लगता है केंद्र सरकार को धारा 377 हटाने की जल्दबाज़ी है. दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुका है. वैसे तो, नेता और अधिकारी कोर्ट में लंबित मामले पर अपनी ज़ुबान खोलने से बचते हैं, लेकिन धारा 377 के मामले में क़ानून मंत्री वीरप्पा मोइली तो बोले ही, गृह सचिव गोपाल कृष्ण पिल्लई ने भी इंटरव्यू देना शुरू कर दिया है. गृह सचिव का कहना है कि सरकार दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के ख़िला़फ सुप्रीम कोर्ट नहीं जाएगी. इसकी वजह है कि राजनीतिक गलियारों से यह ख़बर आ रही है कि सरकार दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से भी एक-दो क़दम आगे की सोच रही है. यानी सरकार ने धारा 377 को पूरी तरह से ही ख़त्म करने का मन बना लिया है. हैरानी की बात है कि विरोधी पार्टियों ने भी इस मामले पर चुप्पी साध ली है. यह चुप्पी आगे आने वाले दिनों में काफी ख़तरनाक साबित होने वाली है. धारा 377 के हटते ही भारत में वेश्यावृत्ति (महिला और पुरुष) को मानो लाइसेंस मिल जाएगा. इस धारा को हटाने का फैसला महिला विरोधी भी है. इसलिए कि भारत की महिलाओं के हाथ से वह हथियार ही छिन जाएगा, जिसके ज़रिए वे अपने पति की मनमानी के ख़िला़फ क़ानून का सहारा ले सकती हैं.
ऐसा लगता है कि भारतीय संसद और न्यायिक व्यवस्था जाने या अनजाने उन ताक़तों के हाथों भ्रमित कर दी गई है, जो ताक़त तीन खरब डालर की सेक्स इंडस्ट्री के पीछे है. दुनिया भर के कमज़ोर और उदार देशों में सेक्स की मंडी खोलने के बाद अब उनकी नज़र भारत पर टिकी है. इन ताक़तों को भारत में एक बड़ा सेक्स-बाज़ार नज़र आ रहा है. उन्हें लगता है कि भारत एक कमज़ोर देश है, जहां कुछ भी संभव है. यही वजह है कि ये ताक़तें भारत को दुनिया का चौथे नंबर का सेक्स-बाज़ार बनाने की ताक में हैं.
जिस तरह देश का सुप्रीम कोर्ट किसी व्यक्ति या संस्था को यह नोटिस देता है कि आपके ख़िला़फ अमुक आरोप हैं और क्यों न हम आपको दोषी समझ लें? यदि आप दोषी नहीं हैं तो उसकी सफाई दें. ठीक उसी तरह देश की जनता को भी क्या यह मान लेने का हक़ नहीं कि इस देश को चलाने वाले लोग और इस देश की न्यायिक व्यवस्था जाने-अनजाने इस साज़िश में शामिल है ? हमारे पास जो तथ्य हैं, वे इस संदेह को पुष्ट करते हैं. भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के बारे में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से देश में एक नई बहस छिड़ गई है. इस मामले से जुड़े तथ्यों को हम पाठकों के सामने सिलसिलेवार तरीक़े से रख रहे हैं, ताकि सभी संबंधित पक्ष अपनी-अपनी सफाई पेश कर सकें. यक़ीन मानिए, अगर हमारे आरोप ग़लत साबित होते हैं, तो हमें बहुत ख़ुशी होगी. अदालत में चले इस मामले के पूरे ब्योरे पर नज़र डालते हैं, ताकि जनता को कम से कम यह तो पता चले कि सच्चाई क्या है.
