मामला महंगाई की मार झेल रही जनता की समस्याओं से शुरू हुआ. विपक्षी पार्टियों ने भारत बंद का आह्वान किया. लोकसभा में कटौती प्रस्ताव लाया गया. जनता को लगा कि विपक्ष उनकी समस्याओं को लेकर गंभीर है, लेकिन राजनीति के घिनौने खेल ने जनता का मज़ाक उड़ाकर रख दिया. कटौती प्रस्ताव के इर्द-गिर्द राजनीति का जो घिनौना खेल खेला गया, उससे लोकसभा ने जनता को यही संदेश दिया कि महंगाई पर लगाम नहीं लगाई जाएगी, पेट्रोल की बढ़ती क़ीमतें जायज़ हैं और जो भी समस्याएं हैं, उससे जनता को ख़ुद निपटना होगा. इससे महत्वपूर्ण संदेश राजनीतिक दलों ने दिया कि वे सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं. अभी तो विदेश मंत्रालय की अधिकारी जासूसी करते हुए पकड़ी गई है. देश चलाने वालों का यही हाल रहा तो हर गली-मुहल्ले में देशद्रोही नज़र आएंगे. लेकिन, अफसोस इस बात का है कि राजनीतिक दलों और नेताओं को इस ख़तरे का आभास तक नहीं है.
नेताओं की ग़लतफहमियों ने देश के राजनीतिक पतन का एक नया अध्याय लिख दिया. भारतीय जनता पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल एवं बहुजन समाज पार्टी ने ऐसा घिनौना खेल खेला, जिससे जनता का सिर शर्म से झुक गया. राजनीति का यह शर्मनाक खेल किसी ग़लती की वजह से नहीं, बल्कि नेताओं की ग़लतफहमी की वजह से खेला गया. नेताओं को यह भ्रम हो गया है कि देश की जनता मूर्ख है. वे कोई भी घिनौना दांव खेलकर, जनता को झांसा देकर निकल जाएंगे. सबसे घिनौना खेल झारखंड में खेला गया. भारतीय जनता पार्टी ने यह फिर से साबित कर दिया कि वह कितनी खोखली है. महंगाई के मुद्दे पर शिबू सोरेन ने जब कांग्रेस के पक्ष में वोट डाला और भाजपा ने समर्थन वापसी की घोषणा की तो लोगों ने इस फैसले को काफी सराहा. उन्हें लगा कि कम से कम देश में एक तो पार्टी ऐसी है, जो जनता के सवालों पर सत्ता को ठोकर मारने की ताक़त रखती है. लेकिन अचानक भाजपा ने यू टर्न ले लिया. शिबू को सबक सिखाने की बजाय वह ख़ुद सरकार बनाने मैदान में कूद गई. भाजपा के इस यू टर्न के बाद तो यही कहा जा सकता है कि महंगाई के सवाल पर कटौती प्रस्ताव और भारत बंद जनता के साथ किया गया एक और मज़ाक बनकर रह गया.
लोकसभा में देश की जनता ने राजनीति का घिनौना खेल देखा. लोगों ने नेताओं की मूर्खता देखी, षड्यंत्र देखा, बिकने वाले नकली चेहरे देखे और सीबीआई का डंडा दिखाकर नेताओं का समर्थन लेने वाली सरकार को भी देखा. महंगाई और जनता से जुड़े सवालों को ढाल बनाकर हमारे नेता किस तरह षड्यंत्र रचते हैं और किस तरह अपना उल्लू सीधा करते हैं, यह बात सबके सामने आ गई. जिस पार्टी के समर्थन से आप राज्य के मुखिया बने हैं, उसी पार्टी के ख़िला़फ लोकसभा में आप वोट डाल दें! राजनीति का यह पाठ शिबू सोरेन जैसे नेता ही पढ़ा सकते हैं. यह घटना भारतीय राजनीति में कई सालों तक याद की जाएगी. पकड़े जाने पर शिबू सोरेन को जब मीडिया ने घेरा तो उन्होंने मूर्खतापूर्ण जवाब दिया. उनकी पहली प्रतिक्रिया यह थी कि ग़लती से ग़लत बटन दब गया. वह तो लोकसभा की वोटिंग मशीन ख़राब हो गई, वरना आज तक शिबू यही बात कहते रहते कि ग़लती हो गई. मशीन ख़राब होने के बाद काग़ज़ के पुर्जे पर वोटिंग हुई थी, वहां भी शिबू सोरेन ने सरकार का साथ दिया था. वैसे भी लोकसभा में वोटिंग के दौरान चमत्कार करना शिबू सोरेन की पुरानी आदत है. इस बार अंतर यह है कि ग़लती का बहाना बनाकर शिबू के बेटे हेमंत सोरेन ने भाजपा से माफी मांगी और राजनीति का काला अध्याय लिखा. महंगाई के मुद्दे को दरकिनार कर सत्ता पाने और अपना मुख्यमंत्री बनाने के लालच में भाजपा भी अच्छे-बुरे का अंतर भूल गई. जिसके विश्वासघात से नाराज़ होकर उसने समर्थन वापसी की घोषणा की थी, अगले ही दिन वह उसके साथ खड़ी हो गई. दरअसल, भारतीय जनता पार्टी और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने राज्य की जनता के साथ विश्वासघात किया.
