आने वाला आम चुनाव यानी पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव भारतीय लोकतंत्र का भविष्य लिखेगा. देश के नौजवान , किसान, दलित और अल्पसंख्यकों की यह जिम्मेदारी है कि वे सही लोगों को संसद के लिए चुनें. ऐसे लोगों को न चुनें, जिनका विश्वास भारतीय संविधान, देश की एकता और मानवीय मूल्यों में नहीं है. अगर आप इस बार नहीं चेते, तो आपको अगली लोकसभा के लिए वोट देने का अवसर नहीं मिल सकेगा. मिलेगा तो नौजवानों और आम जनता को अंधेरा भविष्य. ऐसी लोकसभा मत चुनिए, जो लोकतंत्र के भविष्य को काली स्याही से लिखने का काम करे.
हम ख़तरे में हैं और विडंबना है कि हमें ख़तरे का पता भी नहीं है. जिन पर ख़तरे की चेतावनी देने की जिम्मेवारी है, वे खुद ख़तरा पैदा करने वालों में बदल चुके हैं. 2009 का संसद का चुनाव देश का भाग्य तय करेगा और साथ ही तय करेगा कि सोलहवीं लोकसभा के लिए कभी चुनाव होगा भी या नहीं. यह चुनाव ऐसे समय में हो रहा है, जब पूरे दक्षिण एशिया में प्रजातंत्र पर ख़तरा मंडरा रहा है. हम क्यों समझ नहीं पा रहे हैं कि भारत में भी पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसी परिस्थितियां मौजूद हैं. हम देश के नौजवानों से कहना चाहते हैं कि आनेवाला लोकसभा का आम चुनाव सिर्फ भारत के लिए नहीं, पूरे दक्षिण एशिया में प्रजातंत्र को बचाने का आख़िरी मौक़ा है, तथा यह भी कि क्या प्रजातंत्र दक्षिण एशियाई देशों के लिए प्रासंगिक है भी या नहीं. पिछली कई लोकसभाओं के सदस्य रहे सांसदों ने पैसे लेकर संसद में सवाल पूछे, रिश्वत ली, संसद की कार्यवाही में हिस्सा नहीं लिया और लिया भी तो मूर्खतापूर्ण हंगामा किया. जनता के दर्द और तक़ली़फ का एक प्रतिशत हिस्सा भी संसद को प्रभावित नहीं कर पाया. हालत यह बना दी गई है कि देश के लगभग डेढ़ सौ से ज़्यादा ज़िले सरकार की पहुंच से बाहर चले गए हैं. नब्बे फीसदी लोग सरकार की नीतियों से पैदा होने वाले फायदे से बाहर हैं. आर्थिक मंदी की मार है, बेरोज़गारी चरम सीमा पर है, किसानों की आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं. जंगल ख़त्म हो रहे हैं, पर्यावरण ख़तरे में है. अगर इसबार समझदार और जनता के दुख-दर्द को समझने वाले लोग लोकसभा में जगह नहीं बना सके, तो देश की एकता और अखंडता ख़तरे में आ जाएगी और प्रजातंत्र पर सवालिया निशान लग जाएगा. हम चेतावनी देते हैं और सलाह भी कि ऐसे सांसदों को मत चुनिए, जिनकी अज्ञानता देश के भविष्य पर सवाल खड़े कर दे.
भारत में भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है. लोग अब यह सोचने लगे हैं कि क्या सचमुच सरकारी तंत्र उनके किसी काम का है भी या नहीं. इसकी वजह भी साफ है. सरकार की योजनाएं आम लोगों के काम में नहीं आती हैं. जो भी नीति बनती है, उसका फायदा केवल दस फीसदी लोगों को होता है. आम जनता को सरकारी कामकाज से फायदा नहीं मिल रहा है. अगर सौ करोड़ की जनसंख्या में नब्बे करोड़ लोग सरकारी योजनाओं का फायदा नहीं उठा पा रहे हैं, तो उनका सोचना भी सही है. ऐसा लगता है कि प्रजातंत्र की आड़ में सरकारें जो योजनाएं बनाती हैं, वे सिर्फ पांच फीसदी के लिए होता है. जिनके पास सब कुछ है, सारा फायदा उन्हीं पांच फीसदी लोगों तक पहुंचता है. बा़क़ी पांच फीसदी लोग इन योजनाओं की परिधि से जुड़े होते हैं, जिन्हें थोड़ा-बहुत फायदा होता है. लोकसभा प्रजातंत्र का चेहरा है. अगर लोकसभा की तस्वीर ही बिगड़ रही है, तो प्रजातंत्र का नुकसान तो होगा ही. अगर लोकसभा से लोगों का विश्वास उठ रहा है, तो इसका मतलब यही है कि देश में प्रजातंत्र पर ख़तरा मंडरा रहा है.
