चौथी दुनिया को कुछ ऐसे दस्तावेज़ हाथ लगे हैं, जिनसे हैरान करने वाली सच्चाई का पता चलता है. कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका की सुनवाई हुई, जिसमें लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह को अगले सेनाध्यक्ष के रूप में नियुक्ति पर सवाल खड़े किए गए. याचिकाकर्ताओं ने यह सवाल उठाया कि जिस व्यक्ति के खिला़फ दो-दो संगीन मामले कोर्ट में चल रहे हैं, क्या उसे सेनाध्यक्ष नियुक्त किया जा सकता है. सरकार की तऱफ से कोर्ट को यह बताया गया कि इन आरोपों की जांच इंटेलिजेंस ब्यूरो ने की है और इन्हें बेबुनियाद पाया है. हैरानी की बात यह है कि जब दोनों मामलों की जांच चल रही है, मामले अदालत में हैं, तो फिर इंटेलिजेंस ब्यूरो को क्लीन चिट देने का अधिकार कैसे मिल गया, क्या इंटेलिजेंस ब्यूरो कोर्ट के फैसले से पहले ही यह तय करती है कि किसी पर लगे आरोप सही हैं या ग़लत. हमारी तहकीकात से यह पता चलता है कि जो आरोप देश के होने वाले सेनाध्यक्ष पर लगे हैं, वे संगीन हैं और जो दलील सरकारी वकीलों ने दी है, उसमें कई राज छिपे हुए हैं.
इसमें कोई शक नहीं है कि आज भारतीय सेना की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है. एक तऱफ सरकारी कमेटी यह मान रही है कि हमारी सेना युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है. दूसरी तऱफ सेना में घोटालों की खबरें सामने आ रही हैं. इस बीच सरकार ने एक ऐसे अधिकारी को सेनाध्यक्ष के लिए चुना है, जिसके खिला़फ दो-दो मामले चल रहे हैं. देश की जनता असमंजस में है. ऐसे ही आरोपों को लेकर देश के वरिष्ठ और ज़िम्मेदार नागरिकों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिनमें पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल एल रामदास एवं पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालास्वामी आदि शामिल थे. कोर्ट में ज़बरदस्त बहस हुई (पढ़िए पेज 3), लेकिन सरकार की तऱफ से जो दलील दी गई, वह और भी चौंकाने वाली थी. सेनाध्यक्ष की नियुक्ति का काम अप्वाइंटमेंट कमेटी ऑफ कैबिनेट का है, इसलिए कोर्ट ने यह पूछना उचित समझा कि क्या इस कमेटी को इन आरोपों के बारे में जानकारी थी या नहीं. सरकारी वकीलों ने कोर्ट को सारी जानकारी दे दी कि इन सभी आरोपों को कमेटी ने देखा और परखा है, उसके बाद यह फैसला लिया गया है. इसलिए कोर्ट ने यह याचिका खारिज कर दी.
लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह पर दूसरा आरोप कांगो में महिलाओं पर हुए अत्याचार का है. यह मामला 2008 का है, जब संयुक्त राष्ट्र शांति सेना के लिए लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह को कांगो भेजा गया था. एक भारतीय ब्रिगेड पर महिलाओं के शारीरिक शोषण का आरोप लगा. इस मामले की जांच मेरठ में एक कोर्ट ऑफ इंक्वायरी में चल रही है.
सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई के दौरान सरकार की तऱफ से जो दलील पेश की गई, उससे कई गंभीर सवाल उठते हैं. पहला सवाल यह है कि रक्षा मंत्रालय ने किस आधार पर यह हल़फनामा दिया कि मार्च 2001 का एनकाउंटर फर्ज़ी नहीं था. कश्मीर में सेना के सिवाय और कोई दूसरा दख़ल नहीं. फिर जब सेना की ही जांच पूरी नहीं हुई तो फिर यह हल़फनामा क्यों दिया गया. दूसरा सवाल यह उठता है, जो वाकई गंभीर है कि यह हल़फनामा देने की ज़रूरत क्यों पड़ी. क्या जम्मू-कश्मीर की अदालत ने रक्षा मंत्रालय से उसका पक्ष जानना चाहा था या फिर रक्षा मंत्रालय ने ख़ुद ही यह हल़फनामा दिया. क्या कश्मीर में हुए एनकाउंटर का फैसला हो गया है. आई बी या रक्षा मंत्रालय किस आधार पर उस एनकाउंटर को सही बता रहे हैं, उसका सबूत क्या है.
