प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ईमानदार हैं, सौम्य हैं, सभ्य हैं, मृदुभाषी एवं अल्पभाषी हैं, विद्वान हैं. उनके व्यक्तित्व की जितनी भी बड़ाई की जाए, कम है, लेकिन क्या उनकी ये विशेषताएं किसी प्रधानमंत्री के लिए पर्याप्त हैं? अगर पर्याप्त भी हैं तो उनकी ये विशेषताएं सरकार की कार्यशैली में दिखाई देनी चाहिए. अ़फसोस इस बात का है कि मनमोहन सिंह के उक्त गुण सरकार के कामकाज में दिखाई नहीं देते. वैसे, भारत में प्रधानमंत्री सर्वशक्तिमान होता है. वह देश का सबसे बड़ा नेता होता है. संविधान के मुताबिक वह लोकसभा का नेता होता है. मतलब यह कि उसे लोकसभा में बहुमत का समर्थन होना आवश्यक है. किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सर्वोच्च कार्यपालक तो जनता का सर्वोच्च प्रतिनिधि होता है. अगर देश का प्रधानमंत्री लोगों द्वारा चुना हुआ नेता न हो, अगर वह लोकसभा का ही सदस्य न हो, जिसने कभी लोकसभा का चुनाव न जीता हो, जिसने इस मुकाम को स़िर्फ इसलिए हासिल कर लिया हो, क्योंकि वह किसी शख्स की निजी पसंद है, तो ऐसे प्रधानमंत्री को क्या कहा जाए. मनमोहन सिंह के व्यक्तित्व और प्रधानमंत्री के लिए ज़रूरी योग्यताओं के बीच काफी दूरी है. पिछले आठ सालों में मनमोहन सिंह इस दूरी को नहीं मिटा पाए हैं.
लाल बहादुर शास्त्री के अचानक निधन के बाद जब इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री चुना गया तो कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं ने उन्हें गूंगी गुड़िया कहा था, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी ने अपने करिश्माई व्यक्तित्व एवं आक्रामक तेवरों से हालात को न स़िर्फ अपने पक्ष में कर लिया, बल्कि वह देश की सबसे बड़ी लीडर बन गईं. देश में आपातकाल लगाने के बावजूद इंदिरा गांधी को कुशल नेतृत्व, त्वरित फैसले लेने की क्षमता और प्रभावपूर्ण कार्यों के लिए आज भी याद किया जाता है. उन्हें एक महान नेता का दर्जा हासिल है. दरअसल, हिंदुस्तान की जनता प्रधानमंत्री में एक महानायक ढूंढती है. मनमोहन सिंह पिछले आठ सालों से प्रधानमंत्री हैं. अ़फसोस के साथ कहना पड़ता है कि वह जनता की नज़रों में महानायक क्या, नायक भी नहीं बन पाए हैं.
वर्ष 2004 में जब वह प्रधानमंत्री बने, तब उन्हें सोनिया गांधी ने चुना था. कांग्रेस में कई लोग इस पद के दावेदार थे. शायद मनमोहन सिंह की कमियां ही उनकी योग्यता बन गईं. 2004 में मनमोहन सिंह लोकप्रिय नेता नहीं थे. कांग्रेस में उनके पीछे-पीछे चलने वाले न तो कार्यकर्ता थे और न कोई नेता. राजनीति में उनकी साख नहीं थी. 2004 में वह राज्यसभा के सदस्य थे और आज भी राज्यसभा के ही सदस्य हैं. हैरानी की बात तो यह है कि पांच साल प्रधानमंत्री बने रहने के बावजूद उन्होंने 2009 में लोकसभा का चुनाव लड़ना उचित नहीं समझा. हालांकि राज्यसभा का सदस्य रहते हुए प्रधानमंत्री बने रहना कोई गुनाह नहीं है. तकनीकी और क़ानूनी तौर पर यह जायज तो है, लेकिन प्रधानमंत्री अगर जनता द्वारा चुना हुआ व्यक्ति बने तो प्रजातंत्र को मजबूती मिलती है.
जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री चुनी गईं, तब वह राज्यसभा की सदस्य थीं, लेकिन उन्होंने राज्यसभा से इस्ती़फा दे दिया. उनका मानना था कि प्रधानमंत्री को लोकसभा में आना ही चाहिए, क्योंकि वह लोगों का प्रतिनिधि होता है. गौर करने वाली बात यह है कि हमने कई लोगों से जब यह पूछा कि मनमोहन सिंह राज्यसभा में देश के कौन से राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं तो ज़्यादातर लोगों ने गलत जवाब दिया. वैसे वह राज्यसभा में असम के प्रतिनिधि के तौर पर हैं, लेकिन अतीत में असम से उनका कोई रिश्ता नहीं रहा. वह न तो असम में जन्मे, न उन्होंने वहां पढ़ाई की और न उन्हें वहां की भाषा का ज्ञान है. मनमोहन सिंह ने 1999 में दिल्ली की दक्षिण दिल्ली सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ा था, जिसमें वह हार गए थे. उसके बाद उन्होंने दोबारा कभी लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा.
प्रधानमंत्री में जहां संपूर्ण देश की ताकत होती है, वहीं वह देश की नैतिक शक्ति का भी प्रतीक होता है. असम से राज्यसभा में चुनकर आना और असम में अपने लिए रहने के घर का प्रबंध करना, जहां स़िर्फ नौकर रहता हो, नैतिक शक्ति पर पहला प्रश्नचिन्ह खड़ा कर जाता है. एक मज़बूत नेता होने के लिए एक विजन की आवश्यकता होती है. नेता कितना भी ज्ञानी क्यों न हो, अगर उसके पास वर्तमान और भविष्य की समस्याओं से निपटने का ब्लू प्रिंट न हो, तो वह लोगों की समस्याओं का हल नहीं निकाल सकता और अगर कोशिश भी करता है तो नुक़सान हो जाता है. 1991 में जब मनमोहन सिंह ने एक ब्लू प्रिंट दिया था कि नव उदारवादी नीतियों के लागू होते ही बीस साल के भीतर देश बिजली के मामले में आत्मनिर्भर हो जाएगा, नौकरियां बढ़ जाएंगी, ग़रीबी कम हो जाएगी, रहन-सहन का स्तर ऊंचा हो जाएगा, भारत विकसित देशों की कतार में खड़ा हो जाएगा. लेकिन, बीस साल बाद आज हम देखते हैं कि इनमें से कुछ भी नहीं हुआ.
देश के सैकड़ों ज़िलों में लोग इस समय भूख, बेकारी और ग़रीबी से कराह रहे हैं. जंगलों और गांवों में रहने वाले लोग सरकार के ख़िलाफ नक्सलवादियों का साथ दे रहे हैं. प्रधानमंत्री ने नक्सलवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा भी बताया, लेकिन इस स्थिति से निपटने के लिए उन्होंने क्या किया? जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे, तब देश में नक्सल प्रभावित ज़िलों की संख्या 80 थी, जो फैसले न लेने की वजह से आज बढ़कर 250 हो गई है. अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को पाकर लोगों में आशा जगी. खासकर किसानों को लगा कि उनकी मुसीबतें खत्म हो जाएंगी, लेकिन किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी साल दर साल कम होती चली गई. हालत यह है कि वर्ष 2011 में 14,004 किसानों ने आत्महत्या की. इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? यह कोई नई समस्या नहीं है. जबसे मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने हैं, तबसे उनके सामने किसानों की आत्महत्याओं के सालाना आंकड़े आते होंगे, लेकिन उन्होंने कोई फैसला नहीं लिया. सरकार यहीं पर नहीं रुकी, विकास के नाम पर वह किसानों से उनकी जमीनें छीनकर निजी कंपनियों को देने में जुट गई. मनमोहन सिंह यहां भी चूक गए और गरीबों के पक्ष में कोई भी फैसला नहीं ले सके.
जिस देश का प्रधानमंत्री एक विश्वविख्यात अर्थशास्त्री हो और वहां के सारे आर्थिक सूचकांक धराशायी हो रहे हों, जनता महंगाई से जूझ रही हो, करेंसी की वैल्यू दिनोदिन गिर रही हो, किसान आत्महत्या कर रहे हों, मध्य वर्ग परेशान हो, उद्योगपति यह कहें कि सरकार फैसले नहीं ले सकती, क्योंकि उसे लकवा मार गया है और घोटाले पर घोटाले पकड़े जाएं, तो इसका मतलब सा़फ है कि उस विद्वान प्रधानमंत्री में स्वयं फैसला लेने की क्षमता नहीं है या फिर उसने खुद को इन सब से अलग कर लिया है और जहां जो भी गड़बड़ियां हो रही हैं, उनकी ओर से अपनी आंखें बंद कर ली हैं.
