क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक पौरुषविहीन संगठन हो गया है. क्या संघ परिवार देश में खुद किसी आंदोलन को शुरू करने का सामर्थ्य खो चुका है. क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इस कदर वैचारिक पतन हो गया है कि नौजवानों को सड़कों पर उतारने की उसकी शक्ति ही खत्म हो गई. क्या संघ परिवार का अपने पूर्णकालिकों, नेताओं, कार्यकर्ताओं एवं समर्थकों से विश्वास उठ गया है या फिर हमें यह मान लेना चाहिए कि संघ भी देश के उन संगठनों की तरह हो गया है, जो स़िर्फ नाम के देशव्यापी संगठन हैं, लेकिन उनमें कोई ऊर्जा नहीं है. ये बातें इसलिए उठ रही हैं, क्योंकि मोहन भागवत के बयान भ्रमित करने वाले हैं. यह सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं, क्योंकि अगर आडवाणी जी की रथ यात्रा में पैसे देकर लोगों को लाया जा रहा है, लिफाफे में पैसे देकर अ़खबारों में खबरें छपवाने की कोशिश हो रही है तो यह संघ परिवार के लिए एक शर्मनाक स्थिति है.
अन्ना हजारे के आंदोलन पर मोहन भागवत का एक बयान आया कि भ्रष्टाचार के खिला़फ चलाए जा रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं के आंदोलन को उनके संगठन का समर्थन है. मोहन भागवत का यह बयान अन्ना के आंदोलन को कमज़ोर करने वाला बयान है.
अन्ना हजारे के आंदोलन पर मोहन भागवत का एक बयान आया कि भ्रष्टाचार के खिला़फ चलाए जा रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं के आंदोलन को उनके संगठन का समर्थन है. मोहन भागवत का यह बयान अन्ना के आंदोलन को कमज़ोर करने वाला बयान है. जिन आरोपों को लेकर कांग्रेस अन्ना को बदनाम और कमज़ोर करने की असफल कोशिश कर रही थी, मोहन भागवत के एक बयान से कांग्रेस के वे सारे आरोप सही साबित हो गए. समझने वाली बात यह है कि अन्ना सरकार से लड़ रहे हैं, भ्रष्टाचार के खिला़फ एक सशक्त क़ानून की मांग कर रहे हैं. अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन एक सामाजिक पीड़ा का आंदोलन है और सभी धर्म-जाति के लोग पीड़ित हैं. बस अंतर सिर्फ़ इतना है कि टीम अन्ना ने इस पीड़ा को समझा और आंदोलन को खड़ा किया. अन्ना का आंदोलन आम आदमी की प्रतिष्ठा से जुड़ा है. मीडिया को भी अन्ना के आंदोलन को किसी भी राजनीतिक दल से नहीं जोड़ना चाहिए. विभिन्न दलों के जो नेता अन्ना के समर्थन में उतरे हैं, उन्हें आम आदमी जैसा ही समझना चाहिए.
बहस इस बात पर नहीं होनी चाहिए कि अन्ना को संघ का समर्थन है या नहीं. सवाल दूसरा है. क्या देश की जनता को यह हक नहीं है कि वह किसी आंदोलन को अपनी बुद्धि से आंक सके और यह जान-समझ सके कि अन्ना के आंदोलन का प्रारूप क्या है, उनकी विचारधारा क्या है, उनके आंदोलन की अच्छाई क्या है बुराई क्या है, क्या उनके आंदोलन को समर्थन करना चाहिए या नहीं. आम देशवासियों के स्वतंत्र रूप से चिंतन-मनन के हक़ को छीनने की कोशिश हो रही है. अगर देश में भ्रष्टाचार के खिला़फ अन्ना आंदोलन कर रहे हैं तो संघ को भ्रष्टाचार के खिला़फ आंदोलन करने से किसने रोका था. अन्ना के आंदोलन से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर क्यों सोया हुआ था. भारतीय जनता पार्टी ने पिछले चुनाव में कालेधन का मामला उठाया था, लेकिन संघ के लोगों को रामदेव की ज़रूरत क्यों पड़ गई, खुद कोई आंदोलन क्यों नहीं किया. इससे तो यही साबित होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जनता के सरोकार से कोई मतलब नहीं है और अगर है तो उसके पास इतनी शक्ति, इतना पौरुष नहीं है कि वह देशव्यापी आंदोलन खड़ा कर सके. जब अन्ना ने एक सफल आंदोलन किया तो उसका श्रेय लेने की कोशिश क्यों हुई.