एक और आश्चर्यजनक बात यह है कि 15-ए नंबर का पेज अप्वाइंटमेंट कमेटी में कैसे जुड़ा. यह पेज नंबर 16 की जगह 15-ए कैसे बन गया. अप्वाइंटमेंट कमेटी की फाइल में जिन आरोपों की बात कही गई है, उनमें इटेंलिजेंस ब्यूरो को क्लीन चिट देने का क्या अधिकार है. जब मामलों की जांच हो रही है, मामले अदालत में हैं तो अप्वाइंटमेंट कमेटी द्वारा उन्हें नज़रअंदाज करने के पीछे क्या तर्क है. 13 अप्रैल को सेना ने रक्षा मंत्रालय को एक चिट्ठी संख्या-एमओडी आईडी नंबर-17(20)/2010-डी (जी.एस.आई) लिखी थी, जिसमें यह सा़फ-सा़फ बताया गया था कि डिवीजन कमांडर और डिप्टी फोर्स कमांडर के रोल क्या हैं. फिर एटॉर्नी जनरल ने कोर्ट में इससे अलग बातें क्यों कहीं. सरकार ने यह बात क्यों छुपाई कि कांगो की घटना के बाद उप सेनाध्यक्ष को कांगो भेजा गया था. यह माना जा रहा है कि सैन्य टुकड़ियों की तैनाती में कुछ गलतियां हुई हैं, जिसकी वजह से वह कांड हुआ. तो भारतीय सैनिकों की तैनाती की ज़िम्मेदारी किसकी थी. क्या यह तय हो गया है कि किस अधिकारी की वजह से भारतीय सैनिकों की तैनाती गलत जगहों पर हुई. अगर तय हो गया है तो सरकार को बताना चाहिए और अगर नहीं हुआ है तो आई बी और अप्वाइंटमेंट कमेटी ने इस मिशन में शामिल लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह को क्लीन चिट कैसे दे दी. ग़ौर करने वाली बात यह है कि इस मामले की जांच मेरठ में चल रही है.
लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह से संबंधित दो मामले चल रहे हैं. सबसे पहले जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में चल रहे मामले की बात करते हैं. यह एनकाउंटर एक मार्च, 2001 को अनंतनाग के जंगलात मंडी इलाक़े में हुआ. इसमें कर्नल जे पी जानू और पांच अन्य लोगों की मौत हुई थी. साथ ही लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह घायल हुए थे. सेना के सूत्रों के मुताबिक़, यह इलाक़ा 15 कोर की विक्टर फोर्स के अंतर्गत आता है और यह जंगलात मंडी अनंतनाग 1 आरआर सेक्टर में आता है. लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह उस व़क्त ब्रिगेडियर हुआ करते थे और 1 आरआर सेक्टर के कमांडर थे. जंगलात मंडी का़फी मशहूर जगह है और इसलिए, क्योंकि किसी जमाने में वहां आतंक का साया था और बाद में बड़ी संख्या में इखवानी जमा हो गए. इखवानी ऐसे लोगों को कहा जाता है, जो पहले कभी आतंकवादी होते थे और जो सरेंडर करके टेरिटोरियल आर्मी का हिस्सा बन गए. जिन इलाक़ों में इखवानियों की संख्या ज़्यादा होती है, वे सुरक्षित माने जाते हैं, क्योंकि उन्हें आतंकवादियों की सारी गतिविधियों का पता रहता है. जंगलात मंडी पूरी तरह से इखवानियों की वजह से सुरक्षित इलाक़ा माना जाता था. सेना के सूत्रों के मुताबिक़, ताहिर शेख नाम का स्थानीय आतंकवादी सेना के सामने सरेंडर करके टेरिटोरियल आर्मी के साथ काम करने लगा था. ताहिर शेख का उस इलाक़े में ऐसा दबदबा था कि कोई आतंकी वहां घुसने की जुर्रत नहीं कर सकता था. सूत्रों के मुताबिक़, बिक्रम सिंह ने इसी ताहिर शेख की मदद से एक योजना बनाई कि एक मार्च को वह बिना प्रोटेक्शन के बाज़ार जाएंगे और फर्नीचर की दुकान के पास जब वह पहुंचेंगे तो कुछ लोग हवाई फायर करेंगे और वह भी हवाई फायर करेंगे और फिर दोनों तऱफ के लोग वापस हो जाएंगे. योजना के मुताबिक़, बिक्रम सिंह बाज़ार में उस फर्नीचर की दुकान के सामने पहुंचे.