धारा 377, दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला और मीडिया की नासमझी
हाईकोर्ट के फैसले में दो बातें ग़ौर करने लायक हैं. पहला, तो ख़ुद फैसला है, जो क़ानून के उन बिंदुओं पर आधारित है, जो आईपीसी की धारा 377 की व्याख्या पर निर्भर है कि क्या यह धारा संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करती है? दूसरी बात ग़ौर करने की यह है कि मीडिया में जो बहस चल रही है, वह मुख्य तौर पर समलैंगिकता को लेकर सामाजिक धारणाओं (सामाजिक तौर पर स्वीकृति या अस्वीकृति) पर केंद्रित है, न कि क़ानून पर (आपराधिक या ग़ैर-आपराधिक) आधारित रही है. इस फैसले ने मीडिया के खोखलेपन को भी उजागर किया है. टेलीविजन चैनलों पर छिड़ी बहस ने इस फैसले को भारत में समलैंगिकता को वैध करार देने वाला फैसला समझ लिया. इस बहस में शामिल हुए अधिकतर लोगों को तो इसकी जानकारी ही नहीं थी कि यह फैसला किस मसले से संबंधित है. मीडिया में जिस पैमाने पर बहस चली और जिस तरह से बहस को मोड़ा गया, उसका नतीजा यह हुआ कि व्यावहारिक तौर पर देश के हरेक नागरिक को एक या दूसरे का पक्ष लेने को बाध्य किया गया. इस माहौल में यह कहने की ज़रूरत ही नहीं कि अधिकतर विचार तो अधकचरी सूचनाओं या विकृत सूचनाओं परआधारित हैं. सही तो यह होगा कि इस मामले से संबंधित सारे सही तथ्यों को जनता के सामने रखा जाए, ताकि एक स्वस्थ और सूचना-आधारित बहस हो सके.
कोर्ट में दर्ज़ मामले और ़फैसले के संदर्भ में तीन बिंदुओं को समझने की ज़रूरत है. 1. भारतीय दंड संहिता की धारा 377 असल में क्या कहती है? 2. इस बहस में कौन से समूह या व्यक्तिउलझे थे और उनका अलग-अलग तौर पर रुख़ क्या था? 3. और, दोनों पक्षों के तर्कों पर न्यायाधीश की क्या प्रतिक्रिया थी?
आईपीसी की धारा 377 असल में क्या है?
धारा की भाषा असल में कुछ इस तरह की हैः-
अप्राकृतिक अपराधः- जिसने भी अपनी मर्ज़ी से प्राकृतिक व्यवस्था के विपरीत किसी आदमी, औरत या जानवर के साथ शारीरिक संबंध बनाए, उसे उम्रक़ैद की सज़ा दी जाएगी, या दस वर्षों तक की क़ैद दी जाएगी और ज़ुर्माना भी लगाया जाएगा.
व्याख्याः- इस धारा में बताए अपराध के लिए शारीरिक संबंध बनाने का मतलब यौनांग के प्रवेश से है.
कोर्ट के मामले में कौन से पक्ष शामिल थे और उनका रुख़ क्या था?
2001 में आईपीसी की धारा 377 के विरोध में नाज़ फाउंडेशन नाम की ग़ैरसरकारी संस्था ने मामला दायर किया था. नाज़ फाउंडेशन ने दलील दी कि एचआईवी को रोकने के उनके प्रयासों को धारा 377 की वजह से नुक़सान पहुंच रहा है. तर्क यह दिया गया कि मर्द के साथ सेक्स करते मर्द (एमएसएम) एचआईवी/एड्स के लिहाज से हाई रिस्क ग्रुप में आते हैं, जो धारा 377 की वजह से अपनी पहचान ज़ाहिर नहीं करते. यह धारा उनको अपराधी बनाती है और इसी वजह से उनको स्वास्थ्य-सुविधाओं का लाभ नहीं मिल पाता. उनकी दलील है कि धारा 377 दो वयस्कों के बीच निजी तौर पर यौनक्रिया को भी आपराधिक कृत्य ठहराती है और इसीलिए संविधान के अनुच्छेद 14,15, 19 और 21 में बताए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है. आईपीसी की धारा 377 दो सहमत और साझीदार लोगों के बीच यौनक्रिया को आपराधिक बताकर मौलिक अधिकारों का दमन करती है. 2001 में दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मामले को अकादमिक बता कर सुनने से ही इंकार कर दिया था.
इस केस में कई सरकारी और ग़ैरसरकारी संस्थाओं को प्रतिवादी बनाया गया.
