हर दिन एक न एक नया घोटाला आम जनता के सामने उजागर हो रहा है. अ़फसोस की बात यह है कि यह सब ऐसे प्रधानमंत्री के शासनकाल में हो रहा है, जो स्वयं ईमानदार एवं सज्जन पुरुष हैं. जिस तरह हर दिन एक के बाद एक घोटाले सामने आ रहे हैं, सरकारी तंत्र में फैले भ्रष्टाचार की असलियत सामने आ रही है, मन में एक सवाल उठता है कि अगर आज गांधी ज़िंदा होते तो क्या करते. शायद सत्याग्रह या फिर भूख हड़ताल के बजाय शर्म से आत्महत्या करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता. यह स़िर्फ गांधी की ही बात नहीं है. उन सभी महापुरुषों, जिन्होंने संघर्ष करके और बलिदान देकर देश को आज़ाद कराया, ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनके बाद आने वाली पीढ़ी देश की यह दुर्दशा करेगी.
सुप्रीम कोर्ट ने 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में उद्योगपतियों, नेताओं, अधिकारियों और दलालों के गठजोड़ के खुलासे को दिमाग़ हिलाने वाला करार दिया. एक जज ने यहां तक कह दिया कि हमने आज तक नदियों के प्रदूषण के बारे में सुना था, लेकिन यह तो पर्यावरण प्रदूषण से भी ज़्यादा खतरनाक है. मतलब यह कि हमारा पूरा सरकारी तंत्र ही सड़ चुका है. सवाल चीफ विजिलेंस कमिश्नर पी जे थॉमस के इस्ती़फा देने या न देने का नहीं है. हैरानी की बात यह है कि जब उन पर भ्रष्टाचार का मामला चल रहा है तो उन्हें सीवीसी बनाया ही क्यों गया. इतना ही नहीं, जब लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने उनके नाम पर सवाल खड़ा किया तो वैसे ही उन्हें सीवीसी नहीं बनना था. इसके बावजूद सरकार ने यह फैसला लिया तो सरकार को अब यह जवाब देना चाहिए कि पी जे थॉमस में सरकार ने वे क्या खूबियां देखीं, जो देश में दूसरे किसी अधिकारी के पास नहीं हैं. क्या इसे यह समझा जाए कि सरकार को लगता है कि पूरे तंत्र में एक भी ईमानदार अधिकारी नहीं बचा है. सबसे शर्मनाक़ स्थिति तो तब पैदा हुई, जब सुप्रीम कोर्ट ने पी जे थॉमस पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से यह कह दिया कि पी जे थॉमस जैसे व्यक्ति का सीवीसी बनना उचित नहीं है तो इसके बाद सरकार किसके आदेश का इंतजार कर रही थी. बेशर्मी की हद तो तब हो गई कि चारों तरफ खुद की भर्त्सना होने के बावजूद पी जे थॉमस ने टीवी कैमरे के सामने यह कहने की हिम्मत जुटा ली कि सरकार ने उन्हें सीवीसी बनाया है और वह आज भी सीवीसी हैं. अब इसके बाद पी जे थॉमस ज़िंदगी भर सीवीसी बने रहें या फिर वह इस्ती़फा दे दें, इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि सतर्कता आयोग को जो क्षति होनी थी, वह तो हो गई. जो कलंक लगना था, वह लग गया.
जब पी जे थॉमस सुप्रीम कोर्ट के सवाल के घेरे में हैं तो उनके द्वारा चुने गए सीबीआई के नए चीफ की नियुक्ति पर भी सवाल उठना लाजिमी है. अब पी जे थॉमस मामले में दखल दें या न दें, लेकिन इस मामले की जांच वही अधिकारी करेगा, जिसे थॉमस ने सीबीआई का चीफ बनाया है. क़ानून अपना काम करेगा, सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला देगा, लेकिन देश की जनता के सामने तो सरकारी तंत्र की साख खत्म हो गई. खतरा इसी विश्वास के खोने से पैदा होता है. अब किसी भी दलील या शक़ की कोई गुंजाइश नहीं रही, जब सुप्रीम कोर्ट ने ही यह दिया है कि पूरा तंत्र ही सड़ चुका है. सुप्रीम कोर्ट की यह चेतावनी हिंदुस्तान के लिए चेतावनी है. अगर इस चेतावनी को लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभाओं और राजनीतिक दलों ने नहीं सुना तो यह देश के लिए सबसे खतरनाक साबित होने वाला है. खतरा इस बात का भी है कि कहीं सुप्रीम कोर्ट की बातों को सेना ने सुन लिया तो भारत को पाकिस्तान बनने में देर नहीं लगेगी. यह बात अच्छी नहीं है, लेकिन हक़ीक़त है कि राजनीतिक दल जनता की नज़रों में इतने गिर चुके हैं, लोगों का विश्वास अधिकारियों और सरकारी तंत्र से इतना उठ चुका है कि अगर देश में सेना शासन करने के लिए उतर आए तो लोग उसका स्वागत करेंगे. यकीन मानिए, खतरा इतना ही गहरा है. अ़फसोस की बात यह है कि जिन लोगों को जनता ने भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए अधिकार दिया है, उन्हीं के दामन आज काले हो गए हैं. इसके बावजूद हमें इस बात का पूरा यकीन है कि राजनीतिक दल इस चेतावनी को नहीं सुनेंगे.