दरवाजा खोला और बाहर खड़े हो गए. दुकान की छत पर कुछ लोग बैठे थे, जिन्हें ताहिर शेख ने भेज रखा था. सब कुछ योजना के मुताबिक़ चल रहा था, तभी एक चूक हो गई. पास में ही बिहार रेजीमेंट की 120 इफेंट्री बटालियन के कर्नल जय प्रकाश जानू को किसी ने बताया कि ब्रिगेडियर बिक्रम सिंह बाज़ार में आए हुए हैं तो वह वहां पहुंच गए. इधर योजना के मुताबिक़, दोनों तऱफ से हवाई फायरिंग होनी थी, लेकिन जब कर्नल जानू ने देखा कि छत से गोलियां चल रही हैं तो उन्होंने अपना हथियार उठाया और गोलियां चलानी शुरू कर दी. ताहिर शेख के आदमियों को लगा कि गोलियां सीधे उनकी तऱफ आ रही हैं तो हवाई फायर करने के बजाय उन्होंने अपनी बंदूक की दिशा बदल दी और नाल को नीचे झुका दिया. दोनों तऱफ से गोलियां चलीं. छत से निशाना साधना आसान था, इसलिए कर्नल जे पी जानू वहीं पर शहीद हो गए. बिक्रम सिंह अपनी गाड़ी से कूद पड़े, लेकिन उन्हें गोली लग गई और वह घायल हो गए. इस फायरिंग में एक दुकानदार और एक सत्तर वर्षीय वृद्ध की मौत हो गई. पुलिस आई, सेना आई, उस वृद्ध को मतीन चाचा बताया गया और उसे एक पाकिस्तानी आतंकी क़रार दिया गया. मीडिया में इस एनकाउंटर को लेकर कई खबरें पहले भी आ चुकी हैं. सेना आज इस तरह से पोलराइज हो चुकी है कि हर बात पर मोटिव डाल दिया जाता है. वर्तमान परिस्थितियों को समझते हुए एक पल के लिए यह मान भी लिया जाए कि सेना के सूत्रों ने जो जानकारी दी, वह सही नहीं हो सकती है, लेकिन यह बात समझ में नहीं आती है कि क्या सत्तर साल का बूढ़ा आतंकवादी हो सकता है, क्योंकि अब तक जितने भी आतंकवादियों को पकड़ा गया है, वे ज़्यादा से ज़्यादा 45 साल के होते हैं.
पहाड़ पर रहने वाले लोगों के घुटने तो वैसे भी 45 साल के बाद कमज़ोर हो जाते हैं. इस घटना के बाद उस वृद्ध की मां और बहन उसे ढूंढते हुए पहुंचीं, लेकिन पुलिस ने उन्हें भगा दिया. लाश तक नहीं दिखाई और उसे द़फना दिया. कोई जांच नहीं हुई, क्योंकि जब तक मामला सिर के ऊपर नहीं जाता है, हमारे देश में अपने लोगों के खिला़फ जांच करने की परंपरा नहीं है. वे दोनों महिलाएं न्याय के लिए भटकती रहीं. उन्होंने कुछ लोगों की मदद ली और अक्टूबर 2011 में जैतूना बेगम ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की. उस याचिका में बताया गया कि पुलिस जिसे मतीन चाचा बता रही है, वह दरअसल उसका बेटा अब्दुल्ला है. कोर्ट से यह गुहार लगाई गई कि उसकी लाश का डीएनए टेस्ट होना चाहिए, ताकि यह तय हो सके कि वह पाकिस्तानी नहीं, उनका बेटा अब्दुल्ला है. हाईकोर्ट में यह मामला चल रहा है. रक्षा मंत्रालय की तरफ से यह बताया गया कि यह एनकाउंटर फर्ज़ी नहीं था. वैसे रक्षा मंत्रालय इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा, यह सवालों के घेरे में है, क्योंकि जब सेना ने कोई जांच ही पूरी नहीं की है, कोई रिपोर्ट नहीं दी है, तब रक्षा मंत्रालय ने किस आधार पर यह हल़फनामा दिया. अगर सरकार इस मामले में सच्चाई का पता लगाना चाहती है तो वह फौरन मतीन चाचा की लाश का डीएनए टेस्ट कराए, क्योंकि जब तक यह तय नहीं होता कि वह 70 वर्षीय व्यक्ति कौन है, वह हिंदुस्तानी है या पाकिस्तानी, तब तक इस एनकाउंटर पर सवालिया निशान बने रहेंगे.
लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह पर दूसरा आरोप कांगो में महिलाओं पर हुए अत्याचार का है. यह मामला 2008 का है, जब संयुक्त राष्ट्र शांति सेना के लिए लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह को कांगो भेजा गया था. एक भारतीय ब्रिगेड पर महिलाओं के शारीरिक शोषण का आरोप लगा. इस मामले की जांच मेरठ में एक कोर्ट ऑफ इंक्वायरी में चल रही है. सरकार की तऱफ से यह दलील दी जा रही है कि वह सेना के इंचार्ज नहीं थे, जबकि सेना के दस्तावेज़ सा़फ-सा़फ बताते हैं कि उनकी ज़िम्मेदारी क्या थी. दस्तावेज़ यह भी बताते हैं कि मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग के मुताबिक़, स़िर्फ 16 प्वाइंट्स पर सैनिकों की तैनाती करनी थी, लेकिन 39 प्वाइंट्स पर सैनिकों को तैनात किया गया. कहने का मतलब यह है कि सेना को उन जगहों पर तैनात किया गया, जहां तैनात नहीं करना चाहिए था. यह एक चूक थी. अब सवाल यह है कि इस चूक के लिए ज़िम्मेदार कौन है. कोर्ट ऑफ इंक्वायरी में यह मामला चल रहा है और जब तक यह मामला चल रहा है तो सरकार ने किसी भी अधिकारी को क्लीन चिट क्यों और कैसे दे सकती है.
रामायण में राजा के कर्तव्यों के बारे में एक बेहतरीन उदाहरण मिलता है. भगवान राम ने स़िर्फ एक अ़फवाह के चलते अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया था. अगले सेनाध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर भी एक अ़फवाह फैली हुई है. जनरल वी के सिंह के उम्र विवाद और लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह की नियुक्ति से जुड़े विवादों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम घसीटा जा रहा है. वह इसलिए, क्योंकि अप्वाइंटमेंट कमेटी के चेयरमैन प्रधानमंत्री हैं. देश के वरिष्ठ और ज़िम्मेदार नागरिक इसे साज़िश के रूप में देख रहे हैं. इन अ़फवाहों को रोकना प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ज़िम्मेदारी है. इसके लिए उन्हें भगवान राम की तरह अग्नि परीक्षा देने की ज़रूरत नहीं है. वह संसद में इस मामले पर सरकार के फैसले पर पूरी सफाई दे दें, ताकि इन अ़फवाहों को विराम दिया जा सके. इससे अ़फवाहों का बाज़ार ठंडा पड़ जाएगा और सेना एवं सरकार की प्रतिष्ठा भी बच जाएगी.
कोर्ट में क्या हुआ
बीते 23 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में एक ऐतिहासिक याचिका पर सुनवाई हुई. इस याचिका में सरकार और भारतीय सेना के रिश्ते को लेकर चिंता व्यक्त की गई थी. यह याचिका पूर्व नौसेना अध्यक्ष एडमिरल एल रामदास एवं पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालास्वामी सहित देश के छह वरिष्ठ लोगों ने दायर की थी. हमें यह मानना चाहिए कि इतने ज़िम्मेदार लोग अगर किसी बात को लेकर चिंतित हैं तो मामला ज़रूर गंभीर है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस रिट पिटिशन को डिसमिस कर दिया. कोर्ट का फैसला आ गया, मामला ऱफा-द़फा हो गया, सरकार की फिर से जीत हो गई और एक ज़िम्मेदार नागरिक की तरह सभी लोगों ने कोर्ट के फैसले का आदर किया. हम भी कोर्ट के फैसले का आदर करते हैं, लेकिन यह फैसला कई सवालों को जन्म देता है.
