हम रोज़ चिल्लाते हैं, सांप्रदायिकता की आलोचना करते हैं, धर्मनिरपेक्ष मानसिकता का समर्थन करते हैं. समाधान भी यही है कि धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा दिया जाए. इस देश में स़िर्फ मुस्लिम ही अल्पसंख्यक नहीं हैं, सिख, ईसाई और जैन भी अल्पसंख्यक हैं. दलित भी कहता है कि हम अलग अल्पसंख्यक हैं तो मान लिया जाए कि हम लोगों ने पार्टी बना ली. पार्टी और लोगों ने भी बना ली तो देश का बनेगा क्या? देश तो तभी ज़िंदा रह सकता है, जब धर्म से ऊपर उठकर बिना किसी भेदभाव के इसके विकास के लिए क़ुर्बानी दी जाए, जैसे आज़ादी से पहले देते रहे हैं.
जमीअत उलेमा-ए-हिंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी जाने-माने विद्वान हैं और अपने बेबाक विचारों के लिए विख्यात हैं. कश्मीर के ताज़ा हालात, मुस्लिमों की राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थितियों-दुश्वारियों समेत अनेक विचारणीय बिंदुओं को लेकर चौथी दुनिया के समन्वय संपादक मनीष कुमार ने पिछले दिनों उनसे एक लंबी बातचीत की. प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश:
वर्तमान में कश्मीर बुरी तरह जल रहा है. आप लोग इसमें हस्तक्षेप क्यों नहीं करते, जबकि कश्मीर के लोग आपकी बात सुनते हैं?
ऐसा नहीं है कि कश्मीरी एक प्लेट़फार्म के नीचे इकट्ठा हैं, बल्कि कश्मीरी विभिन्न विचारधाराओं के लोग हैं. जमीअत उलेमा ने खुद को हमेशा कश्मीर समस्या से अलग रखा है. कश्मीर के संबंध में प्रधानमंत्री का बयान पहली बार ऐसा आया है, जिसमें वह स्वीकार करते हैं कि कश्मीरियों को उनके जायज़ अधिकार नहीं मिले या उनके साथ जो हो रहा है, नहीं होना चाहिए था. इस संबंध में सबसे पहले मैंने ही प्रधानमंत्री को बधाई दी थी. उनके इस बयान के अंदाज़ में यह चीज़ शामिल है कि समस्या का समाधान ताक़त की बुनियाद पर नहीं हो सकता. यही काम बीते 60 वर्षों के दौरान किया जा सकता था, लेकिन सरकार ने कश्मीर को फ़ौजी छावनी बना डाला और परिणाम कुछ भी नहीं निकला. इस समय आवश्यकता है कि प्रधानमंत्री के उस बयान पर अमल किया जाए कि कश्मीरियों को प्यार-मोहब्बत से गले लगाया जाए और जो आंदोलन चल रहा है शिकवा-शिक़ायत और अलगाववाद का, उस पर नियंत्रण पाने का समाधान तलाश किया जाए.
मुसलमानों ने स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, वे उसमें क़दम से क़दम मिलाकर चले थे, लेकिन कश्मीर के कुछ दल पाकिस्तान का समर्थन करते हैं और कश्मीर को पाकिस्तान में देखना चाहते हैं. इस संबंध में आपकी क्या राय है?
आख़िर वह क्यों कहते हैं कि हम पाकिस्तान के साथ जाना चाहते हैं, इन कारणों पर नज़र दौड़ानी चाहिए. प्रधानमंत्री का बयान इन्हीं कारणों को बयान कर रहा है. यह कहते हैं कि युवाओं के साथ जिस तरह का न्याय होना चाहिए था, वह नहीं हुआ. इसका मतलब है कि युवाओं को नौकरियां मिलनी चाहिए थीं. उन्हें राष्ट्रधारा में शामिल होने के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए थे. सरकार की योजनाएं वहां तक पहुंचती नहीं हैं और यह सही है. वह कहते हैं कि आर्थिक स्थिति तबाह हो रही है. प्रधानमंत्री उनके लिए आर्थिक तरक्की के दरवाज़े खोलना चाहते हैं. आज उन्होंने 100 करोड़ रुपये का पैकेज उनके लिए रखा है, मगर यह आटे में नमक के बराबर है. अगर सरकार अपनी योजनाओं को कश्मीर में भी उसी तरह रखती, जिस तरह उसने दूसरे राज्यों में रखी है तो आज यह स्थिति पैदा नहीं होती. आप बिहार-झारखंड में जाइए, छोटे-छोटे सूबे हैं, लेकिन ऐसी-ऐसी फैक्ट्रियां हैं, जहां 20 से 40 हज़ार आदमी काम करते हैं, रोज़ी-रोटी कमाते हैं. आप यहां से पठानकोट तक चले जाइए, ऐसा महसूस होगा कि पंजाब और हरियाणा में ही जापान है. आप घाटी और कश्मीर में चले जाइए, वहां निर्धनता मिलेगी, मायूसी मिलेगी, टूटे-फूटे मकान मिलेंगे, हत्याएं और अपराध मिलेंगे. क्या कारण हैं, क्यों है यह सब? 60 साल के अंदर आप इस पर नियंत्रण नहीं पा सके. कश्मीर में अलगाववाद का आंदोलन कोई नया नहीं है. हिंदुस्तान के कई अन्य क्षेत्रों में भी यह आंदोलन रहा है. पंजाब में अलगाववाद का आंदोलन था, वहां भी फ़ौज को भेज दिया गया. पंजाब को छावनी बना दिया गया. अनगिनत नौजवान और बच्चों की जानें गईं. लेकिन कितने दिन चला यह आंदोलन? क्या कारण हैं कि अलगाववाद का आंदोलन 60 सालों से चल रहा है और दबता नहीं है?
