नीतीश कुमार ने पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं या फिर जनता की बातों को सुनना बंद कर दिया है. किसी भी योजना या नीति को तय करने में जनप्रतिनिधियों की हिस्सेदारी नहीं के बराबर रह गई है. पार्टी के नेता लाचार हैं. उनका आरोप है कि अवसरवादी नौकरशाहों ने मुख्यमंत्री को अपने मायाजाल में फंसा रखा है, वे हमेशा नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं.
प्रजातंत्र में सरकार का यह दायित्व होता है कि शासन और प्रशासन संविधान के मुताबिक़ चले. अगर कोई सरकार यह काम करती है तो वह किसी इनाम की हक़दार नहीं है. यह तो उसका कर्तव्य है. बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के 15 साल के कुशासन के बाद जब नीतीश कुमार की सरकार बनी थी, तब लोगों को यह उम्मीद बंधी थी कि राज्य में दूरगामी परिवर्तन होंगे. नौकरी के लिए बिहार के लोगों को दूसरे राज्यों में भटकना नहीं पड़ेगा. उद्योग व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए दरवाजे खुल जाएंगे. किसानों की मुसीबतें ख़त्म हो जाएंगी. मज़दूर ख़ुशहाल हो जाएंगे. लेकिन बिहार में 15 साल के कुशासन और आज के हालात में फर्क़ स़िर्फ इतना है कि जहां सरकार नहीं थी, वहां सरकार नज़र आने लगी. राज्य में इससे ज़्यादा कुछ नहीं हुआ. बिहार के लोग भोले-भाले हैं. आम जनता अच्छी सड़क बना देने को ही सुशासन समझती है और सरकार के मुखिया नीतीश कुमार के अहंकार के सामने नतमस्तक है. नीतीश कुमार बिहार की ज़रूरत हैं, ऐसा कई लोग मानते हैं. यह बात भी सही है कि वे बिना प्रचार किए चुनाव जीतने की ताक़त रखते हैं. लेकिन बिहार की जनता नीतीश से एक स्टेट्समैन बनने की उम्मीद रखती है. ऐसी उम्मीद करना ग़लत भी नहीं है, क्योंकि उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि ही ऐसी है. नीतीश कुमार ने शुरुआती दौर में ऐसे संकेत भी दिए, लेकिन समय के साथ-साथ उनकी प्राथमिकताएं बदल गईं. नीतीश पहले नेताओं से दूर हुए, फिर समर्थकों से और अब जनता से भी दूरी बना ली है. इसके अलावा नीतीश कुमार ने अपने शासनकाल में कभी भी विपक्ष को साथ लेकर चलने की कोशिश नहीं की. उनके पास बहुमत है. उनकी छवि अच्छी है, इसी एहसास ने नीतीश कुमार को निरंकुश बना दिया है. वह अहंकारी हो गए हैं. जिस नीतीश को लोग एक स्टेट्समैन की तरह देखना चाहते थे, वे एक साधारण मुख्यमंत्री साबित हुए हैं.
