तेल कंपनियां या सरकारः देश कौन चला रहा है

Share via

tel companyयह कैसी सरकार है, जो जनता के खर्च को बढ़ा रही है और जीवन स्तर को गिरा रही है. वैसे दावा तो यह ठीक विपरीत करती है. वित्त मंत्री कहते हैं कि सरकार अपनी नीतियों के ज़रिए नागरिकों की कॉस्ट ऑफ लिविंग को घटाना और जीवन स्तर को ऊंचा करना चाहती है. पर वह कौन सी मजबूरी है, जिसकी वजह से पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के दाम बढ़ाए जाते हैं. पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी कहते हैं कि वह अर्थशास्त्र और लोकप्रियता के बीच फंस गए. वैसे यह अच्छा बहाना है. वह कहते हैं कि दाम इसलिए बढ़ाए गए हैं, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल का दाम बढ़ गया है. यह एक झूठ है. वह इसलिए, क्योंकि स़िर्फ पेट्रोल को सरकार ने डी-रेगुलेट किया है. मतलब यह कि स़िर्फ पेट्रोल की क़ीमत का रिश्ता अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत से है. मिट्टी तेल, डीजल और रसोई गैस का जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से कुछ लेना-देना नहीं है तो फिर सरकार ने डीजल और रसोई गैस की क़ीमतों में क्यों इज़ा़फा किया? सरकार इस झूठ के साथ-साथ कई और झूठ फैला रही है. एक झूठ यह है कि तेल कंपनियां घाटे में चल रही हैं. मई के महीने में महंगाई की दर 9 फीसदी के आसपास थी. डीजल के  दाम बढ़ते ही सारी चीज़ों के दामों में इज़ा़फा हो गया. महंगाई की दर 10 फीसदी से ज़्यादा हो जाए, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है. इस बीच प्रधानमंत्री खुद के चुने हुए पांच अ़खबारों के संपादकों से बातचीत करते हैं. वह उन्हें बताते हैं कि मार्च 2012 तक महंगाई पर नियंत्रण कर लिया जाएगा. प्रधानमंत्री ने साथ में एक शर्त भी रख दी कि अगर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत में बढ़ोत्तरी नहीं होती है.

ऐसा लगता है कि तेल कंपनियों को सरकार नहीं चलाती है, तेल कंपनियां ही सरकार को चला रही हैं. अगर ऐसा नहीं है तो क्या वजह है कि जब देश पहले से ही महंगाई की मार झेल रहा है तो ऐसे में तेल की क़ीमत बढ़ा दी जाती है. जबसे मनमोहन सिंह की सरकार बनी, तबसे वह पेट्रोलियम से सरकारी नियंत्रण हटाने की जुगत में लग गई. डीजल और किरोसिन के दाम बढ़ते ही देश में हाहाकार मचा गया, लेकिन एक देश की सरकार है, जो आंकड़े दिखाकर सफलता का ढिंढोरा पीट रही है, ग़रीबों का मज़ाक उड़ा रही है.

पांच राज्यों के चुनाव खत्म हुए और केंद्र की यूपीए सरकार ने पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ा दिए. सरकार कहती है कि तेल कंपनियों को घाटा हो रहा है. इसके बाद प्रणव मुखर्जी ने राज्य सरकारों से टैक्स कम करने की अपील क्यों की? कांग्रेस शासित दो राज्यों में दाम कम भी किए गए. पता नहीं, राजनीतिक दलों को यह भ्रम कैसे हो गया है कि देश की जनता मूर्ख है. क्या सरकार ऐसे फरमान जारी करके यह साबित करना चाहती है कि वह जनता के दु:ख-दर्द के प्रति चिंतित है? असलियत तो यह है कि सरकार जनता की समस्याओं को लेकर संवेदनहीन हो चुकी है. उसकी प्राथमिकता केवल निजी कंपनियों और उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाना है.

