मुसलमानों के नेता पार्टी हाईकमान के इशारे पर नाचने वाले नेता बन गए हैं. आरक्षण की बात उठती है तो कोर्ट यह कह कर खारिज कर देती है कि धर्म के नाम पर आरक्षण या नीति नहीं बनाई जा सकती. राजनीतिक दलों का हाल यह है कि कुछ सीधे विरोध में खड़े हैं. और जो साथ होने का दावा करते हैं, वे गिद्ध की तरह मुसलमानों के वोट को नोचने-खसोटने में लगे हैं. कहने का मतलब यह है कि मुसलमानों की सुनवाई नहीं है. देश चलाने वालों को समझना प़डेगा कि जब सुनवाई बंद हो जाती है और ज़िंदा रहने का संकट गहराने लगता है तो आत्मघात या हाथों में बंदूक़ उठाने के अलावा तीसरा रास्ता नहीं बचता.
हिंदुस्तान में 160 मिलियन मुसलमान हैं, जो इंडोनेशिया के बाद दुनिया की दूसरी सबसे ब़डी मुस्लिम आबादी वाला देश है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़, यहां मुसलमानों की जनसंख्या 13.4 फीसदी है, लेकिन कई लोग यह मानते हैं कि मुसलमानों की संख्या 15 से 18 फीसदी के बीच है. भारत में रहने वाले मुसलमानों की 52.13 फीसदी आबादी स़िर्फ उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में ही सीमित है. उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं, इसलिए मुस्लिम आरक्षण का मामला एक बार फिर से गरमा गया है. सच्चाई यह है कि राजनीतिक दल मुलसमानों की चिंता स़िर्फ चुनाव के दौरान करते हैं. हर बार यही होता है कि सेकुलर पार्टियां मुसलमानों का वोट बटोरने के लिए चुनाव के दौरान मुसलमानों से जुड़े मुद्दों को उठाती हैं और चुनाव के बाद भूल जाती हैं. मुसलमान ठगा सा महसूस करते हैं. राजनीतिक दलों की अपनी मजबूरी हो सकती है, लेकिन समझना ज़रूरी है कि क्या मुसलमानों को आरक्षण की ज़रूरत है? क्या धर्म को आधार बना कर नीतियां बनाई जा सकती हैं?
राज्य सत्ता और सरकार विचारों पर चलती है. जब से राज्य का उदय हुआ, तब से यह किसी न किसी विचारधारा पर चली है. प्राचीन काल से आधुनिक काल तक राज्य के दर्शन का विकास हुआ. बदलते सामाजिक परिवेश और समय के साथ-साथ इस दर्शन में बदलाव होते रहे. प्लूटो या अरिस्टोटल का ज़माना हो या आज का आधुनिक राज्य, न्याय हमेशा से राज्य की पहली विशेषता रही है. न्याय का मतलब क्या है? न्याय की परिभाषा का भी विकास हुआ है. यूनान में थ्रेसिमेकस जैसे दार्शनिक भी हुए, जिन्होंने न्याय को माइट इज राइट बताया. मतलब यह कि जो ताक़तवर कहे, वही न्याय है. प्लूटो के बाद से न्याय राज्य का अभिन्न अंग बन गया. समय के साथ-साथ न्याय की परिभाषा और समझ में बदलाव आता चला गया. इसलिए समय के साथ-साथ न्याय को सदाचार, नैतिकता, तर्क, क़ानून, प्रकृति, धर्म और समानता से जोड़ कर देखा जाने लगा. न्याय राज्य की पहचान बन गई. थ्रेसिमेकस की परिभाषा न्याय का एक छोर था, लेकिन आज न्याय का सीधा मतलब निष्पक्षता से है. राज्य की निष्पक्षता का मतलब तो यही होता है कि सरकार अपने संसाधनों के बंटवारे में पक्षपात न करे. संसाधनों के बंटवारे की निष्पक्षता को समझना ज़रूरी है. अगर हम समानता को महत्व देते हैं, एक ऐसा समाज बनाना चाहते हैं, जहां अमीरी और ग़रीबी का फासला न रहे, तो निष्पक्षता का आधार यही होगा कि जो ग़रीब हैं, पिछड़े हैं, ज़रूरतमंद है, उन्हें ज़्यादा मदद की ज़रूरत है. राज्य और सत्ता अगर समानता को सर्वोपरि मानती है, तो जो वर्ग सबसे पिछड़ा है, उसका सरकारी संसाधनों पर सबसे ज़्यादा हक़ है. यही न्याय है. यही निष्पक्षता का सिद्धांत है.