27 अप्रैल को महंगाई के ख़िलाफ़ कई राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता सड़क पर उतरे. देशव्यापी बंद सफल रहा. सुबह से ही जनता टीवी चैनलों पर देश भर में व्यापक बंद का नज़ारा देख रही थी. तस्वीरें हर शहर से आ रही थीं. कार्यकर्ता गिरफ़्तार हो रहे थे. विपक्षी पार्टियां पहली बार इस तरह महंगाई के ख़िलाफ़ लामबंद नज़र आईं. देश की जनता ने इसे काफी सराहा. संसद में जब हंगामा शुरू हुआ तो किसी को यह गुमान तक नहीं था कि उनके बीच भी जयचंद मौजूद हैं. वैसे केंद्र की सरकार से जनता को ज़्यादा उम्मीद नहीं है. फिर भी शाम ढलते ही राजनीति का काला साया ऐसा उमड़ा कि सरकार को चलाने वाले कर्ताधर्ताओं का असली चेहरा देश की जनता के सामने उजागर हो गया. संसद में भाजपा अकेली नज़र आई. टीवी पर संसद में बैठे दासगुप्ता जी उदास और हताश दिखे.
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने काफी दिनों से गांधी परिवार को निशाने पर ले रखा था. वह कभी राहुल तो कभी सोनिया गांधी के उत्तर प्रदेश दौरे के दौरान समस्या खड़ी करके उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश में लगी थीं. मायावती ने कट मोशन आने पर ऐसा संदेश दिया कि वह कांग्रेस के ख़िला़फ संसद में आवाज़ उठाएंगी. महिला आरक्षण बिल पर कड़े तेवर दिखाने वाले लालू यादव और मुलायम सिंह यादव कट मोशन से पहले ऐसे बयान दे रहे थे, जिन्हें सुनकर तो यही लगा कि ये दोनों सरकार के ख़िला़फ हैं, लेकिन शाम होते-होते उनके रंग बदल गए. उन्होंने कांग्रेस की ज़बरदस्त मदद की और साथ ही लोकसभा से वाकआउट करके अपने चेहरे बचाने की कोशिश भी. अब सवाल यह है कि इन तीनों नेताओं ने ऐसा क्यों किया? टीवी चैनलों पर ख़बर यह आई कि मायावती के साथ कांग्रेस की डील कुछ दिनों पहले ही हो गई थी. इस डील के तहत तय हुआ कि मायावती कट मोशन में कांग्रेस के पक्ष में वोट करेंगी और बदले में कांग्रेस ने यह भरोसा दिया कि उन पर चल रहे आय से ज़्यादा आमदनी के मामले में सीबीआई रियायत बरतेगी. ताज कॉरिडोर वग़ैरह मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा और राहुल गांधी दलितों को कांग्रेस में लाने के लिए उत्तर प्रदेश में कोई रैली या प्रयत्न नहीं करेंगे. जनता में यही संदेश गया है कि सीबीआई की वजह से मायावती कांग्रेस के समर्थन में आ खड़ी हुईं. मुलायम सिंह और लालू के बारे में भी जनता में अच्छा संदेश नहीं गया. बेटे अखिलेश को लखनऊ में पुलिस गिरफ़्तार कर रही थी, लेकिन पिता मुलायम सरकार को बचाने के लिए राजनीति के दांव-पेंच में उलझे थे. शाम तक वह भी बेनकाब हो गए. अब जनता कह रही है कि सीबीआई के डंडे से कांग्रेस ने मुलायम सिंह को भी डरा दिया. लालू प्रसाद यादव के बारे में तो देश की जनता को समझ में ही नहीं आया कि कल तक कांग्रेस को कोसने वाले लालू अचानक सोनिया गांधी का गुणगान क्यों करने लग गए. क्या वह चारा घोटाला और इससे जुड़े कई अन्य मामलों में सीबीआई की लटकी तलवार से डर गए. लालू प्रसाद ने सांप्रदायिकता की दुहाई देकर लोकसभा में यह बयान दिया कि वह भाजपा के साथ वोट नहीं कर सकते. यह दलील तो सही है, लेकिन यह स़िर्फ दलील है. अगर बिहार में 15 साल के अपने शासनकाल में लालू यादव ने मुसलमानों के विकास के लिए एक भी क्रांतिकारी कदम उठाया होता तो शायद कल महंगाई के ख़िला़फ अगर भाजपा के साथ भी उन्हें वोट करना पड़ता तो देश के मुसलमान उन्हें माफ कर देते. महंगाई की मार ऐसी होती है, जिसका कोई धर्म नहीं होता, हिंदू हो या मुसलमान, यह दोनों पर बराबर पड़ती है.