जब पेट्रोल की क़ीमत बढ़ाई गई, तब सरकार ने देश से सबसे बड़ा झूठ बोला कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत बढ़ गई है. एक बात समझ में नहीं आई कि जिस दिन पेट्रोल के दाम बढ़ाए गए, उस दिन अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत 112 डॉलर प्रति गैलन थी. आज इसकी क़ीमत लगभग 90 डॉलर प्रति गैलन है. सरकार अगर यह दलील देती है कि कच्चे तेल की क़ीमत बढ़ने से दाम बढ़ाए गए हैं तो अब जब इसकी क़ीमत में गिरावट आई है तो उसे देश में पेट्रोल की क़ीमत कम करनी चाहिए थी. सवाल यह उठता है कि क्या सरकार तेल उस तरह खरीदती है, जिस तरह घर में सब्ज़ियां खरीदी जाती हैं. क्या भारत हर दिन के हिसाब से अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से कच्चा तेल खरीदता है. हम कच्चा तेल खरीदते हैं, उसे देश में लेकर आते हैं, जामनगर जैसी रिफाइनरी में प्रोसेसिंग के बाद उसे ट्रकों में भरा जाता है, चेकिंग वग़ैरह होती है, फिर कहीं उसे पेट्रोल पंपों में भेजा जाता है. कच्चा तेल खरीदने और उसे पेट्रोल पंपों तक पहुंचाने में कम से कम 75 दिनों का व़क्त लगता है. सवाल यह उठता है कि मान लीजिए, तीन दिन पहले कच्चे तेल का दाम बढ़ जाता है तो उसका असर 75 दिनों के बाद दिखना चाहिए. सरकार को इतनी हड़बड़ी क्यों मची है कि वह अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में दाम बढ़ते ही देश में क़ीमत बढ़ा देती है, लेकिन जब दाम गिर जाते हैं तो फिर रोलबैक नहीं करती? पेट्रोल की क़ीमत बढ़ाने के साथ-साथ उसे तेल आपूर्ति  करने  वाली कंपनियों के  साथ  किए गए क़रार को भी सार्वजनिक करना चाहिए, ताकि देश की जनता को यह पता चले कि सरकार ने किस रेट पर कच्चा तेल खरीदने का सौदा तय किया है.

अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में जब कच्चे तेल के दामों में वृद्धि होती है तो सरकार तुरंत पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के दाम बढ़ा देती है, लेकिन जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दामों में गिरावट आती है तो सरकार उसे देश में लागू क्यों नहीं करती.

समझने वाली बात यह है कि क्या भारत सरकार तेल को घर के सामान की तरह खरीदती है. दुकानदार कहता है कि आज दाम बढ़ गए हैं तो साबुन के दाम दो रुपये ज़्यादा हो गए हैं. जितने भी तेल के सौदे होते हैं, उन्हें फाइनेंस के टर्म में कमोडिटी डेरीवेटिव्स कहते हैं, उसे हम फ्यूचर्स कहते हैं. कहने का मतलब यह है कि जब सौदेबाज़ी होती है, वह किसी सट्टे की तरह होती है. बेचने वाला और खरीदने वाला अनुमान लगाता है. दोनों ही अनुमान लगाते हैं कि अगले सात महीनों में पेट्रोल का दाम क्या होने वाला है. खरीदने वाले की मजबूरी यह है कि उसे पता है कि पूरे मुल्क की ज़रूरत क्या है. भारत के अनुभव से यह साबित हो चुका है कि जब तक कच्चे तेल की क़ीमत 90 डॉलर प्रति गैलन रहे, तब तक भारत की इकोनॉमी पर कुछ भी फर्क़ नहीं पड़ता है. ऐसा इसलिए, क्योंकि जब अमेरिका में गिरावट आई, तब वे 40 डॉलर प्रति गैलन से कच्चे तेल की क़ीमत 90 डॉलर तक लेकर चले गए. यह वायदा कारोबार की वजह से हुआ. वायदा कारोबार करने वालों ने एक गिरोह खड़ा कर लिया. ये लोग असल में तेल नहीं खरीदते, बल्कि काग़ज़ खरीदते हैं और जब वास्तव में तेल लेने का समय आता है तो ये उसे बेच देते हैं. अक्सर होता यह है कि एक निर्धारित समय पर डिमांड अचानक से बढ़ जाती है और तेल के दाम बढ़ जाते हैं. हालत यह हो गई कि जो तेल 40 डॉलर प्रति गैलन बिक रहा था, इस वायदा कारोबार की वजह से उसकी क़ीमत 140 डॉलर प्रति गैलन तक पहुंच गई. तेल की क़ीमत तब बढ़ती है, जब इसकी खपत बढ़ती है. दो सौ साल तक कच्चे तेल की क़ीमत 40 डॉलर प्रति गैलन से कम रही. सवाल यह उठता है कि पिछले कुछ सालों में ऐसा क्या हुआ कि इसकी क़ीमत आसमान छूने लगी. कच्चे तेल की क़ीमत बढ़ने का कारण खपत में वृद्धि नहीं है, बल्कि वायदा कारोबार है. जबसे अमेरिका के उद्योगपति वायदा कारोबार में शामिल हुए, पेट्रोलियम का बाज़ार उनके हाथों बंधक बन गया.

