राजनीति में राहुल गांधी की सक्रिय भूमिका हो, राहुल गांधी को बड़ी ज़िम्मेदारियां सौंपी जाएं, राहुल गांधी पार्टी और सरकार में प्रभावशाली रूप से दखल दें, कांग्रेस की तऱफ से समय-समय पर ऐसे बयान आते रहते हैं. पिछले कुछ सालों से कांग्रेस में यह एक रिवाज़ सा हो गया है. इस बार कुछ नया है, क्योंकि पहली बार राहुल गांधी ने कहा कि वह अब राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाएंगे. सबसे पहला सवाल तो यही उठता है कि क्या वह अब तक सक्रिय नहीं थे, कांग्रेस को बचाने के लिए वह क्या करेंगे? यह सवाल अहम इसलिए है, क्योंकि राहुल गांधी को इस तरह से प्रोजेक्ट करके कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव की अनौपचारिक घोषणा कर दी है. यह मान लेना चाहिए कि आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करना चाहती है.
तीन साल पहले, 2009 के लोकसभा चुनाव के व़क्त राहुल गांधी की लोकप्रियता उफान पर थी. चुनाव के बाद उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की मांग होने लगी, जिसे राहुल गांधी ने नकार दिया था. चुनाव के व़क्त राहुल गांधी ने लोगों में आशाएं जगाईं. राहुल गांधी से सबसे ज़्यादा उम्मीद कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को थी. सबको लगा कि वह संगठन को मजबूत करेंगे. राहुल गांधी ने मेहनत की, बहुत मेहनत की. उन्होंने अलग-अलग राज्यों और शहरों में जाकर युवाओं को कांग्रेस से जोड़ा, ज़मीनी स्तर के नेताओं को खड़ा किया. कांग्रेस में राहुल पहले से ही एक महत्वपूर्ण केंद्र थे, लेकिन अब वह प्रभावशाली दिखने लग गए. पिछले तीन सालों में पार्टी का ऐसा कौन सा फैसला है, जिसमें राहुल गांधी ने हिस्सा न लिया हो. इसमें कोई शक नहीं है कि कई सालों से वह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बाद सबसे बड़े कांग्रेसी लीडर हैं. फर्ज कीजिए कि राहुल गांधी के पास पार्टी की कोई आधिकारिक ज़िम्मेदारी न हो तो क्या कांग्रेस में उनका कद छोटा हो जाएगा? राहुल गांधी उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं हैं, लेकिन विधानसभा चुनाव में उन्होंने जो कहा, जो फैसला लिया, वह लक्ष्मण रेखा बन गया. पूरी कांग्रेस उनके ही इशारे पर चली. इसलिए इससे फर्क नहीं पड़ता है कि वह कांग्रेस पार्टी के जनरल सेक्रेटरी बनते हैं या अध्यक्ष बनते हैं या फिर कार्यकारी अध्यक्ष बनते हैं. कांग्रेस में अब उनकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता है. अब सवाल यह है कि अगर राहुल को कोई आधिकारिक पद दे भी दिया जाए तो क्या फर्क पड़ेगा?
हाल में हुए विधानसभा चुनाव में जिस शख्स ने पूरे उत्तर प्रदेश में रैलियां की हों, रोड शो किया हो, जिस नेता को मीडिया में सबसे ज़्यादा दिखाया गया हो, जिसके बयानों पर सबसे ज़्यादा बहस हुई हो, जिसके पीछे-पीछे चलने वाले पूर्व मंत्रियों, पूर्व एवं वर्तमान मुख्यमंत्रियों और सांसदों की लंबी कतार हो, जिसने उत्तर प्रदेश में पार्टी के सारे उम्मीदवार स्वयं तय किए हों, जिसने दूसरी बड़ी पार्टियां तोड़कर उनके विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल किया हो, उस नेता को क्या कहेंगे कि अब तक वह राजनीति में सक्रिय नहीं है! दरअसल, यह सवाल ही गलत है, क्योंकि राहुल गांधी पिछले कुछ सालों से राजनीति में सक्रिय ही नहीं, अति सक्रिय हैं, अग्र-सक्रिय हैं. वह राजनीति में प्रो-एक्टिव हैं. असल में सवाल तो यह है कि क्या अब राहुल गांधी कांग्रेस को बचा पाएंगे?
इसके लिए राहुल गांधी की राजनीति और कार्यशैली को समझना ज़रूरी है. बिहार और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों से पहले राहुल ने जिस तरह के मुद्दे उठाए, जिस तरह उन मुद्दों पर बयान दिए, जगह-जगह गए, उससे लगा कि राहुल गांधी में एक सफल प्रधानमंत्री बनने की पूरी क्षमता है. भट्टा पारसौल हो या फिर किसानों का कोई और मामला, राहुल ग़रीब किसानों के पक्ष में खड़े नज़र आए. जब उन्होंने उड़ीसा के नियमागिरि के आदिवासियों का मामला उठाया तो उनके बयानों को सुनकर अच्छा भी लगा. कई सालों बाद ऐसा लगा कि भारत की राजनीति में एक ऐसा नेता तैयार हो रहा है, जो ग़रीब आदिवासियों के लिए अपनी ही सरकार के खिला़फ खड़ा हुआ है. उन्होंने एक नई राजनीति की शुरुआत की थी. ऐसी राजनीति, जो कांग्रेस सरकार की नीतियों के विपरीत थी. राहुल की कथनी और सरकार की करनी में काफी अंतर रहा. जैसे-जैसे समय बीतता गया, राहुल गांधी ने खुद को ही बदल दिया. बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनावों में उन्होंने अपने सिद्धांतों को त्याग दिया. उत्तर प्रदेश के चुनाव में उन्होंने वे मुद्दे उठाए, जो लोगों की नज़रों में नए नहीं थे. जो रणनीति अपनाई, वह समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी से अलग नहीं थी. लोगों ने राहुल के वायदों पर भरोसा नहीं किया. मुसलमानों ने झूठे आरक्षण के झूठे वायदों को भी समझ लिया. नतीजा यह निकला कि राहुल की साख ही खत्म हो गई. राहुल गांधी को अगर 2014 के लिए खुद को तैयार करना है तो उन्हें वर्तमान यूपीए सरकार की नीतियों का विश्लेषण करना होगा और जनता के पक्ष में फैसले करने होंगे. राहुल गांधी के सक्रिय होने का मतलब कोई है तो वह केवल इतना है कि उन्हें उन मुद्दों को वापस मुख्य धारा में लाना है, जो वह आज से तीन साल पहले उठा रहे थे. अन्यथा उनके सक्रिय होने या न होने का न तो कांग्रेस को कोई फायदा होगा और न देश की जनता को. राहुल के लिए रणनीति बनाने वाले लोगों को यह समझना होगा कि राहुल गांधी को अगर 2014 के लिए तैयार करना है तो उनकी राजनीति बदलनी पड़ेगी, लेकिन समस्या यह है कि राहुल की कार्यशैली ही सबसे बड़ा अवरोध पैदा करती है.
राहुल गांधी की कार्यशैली ऐसी है, जिसे गैर कांग्रेसी कार्यशैली कहा जा सकता है. राहुल गांधी की कार्यशैली युवाओं में उत्साह जगाने वाली तो लगती है, पर संगठन को इससे कोई फायदा नहीं हो रहा है. राहुल गांधी का अपना अलग सचिवालय है, सलाहकार हैं, जो उन्हें एक बड़े राजनेता की छवि देने में लगे हैं. पूरे देश में युवा कांग्रेस का उन्होंने पुनर्गठन किया, नए लोगों को लिया, लेकिन समस्या यह है कि युवा कांग्रेस और छात्र कांग्रेस से जुड़ने वाले युवा कुछ दिनों बाद निष्क्रिय हो जाते हैं, अपने घर बैठ जाते हैं और कांग्रेस को कोसते हैं. इसकी वजह यह है कि राहुल गांधी कभी अपने द्वारा शुरू किए कार्यक्रमों की निगरानी नहीं कर पाते. राहुल गांधी के स्वभाव का भी इसमें दोष है. अमेठी के कई कांग्रेसी कार्यकर्ता बताते हैं कि आप राहुल गांधी से दस बार मिल लीजिए, पर इस बात की गारंटी नहीं है कि ग्यारहवीं बार वह आपको पहचान लें. पार्टी के लिए जान देने वाले कार्यकर्ताओं को दुत्कारना कांग्रेस के लिए घातक साबित हो रहा है. हो सकता है कि राहुल गांधी ऐसा अनजाने में करते हों या फिर यह उनके व्यक्तित्व का हिस्सा हो, लेकिन आम कार्यकर्ता इसे राहुल का घमंड समझते हैं. दूसरी कमजोरी यह है कि राहुल शायद अपने दिल की बात सही ढंग से बयान नहीं कर पाते. उनके भाषणों से कार्यकर्ताओं में विश्वास नहीं जागता है. यही वजह है कि राहुल गांधी आम जनता तो दूर, कांग्रेस कार्यकर्ताओं का भी दिल जीतने में असफल रहे हैं. वह स़िर्फ और स़िर्फ अपने सलाहकारों की बात सुनते हैं, यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है.
राहुल के ऐलान के बाद यह तो तय हो गया कि कांग्रेस अगला लोकसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ेगी, लेकिन 2014 के चुनावों में अभी व़क्त है और राहुल एवं उनके सलाहकारों के सामने चुनौतियों का पहाड़ है. सरकार की गतिविधियों के चलते कांग्रेस अपनी साख खो चुकी है. भ्रष्टाचार और घोटालों की वजह से सरकार और कांग्रेस, दोनों ही बैकफुट पर हैं. इसी वजह से कांग्रेस कार्यकर्ता अपने इलाके में मुंह छिपाए घूम रहे हैं. जो कसर बाकी थी, वह महंगाई ने पूरी कर दी. सरकार में ऐसे मंत्रियों को तरजीह दी जा रही है, जो बयान देकर महंगाई बढ़ाने में महारथ हासिल कर चुके हैं. सरकार की किसी योजना का फायदा आम लोगों तक नहीं पहुंच सका है. मुसलमानों को आरक्षण के नाम पर धोखा देना भी कांग्रेस के लिए महंगा पड़ गया है. ज़मीन छीने जाने की वजह से किसानों ने भी कांग्रेस का साथ छोड़ दिया है. इसके अलावा बाबा रामदेव द्वारा काले धन और अन्ना हजारे द्वारा जन लोकपाल के लिए देश भर में जो आंदोलन हो रहा है, उसके निशाने पर कांग्रेस आ गई है. इसका सबसे बुरा असर कांग्रेस की संभावनाओं पर पड़ रहा है. यूपीए सरकार के सहयोगी दल कांग्रेस की इन कमजोरियों का फायदा उठाकर दबाव बनाए रखना चाहते हैं. इन सबके अलावा देश का आर्थिक विकास रुक सा गया है. सारे आर्थिक सूचकांक धराशायी हो रहे हैं. सरकार के पास नई योजनाओं को लागू करने और चल रही योजनाओं को सफल बनाने के लिए संसाधनों की कमी हो गई है. सरकार विदेशी निवेश के जरिए अर्थव्यवस्था को ठीक करना चाहती है, लेकिन ऐसी नीतियों ने पूरे देश में विरोध का माहौल तैयार कर दिया है. ये महज चुनौतियां नहीं हैं, विध्वंसकारी तूफान है, जो 2014 के चुनाव में कांग्रेस को उड़ा ले जाएगा. राहुल गांधी का मुकाबला भारतीय जनता पार्टी से नहीं, इन्हीं चुनौतियों से है. स़िर्फ संगठन में सक्रिय होने से राहुल गांधी इन चुनौतियों से नहीं निपट पाएंगे. इन चुनौतियों से लड़ने के लिए उन्हें प्रधानमंत्री बनना होगा. दो साल का व़क्त कम नहीं होता है. अगर वह प्रधानमंत्री बनते हैं और अपनी एवं अपने सलाहकारों की क्षमता लोगों की परेशानियां खत्म करने में लगाते हैं और ग़रीबों की पक्षधर राजनीति की शुरुआत करते हैं तो उनके लिए 2014 का रास्ता आसान हो जाएगा.
राहुल गांधी को अगर 2014 के लिए खुद को तैयार करना है तो उन्हें वर्तमान यूपीए सरकार की नीतियों का विश्लेषण करना होगा और जनता के पक्ष में फैसले करने होंगे. राहुल गांधी के सक्रिय होने का मतलब कोई है तो वह केवल इतना है कि उन्हें उन मुद्दों को वापस मुख्य धारा में लाना है, जो वह आज से तीन साल पहले उठा रहे थे. अन्यथा उनके सक्रिय होने या न होने का न तो कांग्रेस को कोई फायदा होगा और न देश की जनता को.
अगर राहुल गांधी स़िर्फ कांग्रेस संगठन में सक्रिय होते हैं तो उससे कोई फायदा नहीं होने वाला है. मीडिया कुछ दिनों तक राहुल के बारे में जय-जयकार कर सकता है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उसका कोई असर नहीं होगा. उससे कांग्रेस या राहुल गांधी को 2014 के चुनावों में कोई मदद नहीं मिलेगी. इसके कई कारण हैं. पिछले कुछ सालों में राहुल गांधी की साख को जबरदस्त झटका लगा है. उनकी छवि आसमान से गिरकर धरातल पर पहुंच गई है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बिहार एवं उत्तर प्रदेश में हुए चुनाव में जनता ने राहुल गांधी को प्रभावहीन और नौसिखिया राजनेता करार दिया है. इस छवि को आसानी से बदला नहीं जा सकता है. राहुल अगर प्रधानमंत्री बनते हैं तो सक्षम प्रशासनिक नेता की छवि बनाई जा सकती है. इसकी वजह यह है कि उनकी राजनीतिक छवि बिहार और उत्तर प्रदेश में इतनी ज़्यादा बिगड़ गई है कि उसे बदलना नामुमकिन सा लगता है.
राहुल गांधी को सबसे पहला झटका बिहार के विधानसभा चुनाव में लगा, जबकि वह उनका पहला इम्तिहान था. उन्होंने मुसलमानों एवं युवाओं के सहारे इस काम को अंजाम देने की कोशिश की, लेकिन वह अपनी पहली ही परीक्षा में असफल हो गए. बिहार चुनाव उनके लिए एक मौक़ा था, जब वह ज़्यादा से ज़्यादा युवाओं को उम्मीदवार बना सकते थे. इससे राहुल गांधी की छवि एक युवा नेता के रूप में निखर कर सामने आती, लेकिन वह दस से ज़्यादा युवा उम्मीदवारों को टिकट नहीं दे सके. राहुल गांधी के सलाहकारों ने उन्हें यह समझा दिया कि नीतीश कुमार ने बिहार में अच्छा काम किया है, उनकी तारी़फ करने से उन्हें (राहुल गांधी) लोग सच बोलने वाला नेता समझेंगे और उसके बाद वह जो भी बोलेंगे, लोग उस पर विश्वास करेंगे. राहुल गांधी बिहार गए और उन्होंने कह दिया कि नीतीश कुमार बिहार का विकास कर रहे हैं. पहले राहुल गांधी ने नीतीश की तारी़फ की, फिर चुनाव प्रचार के दौरान उन पर केंद्र की योजनाओं को सही ढंग से लागू न करने का आरोप लगाया. कांग्रेस का चुनाव अभियान बिहार में मज़ाक बन गया. कांग्रेस ने खुद को एनडीए को चुनौती देने वाली मुख्य पार्टी बनाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद यानी सब कुछ लगा दिया. राहुल गांधी ने अपनी सारी ताक़त झोंक दी, लेकिन वह बिहार चुनाव के दौरान जनता की समस्याओं और उनसे जुड़े सवालों को चुनावी मुद्दा नहीं बना सके. उनकी रैलियों में लोग तो आए, लेकिन कांग्रेस पार्टी नीतीश कुमार को चुनौती देने में नाकाम रही. उत्तर प्रदेश का चुनाव सबसे बड़ा फ्लाप शो था. मीडिया पर दो सौ करोड़ रुपये खर्च करने और राहुल गांधी के सघन प्रचार अभियान के बावजूद कांग्रेस बुरी तरह हार गई. चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश के कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह चरम पर था, लेकिन एक बाद एक ऐसी-ऐसी गलतियां हुईं, जिनकी वजह से कांग्रेस के कार्यकर्ता ही उसके खिला़फ खड़े हो गए. नौबत यहां तक आ गई कि राहुल गांधी का ही विरोध होने लगा. कांग्रेस के लोग ही उन्हें काले झंडे दिखाने लगे. समझने वाली बात यह है कि जिस नेता को अपने ही कार्यकर्ता का भरोसा हासिल नहीं है, वह कभी बड़ा नेता नहीं बन सकता. इतनी मेहनत के बावजूद राहुल गांधी एक मास लीडर के रूप में नहीं उभर पाए, क्योंकि उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं का ही विश्वास खो दिया है.