नाको (नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गनाइजेशन) ने स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ मिलकर 17 जुलाई 2006 को एक जवाबी हलफनामा दायर किया. यह याचिका दायर करने के पांच साल बाद किया गया, वह भी तब, जब सुप्रीम कोर्ट ने मामले को वापस हाईकोर्ट में भेज दिया था. नाको ने मुख्य तौर पर उन रणनीतियों की बात की, जो एचआईवी रोकने के लिए उसने बनाई थी. इसमें एमएसएम (मर्द के साथ मर्द का सेक्स) ग्रुप में हस्तक्षेप की रणनीति भी थी, जो नाको के मुताबिक अधिक ख़तरे वाले समूह में से एक है. नाको ने अपने आंकड़ों के ज़रिए यह बताया कि एमएसएम में एचआईवी का ख़तरा आठ फीसदी तक है, जबकि सामान्य जनसंख्या में यह महज़ एक ़फीसदी है. इस तरह नाको के मुताबिक धारा 377 इस आबादी में एचआईवी रोकने की राह में रोड़ा साबित हो रही है. यानी, नाको की दलील ने याचिकाकर्ता का समर्थन किया.
जैक (ज्वाइंट एक्शन काउंसिल, कन्नूर) ने एमएसएम समूह में एड्स का ख़तरा होने के नाको के आंकड़ों को चुनौती दी, क्योंकि वही उन एनजीओ द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे थे, जिनको एचआईवी रोकने का काम दिया गया है. अपने फंड को लगातार बनाए रखने में उनके स्वार्थ निहित हैंे, और इसी वजह से वे आंकड़ों में घालमेल कर सकते हैं. दूसरी बात, ये आंकड़े 2006 में जुटाए गए थे, याचिकाकर्ता के कोर्ट में जाने के पांच वर्षों बाद. इसका मतलब यह है कि जिस समय नाज़ फाउंडेशन ने यह दलील दी थी, तब तक ऐसी कोई स्टडी या रिसर्च नहीं था जिससे साबित किया जा सके कि एमएसएम सचमुच एक हाई रिस्क ग्रुप है. यह तो मामला दर्ज़ करने के बाद सबूत बनाने सरीखा है.
गृह मंत्रालय ने याचिका दायर करने के दो साल बाद 6 सितंबर 2003 को जवाबी हलफनामा दायर किया. गृह मंत्रालय ने याचिका का विरोध इस आधार पर किया कि याचिकाकर्ता ने ऐसे क़ानून को चुनौती दी है, जिसकी वजह से उसे कहीं भी नुक़सान नहीं उठाना पड़ा है. कोई दूसरा नुक़सान उठा सकता है, यह वजह याचिका दायर करने की नहीं हो सकती है. गृह मंत्रालय ने कहा कि जनहित याचिका का लक्ष्य न्यायिक प्रक्रिया का इस्तेमाल कर प्रशासनिक ज़िम्मेदारी तय करना है. इसका इस्तेमाल किसी क़ानून की वैधानिकता पर सवाल उठाने के लिए नहीं किया जा सकता. धारा 377 को किसी मामले के तथ्यों की रोशनी में ही समझा और व्याख्यायित किया जा सकता है. इसकी वजह यह कि दंडात्मक विधानों में ख़ासतौर पर कोर्ट को किसी भी क़ानून की व्याख्या करने का अधिकार उसके मौजूदा मायने के तहत है. गृह मंत्रालय ने आगे कहा कि रज़ामंदी का मामला अप्रासंगिक है. यह एक स्थापित सिद्धांत है कि कोई भी ग़ैरक़ानूनी अधिकार इस वजह से क़ानूनी नहीं हो जाता, क्योंकि दोषी या शिकार आदमी की इसमें सहमति है. साथ ही, निजता का अधिकार भले ही अविवादित है, लेकिन सार्वजनिक सुरक्षा और स्वास्थ्य के लहजे से सार्वजनिक अधिकारी को हस्तक्षेप का भी उतना ही अधिकार है.
आईपीसी की धारा 377 के तहत दर्ज़ मामलों का अध्ययन बताता है कि यह केवल शिकारों के बयान पर ही दाख़िल किया गया. ऐसा कोई उदाहरण देखने को नहीं मिला, जब इसे अराजक तरीक़े से या उन हालात में लागू किया गया, जहां प्राकृतिक तौर पर इसकी गुंजाइश नहीं थी. ऊपर बताए गए समूह (एमएसएम) को अगर इस तरह की छूट दी गई, तो विकारग्रस्त व्यवहार की तो बाढ़ ही आ जाएगी. गृह मंत्रालय ने यह भी कहा कि धारा 377 किसी भी तरह अनुच्छेद 14, 15, 19 या 21 का उल्लंघन नहीं करती.
जैक (ज्वाइंट एक्शन काउंसिल, कन्नूर) ने रिट याचिका के दाख़िल होते ही हस्तक्षेप की अर्जी दी, जिसके बाद उसे हाईकोर्ट ने 20 सितंबर 2002 को हस्तक्षेप की अनुमति दे दी. जैक ने अपनी आपत्ति इस आधार पर दायर की थी कि याचिकाकर्ता ने बिना किसी सबूत या ख़ास नुक़सान के क़ानून की वैधता को चुनौती दी है. याचिकाकर्ता ने इस बात का कोई सबूत पेश नहीं किया कि धारा 377 एचआईवी को रोकने में बाधक बन रही है, या फिर एमएसएम समूह एड्स के मामले में कोई हाई रिस्क ग्रुप है. इसी तरह कोई सबूत इस बात का भी नहीं पेश किया गया कि धारा 377 ने दो रज़ामंद वयस्कों के निजी में बनाए यौन-संबंधों को मामला बनाया. इसका मतलब यह है कि याचिका कही-सुनी बातों पर आधारित है.
इन सभी बातों के संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि एचआईवी रोकने के नाम पर धारा 377 के विरोध में चलाया जा रहा आंदोलन और कुछ नहीं, बल्कि सेक्स को संस्थागत बनाने और देश में एक ताक़तवर सेक्स इंडस्ट्री स्थापिक करने का उपाय है. दो सितंबर 2004 को हाईकोर्ट ने नाज़ की याचिका को ख़ारिज़ कर दिया था. इसके बाद दिल्ली हाईकोर्ट में ही याचिकाकर्ता ने एक रिव्यू पेटिशन दाख़िल किया. उसको भी ख़ारिज़ कर दिया गया. 17 फरवरी 2005 को सुप्रीम कोर्ट में फिर से नाज़ ने याचिका दी कि मामला तकनीकी आधार पर ख़ारिज़ किया गया है, और मामले को पूरी तरह से समझा ही नहीं गया. इसके बाद तीन फरवरी 2006 को सुप्रीम कोर्ट ने मामले को फिर से हाईकोर्ट में ही वापस भेज दिया. जिसका फैसला 2 जुलाई 2009 को सार्वजनिक किया गया.
कोर्ट के फैसले के आते ही मीडिया में बहस छिड़ गई. लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि समलैंगिकता अब ग़ैरकानूनी नहीं है. कुल मिलाकर बात यह है कि एड्स के क्षेत्र में काम करने वाले एक ग़ैरसरकारी संगठन ने अपने निहित स्वार्थ के लिए 377 के ख़िला़फ मुहिम छेड़ी. ऐसी-ऐसी दलीलें दीं जिसे हाईकोर्ट ने सही मान लिया. कोर्ट के फैसले को लेकर भी कई भ्रांतियां फैल गई हैं. असलियत यह है कि कोर्ट ने स़िर्फ यह कहा कि निजी तौर पर अगर दो वयस्क की रज़ामंदी से सेक्स करते हैं तो वह अपराध नहीं है. लेकिन कोर्ट ने गे मैरिज की छूट नहीं दी है. यह स़िर्फ एक अंतरिम आदेश है और स़िर्फ दिल्ली में लागू होगा.
