एक वरिष्ठ मंत्री ने निजी तौर पर बताया कि यह मामला गंभीर राजनीतिक परिणाम ला सकता है. कुछ मंत्रियों ने खुद को ग़ैर संवैधानिक अथॉरिटीज वाले कॉकस के आगे बेबस बताया. समझने वाली बात यह है कि हाल के दिनों में जितने भी घोटाले और षड्यंत्र देखने को मिले हैं, उन सब में इसी ग़ैर संवैधानिक अथॉरिटीज वाले कॉकस का प्रभाव रहा है. सरकार ने शुरू में धमकी देकर काम निकालने की सोची. जब ऐसा नहीं हुआ, तब लालच दिखाया. कई दूतों को भेजकर जनरल को यह संदेश दिलवाया कि रिटायरमेंट के बाद उन्हें अन्य सुविधाएं दी जाएंगी. जब इससे भी सरकार जनरल को नहीं खरीद पाई, तब कुछ मध्यस्थों के सहारे समझौता कराने की कोशिश की गई, लेकिन बीच-बीच में मीडिया ने इस मामले में कुछ ऐसे पर्दा़फाश किए, जिनसे सरकार की मुश्किलें बढ़ गईं.
सुप्रीम कोर्ट के बाहर मीडिया का हुजूम और अंदर खचाखच भरी अदालत में भारत के इतिहास के एक अजीबोग़रीब मामले की सुनवाई हुई. यह मामला थल सेनाध्यक्ष की जन्मतिथि का है. एक तऱफ भारत सरकार और दूसरी तऱफ एक ईमानदार सेनाध्यक्ष, जिसे एक साज़िश के तहत ज़लील करने की कोशिश की गई. बीती 3 फरवरी को जब सुनवाई शुरू हुई तो थोड़ी ही देर में जजों के सवालों से सरकार की ऐसी किरकिरी हुई कि सरकारी वकील को कोर्ट से व़क्त मांगना पड़ा. थल सेनाध्यक्ष वी के सिंह की जन्मतिथि के मामले में सरकार को करारा झटका लगा है. इस मामले में चौथी दुनिया ने सबसे पहले सरकार की करतूतों के सबूत पेश किए थे. पिछले कई महीनों से चौथी दुनिया ने इसके अलग-अलग पहलुओं को आपके सामने रखा. चौथी दुनिया इस मामले से जुड़े षड्यंत्र, घोटाले, भ्रष्टाचार, उत्तराधिकारी चयन और हथियारों की खरीद-बिक्री का पर्दा़फाश कर चुका है. सुप्रीम कोर्ट ने जो सवाल उठाए, उनका खुलासा चौथी दुनिया में पहले ही हो चुका है. सच्चाई यह है कि सारे सबूत और दस्तावेज़ बताते हैं कि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि स़िर्फ 10 मई, 1951 है.
सुनवाई के दौरान ऐसे कई सवाल उठे, जिनका जवाब सरकार ईमानदारी से नहीं दे सकती. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की उस प्रक्रिया पर ही सवाल उठा दिया, जिसके ज़रिए रक्षा मंत्रालय ने यह तय किया था कि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1950 है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार इस मामले में नेचुरल जस्टिस और क़ानून के सिद्धांतों के ख़िला़फ है. अदालत ने यहां तक कह दिया कि सरकार ने जनरल वी के सिंह के मामले में जिस तरीक़े से उनकी वैधानिक शिकायत को खारिज किया, वह दुर्भावना से ग्रस्त लगता है. रक्षा मंत्री ए के एंटनी ने बीते 30 दिसंबर को एक आदेश जारी किया था, जिसमें जनरल सिंह की उस वैधानिक शिकायत को खारिज कर दिया गया था, जिसमें कहा गया था कि सेना के रिकॉर्ड में उनकी जन्मतिथि 10 मई, 1950 नहीं, बल्कि 10 मई, 1951 है. न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा एवं न्यायमूर्ति एच एल गोखले की पीठ ने सरकार से कई सवाल पूछे. कोर्ट का मानना था कि रक्षा मंत्रालय का 21 जुलाई, 2011 का वह आदेश अटॉर्नी जनरल की राय पर आधारित था, जिसमें जन्मतिथि 10 मई, 1950 मानी गई थी. कोर्ट ने पूछा कि क्या सरकार 30 दिसंबर का अपना आदेश वापस लेना चाहेगी. अटॉर्नी जनरल जी ई वाहनवती ने कहा कि वह इस मुद्दे पर सरकार के निर्देश प्राप्त करेंगे. सरकार की निर्णय लेने की प्रक्रिया पर प्रश्न खड़ा करते हुए कोर्ट ने कहा कि जितनी चिंता निर्णय को लेकर नहीं है, उतनी निर्णय लेने की प्रक्रिया को लेकर है, जो कि दुर्भावना से ग्रस्त है, क्योंकि 21 जुलाई का आदेश अटॉर्नी जनरल की राय पर विचार करके दिया गया और जब 30 दिसंबर को सेनाध्यक्ष की ओर से दी गई वैधानिक शिकायत पर निर्णय किया गया, तब भी अटॉर्नी जनरल की राय पर विचार विमर्श किया गया. कोर्ट ने सवाल उठाया कि सरकार ने दोनों बार अटॉर्नी जनरल की राय क्यों ली.
जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, तो भारत सरकार ने कहा कि न्यायालय बिना उसका पक्ष जाने कोई फैसला न करे. सरकार के पास जनरल वी के सिंह के खिला़फ प्रमाण ही प्रमाण हैं, लेकिन वे प्रमाण ऐसे हैं, जिन्हें सरकार ने खुद ही बनाया है, उनका कोई क़ानूनी आधार नहीं है. सरकार के पक्ष में कपिल सिब्बल, चिदंबरम, सलमान खुर्शीद एवं अभिषेक मनु सिंघवी हैं, जो सुप्रीम कोर्ट के बड़े वकील हैं और जिनकी राय से भारत सरकार चल रही है. फिर वाहनवती हैं, जो सच को झूठ और झूठ को सच करने की कला में माहिर हैं. यह हम इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि क़ानून मंत्रालय ने अपने ही द्वारा दी गई राय को बिना कोई क़ानूनी आधार बताए बदल दिया. इसके अलावा सरकार के पक्ष में पत्रकारों की एक बड़ी फौज है, जो अपने प्रोफेशन की इज़्ज़त की परवाह किए बिना अ़खबारों में सरकार के पक्ष में रोज़ झूठी कहानियां छाप रही है और टेलीविजन में कुछ ऐसे महान दलाल क़िस्म के संपादक हैं, जो राज्यसभा में राष्ट्रपति द्वारा नॉमिनेट होने की लालसा में सरकार के पक्ष में बेशर्म जुगाली कर रहे हैं. हम भी चाहते हैं कि सरकार का समर्थन करें, लेकिन हमारा ज़मीर कहता है कि हम सच का साथ दें और सच तो पूर्ण रूप से तभी साबित होगा कि जब सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला सुनाएगा. हमारे पास सरकार द्वारा छुपाए हुए तथ्य सामने आए हैं, जिन्हें हम भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सामने जीवित प्रमाण की तरह पूरी ज़िम्मेदारी से रख रहे हैं. रक्षा मंत्रालय 1996 में भी ऐसा ही एक कमाल कर चुका है. उसने झूठ को सच और सच को झूठ उस समय भी बताया था. यह घटना सुप्रीम कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के सुप्रीम कोर्ट यानी आप यानी भारत की जनता के लिए न केवल आंख खोलने वाली है, बल्कि यह बताती है कि पर्दे के पीछे किस तरह का अप्रिय, अभद्र और ग़ैर क़ानूनी काम होता है. एक कर्नल रमेश चंदर जोशी हैं. उन्हें मिलिट्री सेक्रेटरी यानी एमएस ब्रांच से रिटायरमेंट के लिए एक आदेश पत्र मिला. यह पत्र इस आधार पर जारी किया गया था कि उनकी जन्मतिथि 22 सितंबर, 1944 दर्ज है. हालांकि एडजूटेंट ब्रांच में स्पष्ट रूप से उनकी जन्मतिथि 25 नवंबर, 1945 दर्ज थी. कर्नल जोशी ने इस बारे में एमएस ब्रांच को पत्र भेजकर संपर्क किया, लेकिन उनके पत्र का कोई जवाब नहीं आया. आदेश के मुताबिक़ कर्नल जोशी को 30 सितंबर, 1996 को रिटायर होना था. जब उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा, तब उन्होंने आर्मी चीफ से सीधे संपर्क किया. उसके बाद जल्द ही उन्हें एक संदेश आया. हेडक्वार्टर से आए इस संदेश में पहले भेजे गई पत्र के आदेश को निरस्त करने की बात थी. साथ ही कहा गया था कि उनकी जन्मतिथि अब 25 नवंबर, 1945 मान ली गई है और वह अगले आदेश तक अपनी सेवा जारी रखें. इसी तरह का केस जनरल सिंह का भी है. उनके यूपीएससी फॉर्म में जन्मतिथि ग़लत भरी गई थी, जिसे बाद में यूपीएससी द्वारा और फिर नेशनल डिफेंस अकादमी द्वारा सुधार लिया गया था. कर्नल जोशी इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि जब उनके केस में सुधार हो गया, तब जनरल सिंह के केस में क्यों नहीं हो रहा है.
रक्षा मंत्रालय ने सेना की एजी ब्रांच को यह निर्देश दिया है कि हर दस्तावेज़ों में जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1950 कर दी जाए. साथ ही पत्र में आदेश के अनुपालन की रिपोर्ट मंत्रालय को भेजने के लिए कहा गया है. सेना प्रमुख के दावे को ठुकराते हुए रक्षा मंत्रालय ने 21 जुलाई के अपने पहले आदेश में एजी ब्रांच से कहा था कि वह जनरल सिंह का जन्म वर्ष 1950 दर्ज करे. इस निर्देश से विवाद ने एक नया मोड़ ले लिया है. वैसे चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि के विवाद में हर दिन एक नया टि्वस्ट आ जाता है. सरकार की ज़िद है कि वह जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1950 मनवा कर ही छोड़ेगी. मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने है, लेकिन सरकार हर दिन कुछ न कुछ नया ज़रूर कर देती है. पहला सवाल यह है कि क्या सरकार को सुप्रीम कोर्ट की बुद्धि और विवेक पर भरोसा नहीं है. अगर भरोसा है तो सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई से पहले रक्षा मंत्रालय ने यह रु़ख क्यों अपनाया. इस निर्देश में सेना की एडजूटेंट जनरल ब्रांच से कहा गया है कि रिकॉर्ड को दुरुस्त कर उसमें जनरल वी के सिंह का जन्म वर्ष 1950 दर्शाया जाए, जबकि जनरल वी के सिंह ने इस बात का सबूत पेश किया है कि उनकी जन्मतिथि 10 मई, 1951 है. वैसे यह विवाद बिल्कुल साधारण है. किसी भी व्यक्ति की जन्मतिथि तय करने के लिए हाई स्कूल का प्रमाणपत्र पर्याप्त होता है. इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि किसी व्यक्ति ने किसी फॉर्म में क्या भरा है. दूसरी बात यह है कि सरकार का दावा है कि सेना की दो शाखाओं में जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि अलग-अलग है. सरकार कहती है कि सैन्य सचिव ब्रांच यानी एमएस ब्रांच में उल्लिखित तिथि ही सही है. एमएस ब्रांच ने जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1950 मानी है, लेकिन सेना की ऑफिशियल रिकॉर्ड कीपर यानी एडजूटेंट जनरल (एजी) ब्रांच में जनरल सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 ही दर्ज है. यह बात सामने आ चुकी है कि रक्षा मंत्रालय ने एमएस शाखा द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर यह फैसला किया, जबकि जन्मतिथि निर्धारित करने का अधिकार इस शाखा के पास नहीं है. सरकार की तऱफ से न स़िर्फ आधिकारिक निर्देश दिए जा रहे हैं, बल्कि मीडिया के ज़रिए भ्रम भी फैलाया जा रहा है. कुछ दिन पहले यह भी खबर आई थी कि जनरल वी के सिंह और सरकार में समझौता हो गया है. सरकार ने जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 मान ली है और जनरल वी के सिंह भी इस साल रिटायर होने के लिए राज़ी हो गए हैं. यह खबर झूठी थी, जिसे सरकार की तऱफ से मीडिया में लीक किया गया. देश वैसे ही खराब दौर से गुज़र रहा है. ऐसे में सरकार को कई सवालों के जवाब देने हैं. इतिहास में पहली बार सरकार और सेना सुप्रीम कोर्ट में आमने-सामने हैं. इस विवाद को गंभीरता के साथ सुलझाने की ज़रूरत है, लेकिन सरकार अपनी ज़िद पर अड़ी है.