केंद्रीय सरकार के मदरसा बोर्ड के प्रस्ताव का मुसलमान विरोध क्यों कर रहे हैं, जिसमें आप भी शामिल हैं?
इस देश के अंदर बोर्ड कोई नई चीज़ नहीं है. उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद बोर्ड के नाम से मदरसा बोर्ड है, बिहार के अंदर शम्सउलहुदा बोर्ड बना है और मदरसे उनके अंदर जाते रहे हैं. स्थिति यह है कि जिन मदरसों ने बोर्ड से अपना रजिस्ट्रेशन करा लिया है, वे परेशान हैं. बोर्ड कहता है कि हम उनकी व्यवस्था में, पढ़ाई-लिखाई में दख़ल नहीं देंगे, लेकिन जितने मदरसे बोर्ड के अंदर गए, बोर्ड ने उनकी पढ़ाई-लिखाई में दख़ल दिया, व्यवस्था में भी दख़ल दिया. आपने हमें इस देश के अंदर राजनीतिक मैदान में अपाहिज बना दिया, आर्थिक मैदान में तबाह कर दिया. हमारे युवाओं को नौकरी नहीं मिलती. आपने शिक्षा के मैदान से हमें निकाल बाहर खड़ा कर दिया. हम अपने बच्चों से कहते थे कि दुनिया भी सीखो और दीन भी सीखो. हम इस देश के अंदर मुसलमान को मुसलमान की हैसियत से ज़िंदा रखना चाहते हैं. जो चाहे बनो, डॉक्टर बनो, इंजीनियर बनो, जो चाहे पढ़ो, हमारी ओर से कोई रुकावट नहीं है. हम चाहते हैं कि अगर कोई बच्चा दीन को समझना चाहता है तो आप यह न कहें कि वही पढ़ोगे, जो हम पढ़ाना चाहते हैं. हम जो पढ़ाना चाहते हैं अपनी संतान को, वही पढ़ाएंगे. यह लोकतांत्रिक देश है. ऐसा नहीं हो सकता कि आप जो चाहेंगे, हम अपने बच्चे को वही पढ़ाने के लिए मजबूर हैं.
आप लड़कियों को शिक्षा के लिए क्यों मना करते हैं?
हम मना नहीं करते, कौन मना करता है? हम तो ख़ुद बच्चियों के लिए स्कूल बनाते हैं, लोगों से कहते हैं कि बच्चियों के लिए स्कूल बनाओ. यह एक प्रचार है और हम इस पर कोई ध्यान नहीं देते.
राजनीति में महिलाओं के प्रवेश का आप विरोध क्यों करते हैं?
जमीअत ने भी महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के सरकार के प्रस्ताव का विरोध किया था. हम कहते हैं कि आप महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दे रहे हैं. हमारे प्रतिनिधित्व में जब देश आज़ाद हुआ था, तब लोकसभा के अंदर 52-53 का प्रतिनिधित्व था, जो अब कम होकर 29 रह गया. आप महिलाओं को आरक्षण दे दीजिए, यह 10-15 पर आकर अटक जाएंगी. हमारा मानना यह है कि अगर आप आरक्षण देते हैं तो हमें आरक्षण दीजिए, मुसलमानों को आरक्षण दीजिए, आरक्षण के अंदर हमें आरक्षण मिले, ताकि हमारा प्रतिनिधित्व तो सुरक्षित रहे. भाजपा इस विधेयक का समर्थन इसलिए कर रही है, क्योंकि वह जान रही है कि यह मुसलमानों को नुक़सान पहुंचाने का एक ज़रिया है. देश के लिए यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि कांग्रेस विधेयक पारित कर रही है और वह भी भाजपा के समर्थन से.
मुसलमानों के पास राष्ट्रीय स्तर की न कोई अपनी राजनीतिक पार्टी है और न ही नेता, जबकि मुसलमान इस देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी हैं, ऐसा क्यों?
मैं नहीं मानता, जमीअत उलेमा ने कभी इसे स्वीकार नहीं किया. हमने देश को आज़ाद कराया है, बल्कि दो क़दम आगे रहकर आज़ाद कराया है और जब देश आज़ाद हो गया तो जमीअत उलेमा ने निर्णय लिया कि अब किसी पार्टी की आवश्यकता नहीं है. जिस तरह हम आज़ादी से पहले हिंदू-मुस्लिम मिलकर लड़ रहे थे, वैसे ही अब देश के विकास के लिए मिलकर काम करेंगे. इसलिए जमीअत उलेमा ने कभी यह नहीं सोचा कि हम मुसलमानों की हैसियत से अलग कोई पार्टी बनाएं और जिन लोगों ने बनाई है, उन्होंने ठोकर खाई है, कोई फायदा नहीं हुआ.
ऐसी कोई मुहिम क्यों नहीं चलाते, जिससे मुसलमानों को उनके जायज़ अधिकार देने के लिए सरकार को विवश किया जा सके?
हम रोज़ चिल्लाते हैं, सांप्रदायिकता की आलोचना करते हैं, धर्मनिरपेक्ष मानसिकता का समर्थन करते हैं. समाधान भी यही है कि धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा दिया जाए. इस देश में स़िर्फ मुस्लिम ही अल्पसंख्यक नहीं हैं, सिख, ईसाई और जैन भी अल्पसंख्यक हैं. दलित भी कहता है कि हम अलग अल्पसंख्यक हैं तो मान लिया जाए कि हम लोगों ने पार्टी बना ली. पार्टी और लोगों ने भी बना ली तो देश का बनेगा क्या? देश तो तभी ज़िंदा रह सकता है, जब धर्म से ऊपर उठकर बिना किसी भेदभाव के इसके विकास के लिए क़ुर्बानी दी जाए, जैसे आज़ादी से पहले देते रहे हैं. समस्या का हल इसके बिना नहीं निकलेगा.
क्या आपको लगता है कि कोई हिंदू पार्टी भी इस तरह की बात कह सकती है, जो आप कह रहे हैं?
यही तो परेशानी है. सांप्रदायिकता ने देश को जकड़ रखा है. 60 वर्षों में कोई भी प्रधानमंत्री यह नहीं कह सका, अगर कह सका तो अल्पसंख्यकों का प्रधानमंत्री ही कह सका. मैंने तो उसी दिन उनका शुक्रिया अदा किया था कि आपने जो बात कही है, बिल्कुल सही कही है. यही मज़बूत दृष्टिकोण है, जिस पर चलकर कश्मीर का समाधान निकल सकता है.
देवबंद से ऐसे फ़तवे जारी होते हैं, जिनसे पूरे देश में हाय-तौबा मच जाती है, बाद में देवबंद को स्पष्टीकरण देना पड़ता है और विवादित बिंदुओं को वापस लेना पड़ता है. फ़तवे पहले से ही सोच-समझ कर क्यों नहीं दिए जाते?
कोई भी शख्स देवबंद से बैठकर फ़तवा दे देता है तो कहते हैं कि देवबंद से फ़तवा जारी हुआ है. देवबंद में तो एक केंद्र है दारुल उलूम देवबंद. जब वहां कोई फ़तवे के लिए जाता है तो वे लोग बैठते हैं, विचार विमर्श करते हैं. यह नहीं देखा जाता कि इसका मक़सद क्या है. देखा जाता है कि फ़तवा पूछने वाला पूछ क्या रहा है, उस पर फ़तवा दे दिया जाता है. कोई यह पूछता है कि इसमें इस्लाम का आदेश क्या है, मुफ्ती इस्लाम का आदेश बता देता है. उस पर कोई अमल करे या न करे, मुफ्ती को उससे कोई सरोकार नहीं होता. इसमें मुफ्ती की कोई ख़ता नहीं है.
जमीअत उलेमा-ए-हिंद इतनी बड़ी जमाअत है, लेकिन उसने जनकल्याण का कोई काम नहीं किया. न कोई अस्पताल, न कोई स्कूल, आख़िर क्यों?
जमीअत उलेमा हमेशा से स्कूल, अस्पताल और कल्याणकारी कामों के लिए मुसलमानों को यह कहती है कि तुम बनाओ, इस ओर उनका ध्यान दिलाती है, लेकिन ख़ुद यह काम नहीं करती. इसलिए कि हमारा मैदान पूरे हिंदुस्तान में है. उन लोगों के सामने समस्याएं नहीं हैं. जमीअत उलेमा के सामने इतनी समस्याएं हैं कि हमें इसका मौक़ा नहीं मिल पाता. देश के अंदर 20 हज़ार से अधिक दंगे हुए. यहां लगभग 50 हज़ार मुसलमानों की हत्या हो चुकी है. अहमदाबाद के दंगे से पहले तो हम रोज़ाना सुबह अख़बार उठाते थे तो देखते थे कि कहां बम फट गया, कहां दंगा हो गया और हमें सहायता के लिए रोज़ाना दूसरे मैदान में पहुंचना पड़ता था. इसलिए जमीअत उलेमा ने अपनी एक विचारधारा क़ायम की कि हम मुसलमानों से कहें कि तुम स्कूल बनाओ, जनकल्याणकारी काम करो, लेकिन हम ख़ुद मैदान में निकल कर नहीं आ सकते, क्योंकि हमारे पास वक़्त नहीं है. हमने तो अपनी सारी ज़िंदगी मुश्किलों के नाम कर रखी है और हर रोज़ कोई न कोई मुश्किल मुसलमानों के सामने खड़ी हो जाती है.
अक्षरधाम मामले पर आपने सीबीआई जांच की मांग की है, आख़िर यह मसला क्या है?
अक्षरधाम पर हमला हुआ, उसमें लगभग 39 लोगों की जानें गईं. इसके अंदर जो उलेमा थे, मुफ्ती थे, उन्हें पकड़ कर कह दिया गया कि हमलावर यही लोग थे. कश्मीर के आईजी, डीआईजी कह रहे थे कि अक्षरधाम हमले के अपराधी उनके पास जेल में बंद हैं. कुछ नहीं सुना गया, उन लोगों को उठाकर जेल में बंद कर दिया गया. जो फैसला निचली अदालत ने किया था, वही अपर कोर्ट ने भी सुना दिया और कह दिया कि यही अपराधी हैं. हम जानते थे कि यह मामला झूठा है. इसी तरह और भी कई मामले झूठे हैं. उनमें से अब्दुल्लाह नामक जो मुफ्ती हैं, उनका मेरे पास ख़त आया कि हम तो इन हालात से गुज़र रहे हैं. हमारे पास साधन नहीं हैं कि हम उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा सकें. हमने कहा कि हम तुम्हारी मदद करेंगे. जब हमने यहां से लेकर कश्मीर तक सच्चाई का पता लगाया तो मालूम हुआ कि वह तो बिल्कुल निर्दोष हैं. हम इस मामले को लेकर अदालत पहुंच गए. अदालत ने इस पर अस्थायी स्टे दे दिया और कहा कि इस मामले को सीबीआई के हवाले किया जाना चाहिए. हम तो अल्लाह का शुक्र अदा करते हैं कि वह तो निर्दोष थे, हमने उनके लिए काम किया और जब तक संभव होगा, हम काम करते रहेंगे.
निर्दोष मुस्लिम नौजवानों की गिरफ़्तारी के संबंध में क्या आपने कोई काम किया?
हमने बहुत काम किए. हमने विरोध प्रदर्शन किए, कांफ्रेंस कीं और सरकार को यह समझाने का प्रयास किया कि मुस्लिम नौजवानों की इस तरह हो रहीं गिरफ़्तारियां सांप्रदायिकता का नंगा नाच हैं. इन पर रोक लगे और मुसलमानों को भी आज़ाद माहौल में ज़िंदगी बिताने का मौक़ा दिया जाए.
बिहार में विधानसभा चुनाव के बारे में आपकी क्या राय है?
नीतीश कुमार की सरकार भाजपा की सरकार है. इसलिए मैं यह समझता हूं कि धर्मनिरपेक्ष मानसिकता को देश के अंदर बढ़ावा मिलना चाहिए. मेरा तो मुद्दा हमेशा यही रहा है और जमीअत उलेमा का भी. मैं इस देश की धर्मनिरपेक्ष मानसिकता को समझता हूं. नीतीश अगर अपना चोला बदल कर भी आ जाएं तो इस धर्मनिरपेक्ष मानसिकता को ताकत नहीं मिलेगी, बल्कि इसे नुक़सान पहुंचेगा. इसलिए मैं तो एक ही बात कहता हूं कि देश के विकास के लिए धर्मनिरपेक्षता बहुत महत्वपूर्ण और आवश्यक है.