इस फैसले से एक अजीबोगरीब स्थिति पैदा होती है. वह यह कि बिना शादी किए दो पुरुष आपसी सहमति से समलैंगिक संबंध बना सकते हैं, लेकिन अगर यही काम कोई मर्द किसी औरत के साथ करना चाहे तो उसे अवैध करार दिया जाएगा. इसमें कोई शक़ नहीं है कि इस क़ानून के ख़त्म होते ही पुरुष वेश्यावृत्ति को खुली छूट मिल जाएगी. उन ताक़तों को मौका मिल जाएगा जो पूरी दुनिया में सेक्स का बाज़ार चलाते हैं. इस क़ानून के ख़त्म होते ही उन लोगों को भी ताक़त मिलेगी जो देश में वेश्यावृत्ति को वैध बनाने के पक्षधर हैं.
समझने वाली बात यह है कि धारा 377 बहुत ही कारगर साबित हुई. क़रीब 130 वर्षों से इस क़ानून ने देश से समलैंगिकता के दुष्परिणामों को दूर रखा है. यह माना जाता है कि समलैंगिकों की प्रवृत्ति सामूहिक सेक्स और कई पार्टनर के साथ यौन संबंध बनाने की होती है और इस तरह के संबंध तो शारीरिक स्तर पर भी शिकार को नुक़सान पहुंचाते हैं. धारा 377 के ख़त्म होने से समलैंगिक पुरुष अब सामने आएंगे और पहले की तुलना में अब उन्हें नए पार्टनर आसानी से मिलेंगे. इससे एड्स के ज़्यादा तेज़ी से फैलने का ख़तरा बढ़ जाएगा.
यह बात भी सही है कि केवल संसद ही नैतिकता, सार्वजनिक व्यवस्था, भद्रता वग़ैरह को ध्यान में रखकर क़ानून में बना सकती है या बदलाव कर सकती है. यह भी तय है कि हरेक क़ानून सार्वजनिक और सामाजिक हित को ध्यान में रखकर बनाया जाता है, जबकि मौलिक अधिकार व्यक्ति के हित को ध्यान में रखकर. लेकिन सरकार चुप है, विरोधी पार्टियां चुप हैं, हमेशा बोलने वाले नेता चुप हैं. धारा 377 पर हमें इनके बोलने का इंतज़ार है. देखना तो यह है कि घारा 377 पर सरकार का अगला क़दम क्या होने वाला है. इसबीच, हम यहां जनता की तऱफ से देश को चलाने वालों को यह नोटिस देते हैं कि कोर्ट के बाहर धारा 377 पर चल रही बहस पर अपना मत जनता के सामने साफ करें.
>>सिविल रिट पीटीशन नं. 7455 ऑफ 2001
आईपीसी 377 के ख़िला़फ जनहित याचिका
नाज़ फाउंडेशन बनाम भारत सरकार
मामले का कालक्रम-
दिल्ली उच्च न्यायालय में 18-19 दिसंबर 1999 को याचिका दायर करने से पहले लॉयर्स कलेक्टिव एचआईवी /एड्स यूनिट (नाज़ फाउंडेशन के सलाहकार) ने मुंबई न्यायपालिका के लिए कार्यशाला आयोजित की. उसका विषय था- एचआईवी /एड्स द लॉ एंड एथिक्स.
इसके बाद लॉयर्स कलेक्टिव द्वारा दिल्ली और अहमदाबाद में भी दो कार्यशालाएं आयोजित की गईं, जिनका उद्देश्य न्यायपालिका में एचआईवी /एड्स से जुड़े क़ानूनी और नैतिक मुद्दों पर जागरूकता फैलाने और उन्हें बुनियादी तथ्यों के बारे में जानकारी देना था. इन कार्यशालाओं में दोनों शहरों के जजों की अच्छी-ख़ासी उपस्थिति रही. (इन कार्यशालाओं में बारे में पूरी जानकारी लॉयर्स कलेक्टिव एचआईवी /एड्स यूनिट की वेबसाइट पर उपलब्ध है)
दिसंबर 2001
रिट पीटीशन नं. 7455/2001 (नाज़ फाउंडेशन बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार और अन्य) दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर (वकील- याचिकाकर्ताओं की ओर से आनंद ग्रोवर और दिव्या कपूर, प्रतिवादी 1 और 2 के लिए वी के शाली, प्रतिवादी 3 के लिए रमेश शर्मा और प्रतिवादी 4 और 5 के लिए मुकुल रस्तोगी (असिस्टेंट अटार्नी जनरल),जयंत भूषण, राजन दार्गन और मौलिक नानावती)
23 अप्रैल 2002
उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय (न्यायमूर्ति देविंदर गुप्ता और एस मुखर्जी) खंडपीठ ने प्रतिवादियों को चार हफ़्तों के भीतर हलफनामे दायर करने के निर्देश ज़ारी किए (1. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की सरकार, 2. दिल्ली के पुलिस कमिश्नर, 3. दिल्ली राज्य एड्स नियंत्रण सोसाइटी, 4. राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको), 5(ए).गृह मंत्रालय, 5(बी). स्वास्थ्य मंत्रालय).
