अरुण जेटली ऐसा क्यों कर रहे हैं?

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प्रधानमंत्री के  लिए भाजपा में अलग-अलग नाम के  उछलने पर ज़्यादातर नेता सकते में हैं. वैसे उनका मानना है कि आडवाणी के  ख़िला़फ इस साजिश को पार्टी में सिर्फ एक ही आदमी अंजाम दे सकता है. वह हैं-अरुण  जेटली. वह भाजपा के  प्रमुख राणनीतिकार हैं. चुनाव प्रचार के  कमांडर इन चीफ हैं. आडवाणी उन पर भरोसा करते आए हैं, लेकिन अरुण जेटली इस बार चुनाव परिणाम के  आने के  बाद खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं.

arun-jethli-aisa-kyonचुनाव के  इस मोड़ पर अगर आज सबसे ज़्यादा कहीं परस्पर असहयोग, अविश्वास और भ्रम की स्थिति है तो वह भाजपा में है. भाजपा के  ही कई लोग मान रहे हैं कि पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी के  ख़िला़फ पार्टी में ही साज़िश रची जा रही है. भाजपा में चल रहे भितरघात का मास्टरमाइंड कौन है ? वह कौन है, जो आडवाणी के  प्रधानमंत्री बनने की राह में कांटे बो रहा है?

पिछले पंद्रह दिनों में मेरी मुलाकात भारतीय जनता पार्टी के  कई बड़े नेताओं से हुई. इन मुलाकातों  से जो बात सामने आई, वह चौंकाने वाली है. नाम सार्वजनिक न करने की शर्त पर इन नेताओं ने बताया कि भाजपा में इस वक्त दो गुट हैं. पहला गुट आडवाणी- जेटली के  नजदीक है, तो दूसरा इनका विरोधी. पहला  गुट चुनाव प्रचार में हिस्सा ले रहा है और वही यही मानकर  चल रहा है कि भाजपा के  नेतृत्व में ही अगली सरकार बनेगी.  लेकिन  भाजपा के दूसरे धड़े को लगता है कि पार्टी कुछ लोगों की निजी संपत्ति में बदल गई है और पार्टी को उसी अंदाज़ में चलाया जा रहा है.

प्रधानमंत्री के  लिए भाजपा में अलग-अलग नाम के  उछलने पर ज़्यादातर नेता सकते में हैं. वैसे उनका मानना है कि आडवाणी के  ख़िला़फ इस साजिश को पार्टी में सिर्फ एक ही आदमी अंजाम दे सकता है. वह हैं-अरुण  जेटली. वह भाजपा के  प्रमुख राणनीतिकार हैं. चुनाव प्रचार के  कमांडर इन चीफ हैं. आडवाणी उन पर भरोसा करते आए हैं, लेकिन अरुण जेटली इस बार चुनाव परिणाम के  आने के  बाद खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. यही वजह है कि एक ऱणनीति के  तहत मोदी का नाम उछाला जा रहा है, जबकि यह बात भी सबको पता है कि मोदी के  नाम पर किसी भी पार्टी का समर्थन मिलना नामुमकिन है. भाजपा के  कुछ नेताओं ने यह भी बताया कि चुनाव जिताने और आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने के  बहाने जेटली ने पहले खुद को पार्टी में अपरिहार्य बनाया, अब उनकी योजना आडवाणी और मोदी को इसी चुनाव में निपटाने की है. इन दोनों के निपट जाने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इतने दबाव में आ जाएगा कि उसके  पास जेटली को समर्थन देने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं बचेगा. राजनीति में अक्सर यही होता आया है. जिसका नाम आगे किया जाता है, गर्दन उसी की कटती है. देखा गया है कि ऐसे मौके  पर जब भी पद को लेकर दो नामों पर विवाद होता है तो पद किसी तीसरे को मिल जाता है. ऐसा ही कुछ देवीलाल के  साथ हुआ था. पिछली बार प्रणव मुखर्जी के  साथ हुआ. अरुण जेटली मेकियावेली को मानने वाले राजनीतिज्ञ हैं. वह इस तरह की परिस्थितियों को भली-भांति समझते हैं.