इस फैसले का मतलब तो यही है कि कोई भी व्यक्ति सरकारी संस्थानों के सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो सकता है, भले ही उसके खिला़फ कितने भी गंभीर आरोप क्यों न हों. इस याचिका का मुख्य बिंदु यही था कि अगर किसी व्यक्ति, जिसके खिला़फ गंभीर आरोप हैं, जिसकी जांच हो रही हो, अदालत में सुनवाई हो रही हो, क्या उसकी शीर्ष पदों पर नियुक्ति जायज़ है. कोर्ट के फैसले से पूर्व सीवीसी को झटका लगा होगा, क्योंकि उन पर भी घोटाले के आरोप लगे, कोर्ट में मामला चल रहा है, लेकिन उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा था. इस फैसले के आधार पर पी जे थॉमस कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं, क्योंकि 23 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने यही फैसला दिया है कि लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह पर लगे गंभीर आरोपों की जांच और सुनवाई जारी रहेगी और साथ ही साथ वह अगले सेनाध्यक्ष भी बन सकते हैं. एक सवाल उठता है कि अगर जांच या कोर्ट से यह पता चलता है कि जनरल बिक्रम सिंह पर लगे आरोप सही हैं तो ऐसी स्थिति में क्या होगा.
कांगो के मामले पर भी कामिनी जायसवाल ने कोर्ट को बताया कि बिक्रम सिंह वहां बतौर डिप्टी फोर्स कमांडर तैनात थे और वह ईस्टर्न डिवीजन के कमांडर थे और तीन ब्रिगेड सीधे तौर पर उनकी निगरानी एवं अधिकार क्षेत्र के अंदर थीं. जबकि एटॉर्नी जनरल यह कहते रहे कि वह डेप्यूटेशन पर एक सिविल सर्वेंट के तौर पर गए थे और यूएन पीस कीपिंग फोर्स के दूसरे स्थान के अधिकारी थे, इसलिए शारीरिक शोषण मामले की ज़िम्मेदारी ब्रिगेड कमांडर पर है. एटॉर्नी जनरल ने कोर्ट को बताया कि इंटेलिजेंस ब्यूरो ने लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह पर लगे सारे आरोपों की जांच की है और उसके मुताबिक़, ये सारे आरोप झूठे हैं.
क्या सरकार सेना जैसी संस्था पर इस तरह का जोखिम ले सकती है या फिर सरकार ने कोर्ट के फैसले से पहले ही यह मान लिया है कि जनरल बिक्रम सिंह बेकसूर हैं. सरकार की यह कैसी ज़िद है. सरकार क्यों बिक्रम सिंह पर लगे आरोपों को नज़रअंदाज़ कर रही है. जबकि हमारी तहकीकात यह बताती है कि जनरल बिक्रम सिंह पर लगे आरोप गंभीर हैं और भविष्य में ये मामले सरकार की किरकिरी का कारण बन सकते हैं.
कोर्ट का फैसला चौंकाने वाला नहीं है, क्योंकि पहले भी जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि के विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने कोई फैसला सुनाने के बजाय मध्यस्थ का रोल अदा किया. इस बार भी वही बेंच इस याचिका की सुनवाई कर रही थी, इसलिए याचिका की सुनवाई के दौरान जब भी कोई मामला जनरल वी के सिंह से जोड़ा गया तो कोर्ट ने उस दलील को यह कहकर दरकिनार कर दिया कि यह मामला अब सरकार के हाथों में है. इस याचिका में भूतपूर्व सेनाध्यक्ष जनरल जे जे सिंह पर साज़िश रचने का आरोप लगाया गया था, लेकिन उस पर ज़्यादा बात नहीं हो सकी. इसके अलावा इस याचिका में लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह पर कश्मीर में एक फर्ज़ी एनकाउंटर का आरोप है और दूसरा कांगो में भारतीय सेना द्वारा महिलाओं के शारीरिक शोषण का मामला है. अब सवाल तो यही है कि अप्वाइंटमेंट कमेटी ऑफ कैबिनेट ने इन दोनों आरोपों को क्यों नज़रअंदाज़ कर दिया. यही सवाल इस याचिका में भी पूछा गया था. ऐसा ही कुछ मामला पूर्व सीवीसी पी जे थॉमस का था, फिर वही मापदंड जनरल बिक्रम सिंह की नियुक्ति में क्यों लागू नहीं हुआ.
जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने पी जे थॉमस को सीवीसी नियुक्त किया और जब कोर्ट में इसे चुनौती दी गई, तब चीफ जस्टिस एस एच कपाड़िया, जस्टिस के एस राधाकृष्णन एवं जस्टिस स्वतंत्र कुमार ने न स़िर्फ नियुक्ति रद्द की, बल्कि संस्थान की शुद्धता और पूर्णता को लेकर सरकार को फटकारा भी था. कोर्ट ने कहा कि सरकार को ऐसी नियुक्ति करने से पहले राष्ट्र हित को सामने रखना चाहिए. याचिकाकर्ता सैम राजप्पा के मुताबिक, पी जे थॉमस के खिला़फ स़िर्फ एक मामला केरल की अदालत में चल रहा है, लेकिन लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह के खिला़फ दो-दो मामले चल रहे हैं. कश्मीर में फर्ज़ी एनकाउंटर का मामला जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में चल रहा है और कांगो में महिलाओं के शारीरिक शोषण की जांच मेरठ में लंबित है, लेकिन इस याचिका को कोर्ट ने खारिज़ कर दिया. सैम राजप्पा का आरोप है कि राजनीतिक नेतृत्व को खुश करने के लिए दोनों ही मामलों में देश की इंटेलिजेंस एजेंसी ने क्लीन चिट दे दी.
सुनवाई की शुरुआत में कामिनी जायसवाल ने अपनी बातों को रखा और सरकार की तरफ से एटॉर्नी जनरल जी ई वाहनवती एवं सॉलिसिटर जनरल आर एफ नरीमन दलील रख रहे थे. सरकारी वकीलों की तऱफ से पहली दलील यह दी गई कि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि के विवाद को फिर से हवा देने के लिए इस याचिका का सहारा लिया गया है. कोर्ट ने शुरुआत में ही यह कह दिया कि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि से जुड़ी कोई बात नहीं होगी, 10 फरवरी को जन्मतिथि विवाद का निपटारा किया गया था. सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब तक सरकार ने स्टैचूरी कंप्लेन का जवाब क्यों नहीं दिया और इस खबर के लिखे जाने तक सरकार ने जनरल वी के सिंह के लिए लीगल रिटायरमेंट ऑर्डर क्यों जारी नहीं किया. सरकार ने यह मामला अब तक क्यों लटका रखा है. बहस के दौरान एक और बात सरकारी वकील ने दलील के रूप में पेश की कि यह याचिका सांप्रदायिक है. यह दलील मीडिया में पहले से आ चुकी थी. जब यह याचिका लीक कर दी गई, तब इंडियन एक्सप्रेस और टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे सांप्रदायिक बताया था. याचिकाकर्ता सैम राजप्पा के मुताबिक़, इस याचिका में ऐसी कोई बात नहीं है, क्योंकि अगर याचिका पर गौर करें तो इसमें यह लिखा है कि ऐसे सबूत हैं, जिनसे लगता है कि जनरल जे जे सिंह की नियुक्ति में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने दबाव डालने की कोशिश की थी, लेकिन याचिका की अगली लाइन में यह लिखा हुआ है कि अप्वाइंटमेंट कमेटी ऑफ कैबिनेट और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर इसका कोई असर नहीं हुआ. सवाल यह है कि स़िर्फ शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का नाम आ जाने से कोई याचिका सांप्रदायिक कैसे हो सकती है.