1 जुलाई 2002
जेएसीके (जैक) ने प्रतिवादी बनने के लिए आवेदन (संख्या आईए 9086/2002) दिया.
20 सितंबर 2002
जैक का आवेदन मंज़ूर
25 नवंबर 2002
जैक का हलफनामा दायर
6 सितंबर 2003
प्रतिवादी 5(ए) गृह मंत्रालय का हलफनामा दायर (अमन लेखी)
2 सितंबर 2004
उच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के विजय कुमार मुंद्रा बनाम भारतीय संघ और अन्य (आईएलपी(1972)2 दिल्ली 483) के मामले में दिए गए फैसले के आधार पर याचिका ख़ारिज़ की. यह ़फैसला जैक के वकीलों ने पीठ के समक्ष रखा था.
9 सितंबर 2004
जैक द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में आपत्ति-सूचना दायर
17 फरवरी 2005
नाज़ द्वारा एसएलपी 7217-7218/2005 सर्वोच्च न्यायालय में दायर
1 अप्रैल 2005
सर्वोच्च न्यायालय ने जैक को प्रतिवादी नं 6 के तौर पर शामिल करने का आदेश दिया (मुख्य न्यायाधीश सभरवाल और न्यायमूर्ति नावलेकर)
26 नवंबर 2005
एसएलपी में प्रतिवादी 5 का हलफनामा दायर
1 फरवरी 2006
प्रतिवादी 6. जैक का हलफनामा एसएलपी में दायर
3 फरवरी 2006
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के तहत मामला उच्च न्यायालय में वापस
3 अप्रैल 2006
उच्च न्यायालय का सभी प्रतिवादियों को मामले की वापसी का ज्ञापन
17 जुलाई 2006
प्रतिवादी 4. नाको और प्रतिवादी 5(बी). स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जवाब दाख़िल
28 अगस्त 2006
नाको का जैक की एमएसएम (मर्द-मर्द संबंध) के आंकड़ों से जुड़े आरटीआई आवेदन का जवाब
3 अक्टूबर 2006
जैक ने प्रतिवादी 4. नाको के जवाब में प्रत्युत्तर दाख़िल किया
3 अक्टूबर 2006
जैक ने अतिरिक्त हलफनामा दायर किया
3 अक्टूबर 2006
नाज़ ने प्रतिवादी 5(बी)-स्वास्थ्य मंत्रालय-के हलफनामे पर प्रत्युत्तर दाख़िल किया
3 अक्टूबर 2006
नाज़ ने प्रतिवादी 6-जैक-के हलफनामे पर प्रत्युत्तर दाख़िल किया
4 अक्टूबर 2006
बीपी सिंहल को प्रतिवादी नंबर 7 और एनजीओ वायसेज अगेंस्ट 377 को प्रतिवादी नं. 8 के तौर पर शामिल करने का आदेश
2 अप्रैल 2007
पक्षों का संशोधित मेमो और नाज़ द्वारा संशोधित याचिका दाख़िल
19 मई 2008
नाज़ की याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय में आख़िरी सुनवाई
7 नवंबर 2008
नाज़ की याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय में आख़िरी सुनवाई पूरी
(मुख्य न्यायाधीश शाह और न्यायमूर्ति मुरलीधर ) और ़फैसला सुरक्षित
2 जुलाई 2009
फैसला सार्वजनिक