इस तस्वीर को अगर गांधी और अंबेडकर भी देखते तो उन्हें अपनी आंखों पर यकीन नहीं होता. उन्होंने भी यह नहीं सोचा होगा कि पूरी दुनिया के सामने किसी दलित महिला के पैर छूने के लिए ब्राह्मण हाथ जोड़कर लाइन में खड़े होंगे. और आशीर्वाद देना तो दूर, वह आराम से सोफे पर बैठकर मंद-मंद मुस्कुरा रही होगी. यह पता करने की कोशिश कर रही होगी कि पैरों पर गिरने वाला ब्राह्मण किस चीज की भीख मांगने आया है. गांधी और अंबेडकर जीवन भर दलितों के अधिकारों की बहाली और छुआछूत के ख़िला़फ लड़ते रहे लेकिन मायावती की इस तस्वीर को देख कर यह कहना पड़ेगा कि प्रजातंत्र ने हिंदू समाज के ढांचे को ही उसके सिर के बल खड़ा कर दिया है और कांशीराम के सपने को सच होने जैसा बना दिया है.
भारत में सदियों से दलितों पर जुल्म होता रहा. सत्ता हमेशा ऊंची जाति के हाथ की कठपुतली रही और पिछड़ी जाति और दलितों को इससे दूर रखा गया. जिन लोगों को समाज के बाहर समझा जाता था, जिन पर घरों, मंदिरों और पवित्र स्थलों में घुसने की पाबंदी थी, जिनकी परछाई से भी ऊंची जाति को लोगों को घृणा थी, जिन्हें प्रदूषित समझा जाता था, वे अब सिर्फ वोट देना नहीं चाहते हैं बल्कि सत्ता में बराबर के हिस्सेदार बनकर देश चलाना चाहते हैं. ऐसा सिर्फ प्रजातंत्र में ही हो सकता है कि जिन्हें सदियों तक सत्ता से दूर रखा गया, आज वही सत्ता पर काबिज़ हों. यह प्रजातंत्र का ही कमाल है कि सदियों का फासला सिर्फ पचास साल में दूर हो जाए. वह भी बिना किसी हिंसा और दमन के.
भारत में जातिगत राजनीति आज़ादी के पहले से मौजूद है. प्रजातंत्र की वजह से उन लोगों को भी वोट देने का मौका मिला जिन्हें अब तक सत्ता से दूर रखा गया था. पिछले 60 सालों में समाज और राजनीति में बदलाव आया है. यह परिवर्तन अचानक नहीं, शांतिपूर्ण और आहिस्ता-आहिस्ता हुआ. यही वजह है कि लोगों को इस बात को स्वीकार करने में परेशानी होती है कि सामाजिक वास्तविकता बदल चुकी है.
आरएसएस का समर्थन करने वाले एक फ्रांसीसी नागरिक हैं-फ्रैंकिएर गोशिए. फ्रांस से हिंदू धर्म की पढ़ाई करने आए और खुद हिंदू बन गए. वह इस बात को लेकर चिंतित हैं कि ब्राह्मणों की हालत बहुत ख़राब है. वह कहते हैं कि ब्राह्मण अब शौचालय साफ करने का काम कर रहे हैं. उन्होंने दिल्ली में सुलभ शौचालय की तहक़ीकात की तो पता चला कि हरेक सुलभ शौचालय की देखभाल करने वालों में पांच से छह ब्राह्मण हैं. यह बात और है कि सुलभ इंटरनेशनल संस्था भी एक ब्राह्मण ने शुरू की थी. वह यह भी बताते हैं दिल्ली के पटेलनगर में पचास फीसदी रिक्शा चालक ब्राह्मण हैं.
आज़ादी के तुरंत बाद जातीय चेतना का पतन होने लगा था. शहरों में, पढ़े-लिखे नौजवानों के बीच जाति का महत्व कमजोर पड़ने लगा. ऐसा लगने लगा कि हिंदू समाज में जातिगत ढांचे ख़त्म होने वाला है. शहरों में लोग एक साथ खाने लगे, छुआछूत ख़त्म हो गया, अंतरजातीय शादी भी होने लगी. आजादी के साठ साल बाद यह कहा जा सकता है कि शहरी समाज में जाति की जड़ें कमजोर हुईं, लेकिन राजनीति के क्षेत्र में जाति की पकड़ मजबूत हुई है. 70 के दशक में आपातकाल के बाद इसमें काफी बदलाव आया. जातिगत राजनीति का न सिर्फ दायरा बढ़ा, बल्कि जाति राजनीति का केंद्रबिंदु बन गई. राजनीतिक दल खुलेआम जातियों के आधार पर बंट गए, चुनाव में जातीय समीकरण की बात खुलेआम स्वीकार करने लगे. बराबरी और सामाजिक न्याय के नाम पर जातिगत समीकरण तय करना ही परम कर्तव्य बन गया. जैसे-जैसे राजनीति पर जाति का प्रभाव बढ़ा, वैसे- वैसे राजनीति का मिजाज़ भी बदल गया. यह बात भी सही है कि राजनीति ने समाज को नहीं बांटा, बल्कि राजनीतिक दलों ने समाज में मौजूद विभाजन का चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल किया है. पिछले 30 सालों में भारतीय राजनीति की ख़ासियत यही रही है कि जाति का इस्तेमाल सत्ता हासिल करने के लिए ही हुआ. किसी भी दल का एजेंडा सामाजिक विकास रहा ही नहीं. जातियों को संगठित करके और उनके वोट खींचकर किसी तरह चुनाव जीतना ही राजनीतिक दलों की पहचान बन गई.