बेरोज़गारी दिनोदिन बढ़ रही है और विकास दर घटती जा रही है. विकास दर 9 फीसदी से घटकर इस साल की पिछली तिमाही में 5.3 फीसदी पर आ गई है, लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय 9 फीसदी की विकास दर को याद करके खुश हो जाता है. प्रणब मुखर्जी जब वित्त मंत्री थे, तब मनमोहन सिंह ने कभी आर्थिक मामले में हस्तक्षेप करने की ज़रूरत नहीं समझी. बैंकों के चेयरमैन की नियुक्तियां रुक सी गईं, प्रधानमंत्री ने कभी कारण जानने की कोशिश नहीं की. महत्वपूर्ण अधिकारियों की पोस्टिंग-ट्रांसफर में देरी को लेकर उन्होंने कभी किसी से जवाब तलब नहीं किया. संसद में 11 महत्वपूर्ण बिल लटके पड़े हैं, इसके अलावा 44 बिलों के ड्राफ्ट तैयार हैं, लेकिन ये सारे ज़रूरी काम भगवान भरोसे छोड़ दिए गए हैं. प्रणब मुखर्जी के सरकार से बाहर जाते ही मनमोहन सिंह सुपर एक्टिव हो गए. अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए उन्होंने एनिमल स्पिरिट की बात कहकर सरकार के कामकाज में बदलाव का संकेत दिया. सवाल यह उठता है कि प्रधानमंत्री जी अब तक क्या कर रहे थे, ऐसी क्या मजबूरी थी कि 2004 से अब तक यह एनिमल स्पिरिट गायब रही, यह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कमज़ोरी थी या फिर वह फैसले लेने में असमर्थ थे?
महंगाई की मार ऐसी पड़ रही है कि ग़रीबों के साथ-साथ अमीर भी परेशान हैं. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में महंगाई की जो हालत रही है, वह अर्थशास्त्र की सारी थ्योरी को फेल कर देती है. अगर फसल बर्बाद हो जाए, उत्पादन में कमी हो जाए या फिर बाज़ार में अभाव की वजह से किसी वस्तु की कीमत बढ़ जाए तो समझ में भी आता है, लेकिन बेहतरीन पैदावार के बावजूद कीमतें बढ़ती हैं तो इसका मतलब है कि ज़रूर कुछ गड़बड़ है. मनमोहन सिंह जैसे विश्वविख्यात अर्थशास्त्री को महंगाई के असल कारण नहीं पता होंगे तो फिर किसे होंगे. जब-जब कीमतें बढ़ीं, तब मनमोहन सिंह का बयान आया कि कुछ दिनों में कीमतें कम हो जाएंगी, लेकिन हर बार कीमतें कम होने की बजाय बढ़ जाती हैं. फिर प्रधानमंत्री जी एक दूसरी तारीख दे देते हैं, फिर कीमतें बढ़ जाती हैं. कीमतें लगातार बढ़ती जा रही हैं, इसके साथ ही प्रधानमंत्री की डेडलाइन भी आगे बढ़ती जा रही है. दरअसल, प्रधानमंत्री कोई फैसला ही नहीं कर पाते. वह मजबूर हैं, क्योंकि प्रधानमंत्री की कैबिनेट में ऐसे-ऐसे मंत्री हैं, जो बोल-बोलकर महंगाई बढ़ा देते हैं. वायदा कारोबार का प्रकोप पिछले कुछ सालों में ऐसा बढ़ा, जिससे महंगाई बेकाबू हो गई है. हैरानी की बात यह है कि प्रधानमंत्री इसे रोकने के लिए अब तक किसी नतीजे तक नहीं पहुंच सके हैं.