भारत में आज़ादी के बाद से अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण दिया जा रहा है. दलितों को मिलने वाली सरकारी सहायता का आधार भी निष्पक्षता का सिद्धांत है. जो पिछड़े हैं, उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए सरकारी मदद की ज़रूरत है, यह संविधान बनाने वालों की राय थी. अब सवाल उठता है कि जिनकी हालत अनुसूचित जातियों और जनजातियों के समकक्ष या उससे खराब है तो क्या उनके साथ धर्म के आधार पर भेदभाव करना न्याय है. भारत के मुसलमानों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि आर्थिक तौर पर मुसलमान ग़रीब हैं. शहरी मुसलमान कामगारों में 61 फीसदी लोग ऐसे हैं, जो खुद से अपनी रोज़ी-रोटी कमाते हैं. इनमें से ज़्यादातर मज़दूरी करते हैं या घर के कामों में हाथ बटाते हैं. शहरों में स़िर्फ 27 फीसदी मुस्लिम कामगार ऐसे हैं, जो नियोजित नौकरी करते हैं. गांवों का हाल और भी बुरा है. गांवों में रहने वाले 80 फीसदी से ज़्यादा मुसलमान भूमिहीन मज़दूर हैं या फिर उनके पास एक एकड़ ज़मीन है. एक रिसर्च के मुताबिक़, मुसलमानों को ज़िंदगी चलाने के लिए ज़मीन बेचनी पड़ रही है.
मुसलमानों से जुड़े किसी भी आंकड़े पर आप नज़र डालें तो पता चलता है कि उनकी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक हालत दलितों से ज़्यादा खराब है. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट इस सत्य को स्थापित कर चुकी है. मुसलमानों की बस्तियों में स्कूल नहीं है, हॉस्पिटल नहीं हैं, रोजगार के अवसर नहीं हैं. शिक्षा के सरकारी आंकड़ें भी ग़लत तस्वीर पेश करते हैं. अपना नाम लिखने और पढ़ने वालों को हम शिक्षित मान लेते हैं. गांवों में रहने वाले मुसलमान मदरसे में पढ़ते हैं. वे शिक्षित लोगों की गिनती में तो आ जाते हैं, लेकिन उनकी पढ़ाई का फायदा उन्हें नौकरी या रोज़गार दिलाने में नहीं मिलता. ग़रीबी की वजह से मुस्लिम बच्चे स्कूल नहीं जा पाते. देश के 25 फीसदी मुस्लिम बच्चे (6-14 की उम्र के ) या तो कभी स्कूल नहीं जाते या फिर 3-4 साल पढ़ाई करके छोड़ देते हैं. शिक्षा के मामले में मुसलमानों की स्थिति दलितों से भी खराब है. गोपाल सिंह कमेटी रिपोर्ट के मुताबिक़, स़िर्फ 4 फीसदी मुस्लिम बच्चे दसवीं और 2.49 फीसदी मुस्लिम बच्चे 12वीं की परीक्षा देते हैं. ये आंकड़े मुस्लिम समाज के हैं, मुस्लिम समाज के दलितों की स्थिति तो और भी खराब है. इन आंकड़ों को देखकर यही लगता है कि देश के मुलसमान पिछड़ रहे हैं और अगर उन्हें सहायता नहीं मिली तो वे आने वाले समय में और भी पिछड़ जाएंगे. न्याय का यही तक़ाज़ा है कि सरकार को उनकी मदद के लिए आगे आना चाहिए.