अगर सरकार भ्रष्टाचार से लड़ना चाहती है तो सबसे पहले उसे पेट्रोलियम मंत्रालय को दुरुस्त करना होगा. देश में पेट्रोल, केरोसिन और डीजल का कारोबार माफिया चलाते हैं. सरकार को जवाब देना चाहिए कि तेल की चोरी और कालाबाज़ारी के चलते हर साल 70,000 करोड़ रुपये का नुक़सान होता है, उसे खत्म करने के लिए उसने क्या किया है.

चलिए एक हिसाब लगाते हैं कि आ़खिर पेट्रोल की सही क़ीमत क्या हो. जिस समय पेट्रोल के दाम बढ़ाए गए, उस समय अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत 112 डॉलर प्रति बैरल थी यानी 5085 रुपये के क़रीब. एक बैरल में 158.76 लीटर होते हैं. तो इसका मतलब है कच्चे तेल की क़ीमत 32 रुपये प्रति लीटर बनती है. तेल कंपनियों के मुताबिक़, कच्चे तेल को रिफाइन करने में 52 पैसा प्रति लीटर खर्च होता है और अगर रिफाइनरी की कैपिटल कॉस्ट को इसमें जोड़ जाए तो तेल की क़ीमत में क़रीब 6 रुपये और जोड़ने पड़ेंगे. इसके अलावा ट्रांसपोर्ट का खर्च ज़्यादा से ज़्यादा 6 रुपये और डीलरों का कमीशन 1.05 रुपये प्रति लीटर. इन सबको अगर जोड़ दिया जाए तो एक लीटर पेट्रोल की कीमत 45.57 रुपये होती है. लेकिन दिल्ली में 63.4 रुपये, मुंबई में 68.3 रुपये और बंगलुरू में 71 रुपये प्रति लीटर की दर से पेट्रोल बिक रहा है. अब सवाल उठता है कि यह पैसा हम क्यों खर्च कर रहे हैं, यह पैसा कहां जा रहा है? इसका जवाब है कि हम टैक्स में दे रहे हैं. यह बहुत ही कम लोगों को पता है कि केंद्र और राज्य सरकार पेट्रोल से कितना टैक्स वसूलती है. कुछ राज्यों में तो 50 फीसदी से ज़्यादा टैक्स लिया जा रहा है. और तो और, यह टैक्स तेल के बेसिक दाम पर लगता है. इसका मतलब यह है कि तेल के दाम बढ़ाने से सरकार को फायदा होता है. फिर सरकार यह घड़ियाली आंसू क्यों बहा रही है कि तेल कंपनियों को नुक़सान हो रहा है. इस टैक्स को तर्कसंगत करने की ज़रूरत है. इससे सरकारी कंपनियों को फायदा होगा, वरना यही समझा जाएगा कि सरकार निजी कंपनियों को लूट मचाने की खुली छूट दे रही है. सवाल तो यह उठता है कि क्या आज तक मुकेश अंबानी या दूसरी अन्य तेल कंपनियों ने यह कहा कि उन्हें घाटा हो रहा है, तेल कंपनियों को घाटे की वजह से बंद करना पड़ सकता है. हक़ीक़त यह है कि निजी कंपनियां ज़्यादातर माल विदेशी बाज़ार में बेचकर मुना़फा कमा रही हैं. आज अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की जो क़ीमत है, उसके मुताबिक़ पेट्रोल का दाम 35 रुपये प्रति लीटर से एक भी पैसा ज़्यादा नहीं होना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत मई 2011 में 112 डॉलर प्रति गैलन थी, जो अब घटकर 90 डॉलर के आसपास हो गई है. आने वाले दिनों में इसकी क़ीमत में और भी गिरावट होने की संभावना है. फिर भी देश में पेट्रोल की क़ीमत गिरने वाली नहीं है. पेट्रोल की क़ीमत में गिरावट तो दूर, तेल कंपनियों के दबाव में सरकार डीजल, केरोसिन और रसोई गैस की क़ीमत भी बढ़ाने को मजबूर हो गई. इसके बाद अगर कोई यह आरोप लगाए कि भारत की सरकार तेल कंपनियों के हाथों की कठपुतली बन गई है तो इसका क्या जवाब होगा. इसके बावजूद बड़ी निर्लज्जता से यह दलील भी जाती है कि तेल कंपनियों को ऩुकसान हो रहा है, ताकि कोई सरकार के फैसले पर सवाल न खड़ा कर सके. तो क्या सरकार ने तेल कंपनियों को हुआ घाटा पूरा करने के लिए पेट्रोल का दाम बढ़ा दिया?

