2012 में मनोवैज्ञानिक डेविड थामस की एक चर्चित किताब आई. इस किताब का नाम है नार्सिसिज्म: बिहाइंड द मास्क. नार्सिसिज्म एक मनोवैज्ञानिक कुंठा है. कुछ लोग इसे व्यक्तित्व विकार भी मानते हैं. शब्दकोश में इस शब्द का अर्थ ढूंढने पर पता चलता है कि नार्सिसिज्म को हिंदी में आत्मकामी कहते हैं. इस किताब के शीर्षक का मतलब है, मुखौटे के पीछे का आत्मकामी. इस किताब में आत्मकामियों के कुछ लक्षण बताए गए हैं. बिना किसी बड़ी उपलब्धि और उत्कृष्ट निपुणता के बावजूद एक आत्मकामी व्यक्ति यह मानता है कि पूरी दुनिया उसे दूसरों से महान और विशेष मानती है. ऐसे लोगों को सत्ता और पावर से बहुत लगाव होता है, लेकिन उसे वे सामने नहीं आने देते. वे अपने इर्द-गिर्द ऐसे लोगों को रखते हैं, जो उनकी प्रशंसा करते हैं और उन्हें महान मानते हैं. आत्मकामी व्यक्ति अपनी बुराई या विरोध को सहन नहीं कर सकता है. जो उसे महान नहीं मानते हैं, उन्हें वह भला-बुरा कहता है. वह लगातार पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ़ खींचने की फिराक में रहता है. वह हमेशा ख़बरों में बना रहना चाहता है. आत्मकामी व्यक्ति लोगों को इस्तेमाल करता है और काम निकल जाने के बाद उन्हें छोड़ देता है. वह हमेशा भविष्य की बड़ी सफलता, भारी आकर्षण, पावर, अपनी बुद्धि एवं विचारों की सफलता की कल्पनाओं में खोया रहता है. ऐसा व्यक्ति दूसरों से ईर्ष्या करता है और समझता है कि पूरी दुनिया उससे ईर्ष्या करती है. ऐसा व्यक्ति खुद को सर्वगुण संपन्न और दूसरे को महामूर्ख समझता है. आत्मकामी व्यक्ति अपने नजरिए और व्यवहार में घमंडी होता है.
अरविंद केजरीवाल की राजनीति और व्यक्तित्व को देखें, तो डेविड थामस की किताब याद आ जाती है. अरविंद केजरीवाल ने भी खुद की महानता का एक बड़ा आडंबर बना रखा है. केजरीवाल ने खुद को एक सुपर इंटेलिजेंट आईआईटी का इंजीनियर, जिसने आईएएस की नौकरी को समाज सेवा के लिए लात मार दी, ऐसे क्रांतिकारी के रूप में प्रोजेक्ट किया है. जबकि वह एक आईआरएस अधिकारी थे. वह खुद को महान और दूसरों को तुच्छ समझते हैं. जब कभी संयम टूटता है, तो सार्वजनिक रूप से तू-तड़ाक करने लगते हैं और साथ ही खुद को एक संत भी बताते हैं. वह कहते हैं कि अगर पैसे कमाने होते, तो इनकम टैक्स की नौकरी नहीं छोड़ता. अरविंद लोगों को यह यकीन दिलाना चाहते हैं कि वह जीवन के ऐशोआराम को छोड़कर राजनीति में आए हैं. आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं को देखकर भी यह एहसास होता है कि वे कोई राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं, बल्कि केजरीवाल के भक्त हैं. वे उनकी महानता के गीत गाते हैं और उनकी बुराइयों की तरफ़ देखना भी नहीं चाहते हैं. लेकिन सच्चाई का चरित्र ही कुछ ऐसा होता है कि वह आज नहीं तो कल, सामने आ ही जाती है. सवाल यह है कि क्या अरविंद केजरीवाल की राजनीति एक ईमानदार राजनीति है या फिर यह एक आत्मकामी व्यक्ति की सत्ता की भूख का नतीजा है, जो ऊपर से ईमानदार राजनीति का महज ढोंग कर रहा है. इसे समझना आसान है. बस, उनकी कथनी और करनी में कितना फर्क है, उसे जानना है और यह साफ़ हो जाएगा कि उनकी राजनीति और व्यक्तित्व में कितनी ईमानदारी है.
उन दिनों भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई तेज थी. आंदोलन था. राजनीति नहीं थी. स्टेज पर अन्ना हजारे थे. बाबा रामदेव और किरण बेदी भी थीं. साथ ही और भी कई सारे दिग्गज बैठे थे. माइक पर अरविंद केजरीवाल भाषण दे रहे थे. अरविंद लोगों को बता रहे थे कि दोस्तो, अभी-अभी हम बाबा रामदेव जी के नेतृत्व में 370 पृष्ठों का सुबूत थाने में जमा कराकर आ रहे हैं. हम कॉमनवेल्थ गेम्स में हुए घोटाले के ख़िलाफ़ थाने में रिपोर्ट दर्ज कराकर आ रहे हैं. कॉमनवेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार हुआ, फ्रॉड हुआ, चीटिंग हुई, साजिश हुई, फॉर्जरी हुई. ये सारे के सारे मामले आपराधिक हैं और इसमें एफआईआर दर्ज कराई जाए. अगर सात दिनों के अंदर एफआईआर दर्ज नहीं हुई, तो हम कोर्ट जाएंगे, आदेश लेकर आएंगे पुलिस के ख़िलाफ़ कि एफआईआर दर्ज कराई जाए. तालियों की गड़गड़ाहट के बाद अरविंद केजरीवाल ने कहा, हमारे पास सुबूत है कि जो ट्रॉली खरीदी गई, वह बाज़ार में डे़ढ लाख रुपये की मिलती है, लेकिन उन्होंने पौने तीन लाख रुपये में खरीदी. यह दिल्ली प्रशासन के स्वास्थ्य विभाग ने खरीदी है. उन्होंने एक हृदय रोग की मशीन खरीदी है. उसकी भी क़ीमत बाज़ार में डेढ़ लाख रुपये है, लेकिन उन्होंने पांच-पांच लाख में सौ मशीनें खरीदी हैं. मतलब कि पांच करोड़ रुपये का चूना. जनता की तरफ़ से तालियों की गड़गड़ाहट की आवाज आती है और लोग शेम-शेम कहने लगते हैं. यह कार्यक्रम टीवी पर भी दिखाया जा रहा था. जिन लोगों ने देखा, उन्हें सचमुच कांग्रेस की सरकार से घृणा हो रही होगी और अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचार से लड़ने वाले एक योद्धा नज़र आ रहे थे. अरविंद केजरीवाल ने अपने भाषण में एक और खुलासा किया. उन्होंने कहा, प्रसार भारती ने एक कंपनी को 246 करोड़ रुपये का ठेका दिया और उस कंपनी ने कुछ घंटों के अंदर वह ठेका दूसरी कंपनी को 170 करोड़ में दे दिया. मतलब यह कि काम स़िर्फ 170 करोड़ रुपये का था और कुछ ही घंटों में एक कंपनी करोड़ों रुपये लेकर इंग्लैंड भाग गई. इसके बाद अरविंद केजरीवाल ने बहुत महत्वपूर्ण बात बताई. उन्होंने कहा, मैं जो बात बता रहा हूं, वह बात हवा की नहीं है. हमने सीवीसी की रिपोर्ट, सीएजी की रिपोर्ट और कई अन्य स्रोतों से ये जानकारियां ली हैं. यह हम नहीं कह रहे, सरकार की एजेंसियां खुद कह रही हैं.
यह घटना 14 नवंबर, 2010 की है और यह था अरविंद केजरीवाल का ईमानदार चेहरा. भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ बेबाक बोलने वाला चेहरा. इसके बाद अन्ना के नेतृत्व में केजरीवाल लोकपाल आंदोलन का हिस्सा बने. फिर राजनीतिक दल बनाया. भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता, भ्रष्टाचार से लड़ने और भ्रष्टाचार को ख़त्म करने वाले कार्यकर्ताओं ने अरविंद का जमकर साथ दिया. अरविंद केजरीवाल कहते रहे कि वह अपनी मनमर्जी से राजनीति में नहीं आए, उन्हें बाध्य होना पड़ा है. यहां से ही अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचार से लड़ने वाले योद्धा से एक कुटिल राजनीतिज्ञ में बदलने लग गए. टीवी चैनलों में जब इंटरव्यू होता, तो हर जगह स़िर्फ एक ही बात करते कि वह न तो चुनाव लड़ेंगे, न कोई कुर्सी लेंगे. वह न सीएम बनना चाहते हैं और न पीएम. वह तो राजनीति में भ्रष्टाचार को ख़त्म करने आए हैं.
