हिंदुस्तान को सचमुच किसी की नज़र लग गई है. ईमानदारी से कोई काम यहां हो नहीं सकता है. निचले स्तर के अधिकारी अगर भ्रष्टाचार करते हैं तो ज़्यादा दु:ख नहीं होता है, लेकिन जिस प्रोजेक्ट के साथ प्रोफेसर अमर्त्य सेन एवं पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जैसे लोग जुड़े हों और वहां घपलेबाजी हो, बेईमानी हो, ग़ैरक़ानूनी और अनैतिक काम हों तो दु:ख ज़्यादा होता है. नालंदा को फिर से विश्व ख्याति दिलाने वाला प्रोजेक्ट भ्रष्ट आचरण की भेंट चढ़ गया है. नालंदा की विश्व ख्याति वापस लौटाने के इरादे से यहां विश्वविद्यालय खोला जा रहा है. संसद में क़ानून पास किया गया. दुनिया भर के 16 देशों ने मदद करने का ऐलान किया, लेकिन यह सब बेकार और बर्बाद होने के कगार पर है. ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से वाइस चांसलर यानी उप कुलपति की नियुक्ति होती है और एडवाइजर कमेटी में प्रधानमंत्री की बेटी को जगह मिल जाती है. इस प्रोजेक्ट में चल रही गड़बड़ियों पर अधिकारी आंख बंद कर लेते हैं. संसद में मंत्री झूठ बोलने से भी नहीं झिझकते. मनमाने ढंग से पैसों की बंदरबांट चल रही है. सब चुप हैं. कोई भी इसके खिला़फ बोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है. इन्हीं सब कारणों से पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने नालंदा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी से रिश्ता-नाता तोड़ लिया है. यह इस पूरे प्रोजेक्ट के लिए एक बड़ा झटका है. नालंदा यूनिवर्सिटी को फिर से विश्व के नक्शे पर लाने का सपना अब्दुल कलाम ने ही देखा था. यह उनकी ही प्रेरणा और प्रयास का नतीजा है कि नालंदा को फिर से खड़ा किया जा रहा है. फिर अचानक कलाम साहब ने ऐसा क्यों किया, उन्होंने इस यूनिवर्सिटी का पहला विजिटर बनने से मना क्यों कर दिया, इसे समझने के पहले नालंदा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के बारे में थोड़ा समझ लेते हैं.
कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रधानमंत्री की बेटी उपिंदर सिंह की मौजूदगी की वजह से विदेश मंत्रालय ने नालंदा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के नाम पर होने वाले घपलों को नज़रअंदाज़ कर दिया. नालंदा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के नाम पर जो हो रहा है, वह शर्मनाक है. यह किसी घोटाले से कम नहीं है. नियमों की अनदेखी,भाई-भतीजावाद, पैसों की लूट, झूठी बयानबाजी और अधिकारियों की चुप्पी की वजह से नालंदा का गौरव वापस दिलाने वाला प्रोजेक्ट शुरू होने से पहले ही भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया है.
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम को नालंदा की ख्याति पुन: स्थापित करने का विचार आया. बात आगे बढ़ी. बिहार सरकार ने क़ानून पारित कर यहां एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का विश्वविद्यालय खोलने का फैसला किया. दुनिया के कई देशों ने इसमें रुचि दिखाई. नालंदा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी को एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की संस्था बनाने का फैसला एसोसिएशन ऑफ साउथ ईस्ट एशियन नेशन्स के 16 देशों ने मिलकर लिया, जिनमें चीन, जापान, आस्ट्रेलिया, कोरिया और थाईलैंड जैसे देश शामिल हैं. इस विश्वविद्यालय को बनाने में 1000 करोड़ रुपये का खर्च आएगा. 2007 में सरकार ने इस विश्वविद्यालय के लिए एक मेंटर ग्रुप बनाया. इस मेंटर ग्रुप का चेयरमैन नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. अमर्त्य सेन को बनाया गया. इसमें कई देशों के लोग हैं, लेकिन जेडीयू के सांसद एन के सिंह भी इसके सदस्य हैं.
