रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट की अनुशंसाओं को लागू करने के मसले पर देश में मौक़ापरस्त सियासत की जो फिज़ां बनी है उससे एक बात तो सा़फ है कि सियासी दलों के लिए देश का दलित मुसलमान उसकी बिसात का बस एक मोहरा है और उनके हक़ ओ ह़ूकूक़ की बात महज़ एक सियासी चाल. इस बहाने सियासतदानों की चाल और चरित्र दोनों सामने हैं.
इतिहास में ऐसे मौ़के कम ही आते हैं, जब किसी अ़खबार की वजह से सरकार को वह करने को मजबूर होना पड़ता है, जिसे वह किसी भी हाल में करना नहीं चाहती. रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश होने की घटना सरकार की कुछ ऐसी ही मजबूरी को ज़ाहिर करती है. सरकार के पास रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट २२ मई २००६ से थी. उसने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया था.
मामला दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों के आरक्षण से जुड़ा होने के कारण विवादास्पद है. सरकार ने चुनावी नुक़सान और फायदे को देखते हुए इसे दबा रखा था. चौथी दुनिया में रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद संसद में हंगामे का सिलसिला शुरू हो गया. चौथी दुनिया की रिपोर्ट की वजह से लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही को कई बार स्थगित करना पड़ा. लगभग सभी पार्टी के सांसदों ने जमकर हंगामा किया और लोकसभा एवं राज्यसभा दोनों ही सदनों में चौथी दुनिया अ़खबार लहरा कर सरकार को रिपोर्ट पेश करने को बाध्य कर दिया. संसद के शीतकालीन सत्र के आ़खिरी दिन १८ दिसंबर को सरकार को रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट संसद में रखने को मजबूर होना पड़ा.
लेकिन सवाल यह है कि रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट संसद में रख देने मात्र से क्या ग़रीब मुसलमानों और ग़रीब ईसाइयों के आरक्षण का रास्ता सा़फ हो गया? सरकार ने जिस तरह चुपके से संसद में रिपोर्ट को रखा और जिस तरह से राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उससे तो यही लगता है कि आगामी कई चुनावों में यह मुद्दा सबसे प्रमुख बनकर उभरेगा. मुसलमानों और ईसाइयों के आरक्षण के मुद्दे पर हर पार्टी में भ्रम की स्थिति है. दरअसल इसमें कई पेंच हैं. सबसे बड़ा सवाल यह है कि मुसलमानों और ईसाइयों को आरक्षण किस कोटे से दिया जाएगा. क्या इन्हें सामान्य कोटे से १५ फीसदी आरक्षण दिया जाएगा? या फिर अनुसूचित जाति और जनजाति के कोटे से काट कर अल्पसंख्यकों के लिए कोई रास्ता निकाला जाएगा? रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट का सरकार ने राजनीतिकरण कर दिया है. अल्पसंख्यकों के आरक्षण के विषय को जीवित रखकर हर पार्टी अपनी रणनीति तय कर रही है. सवाल यह है कि राजनीति की बिसात पर ग़रीब और ज़रूरतमंद अल्पसंख्यकों के हक़ के लिए लड़ने वाला कौन बचेगा?
मनमोहन सिंह ने २००६ में कहा था कि सरकारी संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है. यूपीए सरकार के कार्यकाल में रंगनाथ कमीशन का गठन हुआ. अ़फसोस की बात यह है कि रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को जिस तरह से संसद में रखा गया, उससे तो यही लगता है कि सरकार की कथनी और करनी में घोर विरोधाभास है. सरकार की मंशा पर सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं, क्योंकि उसने रंगनाथ कमीशन की रिपोर्ट के साथ कोई एटीआर नहीं रखी. सरकार ने यह भी नहीं बताया कि इस रिपोर्ट को कैसे लागू किया जाएगा और कब लागू किया जाएगा. हैरानी की बात यह है कि जिस व़क्त यह रिपोर्ट संसद में पेश की जा रही थी, उस व़क्त प्रधानमंत्री ग्लोबल वार्मिंग की पहले से असफल बैठक में हिस्सा लेने कोपेनहेगन में मौजूद थे.
अजीबोग़रीब बात यह है कि सरकार ने रिपोर्ट पेश कर दी, लेकिन देश की जनता को यह पता भी नहीं चल पाया कि सरकार इस रिपोर्ट का क्या करना चाहती है और कांग्रेस पार्टी का रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट पर रवैया क्या है. हैरानी की बात है कि इस बारे में अभी भी कुछ पता नहीं है.
इस मसले पर भारतीय जनता पार्टी का दृष्टिकोण क्या होगा, यह समझना आसान है. भाजपा इसका विरोध कर रही है, लेकिन कई धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने सरकार के ख़िला़फ मोर्चा खोल दिया है. धरना प्रदर्शन का सिलसिला शुरू होने वाला है. मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी, राम विलास पासवान की लोक जनशक्तिपार्टी और लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल की मांग है कि रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट को तुरंत लागू किया जाए. सरकार से उनकी शिकायत यह है कि रिपोर्ट के साथ एक्शन टेकन रिपोर्ट (एटीआर) भी होनी चाहिए थी. कांग्रेस पार्टी अब कह रही है कि मुस्लिम आरक्षण में जल्दबाजी करना ठीक नहीं है. पार्टी प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी का कहना है कि रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट को पढ़ा जाना है, इस पर चिंतन करने की ज़रूरत है और उसके बाद ही यह फैसला किया जा सकता है कि रिपोर्ट को किस हद तक मंजूर किया जा सकता है. यह सब करने में का़फी व़क्त लगेगा. हमें धैर्य रखने की ज़रूरत है और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट के पूरे विश्लेषण तक हमें इंतज़ार करना चाहिए.
अगर इस तरह के बयान आएंगे तो सरकार और कांग्रेस पार्टी की नीयत पर सवाल उठना लाज़िमी है. दो सालों तक इस रिपोर्ट को सरकार ने अपने पास रखा. क्या दो सालों तक सलमान खुर्शीद ने इसे खोलकर नहीं देखा कि इसमें क्या है? क्या कांग्रेस पार्टी के किसी भी नेता को यह याद नहीं रहा कि रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट को संसद में पेश करना है और अल्पसंख्यकों के विकास के लिए ऐसा करना ज़रूरी है? अगर यह रिपोर्ट दो साल तक सरकारी आलमारी में यूं ही धूल फांकती रही तो यह कहना ग़लत नहीं होगा कि अगर चौथी दुनिया ने इस रिपोर्ट को लीक नहीं किया होता तो शायद कांग्रेस पार्टी और मनमोहन सिंह सरकार इसे भुला देती. सरकार अल्पसंख्यकों के आरक्षण को कितना गंभीर मान रही है, यह इससे भी साबित होता है कि जब इस रिपोर्ट को संसद में पेश किया गया तो इसके साथ कोई एटीआर नहीं रखी गई. सरकार ने यह बताना भी मुनासिब नहीं समझा कि ज़रूरतमंद मुसलमानों को किस तरह आरक्षण दिया जाएगा. इस मामले में सरकार का रवैया का़फी ढुलमुल है. एटीआर नहीं रखने के पीछे सरकार वैधानिक और तकनीकी कारणों का हवाला दे रही है. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद मुसलमानों के आरक्षण पर कोई ठोस बात करते नज़र नहीं आए. सलमान खुर्शीद का तर्क यह है कि कार्रवाई रपट इसलिए अनिवार्य नहीं है, क्योंकि रंगनाथ मिश्र आयोग का गठन जांच आयोग क़ानून के तहत नहीं किया गया था. वक़ालत और राजनीति में फर्क़ होता है. जब अल्पसंख्यकों के हितों की रखवाली के ज़िम्मेदार मंत्री महोदय वकीलों की तरह तर्क देने लग जाएं तो यही मतलब निकलता है कि दाल में कुछ काला है. रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को लागू नहीं करने के लिए सलमान खुर्शीद दूसरा तर्क देते हैं. वह कहते हैं कि इसे लागू करने के लिए क़ानून में संशोधन की ज़रूरत पड़ेगी. काश, मंत्री जी ने इस रिपोर्ट को अच्छी तरह से पढ़ लिया होता. इस रिपोर्ट में सा़फ-सा़फ कहा गया है कि इन स़िफारिशों को लागू करने के लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. यह वैधानिक या प्रशासनिक कार्रवाई के द्वारा पूरी तरह से कार्यान्वित हो सकती है. तो सवाल उठता है कि क्या केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्र से ज़्यादा क़ानून की जानकारी है?
यहां एक और घटना के बारे में जानना ज़रूरी है. गुजरात विधानसभा में जब मोदी सरकार के समाज कल्याण मंत्री ने रंगनाथ मिश्र आयोग पर चर्चा के लिए एक प्रस्ताव रखा तो कांग्रेस पार्टी के विधायकों ने वॉकआउट कर दिया. ऐसा क्यों होता है कि जब भी किसी वैचारिक बहस की शुरुआत होती है तो कांग्रेस पीठ दिखाकर भाग जाती है. क्या कांग्रेस की विचारधारा खोखली हो गई है? प्रधानमंत्री जी तो अर्थशास्त्री हैं, लेकिन सोनिया गांधी जी तो कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष हैं. उनको यह समझना चाहिए कि ऐसी घटनाओं से अल्पसंख्यकों का विश्वास टूटता है. मुसलमानों के आरक्षण के मुद्दे को लेकर कांग्रेस को आगे आना चाहिए. प्रधानमंत्री के विश्वास को मज़बूत करना चाहिए. अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह एक राजनीतिक मुद्दा बनकर रह जाएगा और मुस्लिम आरक्षण का भविष्य अधर में लटक जाएगा.