समझने वाली बात यह है कि अन्ना का आंदोलन एक राजनीतिक आंदोलन है.राजनीतिक आंदोलन से मतलब यह है कि आंदोलन की मांग राजनीतिक है. आंदोलन का असर राजनीतिक दलों पर भी होना निश्चित है. इसलिए अन्ना और उनकी टीम का राजनीतिक दलों से दो- दो हाथ होना टाला नहीं जा सकता है. कोई दोस्त बनकर हमला करेगा तो कोई दुश्मन. कांग्रेस पार्टी दुश्मन बनकर अन्ना पर हमला कर रही है, मोहन भागवत ने दोस्त बनकर अन्ना को खंजर मारा है. इसलिए अन्ना को मोहन भागवत के बयान से ज़्यादा नुक़सान हुआ है. कांग्रेस के दिग्विजय सिंह अन्ना पर संघ के साथ साठगांठ का आरोप लगा रहे हैं, क्योंकि उनके सामने उत्तर प्रदेश का चुनाव है. वह अल्पसंख्यकों को अन्ना के आंदोलन से दूर रखना चाहते हैं. दिग्विजय सिंह इसमें सफल होते या असफल, यह तो बाद में तय होता, लेकिन मोहन भागवत ने ऐसा बयान देकर एक ही झटके में अल्पसंख्यकों और दक्षिणपंथी विरोधियों को अन्ना से अलग करने की कोशिश की. कांग्रेस पार्टी आंदोलन की शुरुआत से ही इसे कमज़ोर करने के लिए कई हथकंडे अपनाती रही. अन्ना की टीम दिग्विजय सिंह के हमले को क़रारा जवाब दे रही थी, लेकिन मोहन भागवत का बयान आते ही वह डिफेंसिव हो गई. अन्ना हजारे को यह कहना पड़ा कि मैं ईश्वर को मानने वाला हूं और ईश्वर को साक्षी रखकर कहूंगा कि रामलीला मैदान में आरएसएस का एक भी कार्यकर्ता 12 दिनों में एक बार भी मुझे आकर नहीं मिला और न मेरे आंदोलन में दिखाई दिया. मोहन भागवत के बयान की वजह से अन्ना कमज़ोर पड़ गए और उन्होंने खुद को सीमित दायरे में बांधने का मन बना लिया. एक बार फिर संपूर्ण क्रांति का दीप जलने से पहले ही बुझता दिख रहा है. इसका अर्थ यही निकलता है कि कांग्रेस की तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी भ्रष्टाचार के खिला़फ आंदोलन के खिला़फ है. मोहन भागवत ऐसा बयान देकर किसी बड़े भाई की भूमिका की ओर इशारा करना चाह रहे थे. वह यह बताना चाह रहे थे कि अन्ना के आंदोलन की सफलता के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संगठन है. जबकि हक़ीक़त कुछ और है. संघ के पास अब न वह ताक़त है और न वैसे पूर्णकालिकों और कार्यकर्ताओं का समूह है, जो किसी आंदोलन को सफल बना सकते हैं. संघ परिवार अपनी ही समस्याओं में उलझा हुआ है. संघ परिवार के संगठनों के बीच आपसी मतभेद इतने ज़्यादा हैं, जितने भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में नहीं हैं. एक उदाहरण देता हूं, हाल में ही टीवी के एक लोकप्रिय कार्यक्रम में बताया गया कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भारतीय जनता पार्टी का छात्र संगठन है. इस पर भारतीय विद्यार्थी परिषद के लोग इतने नाराज़ हो गए कि कोर्ट चले गए और उन्होंने चैनल से मा़फी मांगने के लिए कहा. मोहन भागवत जानते हैं कि संघ के संगठनों में अब न तो ऊर्जा है और न उसे चलाने वाले कमिटेड लोग हैं. लगता है कि संघ की उपयोगिता और वर्चस्व कायम रखने के लिए मोहन भागवत ने ऐसा बयान दिया. मोहन भागवत के इस बयान से भ्रम फैल गया. उन्होंने न स़िर्फ कांग्रेस को अन्ना के खिलाफ बोलने का मौक़ा दिया, बल्कि लोगों की नज़रों में संघ को भी कठघरे में खड़ा कर दिया.