प्रजातंत्र में जनता ही नेता को चुनती है, मंत्री और मुख्यमंत्री बनाती है. अच्छा नेता वह होता है जो जनता के क़रीब हो. नीतीश कुमार बिहार के ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिनसे जनता तो दूर, कोई मंत्री, विधायक या सांसद भी सीधे नहीं मिल सकता है. उन्हें इसके लिए अर्ज़ी देनी पड़ती है. नीतीश कुमार के यहां काम करने वाले लोग दिन में दो बार मिलने वालों की सूची तैयार करते हैं. पता चला है कि रोज़ सुबह नाश्ते के व़क्त नीतीश उस सूची को देखते हैं और पेंसिल से निशान लगाते हैं. जिन नामों के दाहिनी ओर निशान लग जाता है, उन्हें मिलने की अनुमति मिलती है और जिन नामों के बाईं ओर निशान लगता है, उनसे स़िर्फ फोन पर बातें होती हैं. सूची में मौजूद ज़्यादातर नामों के आगे नीतीश पेंसिल नहीं चलाते हैं. वे न तो मिलने वालों की सूची में होते हैं और न ही फोन से बात करने वालों में. यहां ग़ौर करने वाली बात यह है कि अगर कोई मंत्री या विधायक आज मिलने की अर्ज़ी देता है, तो उसका नंबर एक दो सप्ताह के बाद आता है, कभी-कभी तो एक महीने के बाद. मुख्यमंत्री और विधायकों के बीच फासला कितना ब़ढ गया है, इस पर एक घटना बताते हैं. बिहार के एक एमएलए हैं रामेश्वर चौरसिया. कभी नीतीश कुमार के काफी क़रीब थे. उन्हें अपने क्षेत्र के विकास को लेकर मुख्यमंत्री से कुछ बातें करनी थी. उन्होंने अपना नाम लिखवा दिया, लेकिन उनका नंबर नहीं आया. उन्होंने दो-तीन बार अपना नाम लिखवाया. क़रीब एक महीने बाद अचानक उनके मोबाइल पर नीतीश कुमार का फोन आया. नीतीश ने पूछा, कोई काम था. रामेश्वर चौरसिया ने कहा, नहीं. फिर नीतीश कुमार ने पूछा कि लिस्ट में आपका नाम लिखा था. तब रामेश्वर चौरसिया को याद आया कि उन्होंने एक महीने पहले मिलने की अर्ज़ी दी थी. इस घटना से दो बातें सामने आती हैं. एक तो इससे मुख्यमंत्री और विधायकों के बीच की दूरी का पता चलता है और दूसरा यह कि हालात इस क़दर खराब हो गए हैं कि विधायकों को मुख्यमंत्री से व़क्तनहीं मिलने का अब कोई अ़फसोस भी नहीं होता है. विधायकों ने यह मान लिया है कि नीतीश बदल गए हैं.
जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने थे, तब वह ऐसे नहीं थे. पार्टी के नेता व कार्यकर्ता बताते हैं कि नीतीश में सत्ता का ज़रा भी रौब नहीं था. गपशप दरबार लगा करता था, जिसमें पार्टी के छोटे-बड़े कार्यकर्ता और सरकार से जुड़े लोग शामिल होते थे. इसमें साधारण लोग भी शरीक़ होते थे, कोई रोकटोक नहीं था. हंसी-मज़ाक का दौर भी चलता था. उसी दौरान की एक घटना है. नीतीश वहां बैठे लोगों को बता रहे थे कि नौकरी के लिए बिहार के लोग कहीं भी चले जाएंगे. नौकरी के लिए परीक्षा अगर चांद पर भी हो तो वहां भी बिहार के छात्र नज़र आ जाएंगे. इस पर नागरिक परिषद के अध्यक्ष अनिल पाठक ने कहा कि इंग्लैंड में 75 फीसदी डॉक्टर बिहार के हैं. इस पर नीतीश ने चुटकी ली, कहा- पाठक जी, यह आपको कैसे मालूम है. बिहारी डॉक्टरों की गिनती करने आप क्या लंदन गए थे. दरबार में बैठे लोग हंस पड़े. अनिल पाठक ने फौरन जवाब दिया कि आप भी तो चांद पर नहीं गए. दरबार में ठहाके की गूंज फैल गई. नीतीश भी हंस पड़े थे. आज नीतीश के आसपास कार्यकर्ताओं के ठहाके नहीं सुनाई देते. मुख्यमंत्री जी और उनके चाहने वालों के बीच फासला बढ़ गया है. अब मुख्यमंत्री निवास में इस तरह के दरबार नहीं लगते. लोग वहां जाने से डरते हैं, पता नहीं कौन सिपाही या अधिकारी उनकी इज़्ज़त उतार दे.
ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार के पास लोगों से मिलने का व़क्त नहीं है. विडंबना यह है कि जनता के प्रतिनिधियों को मुख्यमंत्री से मिलने के लिए पापड़ बेलना पड़ता है, लेकिन राज्य के नौकरशाहों के लिए नीतीश का दरबार हर व़क्त खुला रहता है. इन अधिकारियों के लिए मुख्यमंत्री के पास व़क्त ही व़क्त है. उनके लिए वे चौबीसों घंटे मौजूद रहते हैं. नीतीश कुमार ने पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं या फिर जनता की बातों को सुनना बंद कर दिया है. किसी भी योजना या नीति को तय करने में जनप्रतिनिधियों की हिस्सेदारी नहीं के बराबर रह गई है. पार्टी के नेता लाचार हैं. उनका आरोप है कि अवसरवादी नौकरशाहों ने मुख्यमंत्री को अपने मायाजाल में फंसा रखा है, वे हमेशा नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं. नीतीश पार्टी के नेताओं और जनता की मदद से सरकार नहीं चला रहे हैं. असलियत यह है कि बिहार में कुछ गिने-चुने अधिकारी ही सारे फैसले ले रहे हैं. यही वजह है कि बिहार में लालफीताशाही का बोलबाला है और नौकरशाह निरंकुश हो गए हैं. बिहार में प्रजातंत्र का यह कैसा रूप है, प्रजातांत्रिक मूल्यों का कैसा चेहरा है कि जनता के प्रतिनिधियों व उनके परिजनों की पुलिस अधिकारी पिटाई कर देते हैं और सरकार का मुखिया कोई भी कार्रवाई करने से डर जाता है. अश्विनी चौबे भागलपुर के विधायक हैं. बिहार के बड़े नेताओं में इनकी गिनती होती है. पटना में एक दिन उनके परिजनों ने मौर्यलोक के पास ऐसी जगह पर गाड़ी लगा दी, जहां नो-पार्क़िंग का बोर्ड लगा था. पुलिस ने उनकी गाड़ी वहां से हटा दी. विधायक के बेटे के साथ पुलिस की कहासुनी होने लगी जो थोड़ी देर में गर्मागर्म बहस में तब्दील हो गई और पुलिस ने अश्विनी चौबे के बेटे की पिटाई कर दी. उसे छुड़ाने उनकी पत्नी आगे आईं तो पुलिस वालों ने उन्हें भी पीट दिया. अश्विनी चौबे मुख्यमंत्री को फोन करते रह गए. पुलिस अधिकारियों के ख़िला़फ कार्रवाई की उम्मीद करते रह गए, लेकिन नीतीश कुमार ने तीन दिनों तक उनके फोन का जवाब तक नहीं दिया. बिहार के एक और विधायक पीतांबर पासवान को समस्तीपुर में एक कार्यक्रम में एक एसडीओ ने धक्का दे दिया और बेइज़्ज़त किया. इस मामले ने का़फी तूल पकड़ा, विधानसभा में भी उठा. एक साल तक पीतांबर पासवान विधानसभा नहीं आए, लेकिन सरकार के मुखिया ने इस अधिकारी के ख़िला़फ कोई कार्रवाई नहीं की.
बिहार के विधायकों और सांसदों की यही शिकायत है कि नीतीश कुमार की सारी दरियादिली नौकरशाहों के लिए है, लेकिन जैसे ही किसी जनप्रतिनिधि से जुड़ा विषय आता है तो वह हिटलर की तरह पेश आते हैं. सरकार में शामिल नेता भी दबी ज़ुबान से कहते हैं कि नीतीश अब अधिकारियों की सलाह पर फैसले लेते हैं. यह बात भी सही है कि जनता में मुख्यमंत्री जी और सरकार की छवि अच्छी है. नीतीश जी को शायद इसी बात का अहंकार है. विधायकों को भी लगता है कि नीतीश के साथ रह कर ही वे विधानसभा में फिर से चुनकर आ सकते हैं, इसलिए उनके फैसलों पर सवाल उठाने की हिम्मत नहीं करते. जिन लोगों ने नीतीश के ख़िला़फ बोलने की कोशिश की, उनका क्या हश्र हुआ यह देखकर पार्टी के दूसरे नेता सकते में हैं. नीतीश कुमार पर नौकरशाहों का ऐसा प्रभाव है कि उनकी सलाह पर वे मंत्रियों के विभाग तक बदल देते हैं. जो मंत्री अच्छा काम कर रहा होता है, उसका भी विभाग बदल दिया जाता है. चाहे इसका ख़ामियाज़ा जनता को क्यों न भुगतना पड़े. एक बार उन्होंने स्वास्थ्य मंत्री चंद्रमोहन राय, गन्ना मंत्री नीतीश मिश्रा, सूचना जनसंपर्क मंत्री अर्जुन राय, ऊर्जा मंत्री विजेंद्र यादव और ग्रामीण कार्य मंत्री नरेंद्र नारायण यादव का विभाग एकसाथ ही बदल दिया. इस घटना के बाद से फिर किसी मंत्री ने नीतीश के सामने ज़ुबान खोलने की हिम्मत नहीं की. हाल में ही ललन सिंह ने पार्टी में बग़ावत की. ऐसा महौल बन गया था कि लगा कि कहीं पार्टी ही न टूट जाए. फिर महिला आरक्षण बिल को लेकर शरद यादव के साथ खटपट हुई. लेकिन नीतीश के अहंकार के सामने इन सब ने घुटने टेक दिए. अब आलम यह है कि नीतीश की स्थिति और भी मज़बूत हो गई है. वह पहले से ज़्यादा अंहकारी व निरंकुश हो गए हैं.