इतिहास में मनमोहन सिंह को इसलिए याद किया जाएगा, क्योंकि उनके शासनकाल में देश में सबसे ज़्यादा घोटाले हुए. 1992 में जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे, तब तीन बड़े-बड़े घोटाले हुए, जिनसे पूरा देश हिल गया. ये तीन घोटाले थे, 1500 करोड़ रुपये का हर्षद मेहता स्कैम, इंडियन बैंक स्कैम और पामोलिन ऑयल स्कैम. जबसे उन्होंने प्रधानमंत्री का पद संभाला है, तबसे घोटालों के सारे रिकॉर्ड टूट गए हैं, जैसे 2-जी घोटाला, कोयला घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला, सत्यम घोटाला और आदर्श घोटाला. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हुए घोटालों की सूची बहुत लंबी है. इन घोटालों में सरकार, निजी कंपनियों और नेताओं के एक गठजोड़ का पता चलता है. फैसला न लेने के कारण भ्रष्टाचार की जड़ें और मजबूत होती चली गईं. सरकार की कार्यशैली एवं नीतियों की वजह से घोटालों का रूप विकराल होता चला गया. यह बीमारी अब समाज के सबसे निचले स्तर यानी पंचायत तक पहुंच गई है. मनरेगा जैसी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गईं. न कोई रोकथाम न कोई फैसला. देश की ग़रीब जनता अपने ईमानदार प्रधानमंत्री की तरफ आशा भरी निगाह से देखती रही लेकिन मनमोहन सिंह की तरफ से कोई फैसला नहीं आया. प्रधानमंत्री ईमानदार हैं, यह उनके विरोधी भी कहते हैं, लेकिन उनकी इस ईमानदारी की परछाई सरकार के कामकाज पर पड़ती नहीं दिखाई दे रही है.
2004 में लोकसभा चुनाव के बाद मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने. सोनिया गांधी ने उन्हें प्रधानमंत्री तो बना दिया, लेकिन उनकी नेतृत्व क्षमता पर भरोसा नहीं कर सकीं. मनमोहन सिंह शायद देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री रहे, जो अपना मंत्रिमंडल स्वयं नहीं बना सके. कांग्रेस पार्टी ने उन्हें अपने फैसले लेने की आज़ादी नहीं दी. कांग्रेस पार्टी ने सरकार के गठन के तुरंत बाद 4 जून, 2004 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन कराया. यह एक ऐसी संस्था है, जो यूपीए सरकार को नीतिगत सलाह देती है. अगर प्रधानमंत्री को नीतिगत सलाह देने की व्यवस्था बनाई जाती है तो इसका मतलब यही हुआ कि पार्टी को प्रधानमंत्री की बुद्धि और विवेक पर भरोसा नहीं है. मजेदार बात यह है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन प्रधानमंत्री करते हैं, लेकिन उसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं और उनकी सलाह पर प्रधानमंत्री उसके सदस्यों को मनोनीत कर सकते हैं. मतलब यह कि सलाहकार समिति की कमान प्रधानमंत्री के पास नहीं, सोनिया गांधी के पास है. हैरानी की बात यह है कि इसी सलाहकार समिति के सदस्य प्रधानमंत्री और सरकार के क्रियाकलापों पर नकारात्मक टिप्पणी करने से नहीं चूकते और वे सलाहकार परिषद में बने भी रहते हैं. हाल में ही राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की एक सदस्य अरुणा रॉय ने आरोप लगाया कि मनमोहन सिंह की सरकार भ्रष्टाचार और जवाबदेही को लेकर गंभीर नहीं है. सलाहकार परिषद के सदस्यों द्वारा यह कोई पहला आरोप नहीं है. हैरानी तो तब होती है, जब मनमोहन सिंह इन आरोपों का कोई जवाब नहीं देते. सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली इस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा को सबसे ज़्यादा आघात पहुंचाया है. इससे न स़िर्फ सरकार के कामकाज पर सवाल उठता है, बल्कि यह प्रधानमंत्री को कमजोर साबित करने की रणनीति है. इससे तो यही साबित होता है कि मनमोहन सिंह में यूपीए का साझा न्यूनतम कार्यक्रम लागू करने की काबिलियत नहीं है.