मोहन भागवत के बयान ने तो यही साबित किया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एजेंडा हमेशा छिपा हुआ रहता है. संघ जो भी कार्य करता है, वे खुले रूप में नहीं होते हैं. उसका काम पर्दे के पीछे होता है. भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर भी वह जनता के सामने आकर आंदोलन नहीं करता है. जबकि यह मुद्दा ऐसा है, जिससे पूरा देश त्रस्त है. जब अन्ना हजारे बिना संगठन, बिना कार्यकर्ताओं और बिना किसी राजनीतिक बैकअप के ऐतिहासिक आंदोलन कर सकते हैं तो संघ जैसा संगठन इससे भी बड़ा आंदोलन कर सकता था. इसलिए यह सवाल उठता है कि संघ ने ऐसा क्यों नहीं किया. क्या संघ ने अपनी साख खो दी है, क्या देश के कोने-कोने में फैले इस संगठन ने जनता का रु़ख समझने में गलती की या फिर जनता के सरोकारों से अपना रिश्ता खत्म कर लिया है. मोहन भागवत के बयान को इसी संदर्भ में समझने की ज़रूरत है. रामदेव के आंदोलन पर रामलीला मैदान में पुलिसिया कार्रवाई के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आडवाणी को लोकसभा से इस्ती़फा देकर आंदोलन करने के लिए कहा था. आडवाणी ने संघ का सुझाव ठुकरा दिया. संघ खुद को असहाय महसूस करने लगा. अगर संघ के नेताओं को अपने संगठन, पूर्णकालिकों, कार्यकर्ताओं और समर्थकों पर भरोसा होता तो वे आडवाणी के बिना भी देश में आंदोलन छेड़ सकते थे. लोगों का समर्थन भी मिलता, लेकिन संघ ने ऐसा नहीं किया. जब अन्ना ने आंदोलन छेड़ा और पूरे देश में जनसैलाब उमड़ा, तब संघ के लोग हाथ मलते रह गए. आंदोलन खत्म हो गया तो मोहन भागवत ने इसका क्रेडिट लेने के लिए बयान दे दिया कि संघ का समर्थन है. इससे संघ को क्रेडिट तो नहीं मिला, उल्टा वह डिस्क्रेडिट हो गया. एक तरफ तो संघ की किरकिरी हुई, वहीं दूसरी तरफ अन्ना के सामने भी दुविधा की स्थिति खड़ी हो गई.