ऐसी भी फुसफुसाहट है कि राजनीति, राजनीतिक चंदे, आर्म्स लॉबी, बिजनेस माफिया और अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी भी इस पूरे मामले में शामिल हैं. क्या कोई इस मसले का हल निकालने के लिए आगे आएगा, ताकि हमारी सेना हमारी राज्य व्यवस्था की सेवा का निर्वाह बेहतर ढंग से कर सके. जनरल वी के सिंह के मामले में तो हद हो गई. सरकार ने सारे हथकंडे अपना लिए. गुप्त रूप से प्रायोजित मीडिया के ज़रिए भी जनरल सिंह को अदालत जाने से रोकने और इस्ती़फा दिलवाने के लिए अभियान चलाया गया. इस बात का भी भय दिखाया गया कि सुप्रीम कोर्ट जनरल सिंह की याचिका पर सवाल उठाएगा और इसे आर्म्ड फोर्स ट्रिब्यूनल में ले जाने के लिए कहेगा. दरअसल, कुछ कारणों से आर्म्ड फोर्स ट्रिब्यूनल के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश की गई. ज़ाहिर है, जनरल सिंह की जन्मतिथि का मसला व्यक्तिगत नहीं रह गया. कई ऐसी सिस्टमैटिक चीज़ें थीं, जिनके प्रभाव में यह मसला यहां तक पहुंच गया. इस बात की जांच होनी चाहिए कि वे कौन सी ऐसी अंदरूनी और बाहरी बातें थीं, जिनसे यह मसला यहां तक पहुंचा. ऐसे कौन से बाहरी प्रभाव या दबाव थे. उन सबकी जांच होनी चाहिए. भारतीय सेना को नुक़सान पहुंचाने वाली ऐसी कौन सी ताक़तें हैं, जिन्होंने एक व्यक्तिगत मसले को इतना बड़ा बना दिया. आ़िखर ऐसा क्यों हुआ? इस सबकी भी जांच की जानी चाहिए. ज़्यादातर सैन्य अधिकारियों का मानना है कि इस मामले में विवाद के लिए जगह ही नहीं है. एमएस ब्रांच इस मसले को बहुत आसानी से हल कर सकती थी. 36 वर्षों तक लगातार जनरल सिंह की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में उनकी जन्मतिथि 10 मई, 1951 ही दर्ज होती रही है. मिलिट्री सेक्रेटरी ब्रांच इसे स्वीकार कर इसमें सुधार कर सकती थी. आर्मी लिस्ट में इस तरह के कई मामले हैं, जहां जन्मतिथि या आईसी नंबर या नाम ग़लत दर्ज हो जाता है. कई अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर रहते हुए रिटायर हो गए, स़िर्फ आर्मी लिस्ट में ग़लत आईसी नंबर दर्ज होने की वजह से. यदि मिलिट्री सेक्रेटरीज सचमुच मेन ऑफ ऑनर हैं तो उन्हें अपनी ग़लतियां स्वीकार करनी चाहिए और एमएस ब्रांच की कार्यप्रणाली सुधारनी चाहिए. आर्मी को जानने वालों के बीच ऐसी चर्चा भी है कि ये जेंटलमैन कम से कम दो सेनाध्यक्षों के साथ मिलकर इस षड्यंत्र में शामिल हो चुके थे. इन्होंने जानबूझ कर जनरल सिंह की जन्मतिथि नहीं ठीक की और आर्मी लिस्ट को हथियार बनाकर जनरल सिंह को ब्लैकमेल किया. सेना के क़रीब 90 फीसदी अधिकारी बिना आर्मी लिस्ट देखे रिटायर हो जाते हैं. सेना में ऐसा कहा जाता है कि आर्मी लिस्ट को स़िर्फ धोखेबाज़ या अपने करियर को लेकर सतर्क लोग ही देख पाते हैं. सवाल यह है कि जनरल सिंह ने 1950 को अपना जन्म वर्ष किन परिस्थितियों में स्वीकार किया.
सरकार कहती है कि कोर कमांडर बनाते व़क्त जब एमएस ब्रांच ने उनसे कहा था, तब जनरल वी के सिंह ने यही जन्मतिथि मान ली थी. जनरल वी के सिंह के खिला़फ यह दलील दी जा रही है कि वह अपनी जन्मतिथि 10 मई, 1950 मान चुके हैं. यही दलील सरकार और जनरल वी के सिंह के विरोधियों का सबसे बड़ा हथियार है. स़िर्फ स्वीकार कर लेने से किसी की जन्मतिथि वह नहीं हो जाती और न उससे किसी का ड्राइविंग लाइसेंस या पासपोर्ट बन जाता है. यहां तो आर्मी चीफ का सवाल है. कोई स्वीकारोक्ति बिना डिमांड के नहीं हो सकती और जनरल सिंह के मामले में तो ब्लैकमेल की भी आशंका है. कोई भी सभ्य अधिकारी इस तरह की भाषा का इस्तेमाल नहीं करेगा, जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल संबंधित मिलिट्री सेक्रेटरीज ने उस व्यक्ति के साथ किया, जो अगला सेना प्रमुख बनने जा रहा था. 21 जून, 2008 को लिखे गए एक पत्र में मिलिट्री सेक्रेटरी जनरल सिंह से कहते हैं कि हम लोग आपकी आधिकारिक जन्मतिथि 10 मई, 1950 मेंटेन करने के लिए मजबूर हैं और यही रिकॉर्ड एजी ब्रांच में भी मेंटेन करने के लिए बोल दिया गया है. जबकि किसी अधिकारी के व्यक्तिगत विवरण से संबंधित मामले में एमएस ब्रांच के पास एजी ब्रांच को आदेश देने का अधिकार नहीं है. 21 जनवरी, 2008 को लिखे एक अन्य पत्र में मिलिट्री सेक्रेटरी ने कहा कि हमने आपकी आधिकारिक जन्मतिथि 10 मई, 1950 मेंटेन की है और आपके सभी रिकॉर्ड में यही मेंटेन होगा. आप सुनिश्चित करें कि आप इसे स्वीकार कर रहे हैं. इसके बाद बारी आती है धमकी की. 24 जनवरी, 2008 को लिखे एक पत्र में मिलिट्री सेक्रेटरी ब्रांच ने कहा कि 21 जनवरी, 2008 को लिखे पत्र के पैरा 5 में उल्लिखित जन्मतिथि स्वीकार करने के संबंध में यदि आप अपना जवाब 25 जनवरी, 2008 के दस बजे तक नहीं देते हैं तो फिर उपयुक्त कार्रवाई की जाएगी. कोई भी इज़्ज़तदार व्यक्ति इस तरह की भाषा और सीधे-सीधे ब्लैकमेल को नहीं स्वीकार सकता. इन सबसे निपटने का जो सही और प्रतिष्ठित रास्ता हो सकता था, वही रास्ता जनरल सिंह ने अपनाया. उन्होंने पहले चार पूर्व मुख्य न्यायाधीशों की राय ली. एक दोषी व्यक्ति क्या ऐसा करता? न ही कोई दोषी व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट में जाएगा. स़िर्फ एक प्रतिष्ठित एवं ईमानदार आदमी ही अपने करियर के अंतिम समय में ऐसा करेगा. ऐसे में जो लोग जनरल सिंह के इस क़दम को दस महीने का कार्यकाल और पाने के लिए उठाया गया क़दम बता रहे हैं, वे दरअसल अपने नैतिक विचार और आचरण को खो चुके हैं. रक्षा मंत्रालय ने अपने आर्मी चीफ की वैधानिक शिकायत पर निर्णय लेने में चार महीने से ज़्यादा का समय लगाया, जबकि यह तय समय सीमा से ज़्यादा था. इस बीच रक्षा मंत्रालय की तऱफ से कहा गया कि वह किसी तय समय सीमा से नहीं बंधा है. ऐसा इसलिए किया गया, ताकि समय बीतता रहे और इस बीच सक्सेशन प्लान के तहत नए आर्मी चीफ की घोषणा किए जाने में कोई परेशानी न हो. अगर रक्षामंत्री एक आर्मी चीफ की वैधानिक शिकायत के निपटारे में चार महीने का व़क्त लगा सकते हैं तो भारतीय सेना के एक जवान की शिकायत का क्या होगा, इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है. इसके बाद एक प्रोपेगेंडा किया गया कि सक्सेशन प्लान को खारिज करने के लिए जनरल अपना इस्ती़फा दे सकते हैं. कुछ अधिकारियों से संपर्क करने पर उन्होंने बताया कि जनरल को इस्ती़फा भी नहीं देने दिया जाएगा, क्योंकि वह राष्ट्रपति की कृपा से काम करते हैं.
सेना का सिपाही पैसे के लिए नहीं जीता-मरता, वह अपनी आन-बान-शान के लिए जीता और मरता है, मारता भी है. अगर सेना के जवानों को मालूम हो जाए कि सरकार यह सोचती है कि सेना पैसे के लिए काम करती है, तो हमारी सेना पाकिस्तान की सेना हो जाएगी, हमारा लोकतंत्र पाकिस्तान का लोकतंत्र हो जाएगा. हम सेना के बारे में ऐसी सोच पैदा करके देश के लोकतंत्र को खतरे में डाल रहे हैं. नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक के कमरों में बैठे लोग सेना की जांबाज़ी से परिचित नहीं हैं. सेना का हर सिपाही देश की खातिर जान देने के लिए हमेशा तत्पर रहता है.