नीतीश कुमार अपने शुरुआती दिनों में जनता और नेताओं के काफी क़रीब थे. जब वे मुख्यमंत्री बने थे, तब कार्यकर्ता दरबार लगता था. हर मंगलवार को पार्टी ऑफिस में कार्यकर्ताओं से सीधे मिलते थे. उनकी समस्याओं और जनता की परेशानियों के बारे में जानकारी लेते थे. पार्टी कार्यालय में एक पॉलिटिकल सेक्रेटरी होता था जो कार्यकर्ताओं को मुख्यमंत्री से मिलाने का काम करता था. समय के साथ मिलना-जुलना कम होता गया और धीरे-धीरे पूरी तरह बंद हो गया. आज हालत यह है कि नीतीश इतनी खरी-खोटी सुनाते हैं कि नेता और कार्यकर्ता सही बात कहने से डरते हैं. चुनाव नज़दीक है. नीतीश राज्य के अलग-अलग इलाक़ों का दौरा कर रहे हैं. वहां जब कार्यकर्ता यह कहते हैं कि अधिकारी मनमानी कर रहे हैं, सरकार की छवि ख़राब हो रही है तो नीतीश का जवाब होता है कि आप लोग भ्रम में न रहें, सब ठीक चल रहा है और सरकार की छवि के बारे में नाहक चिंतित न हों. सरकार के मुखिया जब ऐसी बात करते हैं, तो सरकार के समर्थक के पास चुप रहने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह जाता है. नीतीश का दरवाजा पहले आम जनता के लिए भी खुला था. हर सोमवार को जनता दरबार लगता था. सुबह-सुबह अपनी समस्याओं को लेकर लोग उनसे मिलते थे. नीतीश उन्हें निराश भी नहीं करते थे. उसी व़क्त वह फोन कर मामले का निपटारा करते थे. अब मुख्यमंत्री जी का तेवर बदल गया है, प्राथमिकताएं बदल गई हैं. इसलिए जनता दरबार का चरित्र भी बदल गया है. जनता दरबार से जनता ग़ायब हो गई. अब पटना में जनता दरबार लगना भी बंद हो गया है. वह जिस दिन जहां होते हैं, खानापूर्ति के लिए दरबार लग जाता है. लोग मिलते हैं, आवेदन देते हैं और मुख्यमंत्री जी आवेदन डीएम को सौंप कर भूल जाते हैं.
नीतीश कुमार को यह अहंकार सा हो गया है कि उनके कार्यकाल में सरकार जनता के मनमुताबिक़ काम कर रही है. बिहार की मीडिया सरकार के जनसंपर्क विभाग की तरह काम कर रही है. यहां तक की दिल्ली के अंग्रेजी अख़बारों में पूरे-पूरे पेज ख़रीद कर बिहार सरकार अपने काम को बढ़ा-चढ़ा कर प्रचारित कर रही है. अधिकारी अपनी पीठ थपथपा रहे हैं. नीतीश के आसपास जो लोग हैं, वे भी सही ख़बर नहीं देते हैं. यह बात समझ में नहीं आती है, कोई तर्क फिट नहीं बैठता है कि नीतीश कुमार जैसे परिपक्व ज़मीनी नेता को यह कैसे लग सकता है कि सरकार का काम स़िर्फ सड़क बनाना है. इसमे कोई शक़ नहीं है कि बिहार में सड़क बनाया गया है. बिहार में 90 हज़ार किलोमीटर सड़क हैं. पिछले पांच सालों में स़िर्फ 18 हज़ार किलोमीटर का निर्माण हुआ है. मतलब यह कि अभी लगभग 80 हज़ार किलोमीटर सड़क बनना बाक़ी है. बिहार में लालू यादव के पंद्रह साल के शासनकाल में सड़कों की हालत बहुत ही ख़राब थी. नीतीश कुमार के शासनकाल में जो थोड़े-बहुत सड़क बने हैं, उसे देखकर बिहार की भोली जनता को यही लगता है कि पूरे राज्य में सड़कों का पुनरुद्धार हो गया है.
बिहार के अधिकारी यह दावा करते हैं कि राज्य में क़ानून-व्यवस्था को दुरुस्त किया गया है. यह सच्चाई है कि अपराध में कमी आई है, रंगदारी में कमी हुई है, जिस तरह पहले दिन-दहाड़े डक़ैती और गुंडागर्दी का आलम था, उसमें कमी आई है. इसकी सराहना बिहार की जनता तो कर रही है, लेकिन यह तो सरकार का मूल दायित्व है. बिहार के अधिकारी इतने बेपरवाह हो गए हैं कि यह भी भूल गए हैं कि क़ानून-व्यवस्था को ठीक रखना तो सरकार का काम ही होता है. जो सरकार यह नहीं कर सकती, उसे सरकार में रहने का कोई हक़ नहीं है. हमारा संविधान तो यही कहता है. नीतीश कुमार को तो यह जवाब देना चाहिए कि अपराध पूरी तरह ख़त्म क्यों नहीं हुए, किडनैपिंग क्यों चल रही है, अभी भी हत्या और बलात्कार की वारदातें क्यों हो रही हैं.
इस सरकार से पहले सरकार न के बराबर थी. नीतीश कुमार के समय में स़िर्फ इतना अंतर आया है कि सरकार नज़र आ रही है, लेकिन समस्याएं जस की तस हैं. नीतीश के शासनकाल में आज बिहार की जनता बिजली पानी की समस्या से जूझ रही है. स्वास्थ्य सेवाओं में पैसा तो लगाया गया है, लेकिन ज़मीन पर कुछ नहीं हो पाया है. शिक्षा का स्तर चौपट हो चुका है. बिहार में जिस वर्ग के पास पैसा है, वह दूसरे शहरों में पढ़ने और नौकरी के लिए चला जाता है. लेकिन जो लोग ग़रीब हैं, उनकी मुश्किलें बढ़ गई हैं. बिहार में स्कूल में ड्रेस बांटने का फैसला लिया गया. अधिकारियों की वजह से भीषण घपलेबाज़ी हुई. ख़बर आई कि एक विद्यार्थी का नाम कई स्कूलों में दर्ज है. नौकरशाहों के भरोसे सरकार चलाने का ख़ामियाज़ा तो भुगतना ही पड़ता है. आज बिहार में ग़रीब विद्यार्थियों को अच्छे स्कूल से इंटर करना ही मुश्किल हो गया है. अधिकारियों ने न जाने किस दिमाग़ से विश्वविद्यालय में इंटर की पढ़ाई बंद कर दी. अब इंटर करने के लिए स़िर्फ प्राइवेट स्कूल बचे हैं, जो विद्यार्थियों से इतनी फीस लेते हैं कि ग़रीब छात्र इसमें पढ़ने की सोच भी नहीं सकते. पटना साइंस कॉलेज में इंटरमीडिएट की पढ़ाई बंद है. बिहार सरकार ने यह वादा किया था कि एक साल बाद सारे स्कूलों में इंटर की पढ़ाई होगी, लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ है. सरकार से जब ग़रीब छात्रों के भविष्य के बारे में पूछा जाता है तो दो टूक जवाब मिलता है, झेलना पड़ेगा. इसमें कोई नई बात नहीं है कि हर सरकार अपने हिसाब से योजना बनाती है, नीतियों पर काम करती है. लेकिन इस दौरान यह चिंता भी करती है कि उनकी नीतियों की वजह से किसी का नुक़सान नहीं हो. यहां तो ग़रीब बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ हो रहा है और सरकार का जवाब ऐसा है जो शायद किसी हिटलरशाही में भी नहीं दिया जाता होगा.
नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने से लोगों में उम्मीद जगी थी. नीतीश ईमानदार हैं, सा़फ छवि के हैं, लोगों को अपने जैसे लगते हैं, इसलिए जब अधिकारी अपना काम ठीक से नहीं करते हैं तो धरना प्रदर्शन कर लोग अपनी समस्याओं को मुख्यमंत्री तक पहुंचाने पटना पहुंचते हैं. लेकिन नीतीश कुमार के शासनकाल में बिहार में एक नई परंपरा की शुरुआत हुई है. अपने प्रजातांत्रिक अधिकारों को इस्तेमाल करते हुए कोई धरना प्रदर्शन करता है तो बिहार की पुलिस बेदर्दी से डंडा चलाती है. पटना में हर बड़े विरोध प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने लाठी चार्ज किया है. चाहे होमगार्ड के जवान हों या शिक्षा मित्र, इन लोगों ने जब भी प्रदर्शन किया, इनकी भरपूर पिटाई हुई. बिहार में विरोध कर रहे उर्दू और संस्कृत के शिक्षकों को भी दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया. स्वास्थ्य सेविका और पंचायत प्रतिनिधि, जो ग्रामीण और सुदूर इलाक़ों में काम करते हैं, उनके शरीर पर भी पुलिस का डंडा टूटा. ये लोग अपनी नौकरी और वेतन की समस्याओं को लेकर गुहार करने पटना आए थे, पर आंखों में आंसू, शरीर पर डंडों के निशान और सरकार को कोसते हुए वापस गए. बिहार के अन्य ज़िलों में बाढ़ पीड़ितों पर भी लाठी चार्ज की घटनाएं हुई हैं. पटना में मीडिया और टीवी कैमरों के डर से पुलिस व अधिकारियों का अत्याचार थोड़ा कम भी होता है. अगर विरोध प्रदर्शन छोटे इलाक़े में हो, पानी-बिजली की समस्या को लेकर कहीं लोग रोड जाम कर दें या सरकार के ख़िला़फ नारेबाज़ी करें, तो पुलिस फौरन अंग्रेज़ी हुकूमत की याद दिला देती है. जमकर लाठियां चलती हैं और प्रदर्शनकारियों को जेल भेज दिया जाता है. महंगाई के मुद्दे को लेकर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माले) के विरोध प्रदर्शन को बलपूर्वक कुचला गया, अब तो आलम यह है कि विधानसभा में विधायकों को भी नहीं छोड़ा जाता है. पता नहीं बिहार में विरोध प्रदर्शन कब से ग़ैरक़ानूनी हो गए हैं जबकि नीतीश कुमार ख़ुद ऐसी राजनीति की पैदाइश हैं, जिसका आधार ही विरोध प्रदर्शन है. देखना तो यह है कि जनता के विरोध प्रदर्शन पर लाठी चलाने वाले कैसे ख़ुद को जयप्रकाश नारायण का अनुयायी मानते हैं.