क्या आपके सांसदों ने अपने क्षेत्र की उन्नति के लिए लोकसभा में कोई आवाज़ उठाई? क्या उसने क्षेत्र के किसानों और और मज़दूरों के विकास के लिए कोई बहस की? क्या अपने क्षेत्र में किसी उद्योग या व्यापार की शुरुआत के लिए सरकार से मदद मांगी? क्या उन्होंने स्वास्थ्य, साफ पानी, बिजली और सड़क के लिए पैसे की मांग की? आंकड़े बताते हैं कि चौदहवीं लोकसभा के एक तिहाई सांसद ऐसे रहे, जिन्होंने पूरे कार्यकाल के दौरान अपने क्षेत्र के बारे में एक भी सवाल नहीं उठाया. लोकसभा की कार्यवाही के नियम 377 के तहत सांसदों को अपने इलाके की समस्याओं पर सवाल पूछने का अधिकार है, लेकिन चौदहवीं लोकसभा में 166 सांसद ऐसे रहे, जिन्होंने जनता से जुड़े सवालों को एक बार भी नहीं उठाया. ऐसे सांसदों को लोकसभा भेजने का क्या फायदा है, जिनके पास जनता की समस्याओं को सरकार के सामने लाने की फुर्सत ही नहीं है. अब फिर से यही लोग चुनाव के मैदान में हैं. अगर वह वोट मांगने आएं, तो यह सवाल ज़रूर पूछें कि पिछले पांच सालों में लोकसभा जाकर उन्होंने क्या किया.
देश की प्रजातांत्रिक प्रक्रिया में ऐसे लोग, ऐसे दल और ऐसी संस्थाएं घुस चुकी हैं, जिन्हें प्रजातंत्र पर भरोसा ही नहीं है. हमारे देश में लोकसभा चुनावों को हाईजैक करने की कोशिश हो रही है. अगर किसी के पास पैसा है, तो वह किसी भी राजनीतिक दल को अपना गुलाम बना सकता है. पैस के दम पर राजनीतिक दलों के टिकट मिलते हैं. चुनाव का खर्च इतना बढ़ चुका है कि राजनीतिक दल किसी से भी पैसा लेने को तैयार हैं. इन दलों को इससे कोई मतलब नहीं कि पैसे देने वाला कौन है, पैसा कहां से आ रहा है? राजनीतिक दलों को पैसे देने के पीछे की मानसिकता क्या है और उसका लक्ष्य क्या है? यही वजह है कि कुछ साल पहले भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण पैसे लेते हुए टीवी के पर्दे पर पकड़े गए. अगर देश में प्रजातंत्र को बचाना है, तो ऐसे सांसदों को चुनें, जो कम से कम अपने गुंडों के साथ चौराहों पर सरकारी अ़फसरों की पिटाई और हत्या करते न नज़र आएं. जो जनता के सवालों के लिए रिश्वत की मांग न करें. कम से कम. पैसे और लाठी की ताक़त का ज़ोर हमारे चुनाव पर इतना ज़्यादा है कि राजनीतिक दल ग़लत लोगों को टिकट देते हुए शर्मिंदा भी महसूस नहीं करते. दस फीसदी सासंदों ने चौदहवीं लोकसभा की कार्यवाही में हिस्सा नहीं लिया, उन्होंने न तो कोई सवाल पूछे और न ही किसी विषय पर अपनी राय दी. हो सकता है कि देश से जुड़े विषयों पर उनकी कोई राय ही न हो, या वे अपने क्षेत्र की समस्याओं के बारे में जानते ही न हों. सवाल पूछना तो दूर, ज़्यादातर सांसद ऐसे हैं, जो सरकार द्वारा दी गई दो करोड़ की सालाना रकम को भी पूरी तरह खर्च नहीं करते. हम जिन्हें चुनते हैं, क्या वे अपने ही चुनाव घोषणा-पत्र को पढ़ पाते हैं. अमल करने की बात तो दूर. वे कम से कम उसे एक बार पढ़ तो लेते.
हम देश के नौजवानों से साफ कहना चाहते हैं कि आप नहीं चेते, तो आनेवाले पांच वर्षों में बढ़ती बेरोज़गारी देश में लूट और अपराध को एक प्रमुख उद्योग में बदल देगी. राजनीतिक दल आपको भावनात्मक सवालों पर, सांप्रदायिक सवालों पर इस्तेमाल करेंगे और देश दंगों की अंतहीन कड़ियां देखेगा. लड़ेंगे आप, पर राज करेगा कोई अपराधी, जो जाति के ताक़तवर इंसान का जामा पहने होगा. आपके मां-बाप आपकी सलामती की चिंता में रोज़ मरेंगे, आपका छोटा भाई भी आपके रास्ते चल पड़ा, तो या तो आपको मरना पड़ेगा या आपके भाई को, क्योंकि इस रास्ते पर गोलियों से एक को तो मरना है ही.