भाजपा के  एक बड़े नेता ने तो यहां तक कह दिया कि अरुण जेटली ने खुद को प्रचारित करने के  लिए मीडिया में एक लॉबी भी तैयार कर रखी है. यह लॉबी चुनाव परिणाम के  बाद आडवाणी, नरेंद्र मोदी या किसी और भाजपा नेता के ख़िला़फ मुहिम छेड़ेगी और प्रधानमंत्री पद के लिए जेटली के  समर्थन में माहौल बनाएगी. इस काम के  लिए दो टीवी चैनलों के  प्रमुखों को पटाया गया है. कांग्रेस की भी सहमति अपने पक्ष में करने के  लिए जेटली ने अपने एक मित्र और एक बड़े प्रकाशन समूह की मालकिन के  जरिए कांग्रेस से तार जोड़ लिए हैं. जेटली की इस मित्र से सोनिया गांधी की भी अच्छी मित्रता है. इसके अलावा आडवाणी और नरेंद्र मोदी को रास्ते से हटाने  के  लिए भी अलग-अलग अख़बारों और न्यूज़ चैनलों के  रिपोर्टर उनके  साथ मिलकर काम कर रहे हैं. ये जेटली के  निर्देश का पालन करते हैं. इनको  जेटली ही बताते हैं कि कौन-सी ख़बर कब और कैसे पेश की जानी है. अरुण जेटली का अब तक का राजनीतिक सफर मीडिया के  जरिए ही हुआ है. वह अख़बारों के  कॉलम में लिखकर और बयान देकर, टीवी कैमरे में बाइट देकर ही राजनीति करते आए हैं. उन्हें मीडिया की शक्ति का पूरा ज्ञान है. इसलिए उन्होंने कभी चुनाव लड़ने की बात नहीं सोची, और अब इसी मीडिया की ताक़त का इस्तेमाल प्रधानमंत्री बनने के लिए कर रहे हैं.

भाजपा के नेता बताते हैं कि जेटली ने पहले पार्टी को अपने कब्जे में किया और अपने विरोधियों पर हमले शुरू कर दिए हैं. वह पार्टी के अंदर उन आवाज़ों को ख़त्म कर देना चाहते हैं जो उनके  ख़िला़फ बुलंद हो सकती है. अरुण जेटली ने सुषमा स्वराज,  रविशंकर प्रसाद और सुधांशु मित्तल जैसे नेताओं को पार्टी से बाहर करने का पूरा प्लान तैयार कर लिया है. उनके  निशाने पर राजीव प्रताप रूडी भी हैं, जिन्हें अटल बिहारी वाजपेयी बेटे की तरह मानते हैं. जेटली ने अपना पहला निशाना भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह पर लगाया था, लेकिन उनकी किस्मत अच्छी थी. लोकसभा चुनाव के  लिए उम्मीदवारों का चयन होना था, इसलिए राजनाथ सिंह बच गए. लेकिन चुनाव के  बाद जेटली के  हमले से दूसरे नेता कैसे बच पाएंगे और अगला नंबर किसका आने वाला है, यही बात भाजपा के  नेताओं को परेशान कर रही है.

भाजपा  के  इन वरिष्ठ नेताओं ने यह भी बताया कि उन्हें इस बात की पूरी आशंका है कि बीजू जनता दल के  भाजपा के  साथ गठबंधन ख़त्म होने के  पीछे भी अरुण जेटली हैं. उनका तर्क है कि वैसे तो पार्टी के  हर बड़े फैसले पर  जेटली बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं, लेकिन जब नवीन पटनायक से बातचीत शुरू हुई तो उन्होंने ख़ुद को इस काम से अलग कर लिया और पूरी ज़िम्मेदारी एक पत्रकार के  हाथों में दे दी. किसी भी पार्टी के  साथ गठजोड़ करने से पहले यह तय करना ज़रूरी होता है कि गठबंधन कैसा होगा, सीटों का बंटवारा कैसे  होगा, गठबंधन का स्वरूप उड़ीसा के  विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में कैसा होगा,  बीजेडी की शर्त और मांगें क्या-क्या हैं आदि-आदि. किसी भी पार्टी के  साथ गठबंधन करने के  लिए राजनीतिक अनुभव की ज़रूरत होती है.  भाजपा में अनुभवी नेताओं की कमी नहीं है, इसके  बावजूद वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर एक पत्रकार को भुवनेश्वर भेजने से भाजपा के  कई लोग नाराज़ हो गए. बीजेडी के  साथ जब गठबंधन नहीं हो सका, तो भाजपा के  कई नेता ये प्रश्न उठाने लगे हैं कि गठबंधन टूटने की जिम्मेदारी किसकी है ?

पार्टी के  कई नेता इतने नाराज़ नजर आए कि जेटली का नाम सुनते ही उनके कच्चे-चिट्‌ठे खोलने लगे. इनकी नाराज़गी की वजह यह है कि जेटली सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं और भाजपा के  नेता भी हैं. कई बार अदालत में उनकी दलील ऐसी होती है, जो पार्टी लाइन के विपरीत होती है. इनका आरोप है कि जेटली ने कई ऐसे मुकदमे लड़े हैं जिनमें वह भाजपा और संघ की विचारधारा के विपरीत खड़े नजर आते हैं. वैसे इस बात पर अरुण जेटली कई बार सफाई दे चुके  हैं कि उनकी व्यावसायिकता और राजनीति अलग-अलग है. वह कहते हैं कि कोर्ट में वह भाजपा के  नेता नहीं, एक वकील होते हैं. जेटली से नाराज़ भाजपा के नेताओं का मानना है कि यह एक विरोधाभास है, इससे साबित होता है कि जेटली का संघ और पार्टी की विचारधारा में विश्वास नहीं है.

यह भी एक रहस्य है कि मुरली मरनोहर जोशी को बनारस के  बाहर चुनाव प्रचार में क्यों नहीं लगाया गया. मुरली मनोहर जोशी पार्टी में आडवाणी के समकक्ष हैं. पार्टी अध्यक्ष रह चुके हैं. एनडीए की सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे हैं. वह पार्टी और संघ के  एजेंडों को लागू करने में अव्वल थे. कम से कम लखनऊ तो उन्हें प्रचार के  लिए भेजा गया होता. लखनऊ में डेढ़ लाख के आसपास कुमाऊंनी हैं जो मुरली मनोहर जोशी के  समर्थक  हैं. ऐसे में दो तरह की बातें समझ में आती हैं. हो सकता है कि पार्टी के  कुछ लोग यह चाहते हों कि लालजी टंडन हार जाएं या फिर मुरली मनोहर जोशी के  राष्ट्रीय स्तर पर फिर से उभरने के  दरवाजे बंद करने का प्रयास किया गया हो.

भाजपा में अभी भी ऐसे कुछ नेता हैं, जो ऊपरी तौर पर पार्टी में एकता में  विश्वास रखते हैं और पार्टी के अंदर चल रही बड़ी साजिश से इनकार करते हैं. लेकिन जब चुनाव के  बाद पैदा होने वाली स्थितियों के  बारे सोचते हैं तो उनका भी मन भारी हो जाता है.

अगर यह बात सही है कि युद्ध और राजनीति में सब कुछ जायज़ है तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि प्रधानमंत्री बनने के लिए कौन क्या कर रहा है. भाजपा में प्रधानमंत्री के  पद को लेकर युद्ध चल रहा है. राजनीति के अखाड़े में सारे दिग्गज अपना दांव खेल रहे हैं और यह भी तय है कि एक हारेगा,  तभी दूसरा जीतेगा.

 

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