हक़ीक़त तो यह है कि अन्ना के आंदोलन में शामिल लोग आम लोग थे. वैसे लोग, जो राजनीति से घृणा करते हैं. ज़्यादातर लोग तो शायद यह भी नहीं जानते होंगे कि संघ के प्रमुख को क्या कहा जाता है. सरसंघचालक ने वही काम किया है, जो जेपी आंदोलन के दौरान हुआ. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविरों में यह बताया जाता है कि जेपी आंदोलन का संचालन संघ के लोग कर रहे थे. भारतीय जनता पार्टी और संघ के लोग जेपी आंदोलन का क्रेडिट लेने में कभी कोई चूक नहीं करते हैं. जेपी आंदोलन में भी संघ के कार्यकर्ता उसी तरह शामिल हुए थे, जैसे अन्ना के आंदोलन में शामिल हुए. संघ के ये कार्यकर्ता अपने विवेक, बुद्धि और देश के प्रति सद्भाव की वजह से शामिल हुए. मोहन भागवत की बातों को सही तब माना जाता, अगर रामलीला मैदान में शामिल होने वाले लोग सीधे संघ की शाखा से आते. अगर मोहन भागवत की बातों में सच्चाई है तो उन्हें यह भी बताना चाहिए कि जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी नहीं है, संघ का संगठन नहीं है, वहां अन्ना का आंदोलन कौन चला रहा था. मोहन भागवत के बयान ने अन्ना का नुकसान तो किया ही, साथ ही भारतीय जनता पार्टी को भी नुक़सान पहुंचाया. हिसार के चुनाव के बाद अन्ना के आंदोलन का स्वरूप कांग्रेस विरोधी आंदोलन में बदल रहा था. अन्ना का समर्थन स्वत: भारतीय जनता पार्टी के समर्थन में तब्दील हो रहा था, लेकिन मोहन भागवत के बयान ने सब कुछ उलट कर रख दिया. उत्तर प्रदेश के भाजपा कार्यकर्ता कह रहे हैं कि अन्ना के आंदोलन का फायदा अब पार्टी को मिलने की उम्मीद कम है. इसकी वजह यह है कि अन्ना के समर्थन में जो लोग सड़कों पर उतरे, वे राजनीतिक नहीं हैं. अन्ना के इशारे पर वह किसी भी पार्टी को वोट कर सकते हैं, लेकिन मोहन भागवत के बयान ने उन्हें भी सोचने पर मजबूर कर दिया कि भ्रष्टाचार हटाने की क़ीमत पर क्या देश में सांप्रदायिकता को मज़बूत किया जा सकता है. मोहन भागवत एक बयान देकर अन्ना के आंदोलन का श्रेय लेना चाह रहे थे, लेकिन नतीजा बिल्कुल उल्टा निकला. कांग्रेस पार्टी की रणनीति कामयाब हो गई, अन्ना कमज़ोर हो गए और भारतीय जनता पार्टी हाथ मलती रह गई.
हर भारतीय को भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन करने का अधिकार है. अन्ना सही हैं या गलत, यह फैसला करने का अधिकार है. आज़ाद भारत के सबसे बड़े जनांदोलन पर छींटाकशी करने और भ्रम फैलाने का अधिकार न तो मोहन भागवत को दिया जा सकता है और न दिग्विजय सिंह को. ऐसे बयान देने का मतलब सा़फ है कि इन नेताओं को लोकमत पर विश्वास नहीं है, प्रजातंत्र पर भरोसा नहीं है. राजनीति में शामिल संगठनों को जनमत से डरना चाहिए. राजनीतिक दलों को समझना चाहिए कि अन्ना का आंदोलन आज़ादी के बाद का एक ऐसा पहला आंदोलन है, जिसे जनता का भरपूर समर्थन मिला, जिसे भारत के कोने-कोने में समर्थन मिला. इसमें शामिल होने वाले लोग पैसे देकर नहीं लाए गए थे, उनके लिए गाड़ियों की व्यवस्था नहीं हुई थी. अन्ना और उनकी टीम ने पैसे देकर अ़खबारों में खबरें नहीं छपवाईं. जनता का समर्थन तभी मिलता है, जब नेतृत्व ईमानदार और अच्छा होता है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरे राजनीतिक दलों को अपने अंदर झांकना चाहिए और खुद से यह सवाल पूछना चाहिए कि उनके संगठन में अन्ना हजारे जैसा व्यक्ति क्यों नहीं है. जहां तक बात श्रेय लेने की है तो आज के दौर में लोग इतने जागरूक हैं कि जो संगठन, व्यक्ति अथवा नेता उनका समर्थन करेगा, उसे वे श्रेय अवश्य देंगे. सबसे बड़ी अदालत जनता की है.
