विदेशी पूंजी निवेश के बारे में पिछली बार सरकार ने फैसला ले लिया था, लेकिन संसद के अंदर यूपीए के सहयोगियों ने ही ऐसा विरोध किया कि सरकार को पीछे हटना पड़ा. खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश का विरोध करने वालों में ममता बनर्जी सबसे आगे रहीं. सरकार ने कमाल कर दिया. भारत दौरे पर आई अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ममता से मिलने सीधे कोलकाता पहुंच गईं. खबर आई कि उन्होंने ममता बनर्जी से यह गुज़ारिश की कि विदेशी पूंजी निवेश को खुदरा बाज़ार में लाने के प्रयासों में वह सरकार की मदद करें. ऐसा शायद पहले कभी नहीं हुआ था कि भारत की राजनीति में अमेरिका इस तरह से सीधे हस्तक्षेप करे. एक तऱफ पिछले कुछ वर्षों से सरकार न तो महंगाई पर क़ाबू पा सकी और न आर्थिक विकास का कोई रोडमैप तैयार कर सकी. पिछले आठ वर्षों में सरकार ने ऐसा कमाल किया है कि देश में आज ऐसा कोई भी वर्ग नहीं है, जो खुशहाल है. जो व्यक्ति जहां है, जिस किसी भी व्यवसाय से जुड़ा है, परेशान है. सरकार में शामिल बड़े-बड़े अर्थशास्त्री इसी बात को लेकर अड़े हैं कि इन सब समस्याओं का निदान स़िर्फ और स़िर्फ विदेशी निवेश ही है.
विदेशी निवेश के मुद्दे पर सरकार झटपट फैसले लेकर विदेशी पूंजीपतियों और निवेशकों को एक सकारात्मक संदेश देना चाहती है. मीडिया में भी जमकर इस बात का प्रचार किया जा रहा है कि निवेशकों में भरोसा पैदा करना सरकार की पहली प्राथमिकता है. देश में एक ऐसा माहौल तैयार किया जा रहा है कि अगर खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश पर सरकार ने जल्द फैसला नहीं लिया तो अनर्थ हो जाएगा. यह बात सही है कि अर्थव्यवस्था को लेकर सरकार बैकफुट पर है, लेकिन मनमोहन सिंह के रहते स्थिति यहां तक पहुंची कैसे? आज नौबत यह है कि सरकार ऐसी अवस्था में खड़ी है, जहां एक तऱफ गड्ढा है तो दूसरी तऱफ खाई है.
राजनीतिक माहौल कांग्रेस के लिए ठीक नहीं है, तो कमोबेश यही हाल विपक्ष का भी है. भारतीय जनता पार्टी वैसे तो खुदरा बाज़ार में एफडीआई का विरोध कर रही है. वैसे समझने वाली बात यही है कि जब देश में एनडीए की सरकार थी, तब वह उन्हीं नीतियों को लागू कर रही थी जिसका फिलहाल वह विरोध कर रही है. स्वदेशी को अपनी विचारधारा बताने वाली पार्टी ने सरकारी उद्यमों को बेचने के लिए अलग से मंत्रालय तक खोल दिया था. विपक्षी पार्टियां एफडीआई का विरोध करेंगी, यह ऐलान हो चुका है. लेकिन मुलायम सिंह क्या करेंगे, यह एक बड़ा सवाल है. वैसे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जिस तरह से एफडीआई की पहले वकालत की, फिर बयान को पलटा. इससे दो बातें सामने आती हैं, पहली यह कि अखिलेश की एफडीआई पर कोई ठोस राय नहीं है. इस पर मुलायम सिंह यादव ने स्थिति को संभाला और जनता दल (सेक्युलर) और वाम दलों के साथ मिलकर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख दी कि वह खुदरा बाज़ार में विदेशी पूंजी निवेश का विरोध करेंगे. तृणमूल कांग्रेस पिछली बार की तरह इस बार भी एफडीआई का विरोध कर रही है. विरोध करने वाली पार्टियों में डीएमके भी शामिल है. इस तरह से रिटेल सेक्टर में एफडीआई लाने की नीति पर कांग्रेस सरकार अल्पमत में है.
राष्ट्रपति के चुनाव में प्रणब मुखर्जी को मिले समर्थन का अगर कांग्रेस ने ग़लत आकलन किया तो देश की राजनीति में एक नया अध्याय शुरू हो जाएगा. सरकार मॉनसून सत्र में आर्थिक सुधार के नाम पर निजीकरण तेज़ करने और खुदरा बाज़ार में विदेशी पूंजी निवेश को हरी झंडी देने की योजना बना रही है. इन नीतियों को लागू करने में प्रधानमंत्री स्वयं विशेष रुचि दिखा रहे हैं. दूसरी तऱफ यूपीए में शामिल और बाहर से समर्थन देने वाली पार्टियां खुदरा बाज़ार में विदेशी पूंजी निवेश का विरोध कर रही हैं. विदेशी पूंजी निवेश देश की अर्थव्यवस्था और पारंपरिक खुदरा बाज़ार और उससे जुड़े लोगों के लिए विनाश लेकर आएगा. देखना यह है कि मॉनसून सत्र के दौरान इस फैसले का विरोध करने वाली पार्टियों का चरित्र कैसा रहता है? क्या ये पार्टियां आ़खिरी मौक़े पर सरकार के साथ खड़ी हो जाएंगी? क्या ये पार्टियां मतदान में भाग न लेकर या वॉकआउट कर सरकार को परोक्ष रूप से समर्थन देंगी? क्या ये पार्टियां न्यूक्लियर डील की तरह नूरा कुश्ती करती हैं या फिर इस फैसले के विरोध में खड़ी होती हैं. खुदरा बाज़ार में विदेशी पूंजी निवेश एक ऐसा मामला है, जिसमें यह तय होगा कि कौन-सी राजनीतिक पार्टियां जनता के साथ खड़ी हैं और कौन-सी विदेशी और देशी पूंजीपतियों के इशारे पर जनता के साथ धोख़ा करती हैं. यह मुद्दा ऐसा है, जिससे न स़िर्फ भारत की अर्थव्यवस्था में एक नया मोड़ आएगा, बल्कि यह एक राजनीतिक टर्निंग प्वाइंट साबित होगा.
सरकार ज़िद पर अड़ी है. मनमोहन सिंह ने खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश के प्रवेश के लिए एक अलग रणनीति बनाई है. उनकी रणनीति यह है कि केंद्र सरकार अपने स्तर पर फैसला ले लेगी और इसे लागू करने का काम राज्य सरकारों पर छोड़ देगी. चूंकि खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश पर कैबिनेट में फैसला हो चुका है, इसलिए फिर से यह मामला कैबिनेट में नहीं उठेगा. सरकार जल्द से जल्द किसी तरह से इस फैसले को नोटिफाई कर देना चाहती है. विदेशी निवेश आए या न आए, यह राज्यों पर छोड़ दिया जाएगा. मतलब यह कि खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश को बैकडोर से लाया जाएगा. इस रणनीति को सफल करने का दायित्व वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा को दिया गया है. आनंद शर्मा सभी मुख्यमंत्रियों को खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश को लेकर चिट्ठी लिख चुके हैं. इस मसले पर मुख्यमंत्रियों की राय ली जा रही है. मतलब यह कि राज्य सरकारों को यह छूट दे दी जाएगी कि जो राज्य खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश नहीं चाहता है, वह विदेशी कंपनियों को लाइसेंस देने से मना कर सकता है. अगर ऐसा हो जाता है तो यह मान लेना चाहिए कि जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार है, उन पर खुदरा बाज़ार में विदेशी कंपनियों को लाने का दबाव बन जाएगा. कांग्रेस शासित राज्यों में उन्हें प्रवेश मिल जाएगा. इस रणनीति का एक और फायदा यह है कि अगर इस मुद्दे पर विरोध होता है, तो वह राज्य सरकारों के खिला़फ होगा. केंद्र सरकार सीधे किसी बात के लिए ज़िम्मेदार नहीं होगी. ज़ाहिर है, इस तरह के फैसले को राजनीतिक फैसला नहीं कहा जा सकता है. वैसे भी इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि देश की राजनीतिक पार्टियां ग़ैर राजनीतिक फैसले ज़्यादा लेने लगी हैं. यही वजह है कि हर बड़े फैसले का विरोध सबसे पहले पार्टी के भीतर होता है. खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश को लेकर कांग्रेस में एक राय नहीं है. जो लोग भारत की राजनीति की नब्ज़ को पहचानते हैं, उन्हें पता है खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश का मतलब मध्यवर्ग और निम्न वर्ग के बड़े हिस्से के वोटों से हाथ धोना है.
खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश का मामला निर्णायक इसलिए साबित हो सकता है, क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू हो गई है. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा, इसके लिए इन संगठनों में रणनीति बन रही है. वैसे सच्चाई यह है कि देश में दोनों ही पार्टियों की साख खत्म हो गई है. एक पार्टी देश में मची आर्थिक और सामाजिक तबाही के लिए ज़िम्मेदार है, तो दूसरी पार्टी पर चुप्पी साधने, कमज़ोर और ग़ैर ज़िम्मेदार विपक्ष होने का आरोप है. लोगों की समस्याओं से निपटना तो दूर, दोनों ही पार्टियों में एक भी ऐसा नेता नज़र नहीं आता, जो जनता को झूठे सपने या झूठा भरोसा दिला सके. दूसरी तऱफ अन्ना हजारे और बाबा रामदेव आंदोलन कर रहे हैं और साथ ही 2014 के चुनाव में द़खल देने की चेतावनी भी दे रहे हैं. सरकारी तंत्र के संपूर्ण विफल होने और महंगाई की मार से अधमरी जनता बदलाव चाहती है. कालेधन और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी बैकफुट पर है. टालमटोल का रवैया ऐसा है कि लोगों को यह भी पता नहीं है कि ये दोनों पार्टियां भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहती भी हैं या नहीं. अन्ना और रामदेव का विरोध करने वालों में नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, रामविलास पासवान और मायावती जैसे नेता हैं, जो एक तरह से सरकार के लिए लठैत का काम कर रहे हैं. दूसरी तऱफ देश की आर्थिक स्थिति बर्बादी की ओर अग्रसर है. जो भी आंकड़ा आता है, वह दिल की धड़कन बढ़ा जाता है. आंक़डों से इतर देश के ग़रीब किसान, मज़दूर और अल्पसंख्यक सबसे ज़्यादा मुसीबत में हैं. उनके सामने अब ज़िंदगी और मौत का सवाल खड़ा हो गया है. देश के उद्योगपति सरकार पर नीतियों से संबंधित फैसले लेने का दबाव बना रहे हैं. प्रधानमंत्री ने जब से वित्त मंत्रालय का दायित्व अपने कंधे पर लिया है, तब से सरकार एक खतरनाक इशारे दे रही है. यूपीए सरकार ने देश को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां देश की हर समस्या का एकमात्र निदान विदेशी पूंजी निवेश नज़र आता है.
खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश का मामला निर्णायक इसलिए साबित हो सकता है, क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू हो गई है. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा, इसके लिए इन संगठनों में रणनीति बन रही है. वैसे सच्चाई यह है कि देश में दोनों ही पार्टियों की साख खत्म हो गई है.
भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की आर्थिक नीति में कोई फर्क़ नहीं है. जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, वहां भी महंगाई पर लगाम लगाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया. मोदी के विकास मॉडल की बात होती है, वह भी देशी-विदेशी पूंजी पर ही आधारित है. भ्रष्टाचार खत्म करने की बात हो या फिर लोकपाल की, कांग्रेस और भाजपा के आचरण में कोई अंतर नहीं है. कालेधन का मामला उठाकर अचानक से भारतीय जनता पार्टी का चुप हो जाना भी आश्चर्यजनक है. दरअसल, दोनों ही पार्टियों के पास देश में सामाजिक और आर्थिक विकास का कोई रोडमैप नहीं है. दोनों ही पार्टियां बाज़ारवाद को आगे बढ़ाकर औद्योगिक घरानों को फायदा पहुंचाने की राजनीति में लिप्त हैं. वैचारिक दृष्टि से दोनों ही एक-दूसरे की सहायक पार्टियां हैं. आज देश में एक जनोन्मुखी राजनीति की ज़रूरत है, जिसमें ग़रीब किसान, मज़दूर, पिछड़े, दलित, वनवासियों और अल्पसंख्यकों के विकास की गुंजाइश हो. राजनीतिक दलों को समझना होगा कि मतदाताओं का मिज़ाज बदल रहा है. वे ज़्यादा संख्या में वोट देने निकल रहे हैं. लोग जाति और धर्म के नाम पर वोट बैंक की राजनीति को नकार रहे हैं. अब वह बीस साल पहले वाली बात नहीं रही. लोगों ने समस्याओं को समझना शुरू कर दिया है. अब वे जवाब मांगते हैं. लोग विकास चाहते हैं. रोज़गार चाहते हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं चाहते हैं. ममता बनर्जी, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, मायावती, लालू यादव, रामविलास पासवान जैसे नेताओं के लिए यह एक अवसर भी है. ये लोग आंदोलन से जन्मे नेता हैं. सरकार का लगातार विरोध करके ही ये लोग राजनीति में आगे बढ़े हैं. आज परिदृश्य बदला हुआ है. जब अन्ना हजारे या रामदेव आंदोलन करते हैं तो यही लोग सरकार की ढाल बनकर मैदान में उतर जाते हैं. अब व़क्तकी मांग है कि इन लोगों को वाम दलों के साथ मिलकर एक विकल्प तैयार करना चाहिए. एक ऐसा गठबंधन तैयार करना चाहिए, जो भ्रष्टाचार को खत्म करने, महंगाई से निपटने, कालेधन को वापस लाने और जनता के साथ मिलकर एक पारदर्शी सरकार बनाने और सरकारी तंत्र में ज़रूरी बदलाव लाने की रूपरेखा तैयार कर सके. उन्हें व़क्तऔर जनता दोनों का साथ मिल सकता है. वैसे इतिहास बड़ा निर्दयी होता है. राष्ट्रीय राजनीति में हाशिए पर गए कई नेताओं के सामने यह एक मौक़ा है, जब वे अपने स्वार्थ और महत्वाकांक्षा को छोड़कर देश की जनता के बारे में सोचें, ताकि वे इतिहास में अपना नाम दर्ज करा सकें. वरना वे कांग्रेस और भाजपा के पिछलग्गू बने रह सकते हैं. उन्हें क्या करना है, चयन का अधिकार स़िर्फ उनका ही है.
बहरहाल, देश को सा़फ समझ लेना चाहिए कि प्रधानमंत्री किसी भी क़ीमत पर विदेशी पूंजी खुदरा बाज़ार में लाने वाले हैं. कांग्रेस में उनका कोई विरोध नहीं होने वाला, क्योंकि वहां सोचने समझने वालों का अकाल हो गया है. परीक्षा संसद में ग़ैर कांग्रेसी दलों की है. वे इस फैसले का छुपा साथ देते हैं या खुला साथ देते है या इस फैसला का छुपा विरोध करते हैं या खुला विरोध करते हैं. मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, जसवंत सिंह और यशवंत सिन्हा का चेहरा भी एफडीआई के सवाल पर सा़फ हो जाएगा कि वे देश के लोगों के साथ है या विदेशी कंपनियों के साथ.
