32 रुपये में कैसे ज़िंदा रहा जा सकता है, यह कला योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया को पूरे देश को सिखानी चाहिए. मोंटेक सिंह अहलुवालिया और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दोस्त हैं. योजना आयोग की भूमिका देश के विकास में बहुत ही अहम है. इसलिए यह सवाल उठता है कि क्या हम ऐसे देश में रह रहे हैं, जहां की सरकार को मालूम नहीं है कि देश में कितने ग़रीब हैं. क्या हमने देश की बागडोर ऐसे लोगों के हाथों में दे दी है, जिनका जनता से कोई वास्ता नहीं है. जिन्हें यह तक पता नहीं कि बाज़ार में चावल-दाल के भाव क्या हैं. योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में एक हल़फनामा दिया, जिसमें यह बताया गया कि शहरों में रहने वाले अगर 32 रुपये प्रतिदिन कमाते हैं और जिन ग्रामीणों की 26 रुपये रोज़ाना की आय है, वे ग़रीब नहीं हैं. एक आंकड़ा और है, जिसे देश की जनता को जानना ज़रूरी है. मोंटेक सिंह अहलुवालिया जब विदेश दौरे पर जाते हैं तो उन पर सरकार रोज़ाना औसतन 11,354 रुपये खर्च करती है. जनता और शासक में यही फर्क़ होता है. अब सवाल उठता है कि योजना आयोग ने ऐसा हल़फनामा क्यों दिया.
अगर यह स़िर्फ आंकड़ों का खेल है तो समस्या उतनी चिंताजनक नहीं है, लेकिन इस हल़फनामे से योजना आयोग कोई संकेत देना चाहता है तो यह खतरनाक है. लगता है कि उदारीकरण और आर्थिक सुधारों के नाम पर सरकार ग़रीब विरोधी फैसले लेने वाली है. सरकार देश के ग़रीबों को ग़रीबी रेखा से बाहर करके उन्हें मिलने वाले फायदे से अलग करना चाहती है. सामाजिक विकास के क्षेत्र में लागू कई सरकारी योजनाओं को बंद किया जा सकता है. सब्सिडी में कटौती का ऐलान हो सकता है.
2005 में संयुक्त राष्ट्र की मिलिनियम डेवलपमेंट गोल रिपोर्ट आई, जिसमें दुनिया भर में विकास का विश्लेषण किया गया था. इस रिपोर्ट ने यह बताया कि अगले चार सालों में यानी 2009 में 320 मिलियन लोग भारत और चीन में ग़रीबी रेखा के ऊपर आ जाएंगे. इस रिपोर्ट के मुताबिक़, 2015 में भारत में ग़रीबों की संख्या महज़ 22 फीसदी रह जाएगी. मतलब यह कि भारत दुनिया का ऐसा अकेला देश होगा, जो 1990 की 51 फीसदी ग़रीबी दर को घटाकर 2015 में 22 फीसदी करने में सफल रहेगा. इस रिपोर्ट में यह भी लिखा गया कि भारत इस लक्ष्य की ओर बड़ी त़ेजी से बढ़ रहा है. संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट का क्या मतलब है. संयुक्त राष्ट्र की सारी एजेंसियां आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण को बढ़ावा देती हैं. इससे यूरोप और अमेरिका के देशों को फायदा होता है. दुनिया के कई देश इन नीतियों की वजह से संकट में आ चुके हैं. मनमोहन सिंह ने इन्हीं नीतियों को भारत में लागू किया. यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में यह दावा किया गया कि भारत में चल रही आर्थिक नीति सही है. इससे भारत का विकास हो रहा है, ग़रीबों को भी फायदा पहुंच रहा है. यही वजह है कि इस रिपोर्ट में यह मान लिया गया कि 2015 तक देश में स़िर्फ 22 फीसदी ग़रीब रह जाएंगे. हक़ीक़त बिल्कुल विपरीत है.