राजनीतिक तौर पर मनमोहन सिंह को यूपीए के सहयोगी दल और विपक्ष एक अप्रशिक्षित राजनीतिज्ञ मानते हैं. इसके कई कारण हैं. राष्ट्रपति का चुनाव मनमोहन सिंह के लिए हैरान करने वाला है. कांग्रेस के कई लोग उन्हें राष्ट्रपति बनाना चाहते थे. इतना ही नहीं, यूपीए को समर्थन देने वाली ममता बनर्जी ने तो उनका नाम मीडिया के सामने ले लिया. इससे एक उलझन की स्थिति पैदा हो गई. सवाल यह उठता है कि ममता बनर्जी और मुलायम सिंह यादव ने मनमोहन सिंह का नाम क्यों लिया, किसके कहने पर लिया? फर्ज़ कीजिए, अगर मनमोहन सिंह की जगह इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री होतीं तो क्या कोई घटक दल उनका नाम राष्ट्रपति पद के लिए प्रस्तावित करने की हिम्मत कर पाता? ममता बनर्जी को यह हिम्मत कांग्रेस के लोगों से मिली. वजह भी सा़फ है. मनमोहन सिंह संसद के अंदर कभी एक सक्रिय प्रधानमंत्री के रूप में नहीं उभर सके. विपक्ष के नेताओं के साथ संवाद स्थापित करना, बहस में सक्रिय हिस्सा लेना, कैबिनेट के सहयोगियों को बढ़ावा देना, सरकार के प्रस्तावों के लिए समर्थन जुटाना, संसद के जरिए सरकार के लिए देश में माहौल बनाना और अपने भाषणों से देश एवं सरकार की दिशा-दशा सा़फ करना आदि प्रधानमंत्री का दायित्व होता है. गठबंधन की सरकार में यह दायित्व और भी बढ़ जाता है, क्योंकि सहयोगी दलों को साथ लेकर चलना भी प्रधानमंत्री का दायित्व है. यूपीए सरकार के दौरान जो कुछ दिखाई दिया, उससे यही कहा जा सकता है कि संसद के अंदर प्रधानमंत्री की इस भूमिका को प्रणब मुखर्जी निभाते आए. यूपीए के लिए समस्या तब-तब पैदा हुई, जब प्रधानमंत्री ने अपना फैसला थोपना चाहा. चाहे वह न्यूक्लियर डील का मामला हो या फिर एफडीआई का, सरकार संकट में आ गई. प्रधानमंत्री ने राजनीतिक कुशलता की जगह भावनाओं का सहारा लिया. कई बार उन्होंने पद छोड़ने की बात कहकर अपनी कमज़ोरी ज़ाहिर कर दी.
मनमोहन सिंह शायद देश के पहले प्रधानमंत्री होंगे, जिन्हें सभी मंत्रालयों को यह लिखकर भेजना पड़ा कि वे जो भी फैसले लेते हैं, उसकी जानकारी प्रधानमंत्री कार्यालय को दें. यह चिट्ठी लिखने की ज़रूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि कांग्रेस के कई बड़े नेता प्रधानमंत्री से पूछकर कोई फैसला नहीं लेते. ऐसा लगता है कि मनमोहन सिंह की सरकार में एक नहीं, कई प्रधानमंत्री काम कर रहे हैं. मनमोहन सिंह के पास इन मंत्रालयों की समीक्षा के लिए व़क्त नहीं है. कहां क्या गड़बड़ियां हो रही हैं, उन्हें इसका भी पता नहीं चलता. यह नेतृत्व की कमी नहीं तो और क्या है?
सरकार लुंजपुंज अवस्था में चल रही है, जिस पर मनमोहन सिंह का कोई नियंत्रण नहीं है. कमजोर नेतृत्व का केंद्र सरकार के कामकाज पर ज़बरदस्त असर पड़ा. न कोई मंत्री फैसले ले रहा है, न किसी मंत्रालय में योजनाएं बन रही हैं. जब नेता ही टालमटोल करेंगे तो भला सेक्रेटरी कैसे काम करेंगे, जिन्हें रिटायर होने में कुछ साल बाक़ी हैं, वे फैसले नहीं ले रहे हैं और जो तत्काल रिटायर होने वाले हैं, वे तो फाइलों के ऊपर बैठ गए हैं. नतीजे के तौर पर पूरे देश में नौकरशाही के स्तर पर एक डेडलॉक आ गया है. प्रधानमंत्री भी यह डेडलॉक जारी रखना चाहते हैं. इस डेडलॉक को तोड़ने में किसी को दिलचस्पी नहीं है. सरकार काम नहीं कर रही है, इस आरोप से निपटने के लिए ही सही, मनमोहन सिंह को पहल करनी चाहिए थी, क्योंकि सरकार सुचारू रूप से अपना काम करे, यही एक सक्रिय प्रधानमंत्री का दायित्व है और एक मजबूत प्रधानमंत्री का कर्तव्य. लेकिन, मनमोहन सिंह खुद को जवाहर लाल नेहरू के बाद दूसरा ऐसा प्रधानमंत्री साबित करना चाहते हैं, जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमुखता से अपनी भूमिका निभाई. मनमोहन सिंह खुद को इतिहास में एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज कराना चाहते हैं, जो दुनिया के बड़े-छोटे, सभी देशों में गया और वहां जाकर उसने हिंदुस्तान की तस्वीर को निखारा, लेकिन यहां भी मनमोहन सिंह मात खा गए. जिन बड़े देशों में मनमोहन सिंह गए, वहां से हिंदुस्तान के लिए कुछ नहीं ला पाए. जिन छोटे देशों में गए, वहां भी गंवाकर ही आए, लाए कुछ नहीं.