आज़ादी के बाद केंद्र में कांग्रेस का दबदबा रहा. हैरानी की बात यह ंहै कि किसी भी दल ने उत्तर भारत में एक भी दलित नेता को राष्ट्रीय स्तर पर उभरने नहीं दिया. इन दलों ने समाज में मौजूद जाति व्यवस्था का इस्तेमाल कर दलितों को एक वोट बैंक की तरह ही इस्तेमाल किया. राजनीति में दलितों को हमेशा हाशिए पर रखा गया. उत्तर भारत में बाबू जगजीवन राम जैसे दलित नेता राष्ट्रीय स्तर पर उभरे, लेकिन ऊंची जाति के नेताओं के सामने टिक नहीं सके. दक्षिण भारत और महाराष्ट्र में संघर्ष के जरिए जाति व्यवस्था के सबसे निचले तबके ने अपना वर्चस्व कायम किया. उत्तर भारत में इमर्जेंसी के बाद पिछड़ी जातियों और दलितों में राजनीतिक चेतना जगी. सत्ता पर ऊंची जातियों के एकाधिकार को चुनौती दी गई. जब ये संगठित हुए तो सत्ता के दरवाजे सबके लिए खुल गए. यह बदलाव किसी क्रांति से कम नहीं है. यह इस बदलाव का ही नतीजा है कि प्रजातंत्र की जड़ें भारत में मजबूत हुई हैं. दुनिया भर में प्रजातांत्रिक विकास का ऐसा उदाहरण नहीं है.
कांशीराम के बताए रास्ते पर चल कर उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने खुद की एक अलग पहचान बनाई है. दलितों को लगता है कि सिर्फ मायावती ही ऊंची जातियों के सिर पर चढ़ कर राज कर सकती हैं. उन्हें लगता है कि मायावती ही दलितों के हर उत्पीड़न का जवाब हैं. दलितों के बीच मायावती की इमेज राबिनहुड की है. कांशीराम और मायावती ने अपना राजनीतिक आधार खड़ा किया और दलितों को एक मजबूत शक्ति के रूप में तैयार किया है. एक मध्यवर्गीय दलित लड़की ने दिल्ली के एक कॉलेज की अध्यक्ष से लेकर देश के सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री तक का सफर तय किया है. मायावती की यही ताक़त समाज के उन लोगों को आश्रय लेने के लिए मजबूर किया, जिन्हें पिछड़ी जातियों ने सत्ता से बाहर कर दिया. लोकसभा चुनाव के बाद अगर मायावती प्रधानमंत्री बनती हैं तो यही कहना पड़ेगा कि दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका को जो कमाल करने में सवा दो सौ साल लग गए उसे भारत ने सिर्फ साठ साल में कर दिखाया.
भारतीय राजनीति में निचली जातियों का प्रभाव सत्तर के दशक से दिखना शुरू हुआ. राजनीति में हिस्सा लेने वाले समाज का दायरा बढ़ा, दलितों और पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी बढ़ी. जाति का राजनीतिकरण हुआ. दलितों और पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधियों की संसद और विधानसभा में संख्या बढ़ने लगी. हिंदुस्तान में आज़ादी के तीस साल बाद प्रजातंत्र ने सही रूप में अपने पैर जमाने शुरू कर दिए. यही वजह है कि उत्तर भारत में मायावती, रामविलास पासवान, मुलायमसिंह यादव, नीतीश कुमार और लालू यादव जैसे नेता राष्ट्रीय स्तर पर उभर कर आए. आज़ादी के बाद सत्ता का सुख विशिष्ट वर्ग के पास सीमित था. उत्तरप्रदेश की स्थिति दूसरे राज्यों से भिन्न है. समीकरण ऊंची जाति के पक्ष में है,
इसलिए उत्तरप्रदेश में ऊंची जातियों का दबदबा बरकरार है. लेकिन भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के कमजोर होने से उत्तर प्रदेश की ऊंची जातियां के पास कोई चारा नहीं बचा है. शोषण के लिए जरूरी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को बचाने और सत्ता के नजदीक बने रहने के लिए इनलोगों ने मायावती से नजदीकियां बढ़ाईं. यह पूछना भी लाज़िमी है कि क्या प्रजातंत्र और विकास का मतलब दलितों और पिछड़ी जातियों के सत्ता पर होना है ? नहीं. अफसोस की बात यह है कि दलित और पिछड़ी जातियों की पार्टी के पास आर्थिक और सामाजिक एजेंडे को लागू करने की ताक़त नहीं है. सरकारी नीतियों और योजनाओं का फायदा ग़रीब दलित और ग़रीब पिछड़ी जातियों को नहीं होता. हां, इतना जरूर होता है कि आरक्षण के तहत सीटों को भर दिया जाता है. ये अच्छे संकेत हैं, लेकिन महज खानापूरी हैं. सवाल यह है कि किस सरकार ने ग़रीबों, दलितों और पिछड़ों के सशक्तीकरण के लिए अलग से कोई योजना बनाई? दलितों और देश के ग़रीबों के लिए अलग से शिक्षा और रोजगार के लिए सरकारी खजाने के दरवाजे क्यों नहीं खुलते? वजह साफ है कि दलितों और पिछड़ी जातियों के हाथ में सत्ता में होने के बावजूद समाज में शोषण तंत्र कायम है. यह तंत्र ख़त्म नहीं हुआ है. नब्बे के दशक के बाद से बाज़ार जिस तरह हावी है, अगर दलित व पिछड़ी जातियां इस बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था से बाहर रहीं तो इनके विकास पर पूर्णविराम लग जाएगा.