झूठ को सच बनाने की नाकाम कोशिश
सरकार की एक और दलील है कि 10 मई, 1950 के आधार पर ही आर्मी चीफ के प्रमोशन हुए हैं और प्रमोशन से जुड़े मामले देखने वाली आर्मी की मिलिट्री सेक्रेटरी (एमएस) ब्रांच के दस्तावेज़ों में भी जनरल सिंह की यही जन्मतिथि अंकित है, लेकिन एक अ़खबार ने एक सनसनी़खेज़ जानकारी दी है कि खुद एमएस ब्रांच के एक अहम दस्तावेज़ में जनरल वी के सिंह के प्रमोशन के संदर्भ में बतौर जन्मतिथि 10 मई, 1951 का ही ज़िक्र है. हैरानी की बात यह है कि एमएस ब्रांच के एक अहम दस्तावेज़ में बतौर जन्म वर्ष 1951 का ज़िक्र होने के बावजूद इस विसंगति को दूर करने की कोशिश नहीं की गई. यह कहानी शुरू होती है 25 फरवरी, 2011 से, जब आर्मी की एजी ब्रांच ने एक आदेश जारी करके एमएस ब्रांच से कहा कि वह अपने दस्तावेज़ों में सुधार करते हुए जनरल सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 अंकित कर ले. एमएस ब्रांच ने 16 मार्च, 2011 के एक पत्र में रक्षा मंत्रालय के सक्षम अधिकारी से इस आशय की स्वीकृति लेने का अनुरोध किया. 30 मार्च, 2011 को कंट्रोलर डिफेंस अकाउंट (सीडीए-ओ) ने एजी ब्रांच के सवाल के जवाब में इस बात की पुष्टि कर दी कि उसके दस्तावेज़ों में भी जनरल सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 है. खास बात यह है कि आर्मी लिस्ट में हुई प्रविष्टियां सीजीडीए के ज़रिए ही प्रमाणित की जाती हैं और सीडीए-ओ सीधे इसके दायरे में आता है. इसके बाद सामने आया एमएस ब्रांच द्वारा एक जुलाई, 2011 को जारी वह मेमो, जिसमें सा़फ लिखा है कि पिछले सेलेक्शन बोर्ड के रिकॉर्डों की पड़ताल कर ली गई है और विभिन्न रैंकों के प्रमोशन पर विचार करते व़क्त तैयार की जाने वाली मास्टर डेटा शीट में जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 ही अंकित है यानी जनरल वी के सिंह के प्रमोशन पर ग़ौर करते समय भी 10 मई, 1951 की जन्मतिथि पर विचार किया गया था. अब सवाल उठता है कि सरकार से इतनी बड़ी ग़लती हुई कैसे, क्या वह किसी स्कूली बच्चे की जन्मतिथि का विवाद सुलझा रही थी, जो उसने इतनी बड़ी भूल को ऐसे ही जाने दिया या फिर रक्षा मंत्रालय में बैठे अधिकारी इतने ताक़तवर हो गए हैं कि वे जो चाहें, कर सकते हैं. क्या सरकार इस बात को समझ नहीं सकी है कि इस विवाद की वजह से सेना के जवानों के हौसले पर असर पड़ रहा है. जब एमएस ब्रांच के दस्तावेज़ों में भी जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 है तो इस बात को सरकार अब तक क्यों छुपाती रही. आखिर इतने दस्तावेज़ों के बावजूद रक्षा मंत्रालय ने जनरल वी के सिंह का पक्ष सुने बिना ही उनका दावा कैसे खारिज कर दिया. अब यह सवाल उठने लगेगा कि सरकार की ज़िद की वजह क्या है, उसने पूरे देश को क्यों गुमराह किया, देश के एटॉर्नी जनरल ने बिना तहक़ीक़ात किए सरकार को अपनी राय क्यों दी, सरकार ने अब तक रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों के खिला़फ कार्रवाई क्यों नहीं की. सरकार की दूसरी दलील खारिज हो गई है, अ़खबार में छपी इस रिपोर्ट से सरकार की मुसीबतें बढ़ गई हैं.