आडवाणी जी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं
आडवाणी जिस पार्टी के पालक और पोषक रहे और जिसे उन्होंने सरकार बनाने लायक बनाया, अब प्रधानमंत्री पद के मोह में उसी को नष्ट करने में लगे हैं. लालकृष्ण आडवाणी जनचेतना यात्रा के ज़रिए प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहते हैं. इसके लिए उन्होंने ऐसी रणनीति अपनाई है, जिसका असर अगले कई चुनावों तक दिखेगा. आडवाणी की यह यात्रा भारतीय जनता पार्टी में एक ऐसा बीज बो रही है, जिससे पार्टी में हर जगह भस्मासुर पैदा होंगे. यह पार्टी एक अंतहीन गुटबाजी के चक्रव्यूह में फंसेगी. इसका हाल वही होगा, जैसा कि दो परमाणु बम वाले देशों के बीच युद्ध में होता है और जिसमें कोई विजेता नहीं होता. यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकार अगले लोकसभा चुनाव में जीत हासिल करने की योजना बनाने और उस पर काम करने के बजाय प्रधानमंत्री पद के लिए आपस में लड़ रहे हैं. दो सितारे आमने- सामने हैं, बाकी फिलहाल चुपचाप तमाशा देख रहे हैं. लोकसभा चुनाव कब होंगे, यह किसी को पता नहीं, लेकिन भारतीय जनता पार्टी में कम से कम 6 ऐसे नेता ज़रूर हैं, जो अगला प्रधानमंत्री बनने की योजना पर काम कर रहे हैं. फिलहाल आडवाणी इस दौड़ में सबसे आगे हैं. ज़ाहिर है, जो लोग प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, वे बड़े नेता हैं. इसलिए यह कहा जा सकता है कि भाजपा के सारे बड़े नेता आपस में लड़ रहे हैं, पार्टी ऐतिहासिक गुटबाजी के कुचक्र में फंस गई है, भाजपा नेता अब संघ की बातों को भी टालने लगे हैं, हर नेता तबीयत खराब होने का बहाना बनाकर घर में बैठा है, कोई किसी भी गुट में दिखना चाहता है, पार्टी के वरिष्ठ रणनीतिकारों के बीच वार्तालाप बंद हो गया है, सारे नेता अपनी-अपनी रणनीति बनाने में लगे हैं. निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी अपने जीवनकाल के सबसे खराब दौर से गुज़र रही है. यही वजह है कि पिछले कुछ दिनों से भाजपा मुख्यालय में कार्यकर्ताओं की बॉडी लैग्वेज बदल गई है. अगली सरकार भारतीय जनता पार्टी की ही बनेगी, ऐसा विश्वास वाला चेहरा कुछ दिनों से फीका पड़ने लगा है. एक ने कहा कि पार्टी के लिए महामृत्युंजय यज्ञ करने की ज़रूरत है. ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ता फिर से निराश हो गए हैं. अन्ना और रामदेव के आंदोलन से उनका मनोबल बढ़ा था, लेकिन जिस तरह आडवाणी ने प्रधानमंत्री बनने की जिद पाल रखी है, उससे पूरी पार्टी निराश और कुंठित हो गई है.
संघ ने आडवाणी जी के सामने शर्त रखी थी कि जनचेतना यात्रा शुरू करने से पहले उन्हें यह घोषणा करनी पड़ेगी कि वह यह यात्रा प्रधानमंत्री पद के लिए नहीं कर रहे हैं. वह नागपुर गए और वहां संघ के पदाधिकारियों से मिलने के बाद गोलमटोल करके उन्होंने यह बयान दे दिया कि संघ ने उन्हें प्रधानमंत्री पद से ज़्यादा दे दिया है. जो बात कहनी थी, उन्होंने सा़फ-सा़फ नहीं कही. वह पहला संकेत था कि आडवाणी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. उनकी यात्रा शुरू हुई, लेकिन उनके रथ को कई शुरुआती झटके लगे. उन्होंने गुजरात से यात्रा शुरू करनी चाही, लेकिन मोदी ने नाराज़गी जता दी. मोदी भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं. उन्होंने भूख हड़ताल करके पूरे मीडिया को अपनी ओर खींच लिया. आडवाणी को अपनी रथ यात्रा बिहार से शुरू करनी पड़ी. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी राजनीतिक दुश्मन ही हैं, लेकिन आडवाणी ने मोदी को पटना की रैली से चिढ़ाया और कहा कि अगर सुशासन देखना है तो बिहार देखना चाहिए. भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता यह सुनकर सन्न रह गए कि आडवाणी जी ने यह क्या कह दिया. क्या गुजरात, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्यों में सुशासन नहीं है. दरअसल, यात्रा के दूसरे दिन आडवाणी ने भारतीय जनता पार्टी को विभाजित कर दिया. पार्टी में जो लोग मोदी के समर्थक हैं, उन्हें संकेत मिल गया कि आडवाणी जी का मतलब क्या है. दुविधा में वे बड़े नेता हैं, जो तटस्थ दिखना चाहते हैं. इस बयान के पहले सुषमा स्वराज और अरुण जेटली भी आडवाणी के रथ पर थे. तबीयत खराब हो गई, इसलिए दिल्ली लौट आए. लेकिन जैसे ही आडवाणी ने नीतीश के कंधे पर बंदूक रखकर मोदी पर हमला बोला, अगले ही दिन सारे नेता वापस आडवाणी के साथ थे. प्रधानमंत्री पद के एक और दावेदार हैं पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह. योजना के मुताबिक़, उनकी यात्रा मथुरा से शुरू हुई. उमा भारती को राजनाथ सिंह के साथ रहना था, लेकिन वह आडवाणी के रथ पर जा कूदीं और उन्होंने ऐलान कर दिया कि आडवाणी जी ही भारतीय जनता पार्टी के सबसे बेहतर उम्मीदवार हैं. यह सरासर पार्टी लाइन और आरएसएस की अवमानना है, इसलिए पार्टी प्रवक्ता शाम को टीवी पर यह कहते नज़र आए कि उमा भारती का यह व्यक्तिगत बयान है, पार्टी ने किसी को प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार घोषित नहीं किया है.
नरेंद्र मोदी ने अपना स्टैंड कड़ा कर लिया है. उन्हें लग रहा है कि वह पार्टी में अकेले पड़ गए हैं. उनके सबसे क़रीबी मित्र अरुण जेटली ने भी उनका साथ छोड़ दिया है. पार्टी में संजय भाई जोशी की वापसी को मोदी के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है. फिर आडवाणी की यात्रा और प्रधानमंत्री बनने की उनकी जिद की वजह से मोदी अकेले पड़ गए हैं. मोदी का बर्ताव भी एक कारण है, जिसकी वजह से संघ और भाजपा के नेता उनसे दूरी बनाए रखना चाहते हैं. मोदी के अलावा अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, मुरली मनोहर जोशी और नितिन गडकरी भी इस दौड़ में शामिल हैं. सब एक से बढ़कर एक रणनीतिकार हैं, इसलिए यह समझना बड़ा मुश्किल होगा कि कौन किसके साथ है. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आडवाणी की रथ यात्रा को सफल बनाने में पूरी ताक़त लगा दी. पैसे भी बांटने का आरोप लगा, लेकिन हक़ीक़त यह है कि बिहार और मध्य प्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्यों में अगर लोग आडवाणी की रथ यात्रा के साथ नहीं जुड़ते हैं तो इसका मतलब यही है कि चुनाव के नतीजे भारतीय जनता पार्टी की अपेक्षा के विपरीत जाने वाले हैं.
आडवाणी जी को संघ ने अच्छी सलाह दी कि वह अब प्रधानमंत्री पद का मोह छोड़ दें, लेकिन जब पत्रकार उनसे इस बारे में सवाल पूछते हैं तो वह नाराज़ हो जाते हैं. आडवाणी जी देश के सबसे वरिष्ठ नेता हैं. उन्हें तो कम से कम यह समझना ही चाहिए कि अन्ना हजारे के साथ लोग इसलिए हैं, क्योंकि उनमें एक संत नज़र आता है. आडवाणी के व्यक्तित्व से वह संत ही ग़ायब हो चुका है. भारतीय जनता पार्टी की दूसरी सबसे बड़ी गलती यह है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव और अलग- अलग रथयात्राओं से अटल बिहारी वाजपेयी ग़ायब हैं.