सवाल स़िर्फ क़ीमत बढ़ाने के फैसले का नहीं है. अगर केंद्र सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने के बारे में सोचती है तो सबसे पहले उसे पेट्रोलियम मंत्रालय को दुरुस्त करना होगा. देश में पेट्रोल, केरोसिन और डीजल का कारोबार माफिया चलाते हैं. सरकार को इस बात का जवाब देना चाहिए कि तेल की चोरी और कालाबाज़ारी की वजह से हर साल 70,000 करोड़ रुपये का नुक़सान होता है, उसे खत्म करने के लिए उसने क्या किया है. यह सवाल इसलिए उठाना ज़रूरी है, क्योंकि कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र में तेल माफिया ने एक एडिशनल डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर को ज़िंदा जला दिया था. तेल की सप्लाई से लेकर पेट्रोल पंप के आवंटन तक की जो पूरी प्रक्रिया है, उसमें पारदर्शिता लाने के लिए सरकार ने क्या किया है. क्या तेल माफिया इसलिए बेलगाम हैं, क्योंकि उन्हें नेताओं का संरक्षण हासिल है. या यूं कहें कि सरकार इसलिए खामोश है, क्योंकि तेल के कारोबार पर देश के राजनीतिक नेताओं का कंट्रोल है. तेल की क़ीमत बढ़ाने से पहले सरकार को इस सेक्टर में मौजूद कालाबाज़ारी को खत्म करने की पहल करनी चाहिए.

पेट्रोल और डीजल का महंगाई से गहरा रिश्ता है. इनके दाम बढ़ते ही ट्रांसपोर्टेशन कास्ट बढ़ जाती है, जिससे सारी चीज़ें महंगी हो जाती हैं. जब देश में पेट्रोलियम का उदारीकरण हुआ तो उस व़क्त देश पहले से ही महंगाई की मार झेल रहा था. ऐसे समय में उदारीकरण करना सरकार की संवेदनहीनता को दर्शाता है, अर्थशास्त्र के सारे तर्क भी झुठला देता है. जबसे कच्चा तेल वायदा कारोबारियों की गिरफ्त में आया, तबसे इसकी क़ीमत में भूचाल आ गया, इसकी क़ीमत में कभी स्थिरता नहीं आई. यह अपने आप में एक वजह है कि पेट्रोलियम के उदारीकरण को लागू न किया जाए. लेकिन सरकार पर तेल कंपनियों का, खासकर निजी कंपनियों का दबाव था. सरकार ने नया तरीक़ा निकाला, उसने रंगराजन कमेटी बना दी. इस कमेटी से सरकार को उम्मीद थी कि यह पेट्रोलियम की क़ीमतों और करों के उदारीकरण का सुझाव देगी, लेकिन रंगराजन कमेटी ने उदारीकरण की सलाह नहीं दी. सरकार ने दूसरी कमेटी बना दी. इस बार योजना आयोग के पूर्व सदस्य किरीट पारिख को एक्सपर्ट ग्रुप का प्रमुख बनाया गया. इस बार उदारीकरण का सुझाव दिया गया. सरकार ने तुरंत इस सुझाव को मान लिया. सरकार की तऱफ से दलील दी गई कि तेल कंपनियों को नुक़सान हो रहा है, इसलिए पेट्रोल के दाम को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से जोड़ना ज़रूरी हो गया है. अब सवाल यह है कि सरकार ने ऐसा क्यों किया. सबसे सीधा जवाब तो यही है कि सरकार ने जनता को राहत देने के बजाय निजी तेल कंपनियों को फायदा पहुंचाना उचित समझा. खासकर उन निजी तेल कंपनियों को, जिन्हें पेट्रोलियम सेक्टर में घुसने और विस्तार करने का हर मौक़ा दिया गया. सरकार की क्या मजबूरी है कि तेल कंपनियों को फायदा पहुंचाना उसने अपना परम कर्तव्य मान लिया है?