बडी़ कंपनियां किस तरह खुदरा बाज़ार को बर्बाद करती हैं
खुदरा व्यापार का मतलब है कि कोई दुकानदार किसी मंडी या थोक व्यापारी के माध्यम से माल या उत्पाद खरीदता है और फिर अंतिम उपभोक्ता को छोटी मात्रा में बेचता है. खुदरा व्यापार का मतलब है कि वैसे सामान की खरीद-बिक्री, जिन्हें हम सीधे इस्तेमाल करते हैं. रोज़मर्रा में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं या सामान को हम किराने की दुकान, कपड़े की दुकान, रेहड़ी और पटरी वालों से खरीदते हैं. यह समझना ज़रूरी है कि जब बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियां खुदरा बाज़ार में आती हैं तो क्या होता है? अब तक जो कंपनियां भारत में काम कर रही हैं, उनकी तुलना में विदेशी कंपनियां का़फी बड़ी हैं. सरकार कहती है कि है कि उसने 10 करोड़ डॉलर से कम के निवेश पर पाबंदी लगाई है तो वॉलमार्ट, कैरीफोर, टेस्को, स्टार वक्स, वेस्ट वाय एवं मैट्रो जैसी विदेशी कंपनियों के लिए यह रक़म कुछ भी नहीं है. भारत पर इन कंपनियों की नज़र इसलिए है, क्योंकि भारत का खुदरा व्यापार दुनिया में सबसे तेज़ी से बढ़ रहा है, साथ ही यह असंगठित और बिखरा हुआ है. इसलिए इसमें कम पूंजी लगाकर भी अरबों-खरबों की कमाई हो सकती है. सरकार कहती है कि हर निवेशक को क़रीब 50 फीसदी पूंजी का निवेश खुदरा बाज़ार से जुड़ी मूलभूत सुविधाओं पर खर्च करना होगा. सरकार इसे ऐसे बता रही है, जैसे यह कोई प्रतिबंध है या उन पर कोई दबाव है. सच्चाई यह है कि वॉलमार्ट और टेस्को जैसी कंपनियों का काम करने का तरीक़ा ही यही है कि वे अपनी सप्लाई चेन खुद बनाती हैं, लेकिन खतरा कुछ और है. दुनिया भर में जहां भी ये कंपनियां खुदरा बाज़ार में गईं, वहां रिटेल सेक्टर में रोज़गार कम हुआ और लोगों की आय में गिरावट आई. भारत में 96 फीसदी खुदरा व्यापार असंगठित और अनियोजित क्षेत्र में है, इसलिए यहां बेरोज़गारी का खतरा और भी ज़्यादा है. भारत में तो इसका व्यापक असर होने वाला है. जहां तक बात क़ीमत की है, तो वॉलमार्ट जैसी कंपनियों की यह रणनीति है कि शुरुआती दिनों में यह सामान की क़ीमत घटा देती हैं, जिसकी वजह से प्रतियोगी दुकानों और खुदरा सामान बेचने वाली दुकानों की बिक्री कम हो जाती है. दुकानदार अपनी दुकान में काम करने वाले लोगों को बाहर करने लगता है. फिर धीरे-धीरे दुकानें बंद होने लगती हैं. एक बार इन कंपनियों का बाज़ार पर क़ब्ज़ा हो जाता है, तब ये मनमाने तरीक़े से क़ीमतें बढ़ा देती हैं. यही पूरी दुनिया में हो रहा है.
जहां-जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां खुदरा बाज़ार में गईं, वहां दस साल के अंदर खुदरा दुकानों की संख्या आधी रह गई. भारत में इसका असर पहले साल से ही दिखने लगेगा. एक अनुमान के मुताबिक़, एक करोड़ लोगों को रोज़गार से हाथ धोना पड़ सकता है. मतलब यह कि बड़े-बड़े सुपर मार्केट बनने से नए अवसर तो पैदा होंगे, लेकिन इन कंपनियों की वजह से बेरोज़गार होने वालों की संख्या रोज़गार पाने वालों की संख्या से बहुत ज़्यादा होगी. भारत में रोज़गार एवं जीविका प्रदान करने के मामले में खुदरा व्यापार कृषि के बाद दूसरे स्थान पर है, लेकिन इसमें विदेशी निवेश आने से बेरोज़गारी बढ़ेगी. अब तक जो लोग खुदरा बाज़ार से जुड़े हैं, उन्हें अपनी दुकानें बंद करनी होंगी. इसका असर सप्लाई चेन पर पड़ने वाला है. सप्लाई चेन का मतलब खेतों से बाज़ार तक सामान पहुंचाने के तरीक़े और सिलसिले से है. किसान खेतों में अनाज या कच्चा माल पैदा करते हैं, जो कई हाथों से गुज़रता हुआ बाज़ार पहुंचता है. इस पूरी प्रक्रिया में करोड़ों लोग जुटे हैं. बड़ी-बड़ी कंपनियां सीधे खेतों या उत्पादक से सामान उठाती हैं, खुद उनकी प्रोसेसिंग करती हैं और फिर बेचती हैं. इससे इन कंपनियों को दो फायदे होते हैं. पहला यह कि ये बड़ी कंपनियां बाज़ार से दूसरे प्रतियोगियों को भगा देती हैं, दूसरा यह कि सप्लाई चेन बर्बाद हो जाती है, उत्पादक और किसान इन कंपनियों पर आश्रित हो जाते हैं. सरकार कहती है कि खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश आने से प्रतियोगिता बढ़ेगी. लेकिन सच्चाई यह है कि विदेशी कंपनियों के आने से प्रतियोगिता ही खत्म हो जाएगी. ये कंपनियां इतनी बड़ी हैं कि इनसे किसी की प्रतियोगिता हो ही नहीं सकती. खुदरा बाज़ार में विदेशी कंपनियों के प्रवेश से इस क्षेत्र में एकाधिकार की प्रवृत्ति तेज़ी से बढ़ेगी.
दरअसल, होता यह है कि शुरुआती दौर में ये कंपनियां पुराने बाज़ार और सप्लाई चेन को नष्ट करने के लिए क़ीमतें कम करती हैं और जब इस क्षेत्र पर इनका एकाधिकार हो जाता है, तब ये सामान के मनमाने दाम वसूलती हैं. सरकार कहती है कि इससे किसानों को फायदा होगा, उन्हें उनके उत्पाद की ज़्यादा क़ीमत मिलेगी. किसानों का अनाज-उत्पाद सड़ जाता है, बर्बाद हो जाता है, इससे उन्हें निजात मिल जाएगी. सवाल है कि अगर यह सच्चाई है तो इसका इलाज क्या है? क्या सरकार का यह फर्ज़ नहीं बनता है कि वह देश में कोल्ड स्टोरेज की चेन बनाए, अनाज के रखरखाव के लिए गोदाम बनाए, या फिर हमें यह मान लेना चाहिए कि देश की सरकार इतनी कमज़ोर है कि अनाज भंडारण और गोदाम बनाने के लिए भी उसे विदेशी निवेश की ज़रूरत पड़ती है. जहां तक बात किसानों को ज़्यादा क़ीमत मिलने की है, तो यह भी एक मिथ्या है. इन बड़ी-बड़ी कंपनियों को चलाने वाले लोग बहुत चालाक होते हैं. वे आम किसानों से सामान नहीं खरीदते, बल्कि ब़डे किसानों से कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग कराते हैं. पहले वे किसानों से अपना सीधा रिश्ता बनाते हैं, उन्हीं चीज़ों के उत्पादन पर ज़ोर देते हैं, जिनकी इन रिटेल कंपनियों के स्टोरों में खपत होती है. इस तरह से किसान पूरी तरह इनके चंगुल में फंस जाते हैं.