कामिनी जायसवाल के आग्रह पर कोर्ट ने एसीसी की फाइल मंगवाई. कोर्ट ने स़िर्फ यह सवाल पूछा कि नियुक्ति के व़क्त अप्वाइंटमेंट कमेटी ने क्या इन मामलों को संज्ञान में लिया अथवा नहीं. कोर्ट में एटॉर्नी जनरल ने कहा कि सेना ने स्वयं एक हल़फनामा दिया है, जिसमें यह लिखा है कि वह एनकाउंटर फर्ज़ी नहीं था. वाहनवती ने इस बात पर ज़ोर दिया कि उस एनकाउंटर में लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह को भी गोली लगी थी. हालांकि ग़ौर करने वाली बात यह है कि याचिकाकर्ता इस केस की डिटेल नहीं, बल्कि यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि इस एनकाउंटर के मुख्य किरदार लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह हैं और मामला अभी तक कोर्ट में चल रहा है. ग़ौर करने वाली बात यह है कि इस मामले पर जस्टिस गोखले ने कहा कि इस एनकाउंटर का फैसला इस बात से होगा कि 70 साल का बूढ़ा, जो इस दौरान मारा गया, वह हिंदुस्तानी है या पाकिस्तानी. अगर वह पाकिस्तानी निकला तो इस एनकाउंटर को सही माना जाएगा और अगर हिंदुस्तानी निकला तो इसका मतलब है कि एनकाउंटर फर्ज़ी है. जब अप्वाइंटमेंट कमेटी की फाइल कोर्ट में पेश की गई, तब कामिनी जायसवाल ने यह सवाल खड़ा किया कि पिछले सप्ताह जो हल़फनामा भारत सरकार द्वारा दायर किया गया है, वह सेना की तऱफ से नहीं, बल्कि रक्षा मंत्रालय की तऱफ से दिया गया है. सेना ने इस मामले में अब तक कोई जांच पूरी नहीं की है. इस पर एटॉर्नी जनरल ने कहा कि इस हल़फनामे पर एक लेफ्टिनेंट कर्नल के दस्तख़त हैं, इसलिए इसे सेना का हल़फनामा माना जाए. हक़ीक़त यह है कि रक्षा मंत्रालय ने सेना मुख्यालय को एक चिट्ठी लिखी थी, जिसमें यह पूछा गया था कि एनकाउंटर की जांच की स्थिति क्या है. इस पर सेना मुख्यालय ने यह जवाब दिया था कि कोर्ट ऑफ इंक्वायरी में इस मामले की जांच चल रही है और जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती, तब तक बिक्रम सिंह को दोषमुक्त नहीं माना जा सकता है.
कांगो के मामले पर भी कामिनी जायसवाल ने कोर्ट को बताया कि बिक्रम सिंह वहां बतौर डिप्टी फोर्स कमांडर तैनात थे और वह ईस्टर्न डिवीजन के कमांडर थे और तीन ब्रिगेड सीधे तौर पर उनकी निगरानी एवं अधिकार क्षेत्र के अंदर थीं. जबकि एटॉर्नी जनरल यह कहते रहे कि वह डेप्यूटेशन पर एक सिविल सर्वेंट के तौर पर गए थे और यूएन पीस कीपिंग फोर्स के दूसरे स्थान के अधिकारी थे, इसलिए शारीरिक शोषण मामले की ज़िम्मेदारी ब्रिगेड कमांडर पर है. एटॉर्नी जनरल ने कोर्ट को बताया कि इंटेलिजेंस ब्यूरो ने लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह पर लगे सारे आरोपों की जांच की है और उसके मुताबिक, ये सारे आरोप झूठे हैं. अप्वाइंटमेंट कमेटी की फाइल में यह पेज नंबर 15-ए पर दिया गया है. इस बात पर कामिनी जायसवाल एवं प्रशांत भूषण उठ खड़े हुए और उन्होंने कहा कि इंटेलिजेंस ब्यूरो को यह अधिकार ही नहीं है कि वह इस तरह का निर्णय सुना सके और अगर ऐसा होता है तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं. लेकिन कोर्ट में इस बात पर बहस नहीं हुई और बेंच ने कहा कि ये मामले अप्वाइंटमेंट कमेटी के सामने आए और इसके बाद लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह की नियुक्ति हुई है, इसलिए इस याचिका को खारिज़ किया जाता है.