बीजेपी की असल बीमारी यही है कि पार्टी के पास लोगों के बीच काम करने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं की कमी है. गडकरी को इसी बीमारी का इलाज करना था. एयरकंडीशन कमरे में बैठ कर राजनीति करने वालों को सर्जरी कर बाहर करना था. ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले या काम करने के इच्छुक कार्यकर्ताओं को सामने लाना था. पार्टी की कार्यपद्धति बदलनी थी. पार्टी में फैसले लेने की प्रक्रिया में पारदर्शिता लानी थी. युवाओं को आगे लाना था. बीजेपी के नए अध्यक्ष ने इनमें से किसी भी दायित्व को नहीं निभाया.
देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के नेता का कद किसी उद्योगपति की पत्नी से छोटा हो गया है? भारतीय जनता पार्टी के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी आईपीएल के मुंबई और चंडीगढ़ की टीम के मैच के बाद पुरस्कार वितरण समारोह में मौजूद थे. मंच पर और भी लोग थे. जो सबसे प्रमुख अवार्ड था, उसे मिसेज मुकेश अंबानी के हाथों दिया गया और गडकरी के हाथों एक छोटा अवार्ड दिलाया गया. सबसे ज़्यादा छक्के मारने का अवार्ड. सोचने वाली बात यह है कि क्या सोनिया गांधी या फिर आडवाणी के मंच पर होते हुए कोई और सबसे बड़ा अवार्ड दे सकता है? लगता है, नितिन गडकरी को अभी तक अपनी ज़िम्मेदारियों और पद का एहसास नहीं हुआ है. वह यह समझ नहीं पाए हैं कि प्रजातंत्र में मुख्य विपक्षी पार्टी की हैसियत क्या होती है. नहीं तो क्या हम यह मान लें कि देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के नेता का कद किसी उद्योगपति की पत्नी से छोटा होता है?
नितिन गडकरी उस दल के नेता हैं, जिसकी ज़िम्मेदारी सरकार चलाने वाली पार्टी से ज़्यादा है. यही प्रजातंत्र की मर्यादा है. गडकरी को आरएसएस ने एक सर्जन बना कर भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष बनाया था. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि बीजेपी की बीमारी एक सर्जन ही ठीक कर सकता है. मगर, अफसोस इस बात का है कि गडकरी ने न तो कोई सर्जरी की और न ही कोई ऐसा इलाज किया, जिससे बीजेपी की बीमारी ठीक होती नज़र आए. आने वाला समय बीजेपी के लिए चुनौतियों से भरा है, लेकिन संगठन बीमार है. और, जो नई टीम बनी है, वह अपने साथ और भी कई सारी बीमारियां लेकर आने वाली है.
53 साल के युवा अध्यक्ष नितिन गडकरी के बारे में ऐसा प्रचारित किया गया कि वह भाजपा को सही रास्ते पर लेकर आएंगे. कांग्रेस को टक्कर देने वाली पार्टी बनाएंगे. यही वजह है कि भाजपा के समर्थकों और कार्यकर्ताओं को गडकरी में एक आशा की किरण नज़र आई. उनकी अपेक्षाएं बढ़ीं. जब फैसले का व़क्त आया और नई टीम का चयन हुआ तो कार्यकर्ताओं और समर्थकों का पहले से टूटा हुआ मनोबल चकनाचूर हो गया. गडकरी ने एक ऐतिहासिक मौक़ा गंवा दिया. अब भाजपा के कार्यकर्ता यह सवाल कर रहे हैं कि नई टीम पार्टी संगठन को मज़बूत करने के लिए चुनी गई है या फिर नेताओं के मनोरंजन के लिए. सवाल जायज़ है, क्योंकि इसमें कामेडियन भी हैं, टीवी आर्टिस्ट भी हैं, डायलॉग मारने वाले बॉलीवुड के घिसे-पिटे कलाकार भी हैं. इस नई टीम में वह सब कुछ है, जो एक फिल्म को हिट बनाने के लिए ज़रूरी है, लेकिन ऐसी टीम से राजनीतिक दल को मज़बूत नहीं किया जा सकता है. कुछ लोगों ने तो यह भी कहा है कि गडकरी ने हर क्षेत्र और जाति के लिए जगह आरक्षित करने के चक्कर में मूर्ख नेताओं के लिए भी कुछ पदों को आरक्षित कर दिया है. असलियत यह है कि पिछले चुनाव में हार से निराश कार्यकर्ता गडकरी की नई टीम से नाउम्मीद हो चुके हैं. यह बात भी सच है कि भारतीय जनता पार्टी के पास संगठन चलाने के लिए सही लोगों की कमी है और साथ ही गडकरी को नई टीम बनाने में जगह-जगह से स़िफारिशों और दबाव का सामना करना पड़ रहा था.
बीजेपी की असल बीमारी यही है कि पार्टी के पास लोगों के बीच काम करने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं की कमी है. गडकरी को इसी बीमारी का इलाज करना था. एयरकंडीशन कमरे में बैठ कर राजनीति करने वालों को सर्जरी कर बाहर करना था. ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले या काम करने के इच्छुक कार्यकर्ताओं को सामने लाना था. पार्टी की कार्यपद्धति बदलनी थी. पार्टी में फैसले लेने की प्रक्रिया में पारदर्शिता लानी थी. युवाओं को आगे लाना था. बीजेपी के नए अध्यक्ष ने इनमें से किसी भी दायित्व को नहीं निभाया. कम से कम नई टीम को देखने से तो ऐसा ही लगता है. आम युवा नेताओं या उभरती हुई प्रतिभाओं की क्या बिसात, पार्टी में गुटबाज़ी ऐसी है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष अमित ठक्कर को भी गडकरी कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं दे सके. वरुण गांधी को नई टीम में महत्वपूर्ण पद मिलने का मतलब सा़फ है कि यह लोकसभा चुनाव के दौरान दिए गए भाषण का ईनाम है. इसके अलावा पार्टी ने यह भी सा़फ कर दिया है कि पार्टी का मुस्लिम विरोधी एजेंडा जारी रहेगा. कांग्रेस से मुक़ाबला करने के लिए पार्टी को युवा कार्यकर्ताओं की ज़रूरत होगी, लेकिन गडकरी की नई टीम से तो यही संकेत मिलता है कि युवाओं को लुभाने के लिए पार्टी के पास कोई तैयारी नहीं है.
गडकरी पर ज़रूर दबाव रहा होगा, इसलिए उन्होंने नई टीम को चुनने में चूक कर दी. अभी लोकसभा चुनाव होने में काफी वक्त है. उनके पास पार्टी को नई राह पर ले जाने के लिए पूरा मौका था. अगर वह चाहते तो एक ही झटके में पार्टी की चाल, चरित्र और चेहरा बदल सकते थे, पार्टी में नई ऊर्जा भर सकते थे, लेकिन गडकरी सांगठनिक और चुनावी राजनीति की बारीकियों को समझ नहीं सके. संगठन के पदाधिकारियों को ऐसे चुना गया, जैसे चुनाव का टिकट बांटा जा रहा हो. गडकरी की ग़लती यह है कि उन्होंने दिल्ली में बैठकर ही नई टीम का चयन किया, इसलिए दिल्ली के दफ्तर में जो लोग ज़्यादा मंडराते नज़र आए, उन्हें टीम में शामिल कर लिया गया. गडकरी की नई टीम में ज़मीन पर संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं और नेताओं को जगह नहीं मिली. गडकरी को अपनी टीम में ज़िले और राज्य स्तर पर सक्रिय कार्यकर्ताओं और उभरते हुए नेताओं को जगह देनी चाहिए थी, लेकिन उन्होंने नई टीम बनाने में कांग्रेस पार्टी का फार्मूला अपना लिया. गडकरी वरिष्ठ नेताओं को ख़ुश करना चाहते थे, ताकि नई टीम बनाने के बाद वह कठघरे में न खड़े दिखाई दें. यही वजह है कि पार्टी के सारे वरिष्ठ नेता अपने-अपने नुमाइंदों को संगठन में जगह दिलाने में कामयाब रहे. गडकरी की अपनी कोई राजनीतिक ज़मीन नहीं है, इसलिए विरोध के डर से वह सभी सीनियर लीडर्स को ख़ुश करने में लग गए. गडकरी की नई टीम में ज़्यादातर लोग वे हैं, जो पिछली कार्यकारिणी में जगह बनाने में विफल रहे या फिर वैसे लोग हैं, जिनका अलग-अलग राज्यों के चुनाव में पार्टी की हार में अहम योगदान है. इस लिस्ट में जनता और कार्यकर्ताओं द्वारा रिजेक्ट किए गए नेताओं की संख्या ज़्यादा है. बीजेपी कभी पार्टी विथ द डिफरेंस (अलग तरह की पार्टी) हुआ करती थी, जहां योग्यता ही सफलता की एकमात्र कुंजी होती थी. गडकरी को पार्टी को उसी राह पर लौटाना था, लेकिन नई टीम को देख कर लगता है कि अब इस पार्टी में सफल होने के लिए सेलिबे्रटी होना, दौलतमंद होना और पारिवारिक पृष्ठभूमि होना अनिवार्य हो गया है.
भारतीय जनता पार्टी के संगठन की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह भीषण गुटबाज़ी की चपेट में है, जिसकी वजह से पार्टी कार्यकर्ता आम जनता से दूर होते जा रहे हैं और पार्टी के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं में दूरियां बढ़ रही हैं. कार्यकर्ताओं के लिए दिल्ली में बैठे नेताओं के पास वक्त नहीं है और कार्यकर्ता आम जनता के सामने जाते नहीं, क्योंकि उनमें अब वह हौसला ही नहीं रहा. इसका परिणाम यह है कि पार्टी ज़मीन से कट गई है. गडकरी से कार्यकर्ताओं को उम्मीद बंधी थी, लेकिन उन्होंने संघ और कुछ वरिष्ठ नेताओं की सिफारिशों के सामने घुटने टेक दिए. यही वजह है कि बीजेपी की नई टीम में कुछ भी नया नहीं है. सवाल यह है कि क्या बीजेपी की नई टीम कांग्रेस से टक्कर ले पाएगी? भाजपा के कार्यकर्ता दबी ज़ुबान में कहने लगे हैं कि पार्टी की हालत पहले से भी ज़्यादा ख़राब होने वाली है. नई टीम किसी भी नजरिए से राहुल और सोनिया गांधी की कांग्रेस से टक्कर लेने के लायक़ नज़र नहीं आती है. जिस धावक को मैराथन दौड़ना हो, अगर उसके पैर शुरुआत में ही डगमगा जाएं तो यह तय है कि वह धावक विजेता नहीं बन सकता.