इंदिरा गांधी के समय से ही कांग्रेस पार्टी नेतृत्व के लिए गांधी परिवार पर निर्भर है, क्योंकि कोई दूसरा नेता नहीं है. धीरे-धीरे गांधी परिवार की साख पर सवाल उठने लगे हैं. राहुल गांधी ने अब तक एक राजनेता होने का परिचय नहीं दिया है. संसद में भी उन्होंने एक लीडर के रूप में निराश किया है और वहां अब तक स़िर्फ एक या दो बार भाषण दिया है. भाषण भी ऐसा, जिसे प्रेरणाप्रद नहीं कहा जा सकता, जिसमें कंटेंट नहीं होता. कई लोग कहते हैं कि इतनी रैलियां करने के बावजूद वह लिखा हुआ भाषण पढ़ते हैं. लोकसभा में अब तक उन्होंने एक भी यादगार भाषण नहीं दिया. यही नहीं, वह लोकसभा में बहुत कम नज़र आते हैं. कांग्रेस जैसी पार्टी में लोग उसी के सामने अपना सिर झुकाते हैं, जो उन्हें चुनाव जितवा सकता हो, लेकिन राहुल गांधी के पास यह हुनर भी नहीं है. अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि कांग्रेस अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर जैसे पारंपरिक कांग्रेसी इलाकों में विधानसभा चुनाव हारने लगी है. फिलहाल राहुल गांधी की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह चुनाव नहीं जितवा सकते हैं. उनकी रैलियों में भीड़ तो उमड़ती है, लेकिन वोट नहीं मिलते. हाल के दो चुनावों में उन्होंने बहुत ही सक्रिय भूमिका निभाई, लेकिन दोनों ही जगह पार्टी न स़िर्फ चुनाव हारी, बल्कि उसकी साख भी खत्म हो गई. इंदिरा गांधी से एक बार पूछा गया कि उनके सफल नेतृत्व का राज़ क्या है, तो उन्होंने जवाब दिया कि मैं उनके लिए चुनाव जीतती हूं, मतलब यह कि मैं उन्हें चुनाव जितवा सकती हूं. आज हालत यह है कि कांग्रेस के सांसदों का यह भरोसा भी उठता जा रहा है कि राहुल गांधी उन्हें चुनाव जितवा सकते हैं.
राहुल गांधी और कांग्रेस के सलाहकारों के लिए खुश़खबरी यह है कि उनकी लड़ाई भारतीय जनता पार्टी से नहीं है, क्योंकि वह स्वयं के विरोधाभासों और दिवालिएपन से ग्रसित है. भाजपा के दिवालिएपन का उदाहरण देता हूं. जब बाबरी मस्जिद तोड़ी गई, तब देश के वरिष्ठ पत्रकार एच के दुआ ने उसे नेशनल शेम बताया था. जब भाजपा की सरकार बनी तो उन्हें प्रधानमंत्री का मीडिया एडवाइजर बना दिया गया. भाजपा आज भी कुछ बदली नहीं है. इसलिए राहुल को उसके बारे में फिक्र करने की ज़रूरत नहीं है. 2014 के लोकसभा चुनाव में अभी व़क्त है. राजनीति में दो साल का समय कम नहीं होता. सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी को अगर राहुल गांधी की छवि सुधारनी है तो उसका एकमात्र रास्ता यह है कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाकर एक सक्षम प्रशासनिक नेता के रूप में पेश किया जाए. पार्टी में पद देकर राहुल गांधी से संगठनात्मक राजनीति कराने की रणनीति से न तो कांग्रेस को फायदा होगा और न राहुल गांधी को. कांग्रेस के सामने केवल इतना सा लक्ष्य है कि देश की जनता के सामने उसे राहुल गांधी को एक सक्षम प्रधानमंत्री सिद्ध करना है.