सिंगापुर, टोक्यो, न्यूयॉर्क, गया और दिल्ली में इसकी बैठकें हुईं. इन बैठकों में विश्वविद्यालय की रूपरेखा खींची गई. कैसे इसे विश्वस्तरीय संस्थाओं में गिना जाए, इसकी योजना बनी. इन बैठकों पर सरकार ने करोड़ों रुपये खर्च हुए. इस विश्वविद्यालय के संचालन के लिए संसद ने नालंदा विश्वविद्यालय क़ानून 2010 पारित किया, जिसे राष्ट्रपति ने 21 सितंबर, 2010 को अनुमोदित कर दिया. एक बात और हुई. वैसे तो केंद्र सरकार के नियमों के मुताबिक़, राष्ट्रपति को विजिटर नियुक्त करने का अधिकार है, लेकिन नालंदा विश्वविद्यालय एक्ट में संशोधन करके डॉ. अब्दुल कलाम को विजिटर बनाने का फैसला लिया गया था. उद्देश्य यह था कि एक ऐसा विश्वविद्यालय बने, जहां दुनिया भर से छात्र-छात्राएं शोध करने आएं. नालंदा का परचम एक बार फिर उसी तरह पूरी दुनिया में लहराए, जैसे बख्तियार खिलजी के हमले से पहले लहराता था. यह ऐसा प्रोजेक्ट है, जिसकी सफलता पर सभी हिंदुस्तानियों को गौरव होता, लेकिन इससे जुड़े लोगों ने ऐसा शर्मनाक कारनामा किया है, जिससे यह प्रोजेक्ट अब अधर में लटकता दिख रहा है.
डॉ. अब्दुल कलाम को जब इसकी भनक लगी तो उन्होंने विजिटर बनने से मना कर दिया. उनके जाने से कई समस्याएं खड़ी हो गई हैं, जिसने विवाद की शक्ल ले ली है. एक अजीबोग़रीब स्थिति पैदा हो गई है. क़ानून के मुताबिक़, यूनिवर्सिटी के विजिटर द्वारा वाइस चांसलर की नियुक्ति होगी. कलाम साहब द्वारा विजिटर बनने से मना करने का मतलब यह है कि अब जब यूनिवर्सिटी का विजिटर ही नहीं बना है तो वाइस चांसलर की भी नियुक्ति नहीं हो सकती है, लेकिन मज़ेदार बात यह है कि फिलहाल एक महिला विश्वविद्यालय की उप कुलपति के रूप में काम कर रही है. विदेश मंत्रालय ने एक आरटीआई के जवाब में यह कहा कि नालंदा मेंटर ग्रुप के सुझाव पर डॉ. गोपा सबरवाल को उप कुलपति नियुक्त किया जा चुका है. इस दस्तावेज पर विदेश मंत्रालय के ज्वाइंट सेक्रेटरी नागेंद्र कुमार सक्सेना के दस्त़खत हैं, लेकिन बीते 25 अगस्त को विदेश मंत्रालय ने राज्यसभा में यह जानकारी दी कि नालंदा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में उप कुलपति की नियुक्ति नहीं हुई है. हुआ यह कि बीते 25 अगस्त को भारतीय जनता पार्टी के सांसद अनिल दवे ने राज्यसभा में इस विषय पर एक सवाल पूछा, जिसके जवाब में विदेश राज्यमंत्री ई. अहमद ने सा़फ-सा़फ कहा कि नालंदा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में किसी उप कुलपति की नियुक्ति नहीं हुई है. अब यह कैसे पता चले कि मंत्रालय के ज्वाइंट सेक्रेटरी सच बोल रहे हैं या फिर विदेश राज्यमंत्री. विदेश राज्यमंत्री का बयान इस बात का संकेत है कि डॉ. गोपा सबरवाल की नियुक्ति को लेकर विदेश मंत्रालय बैकफुट पर है. उसे पता है कि कहीं चूक हो गई है.
नियमों की अनदेखी करने का आलम यह है कि क़ानून लागू होने से पहले ही मेंटर ग्रुप ने उप कुलपति की नियुक्ति के लिए सुझाव दे दिया और विदेश मंत्रालय ने उसे नियुक्त भी कर दिया. डॉ. गोपा सबरवाल नालंदा विश्वविद्यालय क़ानून लागू होने के पहले से ही उप कुलपति बनी हुई हैं. इससे भी ज़्यादा हैरानी इस बात की है कि उप कुलपति साहिबा का मासिक वेतन 5 लाख रुपये से ज़्यादा है. तहक़ीक़ात से पता चला कि उप कुलपति बनने से पहले वह दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कालेज में समाजशास्त्र की महज एक रीडर थीं. पूरी तरह से प्रोफेसर भी नहीं थीं. विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की पढ़ाई तो होगी नहीं, ऐसे में सवाल यह उठता है कि मेंटर ग्रुप ने उनमें ऐसी क्या खूबियां देखीं, जिनकी वजह से उन्हें एक कॉलेज से उठाकर विश्वस्तरीय यूनिवर्सिटी का उप कुलपति बना दिया गया. हक़ीक़त तो यह है कि डॉ. गोपा सबरवाल में देश के किसी छोटे से विश्वविद्यालय की भी उप कुलपति बनने की योग्यता नहीं है. विश्वविद्यालय को रेगुलेट करने वाली संस्था यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन ने उप कुलपति बनने के लिए न्यूनतम योग्यता तय कर रखी है. किसी भी व्यक्ति को उप कुलपति बनने के लिए दस साल तक प्रोफेसर के रूप में काम करना अनिवार्य है. डॉ. गोपा सबरवाल तो स़िर्फ रीडर हैं, प्रोफेसर बनी तक नहीं हैं.