एक अनुमान के मुताबिक़, 2009 के लोकसभा चुनाव में 10,000 करोड़ रुपये खर्च हुए, जिनमें 1300 करोड़ रुपये चुनाव आयोग ने खर्च किए. वहीं राज्य और केंद्र सरकार ने 700 करोड़ रुपये खर्च किए. बाकी के 8000 करोड़ रुपये राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों ने खर्च किए. अब सवाल यह है कि 8000 करोड़ रुपये राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के पास कहां से आए. यह पैसा राजनीतिक दलों को बड़े-बड़े उद्योगपति देते हैं. उद्योगपति किसी विचारधारा या देशभक्ति के नाम पर पैसे नहीं देते, वे सरकार चलाने वाली पार्टी और विपक्ष दोनों को ही पैसे देते हैं. यह पैसा इसलिए दिया जाता है कि सरकार बनने के बाद वे उनके लिए मुनाफा कमाने का रास्ता सा़फ करेंगे. सरकार की मदद से उद्योगपति जितना पैसा राजनीतिक दलों को देते हैं, उससे दस गुना ज़्यादा पैसा कमाते हैं. चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल उद्योगपतियों से पैसे लेते हैं और सरकार बनाने के बाद उनकी साठगांठ से जनता और सरकारी खज़ाने को लूटते हैं, देश में बड़े-बड़े घोटालों को अंजाम देते हैं. यही वजह है, जब हमाम में सब नंगे हैं तो सरकारी संस्थाएं किसे पकड़ें और किसे छोड़ें. नतीजा सामने है, आज तक किसी भी नेता को किसी घोटाले के तहत सज़ा नहीं मिली. देश का राजनीतिक तंत्र अपने ही जाल में फंस चुका है. इसलिए यह बात बिल्कुल तय है कि भ्रष्टाचार के खिला़फ देश की राजनीतिक पार्टियां दिखावे का शोरशराबा और टीवी कैमरे के सामने हंगामा करने के अलावा कुछ नहीं करेंगी. उनसे उम्मीद करना बेकार है. पंद्रह दिनों तक संसद में जो हंगामा होता रहा, वह राजनीति से प्रेरित है. भारतीय जनता पार्टी केंद्र सरकार से आदर्श घोटाले और 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में जेपीसी की मांग तो करती रही, लेकिन जब येदियुरप्पा का मामला सामने आया तो उसकी ज़ुबान बंद हो गई. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में इस बात की प्रतियोगिता शुरू हो गई कि कौन किससे कितना कम भ्रष्ट है. अब तो राजनीतिक दल खुद को भ्रष्ट बताए जाने पर शर्मिंदगी महसूस नहीं करते. राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के खिला़फ कोई क़दम नहीं उठाने वाले हैं.
सुप्रीम कोर्ट की इस बात की सराहना होनी चाहिए, क्योंकि जजों के भ्रष्टाचार की कहानियों के बीच सुप्रीम कोर्ट का बयान डूबते हुए जहाज के सामने एक द्वीप के समान है, आशा की आ़खिरी किरण की तरह है. उस पर भरोसा करने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है. सुप्रीम कोर्ट की यह चेतावनी देश के नौजवानों को सुननी होगी. नई पी़ढी एवं युवा भारत को भ्रष्टाचार के खिला़फ आगे आना होगा. नहीं तो यह देश आने वाली पीढ़ियों के लिए अभिशाप साबित होने वाला है.