जिनके सामने अच्छे भविष्य का रास्ता बंद हो गया है, उनमें मुसलमान, दलित, किसान और सवर्ण ग़रीबों के नौजवान शामिल हैं. अगर इन वर्गों के युवकों की समझ में नहीं आया कि उनकी भावनाओं का इस्तेमाल कर उन्हें ही तबाह करने की साज़िश हो रही है, तो देश को अराजकता की आंधी से कोई भी नहीं बचा सकता. आज किसान आत्महत्या कर रहा है, पर कल वह सोच सकता है कि आत्महत्या करने से पहले क्यों नहीं ज़िम्मेदार अधिकारियों में से कुछ की हत्या कर दे? जिन्हें देश के विकास में कोई हिस्सा नहीं मिल रहा है, वे निराशा में ऐसा ही कदम उठाएंगे. इन सबके पीछे हमारी संसद का काला चेहरा है, जो बनी तो देश का भविष्य संवारने के लिए है, पर लगातार देश का भविष्य बिगाड़ती जा रही है. इस बार किसानों के लिए मरने-जीने का सवाल है. हर प्रदेश में किसानों की हालत ख़राब है. वे आत्महत्या के लिए मजबूर हैं. सरकार की नीतियों की वजह से खेती करने का तरीक़ा बदल गया है. कृत्रिम खाद और बीज की वजह से उपजाऊ मिट्टी बंजर बन चुकी है. पानी का निजीकरण हो रहा है. उद्योग और विकास के नाम पर उनकी उपजाऊ ज़मीन छीन ली जा रही है. उनकी समस्याएं इतनी विकराल हैं कि लगता है किसानों को चारों तरफ से घेर कर मारने की साज़िश हो रही है. अगर इस बार लोकसभा में ऐसे सांसद चुन कर नहीं आए, जो किसानों की समस्याओं को लेकर लड़ें, तो किसान बंदूक उठाने को मजबूर हो जाएंगे. सत्ता का आनंद उठानेवाले समाज ने अगर इस बार किसानों की मजबूरी पर ध्यान नहीं दिया, तो भारत के गांव सरकार की पहुंच से बाहर हो जाएंगे. दुख की बात यह है कि कोई भी राजनीतिक दल किसानों के दुख-दर्द को बांटनेवाला नहीं है. जिस भी पार्टी की सरकार आती है, वह पिछली सरकार से अधिक निष्ठुर साबित होती है. किसान तो यह समझने लगे हैं कि सरकार प्रॉपर्टी डीलर बन चुकी है.
उनका काम बस किसानों की ज़मीन हड़पना ही रह गया है. हमारी आपसे अपील है कि ऐसे लोगों को मत चुन कर भेजिए, जो किसानों के मसले पर चुप कर जाएं. चुनाव में पैसे का बोलबाला बढ़ा है. बंदूक और लाठी के बल पर चुनाव जीतने का सिलसिला चल पड़ा है. चुनाव जीतना ही राजनीतिक दलों का अकेला मक़सद बन गया है. चुनावों में बूथ लूटना और कमज़ोर तबक़े के लोगों को पोलिंग बूथ से भगा देने की प्रथा चल पड़ी है. जो अपराधी पहले बूथ लूटते थे, खुद चुनाव के मैदान में उतर गए. राजनीति का अपराधीकरण पूरा हो गया. राजनीतिक दलों ने भी इन अपराधियों के सामने घुटने टेक दिए. चौदहवीं लोकसभा के चुनाव में कुल 533 ऐसे उम्मीदवार थे, जिन पर गंभीर आपराधिक मामले थे. लोकसभा की कुल सीटें 545 हैं. अगर सब जीत गए होते, तो ज़रा सोचिए क्या होता? शुक्र है कि इनमें से केवल 133 ही चुनाव जीत कर हमारे माननीय सांसद बने. चुनाव में पैसे का बोलबाला इसलिए है कि राजनीतिक दल ही इसे बढ़ावा देते हैं. देश में किसी भी पार्टी के फंड का ऑडिट नहीं होता. ये पैसा कहां से लाते हैं, इन्हें पैसे कौन देता है, क्यों देता है, इस पर अभी कई खुलासे होने बाक़ी हैं.
अगर देश के लोग, विशेषकर नौजवान नहीं चेते, तो हमें दंगों, आतंकवादी घटनाओं, हत्याओं और गृहयुद्ध जैसी स्थितियों के लिए तैयार रहना चाहिए. इसलिए ऐसी संसद मत चुनिए जो आम लोगों के लिए नहीं, खास लोगों के हितों की पैरोकारी करे, जो ऐसी योजनाएं बनाए जिससे विकास नहीं, विनाश निकले, जो देश की आज़ादी मज़बूत करने की जगह गुलामी में जकड़े और जिसे देश की बुनियादी समस्याओं की समझ ही न हो. हम आपको सिर्फ आगाह कर सकते हैं, सलाह दे सकते हैं कि लोकसभा चुनाव काफी महत्वपूर्ण हैं. अगर इस बार भी ग़लत लोग लोकसभा में पहुंच गए, तो इतनी देर हो जाएगी कि आनेवाली पीढ़ियों को सिवाय काले भविष्य के और कुछ न मिले.