सवाल यह उठता है कि क्या डॉ. गोपा सबरवाल इस गौरवशाली विश्वविद्यालय की उप कुलपति बनने लायक हैं, क्या इस देश में उप कुलपति बनने का कोई मापदंड है भी या नहीं, क्या देश में इतिहास के विश्वविख्यात इतिहासकारों की कमी हो गई है? देश के विख्यात इतिहासकारों, जैसे डी एन झा, इरफान हबीब, मृदुला मुखर्जी एवं हरवंश मुखिया आदि के नामों पर विचार क्यों नहीं किया गया? विदेश मंत्रालय को यह जवाब देना चाहिए कि उसने किस अधिकार से, किस क़ानून के तहत डॉ. गोपा सबरवाल को नियुक्त कर दिया? या फिर यह समझ लिया जाए कि देश में हर फैसला भाई-भतीजावाद के ज़रिए ही लिया जाएगा. कोई दूसरा तरीका बचा ही नहीं है. इसके अलावा बतौर वेतन पांच लाख रुपये के पीछे क्या तर्क है, देश के किस उप कुलपति को इतना वेतन मिलता है, क्या उप कुलपति का पद राष्ट्रपति के पद से बड़ा हो गया है? या फिर यह मान लिया जाए कि देश के कुछ जाने-माने और सत्ता के नजदीकी लोगों ने नालंदा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी को ग़ैर क़ानूनी कामों और भ्रष्टाचार का अड्डा बना लिया है.
मामला यहीं खत्म नहीं होता है. डॉ. गोपा सबरवाल ने नालंदा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में लोगों को नौकरी देना भी शुरू कर दिया, वह भी सरकारी नियमों को अनदेखी करते हुए, बिना कोई पब्लिक नोटिस दिए हुए. खबर यह आई कि उन्होंने अपनी एक दोस्त डॉ. अंजना शर्मा को ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी नियुक्त कर दिया. वह दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं, मतलब लेक्चरर हैं. मनमाने तरीके से उनका मासिक वेतन 3.30 लाख रुपये तय कर दिया गया. किसी ने यह भी नहीं सोचा कि इतना वेतन तो देश के किसी भी कुलपति का नहीं है. विदेश मंत्रालय के सेक्रेटरी का भी इतना वेतन नहीं है. इस प्रोजेक्ट पर किसी का नियंत्रण है भी या नहीं? विदेश मंत्रालय के अधिकारियों ने उप कुलपति को नियुक्त कर उन्हें मनमानी करने का अधिकार दे दिया. विदेश मंत्रालय अगर इस प्रोजेक्ट की देखरेख कर रहा है तो अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई या फिर इतने हाई प्रोफाइल लोगों को एक साथ देखकर ग़ैर क़ानूनी कामों से आंखें फेर ली गईं?
डॉ. कलाम के विजिटर न बनने के फैसले का मतलब यह है कि अब जब विजिटर नहीं है तो वाइस चांसलर की नियुक्ति भी ग़ैर क़ानूनी है. उनके द्वारा लिए गए सारे फैसले भी ग़ैर क़ानूनी ही माने जाएंगे. खबर यह है कि विश्वविद्यालय का ऑफिस दिल्ली के पॉश इलाके आर के पुरम में किराए के एक मकान में चल रहा है और दिल्ली के सबसे महंगे इलाक़े ज़ोरबाग में उप कुलपति का दफ्तर बनाया गया है. दफ्तर होगा तो कई कर्मचारी भी काम कर रहे होंगे. उन्हें किसने नियुक्त किया, दफ्तर का किराया और स्टॉफ का खर्च कौन वहन कर रहा है, वेतन कहां से मिल रहा है? दिल्ली का यह दफ्तर भी ग़ैर क़ानूनी है. नालंदा विश्वविद्यालय एक्ट के मुताबिक़, इसका हेड क्वार्टर नालंदा में होगा. दिल्ली में किराए के मकान में विश्वविद्यालय का दफ्तर चलाने की अनुमति किसने दी? सरकार ने वैसे डॉ. कलाम के फैसले के बारे में बीते 6 जुलाई को पटना में हुई इंटरीम गवर्निंग बोर्ड की बैठक में बताया था. इसके बाद बोर्ड के चेयरमैन प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने डॉ. कलाम को चिट्ठी भी लिखी. चिट्ठी में उनसे अपना फैसला बदलने का निवेदन किया गया, लेकिन डॉ. कलाम ने यूनिवर्सिटी का विजिटर बनने से मना कर दिया. डॉ. कलाम के इंकार की असल वजह यह है कि मेंटर ग्रुप ने किसी भी फैसले के बारे में उनसे राय तक नहीं ली. उप कुलपति कौन होगा, इसके बारे में भी उन्हें नहीं बताया गया, जबकि उनके ही द्वारा उप कुलपति को नियुक्त किया जाना था. मतलब यह कि नालंदा विश्वविद्यालय की देखरेख करने वाले मेंटर ग्रुप ने अपना हर फैसला डॉ. कलाम से गुप्त रखा.