जब हम नई पीढ़ी या युवा भारत की बात करते हैं तो इसमें राहुल गांधी, वरुण गांधी और राहुल महाजन जैसे लोगों को इस श्रेणी से अलग रखते हैं. राहुल गांधी का युवा भारत का सर्वमान्य नेता बनने का सपना है. यही उनकी और उनकी पार्टी की ख्वाहिश है. उनके एजेंडे में पार्टी को मज़बूत करना ज़्यादा ज़रूरी है, लेकिन भ्रष्टाचार के खिला़फ युवाओं को एकजुट करना उनकी रणनीति में नज़र नहीं आता. राहुल गांधी कांग्रेस के दूसरे सबसे शक्तिमान नेता हैं. उनके एक इशारे पर घोटालेबाज़ सलाखों के पीछे जा सकते हैं, लेकिन राहुल गांधी चुप हैं. राहुल गांधी मीडिया में ज़्यादातर चुनावों में भाषण देते नज़र आए हैं, कभी गांव में ग़रीबों के साथ खाना खाते तो कभी नरेगा के मज़दूरों के साथ मिट्टी उठाते नज़र आए हैं. राहुल नरेगा के मज़दूरों से मिलते हैं, उत्तर प्रदेश से मुंबई की ट्रेन में आम लोगों की परेशानी समझने की कोशिश करते हैं. गांवों में जाकर रात बिताते हैं, ग़रीबों के यहां खाना खाते हैं. क्या वह यह सब पर्यटन, देशाटन या फिर मौज़मस्ती के लिए करते हैं. अगर नहीं, तो क्या आज तक उन्हें किसी ने यह नहीं बताया कि केंद्र की नरेगा जैसी योजना हो या फिर राज्य सरकार की कोई योजना, मंत्रालय से लेकर पंचायत तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है. क्या अब तक उन्हें यह पता नहीं चल पाया कि बिना घूस और कमीशन के सरकारी दफ्तरों में काम नहीं होता. क्या उन्हें पता नहीं है कि हमारे देश में दो भारत हैं. एक वह,जो भ्रष्टाचार और घोटाला करता है और दूसरा भारत वह है, जो इन कुकर्मों का फल भुगतता है. जब तक घोटालों का पर्दा़फाश नहीं हुआ था तो राहुल यह भी कहा करते थे कि दिल्ली से भेजा गया एक रुपया गांव तक पहुंचते- पहुंचते 15 पैसे बन जाता है. पचासी पैसे ग़ायब हो जाते हैं. जबसे घोटालों के सामने आने का दौर शुरू हुआ है, तबसे राहुल ने भ्रष्टाचार के खिला़फ बोलना ही बंद कर दिया है.
भारतीय जनता पार्टी के युवा नेता वरुण गांधी से भी उम्मीद नहीं है, क्योंकि उनकी विचारधारा में ग़रीबों और आम जनता के पैसे लूटने वाले नेताओं एवं अधिकारियों के खिला़फ आवाज़ उठाने का कोई स्थान ही नहीं है. पार्टी लाइन का पालन करते हुए या फिर उससे हटकर वरुण गांधी जब मुंह खोलते हैं तो घृणा और हिंसा की बात करते हैं. भावनाओं को भड़काने और उससे फायदा उठाने की कोशिश करते हैं. वरुण गांधी ने जो बात लोकसभा चुनाव के दौरान कही थी, अगर वही बात भ्रष्टाचारियों और घोटालेबाज़ों के लिए कही होती तो वह जनता के नायक बन गए होते. एक ही झटके में उनकी लोकप्रियता और राजनीतिक प्रासंगिकता राहुल गांधी से का़फी ज़्यादा हो जाती. देश की जनता उनसे कुछ उम्मीद भी करती, लेकिन राहुल गांधी की तरह वरुण गांधी भी चुप हैं. हमें राजनीतिक दलों की खाल ओढ़े ऐसे युवा नेताओं से बचना होगा, जो स़िर्फ उम्र से युवा हैं. जाति और धर्म की आड़ में राजनीति चमकाने वाले इन युवा नेताओं से भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ाई लड़ने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. देश की जनता को राहुल महाजन जैसे युवाओं से भी बचना होगा, जो अपनी ज़िंदगी में इतने मदमस्त और परेशान हैं कि उन्हें समाज और देश के बारे में सोचने का व़क्त नहीं मिल पाता. ऐसे युवाओं से उम्मीद नहीं करनी चाहिए, जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य निजी स्वार्थ है. ऐसे युवा नेताओं पर भरोसा नहीं किया जा सकता, जो अपने पिता या परिवार की बदौलत राजनीति में हैं, क्योंकि ये उसी भ्रष्ट तंत्र से उपजे हुए पौधे हैं, जिससे पूरा तंत्र खोखला हो चुका है.
भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए उन युवाओं को आगे आना होगा, जिनका भविष्य दांव पर है. स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को सड़कों पर उतरना होगा, जो पढ़-लिखकर, मेहनत करके अपने भविष्य को संवारने का सपना देख रहे हैं. अगर वे सड़कों पर नहीं उतरते हैं तो भ्रष्टाचार का भूत उनकी मेहनत पर पानी फेर देगा और सपने सच होने के बजाय मृग मरीचिका में तब्दील हो जाएंगे. मज़दूरों और किसानों को इस भ्रष्टाचार के खिला़फ आंदोलन करना होगा, क्योंकि जो ग्रेटर नोएडा, दादरी, नंदीग्राम और सिंगूर में हुआ, वह भ्रष्टाचार का ही एक्सटेंशन है. यदि अब यह नहीं रोका गया तो देश में कई दादरी और नंदीग्राम पैदा हो जाएंगे. सरकारी तंत्र में फैले भ्रष्टाचार का सबसे ज़्यादा असर मध्यम वर्ग पर पड़ता है. इनमें वे लोग हैं, जो नौकरीपेशा या व्यापार करते हैं. ये भ्रष्टाचार के सबसे नग्न रूप से परिचित हैं, उसे आएदिन झेलते हैं, लेकिन चुपचाप सब कुछ सहन करते हैं, भ्रष्टाचारियों का साथ देते हैं. इस बार इन्हें भी भ्रष्टाचार के खिला़फ एकजुट होना होगा. देश के अल्पसंख्यकों को इस लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी. ऐसा देखा गया है कि जब भी समाज किसी जनांदोलन या परिवर्तन के लिए आगे आया है तो राजनीतिक दलों और उनसे जुड़े संगठनों ने देश में धार्मिक उन्माद फैलाया है. इस बार भी जब भ्रष्टाचार के खिला़फ लोगों का गुस्सा फूटेगा तो मंदिर-मस्जिद और हिंदू-मुसलमान के नाम पर समाज को बांटने की कोशिश होगी.
एक बात और कि वे लोग, जो बाज़ारवाद और उदारवाद के प्रवर्तक हैं, यह दलील देते हैं कि भ्रष्टाचार को अगर कम करना है तो देश में सरकार की भूमिका को ही कम करना पड़ेगा, लेकिन 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले से यह दलील चारों खाने चित हो गई. निजी कंपनियों ने एक ही झटके में सारे घोटालों के रिकॉर्ड को ध्वस्त कर दिया. इसलिए यह ज़रूरी है कि हमें भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए सरकारी तंत्र की ही स़फाई करनी होगी. अगर इस मौ़के को गंवा दिया गया तो फिर देर हो जाएगी. भ्रष्टाचार को रोकने का सबसे कारगर तरीका सरकार के कामकाज में पारदर्शिता, सेल्फ गवर्नेंस, समय निर्धारित योजनाएं, उत्तरदायित्व आदि हैं. सरकार के हर काम पर लोगों की नज़र रहे, ऐसा प्रावधान ज़रूरी है. और इससे भी ज़्यादा ज़रूरी है कि भ्रष्टाचार के मामले में कड़ी और त्वरित कार्रवाई हो. जिस तरह से नेताओं से चुनाव के दौरान प्रॉपर्टी का लेखा-जोखा लिया जाता है, वैसा ही लेखा-जोखा सरकारी अधिकारियों और सरकार से जुड़े लोगों से हर साल लिया जाए.
1947 से पहले हम अंग्रेजी हुक़ूमत के ग़ुलाम थे, आज हम सभी एक भ्रष्ट व्यवस्था के ग़ुलाम बन गए हैं. गांधी को राजनीतिक दलों ने अप्रासंगिक कर दिया है तो उनके द्वारा बताया संघर्ष का रास्ता भी अप्रासंगिक हो गया है. देश की जनता के सामने यह भी तरीका नहीं बचा है कि वह रिश्वत चुकाने से इंकार करके कोई उदाहरण पेश करे. अगर न्याय न हो तो शांति भी नहीं हो सकती. और न्याय तब तक मुमकिन नहीं है, जब तक ईमानदार लोगों को ईमानदारी से जीने की इजाज़त नहीं मिलती. भ्रष्टाचार के खिला़फ अगर देश में हिंसक आंदोलन की शुरुआत हो जाए तो जनता इसका स्वागत करेगी और इसकी ज़िम्मेदारी भी राजनीतिक दलों और देश को खोखला करने वाले अधिकारियों की होगी.