मनमोहन सिंह शायद देश के पहले प्रधानमंत्री है, जिनकी चुनाव के दौरान कोई अहमियत नहीं होती. पार्टी अपने प्रचार में उन्हें एक स्टार प्रचारक की तरह मैदान में नहीं उतारती. हाल में हुए चुनावों में उत्तर प्रदेश का चुनाव कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए निर्णायक चुनाव था. आखिर क्या वजह है कि कांग्रेस मनमोहन सिंह की रैलियां करने में हिचकती है? अगर उन्हें कहीं भेजा भी जाता है तो वह एक खानापूर्ति समझी जा सकती है. इसका मतलब तो यही निकलता है कि कांग्रेस ने यह मान लिया है कि मनमोहन सिंह के प्रचार से पार्टी को कोई फायदा नहीं होने वाला है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस चुनाव हार गई तो हार के कारणों का पता लगाने के लिए एंटनी कमेटी बनी. इस कमेटी ने राहुल गांधी को क्लीन चिट दे दी और हार का ठीकरा मनमोहन सिंह सरकार पर फोड़ दिया. कमेटी ने कहा कि हार के लिए केंद्र सरकार की नीतियां, महंगाई और भ्रष्टाचार ज़िम्मेदार हैं. एंटनी कमेटी की रिपोर्ट एक ऐसा आईना है, जिसमें मनमोहन सिंह की कमज़ोरी को सा़फ-सा़फ दिखाया गया. वैसे भी कांग्रेस के लोगों को लगता है कि अगर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने रहे तो आने वाले चुनाव में पार्टी को कोई सीट नहीं मिलेगी. कांग्रेस और यूपीए से जुड़ी पार्टियों को यह सा़फ-सा़फ नज़र आ रहा है कि आने वाले चुनाव में उनका हाल कहीं वैसा न हो जाए, जैसा कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में हुआ.
कोई यह कैसे विश्वास करे कि मनमोहन सिंह सचमुच एक मजबूत प्रधानमंत्री हैं. एक नज़ारा पूरे देश ने देखा और देखने वाले हैरान रह गए. लोकसभा में अन्ना हजारे के आंदोलन को लेकर बहस चल रही थी. राहुल गांधी जब भाषण देने के लिए खड़े हुए, तब मनमोहन सिंह लोकसभा में नहीं थे. वह तेज़ी से दौड़ते हुए लोकसभा आए, उन्होंने राहुल गांधी का भाषण सुना. जिस तरह वह भागते हुए अपनी सीट पर बैठे, उससे ऐसा लगा कि जैसे कोई विद्यार्थी क्लास में टीचर के आने के बाद घुसा हो. प्रधानमंत्री को कभी-कभी दुनिया को दिखाने के लिए भी कुछ करना पड़ता है. उसी दिन लोकसभा में लालू यादव ने किसी और संदर्भ के जरिए मनमोहन सिंह को सलाह दे डाली. उनकी तऱफ इशारा करते हुए लालू ने कहा, देश और राज लुंजपुंज ढंग से नहीं चलता है, यह रौब से चलता है. मनमोहन सिंह को रौब भी दिखाना नहीं आता है. जो लोग हिंदुस्तान की राजनीति को समझने में चूक करते हैं, वे मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी कमज़ोरी को सबसे बड़ी ताकत बताते हैं. दरअसल, मनमोहन सिंह बाज़ारवाद और विदेशी पूंजी के पोस्टर ब्वॉय बन गए हैं और यही प्रधानमंत्री जी की सबसे बड़ी कमज़ोरी है.