समझने वाली बात यह है कि भारत जैसे विकासशील देशों में जब भी किसी आर्थिक नीति का मूल्यांकन होता है तो पहला सवाल यही उठता है कि इस नीति से ग़रीबों को कितना फायदा पहुंचा. जब यह रिपोर्ट आई, तब के व़क्त में और आज के व़क्त में का़फी फर्क़ आ गया है. महंगाई ने लोगों की कमर तोड़ दी है. ग़रीब तो ग़रीब, इस दौर में महंगाई ने अमीरों को भी परेशान कर दिया है. दुनिया की नज़र में भारत में निजीकरण और आर्थिक सुधारों की वजह से फायदा हुआ है. योजना आयोग और सरकार इस भ्रम को क़ायम रखना चाहते हैं. विकास के इस भ्रम को बचाए रखने के लिए आंकड़ों की ज़रूरत पड़ती है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट को सच साबित करने के लिए योजना आयोग ने ग़रीबी रेखा का नया मापदंड तैयार किया है. जबकि इसी हल़फनामे में यह भी कहा गया कि सच्चाई यह है कि मनमोहन सिंह के उदारीकरण की वजह से ग़रीब पहले से ज़्यादा ग़रीब हो गए हैं. अब मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलुवालिया यानी सरकार और योजना आयोग के सामने एक समस्या है कि आंकड़ों को कैसे दुरुस्त किया जाए, कैसे विकास के भ्रम को आंकड़ों से तर्कसंगत किया जाए. इस रिपोर्ट के परिपेक्ष्य में मोंटेक सिंह अहलुवालिया का बयान देखा जाए तो यह सा़फ हो जाता है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ऐसे बयान क्यों दिए. योजना आयोग ने ग़रीब की परिभाषा बदल दी. शहरों में 32 रुपये और गांवों में 26 रुपये प्रतिदिन पर जीने वालों को ग़रीबी रेखा से बाहर कर दिया. सरकारी आंकड़ों में ग़रीब अब ग़रीबी रेखा से बाहर हो जाएंगे. सरकार इस भ्रम को जीवित रखने में कामयाब हो जाएगी कि आर्थिक नीति सही रास्ते पर चल रही है.
समस्या यह है कि भारत में ग़रीबी मापने का कोई एक तरीका नहीं है. सरकार की हर शाखा अपने हिसाब से ग़रीबी मापती है, अपने हिसाब से आंकड़े बनाती है, बिगाड़ती है और सहूलियत के मुताबिक़ इसे जारी करती है. वैसे ग़रीबी रेखा की कहानी भारत में चालीस साल पहले शुरू हुई. सरकारी ग़रीबी रेखा स़िर्फ एक मापदंड पर आधारित है कि ज़िंदा रहने के लिए जितना खाने (कैलोरी) की ज़रूरत है, उसकी क़ीमत क्या है. बताया तो यह जाता है कि योजना आयोग ने तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट को स्वीकृति देकर यह मान लिया था कि देश में 37 फीसदी लोग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं. देश में ग़रीबों की संख्या कितनी है, इस पर एक और रिपोर्ट है, जिसकी मान्यता तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट से किसी भी मायने में कम नहीं है. यह रिपोर्ट अर्जुन सेनगुप्ता की रिपोर्ट के नाम से मशहूर है. इस रिपोर्ट के मुताबिक़, देश के 77 फीसदी लोग ग़रीब हैं. वहीं एन सी सक्सेना रिपोर्ट के मुताबिक़, देश में 50 फीसदी लोग ग़रीबी रेखा के नीचे रहते हैं. ऑक्सफोर्ड पोवर्टी एंड ह्यूमन डेवलेपमेंट इनिशिएटिव के रिसर्च के मुताबिक़, भारत में 645 मिलियन लोग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं. इनमें से 421 मिलियन लोग बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में रहते हैं.
यह भी अजीब बात है कि मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलुवालिया की जोड़ी हर चीज के लिए विश्व बैंक का मुंह देखती है, उसके हर आदेश का पालन करती है, लेकिन उसके द्वारा बताए गए फॉर्मूले को नहीं मानती. विश्व बैंक ने पूरी दुनिया के लिए एक ग़रीबी रेखा बनाई है. इसे इंटरनेशनल पोवर्टी लाइन यानी अंतरराष्ट्रीय ग़रीबी रेखा कहते हैं. इसके मुताबिक़, ग़रीब उसे माना जाता है, जिसकी आय 1.25 डॉलर प्रतिदिन से कम है. अगर इसे आधार मानें तो भारत में प्रतिदिन 61 रुपये से कम आय वाला व्यक्ति ग़रीब है. वर्ल्ड बैंक के मुताबिक़, भारत के 41.6 फीसदी लोग इस रेखा के नीचे हैं. अक्टूबर 2007 में वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट आई. इसमें एक बात चौंकाने वाली थी, जिसके बारे में ज़्यादा ज़िक्र नहीं होता है. वर्ल्ड बैंक के मुताबिक़, देश में क़रीब 80 फीसदी लोग ऐसे हैं, जिनकी आय 2 डॉलर से कम है. इसका मतलब यह है कि हमारे देश की हालत अफ्रीका के कई देशों से भी खराब है. वर्ल्ड बैंक की इस रिपोर्ट से एक बात यह साबित होती है कि पिछले 20 सालों से चल रही आर्थिक नीतियों का फायदा ग़रीबों को नहीं हुआ है. निजीकरण और उदारीकरण का फायदा चंद शहरों और उद्योगपतियों को हुआ है. मनमोहन सिंह की सरकार और योजना आयोग ने विकास के भ्रम को बनाए रखने के लिए देश के ग़रीबों का मज़ाक़ उड़ाया है.
समझने वाली बात यह है कि ग़रीबी रेखा के जितने भी मापदंड हैं, वे स़िर्फ लोगों के खाने-पीने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हैं. इसके अलावा आम इंसान के जीवन की अन्य ज़रूरतों का हिसाब उनमें शामिल नहीं है. जैसे कि मेडिकल, शिक्षा, मनोरंजन, पर्व-त्योहार पर होने वाले खर्च को सम्मिलित नहीं किया जाता है. कहने का मतलब यह है कि ग़रीबों को इन सबसे वंचित रखकर ही उनकी गिनती होती है. अगर इन सब ज़रूरतों को ध्यान में रखकर ग़रीबी रेखा के मापदंड तैयार किए जाएं तो भारत में ग़रीबों की संख्या में का़फी वृद्धि हो जाएगी. लेकिन सरकारी तंत्र आंकड़ों में इतना उलझ गया है कि उसे ग़रीबों की खुशियों से क्या मतलब? किसी ग़रीब के घर ईद और दीवाली की खुशियां न हों, उससे देश चलाने वालों को क्या फर्क़ पड़ता है? यही वजह है कि भारत में जब भी ग़रीबों की बात होती है तो सारा मामला ग़रीबी रेखा और आंकड़ों के जाल में फंस जाता है. ग़रीबी मापने का मापदंड क्या हो, एक डॉलर हो या दो डॉलर हो, सौ रुपये हो या फिर दो सौ रुपये, यह महत्वपूर्ण नहीं है. पांच हज़ार रुपये मासिक दिल्ली, मुंबई या बंगलुरू जैसे शहरों के लिए पर्याप्त नहीं हैं. इतने में तो स़िर्फ खाना ही खाया जा सकता है. जिसके बच्चे पैसों के अभाव में पढ़ नहीं पा रहे, जो अपने बूढ़े मां-बाप का इलाज नहीं करा सकता, जो अपनी पत्नी को ईद और दीवाली पर कोई उपहार नहीं दे सकता, जिसके पास रहने के लिए अपना घर नहीं है, वह ग़रीब ही माना जाएगा. ग़रीबी का रिश्ता ज़िंदगी की गुणवत्ता से है. मतलब यह कि लोग किस तरह का जीवन जी रहे हैं. ग़रीबी का रिश्ता खुशहाली से है. जो पैसों के अभाव के चलते खुशियां नहीं मना सकता, वही ग़रीब है. अब यह बात योजना आयोग के विद्वान अर्थशास्त्री को भला कौन समझा सकता है.