देश की सरकार वर्ल्ड बैंक के इशारे पर काम करने में कोई गुरेज़ नहीं करती, लेकिन उसकी ग़रीबी रेखा की परिभाषा को नहीं मानती. वर्ल्ड बैंक के मुताबिक़, जिस आदमी की रोजाना आमदनी एक डॉलर से कम है, उसे ग़रीबी रेखा के नीचे माना जाए. एक डॉलर का मतलब 42 रुपये के लगभग की आमदनी. इस परिभाषा के मुताबिक़ भारत के 75 फीसदी लोग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं, जिनका ज़्यादातर पैसा ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी भोजन पर खर्च होता है. भारत सरकार तो अर्थशास्त्रियों की सरकार है. ग़रीब जनता पर जब महंगाई की मार पड़ती है तो वह क्या करे, कैसे ज़िंदा रहे? दाम बढ़ाने से पहले सरकार को भारत के इन 75 फीसदी लोगों की परेशानी नज़र नहीं आई. भारत में महंगाई दर 9.06 फीसदी है, जो अमेरिका की तुलना में दोगुनी है और जर्मनी से चार गुनी. इसी महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़कर रख दी है, वह केवल किसी तरह अपनी ज़िंदगी जीने को मजबूर है. डीजल और केरोसिन के दाम बढ़ते ही देश की ग़रीब जनता में हाहाकार मच जाता है. क्या सरकार को यह पता नहीं है कि देश के 75 फीसदी लोगों का 80 फीसदी खर्च स़िर्फ खाने-पीने पर होता है. सरकार ने तेल की क़ीमत बढ़ाकर जनता को महंगाई की मार झेलने के लिए बेसहारा छोड़ दिया है. सरकार अगर महंगाई से लड़ना चाहती है तो हर सरकारी विभाग को एक समग्र योजना पर काम करना होगा. सबसे पहले भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना होगा. तेल के उत्पादन और वितरण में पारदर्शिता लाने की ज़रूरत है. समस्या यह है कि सरकार भ्रष्टाचार, राजनीति और उद्योग के  भंवर में फंस गई है. अपनी ग़लतियों की वजह से वह इस तरह फंसी है, जैसे कोई मकड़ी अपने ही जाल में फंस जाती है. वह जितना हाथ-पैर चलाती है, मुश्किल उतनी ही बढ़ जाती है.

सरकार पर रिलायंस को फायदा पहुंचाने का आरोप

आजकल सरकार बेचैन है. रिलायंस इंडस्ट्रीज को फायदा पहुंचाने का आरोप लग रहा है. आरोप बेबुनियाद नहीं है. आरोप का आधार सीएजी रिपोर्ट है. वैसे यह आधिकारिक रूप से संसद के सामने पेश नहीं हुई है, इसकी खबर मीडिया में लीक हो गई है. सरकार पर आरोप यह है कि उसने जान-बूझकर रिलायंस कंपनी को फायदा पहुंचाया और इससे देश को बहुत बड़ा आर्थिक नुक़सान हुआ. यह नुकसान 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले से भी बड़ा है. रिलायंस कंपनी पर सरकार ने दरियादिली का इज़हार कुछ ऐसे किया कि कृष्णा-गोदावरी बेसिन के गैस की क़ीमत तय करने के लिए सचिवों का एक समूह बना. पिछले कैबिनेट सचिव के एम चंद्रशेखर इसके अध्यक्ष बनाए गए. आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी की तीन चिट्ठियों को आधार बनाया गया था. रेड्डी का सुझाव था कि सरकारी कंपनी एनटीपीसी से रिलायंस को 2.97 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू गैस मिलती थी. यह दर वैश्विक प्रतिस्पर्धा के ज़रिए तय की गई थी, सो इसे ही बाज़ार दर माना जाए. इस समूह ने यह भी कहा कि गैस की क़ीमत अगर एक डॉलर भी बढ़ती है तो रासायनिक खाद सेक्टर का खर्च बढ़ेगा, जिससे सरकार पर कई हज़ार करोड़ रुपये की अतिरिक्त सब्सिडी का बोझ आएगा. पर मंत्री समूह ने इन सारी दलीलों को खारिज कर गैस की क़ीमत 4.2 डॉलर तय की. इस तरह रिलायंस को फायदा पहुंचाया गया. सरकार को कितना नुक़सान हुआ, इसका आकलन करने में सीएजी ने हाथ खड़े कर दिए हैं. सीएजी का कहना है कि नुक़सान का आंकड़ा इतना बड़ा होगा कि उसका हिसाब लगाना मुश्किल है. ज़ाहिर है, संसद के अगले सत्र में संचार के साथ-साथ पेट्रोलियम घोटाला भी एक बड़ा मुद्दा बनेगा. अगर यह मुद्दा नहीं बना तो आप स्वयं ही समझ लीजिए कि सरकार के साथ-साथ देश के दूसरे राजनीतिक दलों को कौन चला रहा है.

 

Share via

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *