मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के 100 दिन पूरे हो गए. सरकार सौ दिन के एजेंडे को पूरा करने में विफल रही. सरकार असफल रही, तो विपक्ष भी अपने ही उलझनों में उलझी रही. मुख्य विपक्षी दल सरकार से यह पूछना भूल गया कि राष्ट्रपति के अभिभाषण के ज़रिए सरकार ने जो वादे किए थे, वे कहां है. प्रधानमंत्री ने दूसरी पारी की शुरुआत किसी धुआंधार बल्लेबाज की तरह की थी. सरकार ने टारगेट और टाइम तय करके काम करने की पेशकश की थी. ऐसा लगा था कि इस बार की यूपीए सरकार पिछली बार की तरह ढीली-ढाली नहीं होगी. मनमोहन सिंह इस बार अपनी छवि के मुताबिक काम करेंगे, इसलिए जनता ने पहले से ज्यादा मज़बूत बना कर कांग्रेस के हाथ में देश की कमान दी थी. 100 दिन के एजेंडे का ऐलान करने के लिये सरकार के अलग-अलग मंत्रालयों ने ताबड़तोड़ प्रेस कांफ्रेंस किए. वादों और घोषणाओं की झड़ी लग गई. ऐसा लगने लगा था कि मंहगाई पर लगाम लगेगी, किसानों को राहत मिलेगी, मज़दूरों के लिए कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत होगी, भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगा. अ़फसोस की बात यह है कि 100 दिनों के पूरे होने के बाद सारे मंत्रियों ने मौन धारण कर लिया है. अधिकारी 100 दिनों के एजेंडे पर बात करना नहीं चाहते. विपक्षी पार्टियां अपने घर को संभालने में लगी हैं. देश चलाने वालों की आदत पुरानी है- जो वादा करते हैं उसे नहीं निभाते हैं. ख़बर यह भी है कि मनमोहन सिंह उन मंत्रियों से नाराज़ हैं जो लक्ष्य को पूरा करने में असफल हुए हैं.
मनमोहन सरकार के 100 दिन ने कई उतार चढ़ाव देखे. सरकार ने कुछ ऐतिहासिक काम किए, जैसे कि शिक्षा के अधिकार का क़ानून बनना. साथ ही सूखा, मंहगाई, मंदी, महिला आरक्षण बिल और स्वाइन फ्लू सरकार की दूसरी पारी की शुरुआती मुश्किलें बन कर सामने आई. संसद के अंदर शर्म-अल-शेख में जारी भारत पाकिस्तान का साझा बयान सरकार की सबसे ज़्यादा परेशानी का सबब रहा. मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री कार्यालय में 100 दिन के एजेंडे के कामकाज पर नज़ररखने के लिए एक सेल भी बनाया है. सरकार ने हर मंत्रालय से 100 दिन के कामकाज पर एक रिपोर्ट भी मांगी है.
मनमोहन सिंह सरकार की दूसरी पारी ऐसे माहौल में शुरू हुई, जो आर्थिक दृष्टि से ठीक नहीं कही जा सकती है. पिछले 100 दिनों में सूखा ने हाहाकार मचाया. मानसून ने देश के उपजाऊ इलाक़ों में धोखा दिया और महंगाई ने सरकार की कमर तोड़ दी. आर्थिक क्षेत्र, रोज़गार क्षेत्र, उद्योगों में सुधार, मूलभूत ढांचे का विकास और क़ीमतों पर लगाम कसने में पिछड़ गई है. बजटीय घाटा कम नहीं हो पा रहा है, साथ ही वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण मांग में भारी कमी देखी जा रही है. यह बात भी सही है कि कई मंत्रालयों ने तो आधा व़क्त 100 दिन का एजेंडा तैयार करने में लगा दिया. यही वजह है कि 100 दिन के एजेंडे को लागू करने में ज्यादातर मंत्रालय पूरी तरह से विफल रहे. स्वास्थ्य मंत्रालय का पूरा ध्यान स्वाइन फ्लू पर जा टिका, कृषि मंत्रालय सूखे की चपेट में आ गया. कुछ मंत्रियों ने तो यहां तक मान लिया कि 100 दिन के एजेंडे पर प्रगति नहीं हो पाई है.
सरकार ने 100 दिनों के एजेंडे में मंहगाई पर काबू, बुनियादी ढांचे का विकास, नरेगा को अन्य योजनाओं के साथ जोड़ने, महिला आरक्षण, मुफ्त शिक्षा, स्विस बैंक में जमा काले धन को वापस लाने, कर सुधार, छंटनी पर रोक लगाने, प्रति दिन 20 किलोमीटर सड़क बनाना, पब्लिक सेक्टर कंपनियों में विनिवेश और बिजली उत्पादन में वृद्धि आदि विषयों को शामिल किया था.
सरकार ने क्या क्या किया
राष्ट्रपति के अभिभाषण में महिला आरक्षण बिल पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया गया था. इसके तहत संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान है. इस मुद्दे पर संसद में जमकर बहस हुई. अच्छी बहस हुई. सौ दिन बीत गए, लेकिन इस बिल पर सरकार एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाई है. राहत की बात यह है कि कैबिनेट ने नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनावों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण की स्वीकृति दे दी है. वहीं सरकारी नौकरी में महिलाओं के प्रतिनिधत्व को बढाने के लिए कुछ प्रगति नहीं हुई है.
महिला आरक्षण के साथ-साथ सरकार ने घोषणा की थी कि अगले 5 सालों में झुग्गी झोंपड़ी को ख़त्म कर दिया जाएगा और ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वालों को हर महीने 3 रुपए किलो की दर से 25 किलो अनाज दिया जाएगा. हाल यह है कि दाल और चीनी की क़ीमतों ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए. मंदी की मार से परेशान सरकार को मानसून ने और भी मुश्किल में डाल दिया. इस बार का सूखा पिछले 20 सालों में सबसे भयानक है. देश के 626 ज़िलों में से 252 ज़िले को सूखाग्रस्त घोषित किया गया है. आकलन यह है कि इस बार 60 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर धान की खेती को नुकसान हुआ है. सौ दिनों का एजेंडा ना पूरा होने पर सरकार की दलील है कि सौ दिन के एजेंडे से पहले सूखे और महंगाई से निपटना ज़रूरी है. सरकार का ध्यान अब खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने पर है.
यूपीए सरकार ने इस बार ग्रामीण विकास और बुनियादी ढांचे को मजबूत करने को काफी महत्व दिया है. सरकार ने रोज़ाना 20 किलोमीटर और हर साल 700 किलोमीटर सड़क बनाने का लक्ष्य रखा था. फिलहाल देश में हर रोज़ दो किलोमीटर सड़क बन पा रही है. बिजली के क्षेत्र में 5653 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य भी फिलहाल अधूरा ही है. उर्जा मंत्रालय के मुताबिक़ पर्याप्त ईंधन उपलब्ध न होने की वजह से टारगेट पूरा नहीं हो सका. सरकार ने यह दावा किया था कि राजीव गांधी विद्युतीकरण योजना के तहत 2012 तक 50,000 गांवों तक बिजली पहुंचाई जाएगी.
ऐसा कहना भी ग़लत होगा कि पिछले 100 दिनों में सरकार ने कुछ नहीं किया. पिछले 100 दिनों में मानव संसाधन मंत्रालय काफी सक्रिय नजर आया. मंत्रालय ने दसवीं-बोर्ड परीक्षा की जगह ग्रेडिंग सिस्टम लागू करने में कामयाब रही. साथ ही डीम्ड यूनिवर्सिटी की कार्यप्रणाली की समीक्षा करने, शिक्षा कर्ज़ पर सब्सिडी देने और पीपीपी (पब्लिक पीपल पार्टिसिपेशन) मॉडल पर स्कूल खोलने आदि जैसे काम प्रगति पर हैं. देश में ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट जैसे 8 संस्थानों को खोलने और 18 राज्य स्तरीय स्वास्थ्य संस्थान खोलने की भी घोषणाएं भी इसी सौ दिनों में की गईं.
100 दिन के एजेंडे को सबसे आगे वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने बढ़ाया. वित्त मंत्रालय ने इनकम टैक्स के नए कोड का प्रारूप तैयार किया है. नए कोड से नौकरी पेशे वालों को तो राहत ज़रूर मिलेगी. इसे लागू होने में अभी दो साल लगेंगे. प्रणव मुखर्जी ने बजट में ग्रामीण विकास को प्रमुखता देकर सरकार के एजेंडे को आगे बढ़ाया है. इसके तहत कई योजनाओं की शुरुआत हुई और पुराने योजनाओं की आवंटित राशि में वृद्धि हुई. सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार योजना के लिये 391 बिलियन रुपए और भारत निर्माण योजना के लिए पिछले बार से 114 फीसदी अधिक धन आवंटित किया है. इससे यह बात समझी जा सकती है कि मनमोहन सरकार ग्रामीण इलाक़ों की ख़ुशहाली पर ध्यान देना चाहती है. छोटे छोटे शहरों में सुविधाओं के विकास परसरकार ने 11,400 करोड़ रुपए ख़र्च करने का फैसला किया है साथ ही कश्मीर और पश्चिमोत्तर में सड़क निर्माण पर 13,397 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं. किसानों के लिए राहत की बात यह है कि केवल छह प्रतिशत ब्याज दर पर कर्ज़ दिया जाने लगा है. साथ ही सरकार ने स्विस बैंको में जमा काले धन के मामले में बातचीत भी शुरू कर दी है. इस बारे में निर्णायक बैठक दिसंबर में होने वाली है.
गंगा को साफ-सुथरा करने का वादा भी अधर में है. यूपीए सरकार की तरफ से भरोसा दिया गया था कि नदियों की सफाई और सौंदर्यीकरण के लिए ठोस काम किए जाएंगे जिसकी शुरुआत गंगा से होगी. 100 दिन के बीत जाने के बाद भी इस मसले पर कोई सार्थक पहल नहीं हुई है. सरकार ने यह ऐलान किया था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवी युवा दल द्वारा नदियों की साफ-सफाई और उसके सौंदर्यीकरण का कार्यक्रम बनाया जाएगा, लेकिन इसमें भी कोई प्रगति नहीं हुई है. यह ज़रूर है कि इस बीच इस तरह की भी ख़बरें आने लग गई हैं कि गंगा अपने उद्गम में ही मैली हो चुकी है. जांच से पता चला है कि गंगा का पानी गंगोत्री से ही पीने के लायक नहीं रहा.
सरकार के 100 दिन के एजेंडे में शामिल ऐसी कई योजनाएं हैं जिस पर काम शुरू हो चुका है जैसे कि बैकवार्ड रिजन्स ग्रांट फंड (पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष) को फिर से बनाना, पब्लिक डाटा पॉलिसी (सार्वजनिक दस्तावेज नीति) बनाना, ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के काम में भी प्रगति होना. पोस्ट ऑफिसों और बैंकों के अतर्गत छात्रवृति और सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं और स्मार्ट काड्र्स के द्वारा पैसों के लेन-देन का काम भी जारी है. सरकार ने सभी पंचायतों में भारत निर्माण कॉमन सर्विस सेंटर के तहत ई-गवर्नेंस की स्थापना करने का ऐलान किया है.
इसके अलावा क़ानून के स्तर पर सरकार ने सूचना के अधिकार को और अधिक मज़बूत बनाने का ऐलान किया था, लेकिन इस मामले में कोई प्रगति नहीं हो पाई है. यशपाल कमेटी और नेशनल नॉलेज कमीशन की स़िफारिश के तहत उच्च शिक्षा के लिए नेशनल काउंसिल का गठन किया जाना है, जिससे रेगुलेटरी इंस्टिट्यूशन में सुधार लाया जा सके. यह अभी शुरुआती दौर में ही है. विश्व के प्रतिभावान छात्रों को अपने यहां आकर्षित करने के लिए ब्रेन-गेन पॉलिसी को विकसित करने योजना पर भी काम चल रहा है. इसे 11वीं योजना में इनोवेशन यूनिवर्सिटी के तहत प्रस्तावित किया गया है. सरकार न्यायिक सुधार को लेकर भी आगे बढ़ रही है. क़ानून मंत्रालय को छह महीने के अंदर खाका तैयार करने और इसे समय सीमा के तहत लागू करने की बात की गई. जजों की संपत्ति को लेकर पूरे देश में बहस जारी है. मीडिया में तरह-तरह के विचार सामने आ रहे हैं. जहां तक सरकार का सवाल है तो जजों की संपत्ति सार्वजनिक करने संबंधी बिल का मसौदा तैयार हो चुका है, लेकिन इसे पेश नहीं किया गया है.
विपक्ष ने क्या किया?
जब हम सरकार के 100 दिनों के एजेंडे का हिसाब ले रहे हैं, तो यह भी ज़रूरी है कि हमें विपक्षी दलों का भी आकलन करना चाहिए कि पिछले 100 दिनों में इन लोगों ने क्या किया. यह इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि प्रजातंत्र में सरकार के साथ-साथ विपक्ष की भी ज़िम्मेदारी होती है. यह भी समझना ज़रूरी है कि मनमोहन सिंह ने सरकार बनते ही सौ दिनों के एजेंडे का ऐलान तो कर दिया लेकिन यह शुरुआत से ही काफी महत्वाकांक्षी था. सरकार ने ख़ुद को बदलने की पहल तो की, लेकिन विपक्षी दलों ने अपने आप को नहीं बदला. 100 दिन पूरे होते ही विभिन्न राजनीतिक दलों ने प्रेस में बयान दिए. ये बयान महज खानापूरी जैसा ही है. संसद के पिछले सत्र में भारत-पाकिस्तान साझा बयान के ख़िला़फ विपक्ष के तेवर देखने योग्य थे. खेद की बात यह है कि विपक्ष के वही तेवर महंगाई, बेरोज़गारी और सूखे की मार जैसे विषयों पर देखने को नहीं मिला. संसद सत्र में यह किसी ने नहीं पूछा कि सरकार अपने 100 दिनों को एजेंडे को लागू करने में कितनी कामयाब हुई है, या फिर 100 दिन के एजेंडा को ठंडे बस्ते में रख दिया गया है.
सरकार के 100 दिन पूरे होने के बाद जब मीडिया ने इन बातों पर बहस शुरू की, तो अलग-अलग राजनीतिक दलों के बयान आने लगे. विपक्षी दल इस बात को लेकर एकमत हैं कि पिछले सौ दिनों में आम जनता ज़्यादा परेशान रही और सरकार ने ठीक से काम नहीं किया. भाजपा के मुताबिक़ सरकार आर्थिक और देश की सुरक्षा के क्षेत्र में अपने वायदों को पूरा करने में विफल रही है. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने यूपीए सरकार के कामों को असंतोषजनक बताया, ) वहीं कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादीके मुताबिक़ सरकार पिछले 100 दिनों में सरकार का पूरा ध्यान किसानों और मजदूरों और मंहगाई पर लगाम लगाने की बजाय व्यवसायिक घरानों को रियायत देने पर रहा. वहीं यूपीए को बाहर से समर्थन देने वाली समाजवादी पार्टी ने सरकार पर बेरोज़गारी पर काबू पाने पर असफल होने का आरोप लगाया. इन बयानों पर इस लिए ग़ौर देने की ज़रूरत है, क्योंकि इन बयानों से यह साफ लगता है कि सरकार के 100 दिन के एजेंडे को लेकर किसी भी राजनीतिक दल ने होमवर्क नहीं किया है. वैसे भी भाजपा और सीपीएम चुनाव में हारने के बाद अपने घर को दुरुस्त करने में लगे हैं. वाममोर्चा को ममता बनर्जी का ख़तरा सता रहा है, तो भारतीय जनता पार्टी अपने ही संगठन और नेताओं से परेशान है. इनकी परेशानी इतनी गंभीर है कि इन्हें सरकार के कामकाजों पर नज़र रखने और उस पर सवाल उठाने का व़क्त नहीं मिला.
पिछले सौ दिनों में सरकार को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा. पहली परेशानी सरकार बनाने के दौरान हुई जब यूपीए को समर्थन देने वाली पार्टियों ने मंत्रालय के बंटवारे के दौरान दीवारें खड़ी की. मनमोहन सिंह चाहते थे कि इस बार युवाओं और अनुभवियों में तालमेल बिठा कर मंत्रियों को चुना जाए, ताकि यूपीए के बचे हुए कामों को पूरा किया जा सके. यूपीए सरकार को नरेगा और भारत निर्माण योजना जैसे पायलट प्रोजेक्ट्स पर निगरानी रखने की ज़रूरत है. इन योजनाओं को सही ढंग से चलाने के लिये सरकार को पूरे तंत्र में पारदर्शिता लाने की ज़रूरत पड़ेगी. अधिकारियों की जवाबदेही तय करने की ज़रूरत होगी और साथ ही इन योजनाओं को सफल बनाने के लिए स्थानीय लोगों और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं को इन योजनाओं में शामिल करना भी महत्वपूर्ण होगा.
मनमोहन सिंह के 100 दिन के एजेंडे को हमें सरकार के प्रति आम जनता के भरोसे को मज़बूत करने की एक पहल के रुप में देखने की ज़रूरत है. मनमोहन सिंह ने इस एजेंडे के जरिए उस धारणा को बदलने की कोशिश की है कि सरकार के काम का हिसाब अब सालों में नहीं दिनों में दिए जाएंगे. इसमें कोई शक़ नहीं है कि मनमोहन सिंह ने 100 दिन के एजेंडे को पेश कर सरकार की विश्वसनीयता और जवाबदेही बढ़ाने की अच्छी कोशिश की है. 100 दिन का एजेंडा अपने आप में काफी महत्वाकांक्षी है. भारत में सिर्फ तीन महीने में किसी भी योजना को लागू करना लगभग असंभव जैसा है. यह पहले से ही तय था कि सौ दिनों के बाद जब जायज़ा लिया जाएगा तो इसमें सरकार की असफलता भी शामिल होगी.यह बात भी सही है कि मनमोहन सरकार सौ दिन के एजेंडे को पूरी तरह से पूरा करने में कामयाब नहीं रही है, लेकिन यही सरकार के कामों को आकलन करने का कोई मापदंड नहीं हो सकता. दुनिया मंदी के दौर में हैं और भारत इससे अछूता नहीं है. मनमोहन सरकार के सामने कई चुनौतियां हैं. कुछ चुनौतियां काफी मुश्किल भी है. सरकार इन चुनौतियों का सामना कैसे करती है ये अभी देखना बाक़ी है.