आईपीएल घोटाले पर मचे बवाल के बाद अब भी कई ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब देश की जनता ढूंढ रही है. करोड़ों रुपये के आईपीएल घोटाले का क्या हुआ. इतना हंगामा होने के बावजूद अचानक सब शांत क्यों हो गया. आईपीएल घोटाले में मंत्रियों के नाम सामने आए, अंडरवर्ल्ड का नाम जुड़ा, मुनाफा कमाने के लिए हवाला से भी ख़तरनाक तरीक़ों का पर्दाफाश हुआ, सट्टेबाज़ी की सच्चाई का पता चला, नेताओं, खिलाड़ियों, अधिकारियों एवं फिल्मी हस्तियों पर आरोप लगे. आईपीएल घोटाले में जो कुछ हुआ, वह काफी ख़तरनाक है और चिंताजनक भी. फिर भी इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. क्या सरकार और विभिन्न दलों के नेताओं के बीच कोई डील हो गई है कि अब इस मामले को आगे बढ़ने से रोक दिया जाए, नहीं तो सब लोगों की पोल खुल जाएगी. अगर ऐसा नहीं है तो आईपीएल के मुद्दे पर आडवाणी ने यह क्यों कहा कि बस अब बहुत ज़्यादा आईपीएल हो गया. बीसीसीआई के अधिकारियों पर अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई. उन मंत्रियों और नेताओं को क्यों छोड़ दिया गया, जिनके नाम इस घोटाले में शामिल हैं. शशि थरूर और ललित मोदी के बाद किसी पर क्यों नहीं कार्रवाई हुई. आईपीएल का अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम के साथ क्या रिश्ता है. शाहरुख़ की टीम में किसने कितने पैसे लगाए. जिन लोगों ने गांधी परिवार सेनिकट संबंधों का फायदा उठाकर क्रिकेट को बदनाम करने का काम किया, उन्हें क्यों छोड़ दिया गया. देश की जनता ऐसे कई सवालों के जवाब जानना चाहती है. अगर इन सवालों के जवाब नहीं मिलते हैं तो जनता यही समझेगी कि आईपीएल पर लगे आरोप सही थे और देश के दिग्गजों ने मिल-जुलकर लूटा और मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया. सरकार को यह भी बताना चाहिए कि अगर इस मसले पर जवाब न मिले और विपक्ष बिक जाए या फिर बेवकूफी में चुप बैठ जाए तो देश की जनता के पास इन सवालों के जवाब जानने के लिए कौन सा रास्ता बचेगा.
27 अप्रैल, 2010 का दिन इतिहास बन चुका है. यह दिन कई बातों के लिए याद किया जाएगा. नेता किस तरह गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं. देश की जनता ने राजनीति का एक नया पाठ सीखा कि जनता और सांसदों के विश्वास के बग़ैर सीबीआई के सहारे कैसे सरकार चलाई जा सकती है. कैसे एक परमाणु शक्ति से लैस दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की लोकसभा में वोटिंग मशीन तक ठीक नहीं है. साथ ही यह साफ हो गया कि लोहिया, जयप्रकाश और अंबेडकर के विचारों पर चलने वाले लालू यादव, मुलायम सिंह यादव एवं मायावती महंगाई के मुद्दे पर सरकार के साथ हैं. यह दिन इतिहास में इसलिए भी याद किया जाएगा कि आज़ाद भारत में पहली बार पाकिस्तान के लिए जासूसी करने वाली विदेश मंत्रालय की अधिकारी को गिरफ़्तार किया जाता है और लोकसभा में इसकी चर्चा तक नहीं होती. राजनीतिक दलों को यह समझना चाहिए कि जिस तरह देश में सरकारी तंत्र चल रहा है, जिस तरह आदर्श और मर्यादाओं को ताख पर रख दिया गया है, उसी का यह नतीजा है कि जिन पर देश की ज़िम्मेदारी है, वही दुश्मनों के लिए जासूसी कर रहे हैं. अभी एक अधिकारी का मामला सामने आया है, कल अगर देश की आम जनता देश की दुश्मन बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा.