआईडी ने हमारी जानकारियां सुपुर्द की हैं, वे वही कंपनियां हैं, जो दुनिया भर में निगरानी प्रणाली स्थापित करने में माहिर मानी जाती हैं.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद और भारत की आज़ादी से पहले एक नेटवर्क विकसित हुआ था. इसके गठन का एकमात्र उद्देश्य दूसरे देशों की निगरानी करना था. इसमें अमेरिका की नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी, इंग्लैंड के गवर्नमेंट कम्युनिकेशन हेडक्वाटर्स, कनाडा की कम्युनिकेशन सिक्योरिटी इस्टैब्लिशमेंट, ऑस्ट्रेलिया का सिग्नल डायरेक्टोरेट और न्यूजीलैंड का गवर्नमेंट कम्युनिकेशन सिक्योरिटी ब्यूरो आदि शामिल हैं. अब इस गुट में कई और देश भी शामिल हो चुके हैं. ऐसे माहौल में भारत को स्वयं को सुरक्षित करने के लिए क़दम उठाने चाहिए, लेकिन हम बिल्कुल उल्टे ़फैसले लेते हैं. ऐसी क्या वजह है कि सरकार देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने पर आमादा है? जबकि संसदीय कमेटी ने भी इसका विरोध किया है. यशवंत सिन्हा की अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति ने विशिष्ट पहचान अंक जैसे ख़ुफ़िया उपकरणों द्वारा नागरिकों पर सतत नज़र रखने और उनके जैवमापक रिकॉर्ड तैयार करने पर आधारित तकनीकी शासन की पुरजोर मुखालफत की और इसे बंद करने का सुझाव दिया. फिर भी सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. सवाल तो यह पूछा जाना चाहिए कि क्या अब तक एकत्र किए गए बायोमैट्रिक डाटा को प्राधिकरण ने किसी विदेशी कंपनी के साथ शेयर किया है या दिया है? अगर ये जानकारियां विदेशी एजेंसियों के हाथ लग चुकी हैं, तो इसका मतलब यह है कि हम उनकी निगरानी में आ चुके हैं और दूसरा यह कि सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का कोई मतलब नहीं है, जिसमें उसने कहा कि ये जानकारियां किसी के साथ शेयर नहीं की जा सकती हैं.
समझने वाली बात यह है कि ये कंपनियां कई देशों में सक्रिय हैं. इनके पास वे तमाम तकनीक उपलब्ध हैं, जिससे ये किसी भी देश की इंटरनेट कंपनियों के डाटा एकत्र कर सकती हैं, सर्वर हैक कर सकती हैं, फोन सुन सकती हैं. इन कंपनियों की पहुंच कई देशों में है और ये किस तरह और किस स्तर पर काम कर सकती हैं, इसी का खुलासा स्नोडेन ने किया था. विदेशी एजेंसियों की कारगुजारी और आधार कार्ड योजना की गड़बड़ियां एक ख़तरे को जन्म देती हैं. उम्मीद यही करना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट में 28 अप्रैल, 2014 को जब अगली सुनवाई होगी, तो अदालत इन ख़तरों पर भी ध्यान देगी.
समझने वाली बात यह है कि देश में एक विशिष्ट पहचान पत्र के लिए विप्रो नामक कंपनी ने एक दस्तावेज तैयार किया, इसे योजना आयोग के पास जमा किया गया. इस दस्तावेज का नाम है स्ट्रेटिजिक विजन ऑन द यूआईडीएआई प्रोजेक्ट. मतलब यह कि यूआईडी की सारी दलीलें, योजना और उसका दर्शन इस दस्तावेज में है. बताया जाता है कि यह दस्तावेज अब गायब हो गया है. विप्रो ने यूआईडी की ज़रूरत को लेकर 15 पेजों का एक और दस्तावेज तैयार किया, जिसका शीर्षक है, डज इंडिया नीड ए यूनिक आइडेंटिटी नंबर. इस दस्तावेज में यूआईडी की ज़रूरत को समझाने के लिए विप्रो ने ब्रिटेन का उदाहरण दिया. इस प्रोजेक्ट को इसी दलील पर हरी झंडी दी गई थी. हैरानी की बात यह है कि ब्रिटेन की सरकार ने अपनी योजना बंद कर दी. वहां जो जांच हुई, उससे यही साबित हुआ कि यह कार्ड ख़तरनाक है, इससे नागरिकों की
प्राइवेसी का हनन होगा और आम जनता जासूसी की शिकार हो सकती है. अब सवाल यह उठता है कि जब इस योजना की पृष्ठभूमि ही आधारहीन और दर्शनविहीन हो गई, तो फिर सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि वह इसे लागू करने के लिए सारे नियम-क़ानूनों और विरोधों को दरकिनार करने पर आमादा है? जिस तरह फाइल गायब हुई, उसी तरह अब नंदन नीलेकणी भी गायब हो गए हैं. वह अब राजनेता बन गए हैं, ताकि आगे जब इस घोटाले के बारे में बहस हो, तो पूरा मामला राजनीतिक हो जाए. अगर नई सरकार आती है, तो उसे यूआईडी पर पुनर्विचार करना होगा. सुप्रीम कोर्ट के ़फैसले के अनुसार सभी एकत्र बायोमैट्रिक जानकारियां सुरक्षित करनी पड़ेंगी. विदेशी कंपनियों के साथ कौन-कौन से खुफिया करार किए गए, उन्हें जनता को बताना पड़ेगा. कितना पैसा बर्बाद हुआ, यह भी जनता को पता चलना चाहिए और उसे वापस लाने के लिए कार्रवाई होनी चाहिए, ताकि भविष्य में कोई निजी कंपनी का मालिक और मीडिया द्वारा बनाया गया महापुरुष देश की जनता और सरकार को मूर्ख न बना सके.