भारत भी अजीब देश है. यहां कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्हें फायदा पहुंचाने के लिए सरकार सारे दरवाज़े खोल देती है. कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्हें लाभ पहुंचाने के लिए नियम-क़ानून भी बदल दिए जाते हैं. कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनके हितों की रक्षा सरकारी तंत्र स्वयं ही कर देता है, मतलब यह कि किसी को कानोंकान खबर तक नहीं होती और उन्हें बिना शोर-शराबे के फायदा पहुंचा दिया जाता है. और कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें फायदा मिलना तो दूर, अपनी समस्याओं को सरकार तक पहुंचाने के लिए भी सड़क पर उतरना पड़ता है. मगर अब सड़क पर उतर कर अपनी मांगें रखने वालों की हिम्मत जवाब दे रही है. सड़क पर उतरने के बावजूद अगर सरकार उनकी बातों को नहीं सुनती है, तो वे हिंसक हो जाते हैं. सरकार ने ग़रीबों, किसानों, मज़दूरों, पिछड़ों, जनजातियों और अल्पसंख्यकों की बातों को सुनना बंद कर दिया है. सरकार की संवेदनहीनता की वजह से भारत का प्रजातंत्र आज एक नाज़ुक मोड़ पर खड़ा है.
महाराष्ट्र में गन्ना किसानों ने उपज की ज़्यादा क़ीमत मांगी तो उन्हें गोलियां मिलीं. कुछ महीने पहले रायसेन ज़िले के बरेली में गेहूं खरीदी में हो रही देरी एवं गड़बड़ी से नाराज़ किसानों और पुलिस में झड़प हुई थी. ग़ुस्साए किसानों ने पुलिस के कई वाहनों को आग के हवाले करते हुए पुलिसकर्मियों पर पथराव किया था. वहीं पुलिस अधिकारियों ने लाठीचार्ज, आंसू गैस के गोले छोड़ने के साथ किसानों पर गोली चलाने का आदेश भी दिया था. पुलिस और किसानों के बीच यह लड़ाई देश के लिए अच्छा संकेत नहीं है. 2011 में नोएडा के भट्टा-परसौल में भी किसानों और पुलिस के बीच हिंसा हुई. क्या पुलिस का इस्तेमाल अब असामाजिक तत्वों को खत्म करने की बजाय किसानों के खिला़फ किया जाएगा? सवाल यह है कि देश के किसानों का धैर्य क्यों खत्म होने लगा है? क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि अब जब भी किसान सड़क पर उतरेंगे तो हिंसा होगी? क्या अब देश में किसान आंदोलन ने हिंसक रूप ले लिया है? सबसे अहम सवाल यह है कि क्या देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था आम किसानों से इतनी दूर हो गई है कि वह अब उनके साथ कोई संवाद तक स्थापित नहीं कर सकती, उनकी समस्याओं को शांतिपूर्ण तरीक़े से हल नहीं कर सकती?
ऐसी क्या बात है कि जब भी किसान या मज़दूर सड़कों पर उतरते हैं, तो हिंसा हो जाती है. इसका मतलब सा़फ है कि सरकार, राजनीतिक दल, किसान संगठन और सामाजिक संस्थाएं देश में किसानों के हित को पूरा करने में, उनकी मांगों को पूरा करने या फिर उनकी समस्याओं को सुनने और सरकार तक पहुंचाने में विफल हो गई हैं. जिस तरह से हर आंदोलन उग्र होता जा रहा है, उससे तो यही लगता है कि किसानों को अब लगने लगा है कि उनकी चिंता किसी को नहीं है और अब उन्हें खुद ही अपनी लड़ाई लड़नी होगी. लगातार सामने आ रहे घोटालों को देखकर किसानों को लगता है कि सरकार ने निजी कंपनियों को तो देश को लूटने की छूट दे रखी है, लेकिन उनकी समस्याओं को सुनने तक को वह तैयार नहीं है. देश चलाने वालों को समझना होगा कि व़क्त हाथ से निकलता जा रहा है. केंद्र और राज्यों में सरकार चलाने वाली पार्टियों को ऐसी खबरों से डर लगना चाहिए, क्योंकि हिंदुस्तान का ग्रामीण इलाक़ा पुलिस और प्रशासन के लिए मुश्किल होता जा रहा है. अगर यही हाल रहा तो इसका मतलब है कि भारत अराजकता की ओर बढ़ रहा है. महाराष्ट्र में जिस तरह की हिंसा हुई है, उससे सा़फ हो गया कि स्थिति अब राजनीतिक दलों के नियंत्रण में नहीं है. किसान अब झूठे वादों से बहलने वाले नहीं हैं, न अब सरकार उन्हें पुलिस का डर दिखा कर शांत कर सकती है.
सबसे पहले समझते हैं कि महाराष्ट्र में क्या हुआ? राजू शेट्टी ने यह आंदोलन तब शुरू किया, जब सांगली, सतारा और कोल्हापुर ज़िले की सरकारी चीनी मिलों ने इस सीजन के लिए प्रति टन तीन हज़ार रुपये अग्रिम राशि गन्ना खरीद पर देने से मना कर दिया. मिलें केवल 2300 रुपये देने को तैयार हैं. राजू को गिरफ्तार किया गया था. ज़मानत लेने से मना करने के बाद राजू को पुणे जेल भेज दिया गया है. किसानों की मांग थी कि उन्हें इस सत्र में गन्ने की ब्रिकी पर 3000 रुपये प्रति टन के हिसाब से भुगतान किया जाए. लेकिन चीनी मिलें 2300 रुपये प्रति टन के हिसाब से ही भुगतान करने के लिए तैयार थीं. चीनी मिलों के इस फैसले से नाराज़ किसान स्वभूमि सत्कार संगठन के नेता एवं सांसद राजू शेट्टी के आह्वान पर विरोध प्रदर्शन पर उतर आए. किसानों ने पश्चिम महाराष्ट्र में कई स्थानों पर सड़कों को जाम कर दिया. पुलिस के अनुसार, किसानों के एक समूह ने पुलिस की एक टीम को नांदेड़ गांव के एक होटल के अंदर बंद करने की कोशिश की. इसके बाद कार्रवाई करते हुए पुलिस ने लाठीचार्ज और फायरिंग शुरू की, जिसमें दो किसानों की मौत हो गई. हिंसा ने हिंसा को जन्म दिया और यह आग पश्चिम महाराष्ट्र के कई इलाक़ों में पहुंच गई. अब सवाल यह उठता है कि क्या गन्ना किसानों की मांग जायज़ है या फिर वह कुछ ऐसी मांग कर रहे हैं, जिसे पूरा नहीं किया जा सकता है?
पुलिस और किसानों के बीच यह लड़ाई देश के लिए अच्छा संकेत नहीं है. 2011 में नोएडा के भट्टा-परसौल में भी किसानों और पुलिस के बीच हिंसा हुई. क्या पुलिस का इस्तेमाल अब असामाजिक तत्वों को खत्म करने की बजाय किसानों के खिला़फ किया जाएगा? सवाल यह है कि देश के किसानों का धैर्य क्यों खत्म होने लगा है? क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि अब जब भी किसान सड़क पर उतरेंगे तो हिंसा होगी? क्या अब देश में किसान आंदोलन ने हिंसक रूप ले लिया है?
महाराष्ट्र के किसानों की मांग बिल्कुल जायज़ है. गन्ने से स़िर्फ चीनी ही नहीं बनती है. चीनी के अलावा शराब, रिफाइंड, शुगर क्यूब, पेपर पल्प, फैरो अलायज, बायो खाद जैसी कई चीज़ें हैं, जो गन्ने से बनती हैं. आमतौर पर एक टन गन्ने से 100-110 किलो चीनी प्राप्त होती है. इसे बनाने का तरीक़ा भी आसान है. इसके लिए बाहर से ईंधन की भी ज़रूरत नहीं पड़ती है. इससे प्राप्त खोई को ही चीनी मिलें ईंधन के रूप में प्रयोग करती हैं. कुछ चीनी मिलें तो बची हुए खोई का इस्तेमाल बिजली बनाने में भी करती हैं, जिसे बिजली ग्रिड में सप्लाई किया जाता है. एक टन गन्ने से चीनी के अतिरिक्त 220 लीटर शीरा भी मिलता है. कुल मिलाकर एक टन गन्ने से 100 से 110 किलो चीनी, 110 यूनिट बिजली, क़रीब 10 लीटर एल्कोहल का उत्पादन होता है. बाज़ार में चीनी की क़ीमत प्रति किलो 40 रुपये के आसपास है. इसका मतलब यह हुआ कि एक टन गन्ने से स़िर्फ 4000 रुपये की चीनी बन जाती है, जबकि चीनी बनाने में पूरी लागत क़रीब 2800-3000 रुपये प्रति टन आती है, मतलब यह कि स़िर्फ चीनी के उत्पादन से ही मिलें मुना़फे में आ जाती हैं. इसके अलावा जो दूसरे उत्पाद इससे बनते हैं, वे अलग से. उसकी क़ीमत और भी ज़्यादा है. अगर गन्ना किसान एक टन गन्ने की क़ीमत 3000 रुपये मांग रहे हैं, तो क्या ग़लत है?
एक दलील यह दी जाती है कि चीनी मिलों को ऩुकसान हो रहा है और जब तक उनको फायदा नहीं होगा, तब तक वे किसानों को ज़्यादा क़ीमत कैसे दे सकते हैं. यह दलील दरअसल ग़लत है. वह इसलिए क्योंकि चीनी मिलों के ऩुकसान की वजह खराब प्रबंधन और राजनीतिक हस्तक्षेप है. एक उदारहण गुजरात का है. गुजरात की गंदेवी चीनी मिल ने 2010-11 में 2507 प्रति टन के हिसाब से गन्ने की क़ीमत का भुगतान किया था.
2009-10 में 3027 रुपये प्रति टन के हिसाब से भुगतान किया था. मज़े की बात यह है कि इतना भुगतान करने के बावजूद मिल को नुक़सान नहीं हुआ. इस चीनी मिल द्वारा संसाधनों के बेहतर उपयोग और बेहतर प्रबंधन के कारण यह संभव हुआ. देश की बाक़ी चीनी मिलों के लिए यह एक बेहतर उदाहरण है. लेकिन महाराष्ट्र के शुगर को-ऑपरेटिव की कहानी ही कुछ और है. समझने वाली बात यह है कि यह शुगर लॉबी स़िर्फ चीनी ही नहीं, बल्कि दूसरे कई महत्वपूर्ण व्यवसाय से जु़डी है. यही वजह है कि सरकार और राजनीतिक दलों और नेताओं का रिश्ता इस लॉबी से का़फी गहरा है. महाराष्ट्र में राजनीतिक दल और नेता इसी शुगर लॉबी के लाभ के लिए काम करते हैं. सरकार भी उनकी, राजनीतिक दल भी उनके, इसलिए किसानों की सुनने वाला कोई नहीं है. किसानों को अब समझ में आ गया है कि उनके सामने संघर्ष ही एक रास्ता है, जिससे सरकार उनकी बातों को मानेगी, अन्यथा उनके साथ स़िर्फ धोखा होगा.
किसानों की समस्याएं अनेक हैं, लेकिन सरकार उनकी समस्याओं को हल करना तो दूर, समझने के लिए भी तैयार नहीं है. कोर्ट के फैसले से जो किसानों को राहत मिलती है, वही एकमात्र भरोसा है. नोएडा में किसानों की ज़मीन छीन ली गई. उपजाऊ ज़मीन के औने-पौने दाम देकर उसे निजी कंपनियों में बांट दिया गया. हिंसा भड़की, तब जाकर कोर्ट ने राहत दी. जब उत्तर प्रदेश के चुनाव हुए तो किसानों की ज़मीन को लेकर किसी ने कुछ नहीं कहा. यह मुद्दा भी नहीं बन सका. दरअसल, सरकार और राजनीतिक दलों ने स़िर्फ किसानों को छला है. नीतियां किसानों के उत्थान के लिए बनाई जाती हैं, लेकिन उसका फायदा कोई और उठा ले जाता है. सरकार निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए तिजोरी खोल देती है, लेकिन जब किसानों की सब्सिडी की बात आती है तो सरकार कहती है कि पैसे की कमी है. विकास के नाम पर बिजली, सड़क, रेल, बांध जो भी बनाए जाते हैं, ज़मीन किसान की ही छीनी जाती है. इसके लिए किसानों को न तो पर्याप्त मुआवज़ा मिलता है, और न कोई पैकेज. इसकी वजह यह है कि ग्रामीण भारत के लिए जो भी योजनाएं बनती हैं, वे भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाती हैं. किसानों का नाम घोटालों को अंजाम देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. पहले सरकार क़र्ज़ देने में गड़बड़ी करती है. जो किसान नहीं हैं, उन्हें कम ब्याज़ पर क़र्ज़ दे देती है और फिर किसानों के नाम पर दिए जाने वाले क़र्ज़ को मा़फ भी कर देती है. गांव मैं बैठा किसान ठगा-सा महसूस करता है. दूसरी तऱफ महंगाई ने किसानों की कमर तोड़ दी है. ऐसी स्थिति में किसान क्या करे. जब अनाज पैदा कर वह मंडी में जाता है, तो सरकार व्यापारियों को ज़्यादा से ज़्यादा फायदा पहुंचाने के लिए किसानों को उसकी उपज की कम क़ीमत देती है. किसान कहां जाएंगे? उनकी समस्याएं कौन सुनेगा? यह काम राजनीतिक दलों का है. हाल के इतिहास में जब एसईजेड (स्पेशल इकॉनोमिक जोन) के नाम पर किसानों की ज़मीन छीनी जा रही थी, तब वी पी सिंह ने किसानों को एकजुट कर आंदोलन किया था. लेकिन आज कितने राजनीतिक दलों को या नेता को किसानों के लिए लड़ते देखा है. ऐसा कौन-सा नेता है, जो किसानों की ज़मीन के लिए रिलायंस, जेपी ग्रुप या किसी और औद्योगिक घराने से दुश्मनी मोल ले. किसानों की बात करना राजनीतिज्ञों के लिए महज़ दिखावा रह गया है. किसान और उनकी समस्याएं चुनाव के दौरान खानापूर्ति करते हुए स़िर्फ भाषणों में शामिल करने के लिए ही रह गई हैं.
दरअसल, सरकार और राजनीतिक दलों ने स़िर्फ किसानों को छला है. नीतियां किसानों के उत्थान के लिए बनाई जाती हैं, लेकिन उसका फायदा कोई और उठा ले जाता है. सरकार निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए तिजोरी खोल देती है, लेकिन जब किसानों की सब्सिडी की बात आती है तो सरकार कहती है कि पैसे की कमी है.
महाराष्ट्र में अगर किसानों को हिंसक होने पर मजबूर होना पड़ रहा है, तो दूसरे राज्यों में क्या होगा? इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है. महाराष्ट्र में हिंसा वहां भड़की है, जहां के नेता स्वयं शरद पवार हैं. शरद पवार देश के कृषि मंत्री हैं. शर्मनाक बात तो यह है कि महाराष्ट्र का कृषि मंत्री होने के बावजूद इस राज्य में सबसे ज़्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं. गन्ना किसानों पर शरद पवार का नियंत्रण रहा है. इस आंदोलन से सा़फ लगता है कि शरद पवार का क़िला ध्वस्त होने की कगार पर है. यूपीए सरकार और महाराष्ट्र की सरकार को किसानों की मांगों पर ध्यान देना चाहिए. किसानों की समस्याएं स़िर्फ गन्ने की क़ीमतें बढ़ा देने से हल नहीं होंगी. किसानों के लिए मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करानी होंगी. उनकी आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए योजनाएं बनानी होंगी. लेकिन खतरा इस बात का है कि केंद्र सरकार हर समस्या का हल उदारीकरण के ज़रिये चाहती है. सरकार चीनी उद्योग पर उदारवादी नीतियां थोपने की फिराक़ में है, जिससे चीनी मिल मालिकों को सीधा लाभ पहुंचेगा. किसान जब आंदोलन करेंगे, तो सरकार हाथ खड़े कर देगी और यह दलील देगी कि हमने इस क्षेत्र को मुक्त कर दिया है, इसलिए हम कुछ नहीं कर सकते. किसान फिर ठगा-सा महसूस करेंगे. ऐसे में अगर फिर कोई आंदोलन हिंसक रूप ले लेगा, तो अनर्थ हो जाएगा.
सरकार के रवैये और नव-उदारवादी नीतियों से किसानों का उद्धार नहीं होगा. जब तक सरकार किसानों के लिए कल्याणकारी योजनाएं नहीं बनाएगी और उसे सही तरीक़े से लागू नहीं करेगी, तब तक किसानों की स्थिति खराब ही रहेगी. देश के सभी राजनीतिक दलों ने किसानों के लिए लड़ना छोड़ दिया है.
नेताओं ने नव-उदारवाद को ही हर समस्या का सामाधान मान लिया है, इसलिए किसानों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने का काम सामाजिक संस्थाओं पर आ गया है. अच्छी बात यह है कि अन्ना हजारे और जनरल वी के सिंह किसानों के लिए लड़ते नज़र आते हैं. अपने हर भाषण में किसानों और पंचायतों के सशक्तिकरण की बात करते हैं. इससे किसानों का हौसला बढ़ता है, और सरकारी तंत्र में यह विश्वास भी जागता है कि भविष्य में सकारात्मक बदलाव हो सकते हैं. अरविंद केजरीवाल ने महाराष्ट्र के किसानों को समर्थन देकर अपना दायित्व पूरा किया है. हिंदुस्तान एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है. एक तऱफ किसान, मज़दूर और सभी वंचित वर्ग का धैर्य खत्म होता जा रहा है और ये लोग आंदोलन करने पर उतारू हैं, वहीं दूसरी तऱफ देश में एक नए नेतृत्व का सृजन हो रहा है, जो इन लोगों के अधिकारों के लिए और भ्रष्ट तंत्र के खिला़फ अपनी जान जोखिम में डाल कर लड़ने को अग्रसर है. यह परिवर्तन का संकेत है. यह परिवर्तन जितना जल्दी आएगा, देश की जनता के लिए उतना ही हितकारी होगा.