इतनी सारी गड़बड़ियों के बावजूद विदेश मंत्रालय की स्टैंडिंग कमेटी ने एक रिपोर्ट संसद में भेजी. इसमें दो बातें थीं. एक यह कि 1005 करोड़ रुपये का बजट बढ़ाया जा सकता है और दूसरा यह कि मेंटर ग्रुप इंटरीम गवर्निंग बोर्ड यानी अंतरिम संचालक बोर्ड बन गया है. इसके बाद जो पहली मीटिंग हुई, उसमें दो नए चेहरों को एडवाइजर कमेटी में शामिल किया गया. इनमें से एक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेटी उपिंदर सिंह हैं और दूसरी उनकी सहकर्मी नयनजोत लाहिरी. उपिंदर सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास की प्रोफेसर हैं. उनकी कहानी भी अजीब है. जिस दिन वह रीडर के पद पर नियुक्त हुईं, उसी दिन से वह प्रोफेसर के पद पर भी बहाल हो गईं. आम तौर पर किसी रीडर को प्रोफेसर बनने में 15 साल तक का समय लग जाता है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा बनाई गई गाइड लाइन के मुताबिक़, अगर किसी रीडर ने रिसर्च के क्षेत्र में बहुत अच्छा काम किया हो या जिसके लेखों या पुस्तकों का प्रमुखता से प्रकाशन हुआ हो तो उसे समय से पहले करियर एडवांसमेंट स्कीम (सीएएस) के तहत प्रमोशन देकर प्रोफेसर बनाया जा सकता है. हालांकि एक प्रमुख शर्त यह भी है कि उसने अपने पद (रीडर) पर कम से कम 8 साल तक काम ज़रूर किया हो. लेकिन डीयू के इतिहास विभाग में 2007 में एक साक्षात्कार होता है और तीन रीडरों को करियर एडवांसमेंट स्कीम के तहत रीडर से प्रोफेसर बना दिया जाता है, उनमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सुपुत्री प्रो. उपिंदर सिंह भी होती हैं. नालंदा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के मामले में सवाल यह उठता है कि क्या मनमोहन सिंह की पुत्री की मौजूदगी इस प्रोजेक्ट से जुड़े लोगों के लिए राहत की गारंटी है, क्या उपिंदर सिंह की वजह से इस प्रोजेक्ट में चल रहे गोरखधंधे पर किसी का नियंत्रण नहीं रह गया या फिर यह सब उपिंदर सिंह को अगला उप कुलपति बनाने की योजना के तहत हो रहा है? प्रधानमंत्री के परिवार के लोगों को ऐसे विवादों से बचना चाहिए, क्योंकि लोगों की नज़र में ये बातें खटकती हैं.
अब सवाल उठता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रधानमंत्री की बेटी उपिंदर सिंह की मौजूदगी की वजह से विदेश मंत्रालय ने नालंदा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के नाम पर होने वाले घपलों को नज़रअंदाज़ कर दिया. नालंदा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के नाम पर जो हो रहा है, वह शर्मनाक है. यह किसी घोटाले से कम नहीं है. नियमों की अनदेखी,भाई-भतीजावाद, पैसों की लूट, झूठी बयानबाजी और अधिकारियों की चुप्पी की वजह से नालंदा का गौरव वापस दिलाने वाला प्रोजेक्ट शुरू होने से पहले ही भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया है. नालंदा विश्वविद्यालय की तबाही के लिए बख्तियार खिलजी को तो लोगों ने शायद मा़फ कर दिया, लेकिन इस बार अगर नालंदा के गौरव के साथ खिलवाड़ हुआ तो देश की जनता शायद मा़फ न करे।
नालंदा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के नाम पर घपलेबाज़ी :
- डॉ. गोपा सबरवाल को किस आधार पर उप कुलपति बनाया
- उप कुलपति का वेतन 5 लाख रुपये क्यों
- प्रधानमंत्री की बेटी को एडवाइजर कमेटी में क्यों शामिल किया गया
- विश्वविद्यालय का दफ्तर दिल्ली में क्यों खोला गया
- विश्वविद्यालय की ज़िम्मेदारी विदेश मंत्रालय पर क्यों डाली गई
- राज्यसभा में विदेश राज्यमंत्री ने सच क्यों नहीं बताया