नीतीश कुमार की गठबंधन सरकार बहुमत में है. बहुमत का उपयोग सरकार ने किस तरह किया, इसे समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि सरकार ने किस तरह संवैधानिक कर्तव्यों और परंपराओं को निभाया. पांच साल की नीतीश सरकार के दौरान सबसे खटकने वाली बात विधानसभा के उपाध्यक्ष का चुनाव है. संसदीय प्रणाली में यह लगभग अनकहा क़ानून है कि सदन का उपाध्यक्ष मुख्य विपक्षी पार्टी का होता है. लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल ने इस पद के लिए श्याम रजक को चुना. वे महादलित वर्ग से हैं. नीतीश कुमार को श्याम रजक के नाम पर आपत्ति थी, इसलिए उन्होंने चुनाव तक नहीं होने दिया. नीतीश कुमार ने बहुमत का ऐसा धौंस दिखाया कि लालू यादव को थक-हार कर श्याम रजक की जगह शकुनी चौधरी का नाम आगे करना पड़ा. प्रजातंत्र की एक कमी है, पलक झपकते बहुमत निरंकुश शासन में तब्दील हो जाता है. बिहार के विधान परिषद में ऐसा ही हुआ. नीतीश कुमार ने सभापति और उपसभापति के पद को अपने पास रख लिया. उन्होंने तीन साल तक चुनाव ही नहीं होने दिया. उनकी जिद की वजह से कार्यकारी सभापति ही इस पद पर विराजमान रहे.
बच्चे जिद करते हैं, योगी हठ करते हैं लेकिन जब कोई सर्वशक्तिमान यह काम करता है तो उसे अंहकार कहा जाता है. नीतीश कुमार प्रजातांत्रिक आंदोलन, विचारधारा और मूल्यों से उपजे नेता हैं. बिहार ही नहीं, पूरे देश की जनता को नीतीश कुमार से अपेक्षाएं हैं. वह उन चंद नेताओं में शामिल हैं, जिन्हें देश की जनता ईमानदार मानती है. दूसरे राज्यों के लोग भी उन्हें देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखते हैं. लेकिन बिहार में उनके पांच साल के शासनकाल को देखकर अ़फसोस होता है. नीतीश कुमार के शासनकाल का सबसे बड़ा धब्बा यह है कि उन्हें सरकार चलाने में विपक्ष का साथ नहीं मिला. विधानसभा में जब भी कोई अहम फैसला लिया गया, उसमें विपक्ष का वॉकआउट शामिल था. नीतीश जी को यह दर्द हमेशा रहेगा. मुख्यमंत्री जी यह भी जानते हैं कि उन्होंने इन पांच सालों में एक भी ऐसा काम नहीं किया, जिसके दूरगामी सामाजिक व राजनैतिक परिणाम हों. नीतीश कुमार की दूसरी सबसे बड़ी कमी यह है कि उन्होंने पार्टी में नेताओं की दूसरी पंक्ति बनने ही नहीं दी. उल्टे जिन लोगों ने दूसरी पंक्ति के नेताओं में अपनी जगह बनाने की कोशिश की, उन्हें पार्टी से निकलने पर मजबूर कर दिया. नीतीश राजनीति में परिवारवाद के समर्थक नहीं हैं, फिर भी बिहार में जदयू के पास नीतीश के अलावा पार्टी को नेतृत्व देने वाला कोई नया या युवा चेहरा नज़र नहीं आता है. बड़े नेता की यह निशानी ही नहीं कर्तव्य भी है कि वह अपने पीछे नए नेताओं की एक कतार छोड़ जाता है. नीतीश कुमार कहते हैं कि हम चादर तान कर सोएंगे, तब भी डेढ़ सौ से ज़्यादा सीटें जीत जाएंगे. हम सालों भर पढ़ने वाले विद्यार्थी हैं, स़िर्फ परीक्षा के समय ही नहीं पढ़ते. इसलिए चुनाव जीतने की चिंता नहीं है. नीतीश जी चुनाव जीत जाएं, यह बिहार के लिए अच्छा है. लेकिन देश की जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना नीतीश कुमार का दायित्व है. अगर वह ऐसा नहीं कर पाते हैं तो हमेशा एक साधारण मुख्यमंत्री के रूप में ही याद किए जाएंगे. साधारण मुख्यमंत्री और अच्छे मुख्यमंत्री में फर्क होता है, अच्छे और असाधारण मुख्यमंत्री में और फर्क होता है. पटना से दिल्ली का रास्ता आसान नहीं है, नीतीश जी.