एक सवाल यह भी उठता है कि क्या सभी मुसलमानों को आरक्षण के दायरे में लाया जाए या फिर मुसलमानों में जो पिछड़े हैं, स़िर्फ उन्हें आरक्षण दी जाए. मुस्लिम समाज में इस मुद्दे पर दो राय है. हिंदुओं की तरह मुसलमानों में भी जाति व्यवस्था है. सांसद अली अनवर पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण देने की बात कहते हैं. उनकी दलील यह है कि अगर सभी मुसलमानों को आरक्षण दिया जाएगा तो जो पिछड़े और ग़रीब मुसलमान हैं, उन्हें इसका फायदा नहीं मिलेगा. कुछ महीने पहले लखनऊ में राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल की रैली हुई थी, जिसमें दलित मुसलमानों के लिए आरक्षण की बात कही गई. देश में मुसलमानों को आरक्षण की ज़रूरत तो है, लेकिन यह फैसला मुस्लिम समाज को ही करना पड़ेगा कि उन्हें किस रूप में आरक्षण चाहिए.
देश के मुसलमानों की हालत दलितों से भी खराब है. तो क्या यह न्याय संगत है कि मुसलमानों के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव किया जाए. एक गांव में रहने वाले दो ग़रीब दोस्तों में से एक को सरकार हर तरह की सुविधा दे और दूसरे को कुछ न मिले, क्योंकि वह दूसरे धर्म का है. यह न्याय तो नहीं हो सकता है. इससे सामाजिक कलह पैदा होती है. जिनको मदद नहीं मिलती है, उन्हें लगता है कि सरकार उनकी समस्याओं के समाधान के लिए कुछ नहीं कर रही है. मुस्लिम आरक्षण का मामला अब टाला इसलिए नहीं जा सकता है, क्योंकि सरकार की नवउदारवादी नीति ग़रीबों को और ग़रीब बना रही है. गांवों में जीना मुश्किल हो रहा है. मुसलमान ग़रीब हैं. आंकड़े बताते हैं कि छोटे और मंझोले कृषक मुसलमानों को जीने के लिए अपनी बची खुची ज़मीन बेचनी पड़ रही है. वे धीरे-धीरे किसान से मज़दूर बनते जा रहे हैं. मुसलमानों को दोहरी मार झेलनी पड़ रही है. एक तऱफ, ग़रीबी की वजह से मुसलमानों पर नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का बुरा असर पर रहा है, तो दूसरी तऱफ सामाजिक और राजनीतिक प्रताड़ना का शिकार होना पड़ रहा है. देश के राजनीतिक दलों को यह समझना पड़ेगा कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति ऐसी बन गई है, जिसमें देश का मुसलमान अंदर ही अंदर पीड़ा और घुटन महसूस कर रहा है. वह मुख्यधारा से पहले से ही विमुख था, लेकिन बदलते सामाजिक और आर्थिक परिवेश में देश का मुसलमान तिरस्कृत महसूस कर रहा है. दुख तो इस बात का है कि कहीं कोई सुनवाई ही नहीं है.
मुसलमानों के नेता पार्टी हाईकमान के इशारे पर नाचने वाले नेता बन गए हैं. आरक्षण की बात उठती है तो कोर्ट यह कह कर खारिज कर देती है कि धर्म के नाम पर आरक्षण या नीति नहीं बनाई जा सकती. राजनीतिक दलों का हाल यह है कि कुछ सीधे विरोध में खड़े हैं. और जो साथ होने का दावा करते हैं, वे गिद्ध की तरह मुसलमानों के वोट को नोचने-खसोटने में लगे हैं. कहने का मतलब यह है कि मुसलमानों की सुनवाई नहीं है. देश चलाने वालों को समझना प़डेगा कि जब सुनवाई बंद हो जाती है और ज़िंदा रहने का संकट गहराने लगता है तो आत्मघात या हाथों में बंदूक़ उठाने के अलावा तीसरा रास्ता नहीं बचता.
चौथी दुनिया ने रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित की थी
मुसलमानों के विकास के लिए ज़रूरी नीतियों के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सरकार ने रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को बनवाया. कांग्रेस सरकार इस रिपोर्ट को कभी सदन में पेश करने के पक्ष में नहीं थी. यह सालों से पड़ी रही. लेकिन चौथी दुनिया साप्ताहिक अ़खबार ने इस रिपोर्ट को छाप दिया. इस रिपोर्ट के छपते ही राज्यसभा और लोकसभा में जमकर हंगामा हुआ. इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद मुलायम सिंह ने लोकसभा की कार्यवाही नहीं चलने दी. 9 दिसंबर, 2009 को समाजवादी पार्टी के सभी सांसदों सहित मुलायम सिंह ने चौथी दुनिया अ़खबार लोकसभा में लहराया. जब उन्होंने इस अ़खबार में छपी रिपोर्ट का हवाला दिया तो प्रधानमंत्री इस रिपोर्ट को संसद में पेश करने के लिए बाध्य हुए. सरकार ने रिपोर्ट तो रख दी, लेकिन साथ में कोई एक्शन टेकन रिपोर्ट नहीं रखी. कांग्रेस सरकार इस रिपोर्ट को संसद में पेश नहीं करना चाहती थी. राज्यसभा में भी रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को पेश करने की मांग पर सलमान खुर्शीद ने कर्नाटक और आंध्र प्रदेश मॉडल की बात कहकर असली मुद्दे को टाल दिया था. रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट एक असाधारण रिपोर्ट है, जिसमें अल्पसंख्यक कौन हैं. किस तरह के लोगों को आरक्षण मिले, ये सा़फ-सा़फ बताया गया है. इस रिपोर्ट के मुताबिक़, अल्पसंख्यकों में उन सभी वर्गों और समूहों को पिछ़डा माना जाए, जिनके समकक्ष के लोग बहुसंख्यक हैं और वर्तमान स्कीम के तहत पिछ़डे माने जाते हैं. मतलब यह कि धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाए. रिपोर्ट में पिछड़े अल्पसंख्यकों के कल्याण के उपाय भी सुझाए गए हैं, जिसमें शैक्षणिक और आर्थिक उपाय महत्वपूर्ण है. अल्पसंख्यकों की शैक्षणिक बेहतरी के लिए आयोग ने इंजीनियरिंग, मेडिकल, तकनीकी और लॉ जैसे प्रोफेशनल एवं वोकेशनल कोर्स सहित प्रयोगशालाओं, छात्रावासों और पुस्तकालयों जैसे मुद्दे भी शामिल किए हैं. रिपोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 30 में सुधार के लिए तत्काल एक व्यापक क़ानून बनाने की बात की गई है. राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग में इस तरह से सुधार किए जाने की अनुशंसा की गई है ताकि यह आयोग संविधान द्वारा अल्पसंख्यकों को मिले शैक्षणिक अधिकारों को लागू करवा सके. आयोग के मुताबिक़, सभी ग़ैर अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों में 15 प्रतिशत सीटें अल्पसंख्यकों के लिए सुनिश्चित की जानी चाहिए, जिनमें 10 प्रतिशत मुस्लिम और 5 प्रतिशत अन्य अल्पसंख्यक वर्ग के लिए हों. आयोग की रिपोर्ट में एक ऐसा प्रभावकारी तंत्र विकसित किए जाने की बात की गई है, जिससे छोटे उद्योग-धंधों का आधुनिकीकरण किया जा सके और अल्पसंख्यकों में से कारीगरों व दस्तकारों को प्रशिक्षण देकर उन्हें रोज़गार मुहैया कराया जा सके. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में आरक्षण को एक ज़रूरी क़दम बताया है. आयोग का सुझाव यह है कि सभी सरकारी नौकरियों में 15 प्रतिशत सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित हों. इसमें 10 प्रतिशत मुस्लिमों और पांच प्रतिशत अन्य अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण का प्रावधान है. आयोग के एक और फॉर्मूले के मुताबिक़, 27 प्रतिशत ओबीसी कोटे में से 8.4 प्रतिशत अल्पसंख्यकों को दिया जा सकता है, जिसमें छह प्रतिशत मुस्लिमों और बाक़ी अन्य अल्पसंख्यक वर्ग के लिए हो.