अरविंद केजरीवाल ने चुनाव से पहले जिन-जिन मुद्दों को प्राथमिकता दी, उन्हें वह पूरा करने में विफल रहे. एक महत्वपूर्ण मुद्दा था ठेके पर काम करने वाले लोगों का. मतलब यह कि दिल्ली में ज़्यादातर विभाग स्थायी नौकरी देने की जगह लोगों से ठेके पर काम कराते हैं. इनमें टीचर, चपरासी, सफाई कर्मचारी, ड्राइवर, मजदूर और ऑफिस में काम करने वाले लोग हैं, जिनकी नौकरी परमानेंट नहीं है. केजरीवाल ने वादा किया था कि सरकार बनाते ही वह दिल्ली में ठेकेदारी प्रथा ख़त्म करेंगे.
दिल्ली चुनाव से पहले के उनके बयानों और आज की परिस्थिति में काफी विरोधाभास पैदा हो गया है. आजकल अरविंद केजरीवाल अपनी ही कही बातों को हर दिन गलत साबित करने में जुटे हुए हैं. सबसे पहला झटका अरविंद केजरीवाल ने तब दिया, जब वह चुनाव लड़ने को तैयार हो गए और सीएम बनने के लिए भी राजी हो गए. लोग तो उन्हें भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ने वाला योद्धा समझ रहे थे, लेकिन वह पार्टी बनने के साथ ही राजनीति का घिनौना खेल खेलना शुरू कर चुके थे. दिल्ली में चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी हर जगह पोस्टर लगा रही थी कि अगर कांग्रेस को वोट दिया, तो बहू-बेटियों की इज्जत लूट ली जाएगी. केजरीवाल का दूसरा सबसे अहम मुद्दा भ्रष्टाचार. चुनाव प्रचार के दौरान वह खुद को सबसे ईमानदार नेता घोषित करते रहे और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भ्रष्ट बताते रहे. कैमरा देखते ही वह बोल पड़ते कि शीला दीक्षित तो भ्रष्टाचार की पर्याय हैं. चुनाव प्रचार में वह हमेशा कहते थे कि किसी भी भ्रष्टाचारी को नहीं छोड़ा जाएगा, सबको सजा मिलेगी. न स़िर्फ सजा मिलेगी, बल्कि इन भ्रष्टाचारियों ने जनता का पैसा लूटा है. इनसे हम पैसा वापस लेंगे, जनता का पैसा वापस लाएंगे. सरकार बनने के बाद से आज तक भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाना तो दूर, किसी भी घोटाले की जांच के आदेश तक नहीं दिए गए.
चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते गए, तो उन्होंने लोगों को झांसा देने के लिए एक और चाल चली. वह इसलिए, क्योंकि चुनावी सर्वे आने लगे थे. हर सर्वे का नतीजा यह था कि दिल्ली में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने वाला है. तब सवाल यह उठा कि फिर आम आदमी पार्टी किसके साथ जाएगी. लोग कांग्रेस से नाराज थे और दूसरा विकल्प स़िर्फ भाजपा थी. अरविंद केजरीवाल को लगा कि दोनों में से किसी के साथ जाना आम आदमी पार्टी के लिए नुकसानदायक हो सकता है, तो उन्होंने झूठ का सहारा लिया. उन्होंने यह ऐलान किया कि आम आदमी पार्टी न तो किसी से समर्थन लेगी और न ही समर्थन देगी. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अगर बहुमत नहीं मिला, तो वह विपक्ष में बैठेंगे, लेकिन किसी भी क़ीमत पर न तो भाजपा और न ही कांग्रेस से समर्थन लेंगे और न ही देंगे. जब चुनाव के नतीजे आए, तो किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. आम आदमी पार्टी ने 18 मुद्दों की एक लिस्ट तैयार की और कांग्रेस एवं भाजपा से इन मुद्दों के आधार पर समर्थन मांगा. समझने वाली बात यह है कि अरविंद केजरीवाल आज भी यह सफेद झूठ बेझिझक बोलते हैं कि हमने किसी से समर्थन नहीं मांगा. सवाल यह उठता है कि अगर समर्थन नहीं मांगा, तो वह चिट्ठी क्यों लिखी? अपने मैनिफेस्टो से 18 मुद्दों को क्यों अलग किया? कांग्रेस पार्टी ने इन्हीं मुद्दों के आधार पर बाहर से समर्थन देने का ़फैसला लिया. हालांकि कांग्रेस के ज़्यादातर विधायक समर्थन देने का विरोध कर रहे थे. एक स्टिंग ऑपरेशन में कांग्रेस के विधायक ने अरविंद केजरीवाल को झूठा, मक्कार और बंदर के हाथ में उस्तरा जैसी बातें भी कहीं. फिर भी अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस का समर्थन स्वीकार किया, क्योंकि यह ़फैसला कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने लिया था. कांग्रेस पार्टी से हाथ मिलाकर भ्रष्टाचार से लड़ना, टकले को कंघी बेचने जैसा है. इस गठजोड़ की वजह से अरविंद केजरीवाल को कॉमनवेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार के मुद्दों से समझौता करना पड़ा. जो केजरीवाल चुनाव से पहले शीला दीक्षित और राजकुमार चौहान को जेल भेजने की बात कर रहे थे, वही केजरीवाल चुनाव के बाद कहते हैं कि उनके पास शीला दीक्षित के ख़िलाफ़ कोई सुबूत नहीं है. अब तो यह केजरीवाल ही बात सकते हैं कि 2010 में दिया हुआ बयान और 370 पेजों का सुबूत झूठा था या फिर आज जो केजरीवाल बोल रहे हैं, वह सफेद झूठ है.
अरविंद केजरीवाल खुद को सबसे ईमानदार व्यक्ति साबित करने में जुटे हैं. उन्होंने एक आभामंडल अपने इर्द-गिर्द तैयार किया है और उनकी हार्दिक इच्छा है कि देश की जनता और मीडिया उन्हें उसी नज़र से देखे. अगर कोई भी व्यक्ति या पत्रकार इस पर सवाल खड़ा करे, तो अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी उसे झट से भाजपा और कांग्रेस का दलाल बता देते हैं. कहने का मतलब यह कि अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी देश में अकेले ऐसे हैं, जो सच्चाई, सादगी और ईमानदारी की गंगोत्री हैं. इसके अलावा दुनिया के बाकी सारे लोग चोर, बेईमान, भ्रष्ट और दलाल हैं. लेकिन चुनाव के बाद ही अरविंद केजरीवाल की असलियत खुल गई. झूठ, लोभ और आडंबर का पर्दाफाश हो गया. चुनाव से पहले अरविंद केजरीवाल यह कहते रहे कि मैं राजनीति में सेवा करने आया हूं. पैसे कमाने होते, तो मैं इनकम टैक्स की नौकरी क्यों छोड़ता. उन्होंने कहा कि आम आदमी पार्टी का कोई भी नेता न बंगला लेगा और न ही गाड़ियां. आम आदमी पार्टी के चुने हुए लोग अपने पुराने घर में ही रहेंगे. इन्हीं सारी बातों के झांसे में आकर लोगों ने वोट दिया था. दिल्ली के लोगों को लगा था कि ये लोग दूसरों से अलग हैं, लेकिन सरकार बनते ही इनकी असलियत सामने आ गई. अरविंद केजरीवाल ने अधिकारियों के जरिए दिल्ली में एक बड़ा बंगला ढूंढ लिया. दरअसल, कांग्रेस की केंद्र सरकार ने पहले घर देने से मना कर दिया था, लेकिन पता नहीं, दो दिनों में क्या हुआ कि उसी कांग्रेस सरकार ने भगवान दास रोड पर आलीशान बंगला दे दिया. इसमें दस कमरे थे, लॉन था. बंगला आलीशान था. वैसे मुख्यमंत्री को ऐसा घर मिले, इसमें कोई बुराई नहीं है. मुख्यमंत्री को अगर सरकारी बंगला नहीं मिलेगा, तो इन बंगलों में कौन रहेगा?
चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते गए, तो उन्होंने लोगों को झांसा देने के लिए एक और चाल चली. वह इसलिए, क्योंकि चुनावी सर्वे आने लगे थे. हर सर्वे का नतीजा यह था कि दिल्ली में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने वाला है. तब सवाल यह उठा कि फिर आम आदमी पार्टी किसके साथ जाएगी. लोग कांग्रेस से नाराज थे और दूसरा विकल्प स़िर्फ भाजपा थी. अरविंद केजरीवाल को लगा कि दोनों में से किसी के साथ जाना आम आदमी पार्टी के लिए नुकसानदायक हो सकता है, तो उन्होंने झूठ का सहारा लिया. उन्होंने यह ऐलान किया कि आम आदमी पार्टी न तो किसी से समर्थन लेगी और न ही समर्थन देगी.
समस्या यह है कि वह खुद को त्यागी बताने के चक्कर में आदर्श राजनीति को नाटक-नौटंकी में तब्दील करने में महारथ हासिल कर चुके हैं. यही वजह है कि जब मीडिया में बंगले की ख़बर आ गई, तो किरकिरी हो गई. आदर्शवाद की डींगे हांकने वाले आम आदमी पार्टी के नेताओं को शर्मसार होना पड़ा. लेकिन कुछ तो ऐसे थे, जिन्हें शर्म भी नहीं आई. वे झूठ बोलते रहे. कुमार विश्वास ने तो यहां तक कहा कि इस मकान में पांच कमरे हैं, जिसमें दो कमरों में अरविंद रहेंगे और बाकी के तीन कमरे जनता की सेवा के लिए ऑफिस के रूप में इस्तेमाल होंगे. केजरीवाल ने तो पहले यह बयान भी दे दिया कि उन्होंने इस मकान को देख रखा है और इस मकान को लेना कोई बुराई नहीं है. पहले तो आदर्शवाद की टांय-टांय फिस्स हुई, फिर झूठ बोलकर वे अपने ही कार्यकर्ताओं की आलोचना के शिकार हुए. सोशल मीडिया में लोग पार्टी छोड़ने लगे. जब अरविंद केजरीवाल को समझ में आया कि इस बंगले के चक्कर में पार्टी को नुकसान हो रहा है, लोग पार्टी छोड़कर जा रहे हैं, तब उन्हें दबाव में आकर ़फैसला बदलना पड़ा. इस दौरान यह भी देखा गया कि आम आदमी पार्टी के मंत्रियों ने 16 लाख रुपये की इनोवा कार भी ली और उस पर वीआईपी नंबर भी लगवाया. जब मीडिया ने पूछा, तो आम आदमी पार्टी के एक मंत्री ने कहा, हां..हम सरकारी गाड़ी लेंगे, डंके की चोट पर लेंगे, क्योंकि हम चोरी नहीं कर रहे हैं. बंगला या गाड़ियां लेने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन ढोंग और धोखेबाजी से जनता का विश्वास जीतना सचमुच निंदनीय है.
अरविंद केजरीवाल चुनाव से पहले तक यही कहते आए कि वह व्यवस्था परिवर्तन करने वाली राजनीति में विश्वास करते हैं. वह भारत को डायरेक्ट-डेमोक्रेसी यानी सहभागी-प्रजातंत्र में तब्दील करना चाहते हैं. इस व्यवस्था में सरकार के हर ़फैसले में जनता की राय ज़रूरी है. इसलिए सरकार को सीधे जनता के बीच ले जाना, जनता द्वारा ही नीतियां बनाना और जनता से पूछकर सरकार चलाना जैसी बातें अरविंद केजरीवाल करते हैं. इसी बात को साबित करने के लिए अरविंद केजरीवाल ने जनता दरबार सड़क पर बुलाया. लेकिन जब जनता आई, तो न स़िर्फ जनता दरबार की पोल खुली, बल्कि अरविंद केजरीवाल के व्यवस्था परिवर्तन के नजरिए पर सवाल खड़ा हो गया. जनता दरबार में भगदड़ के डर से सबसे पहले भागने वाले स्वयं अरविंद केजरीवाल थे. यह केजरीवाल का मुख्यमंत्री बनने के बाद पहला कार्यक्रम था. उन्होंने जनता दरबार इसलिए बुलाया था, क्योंकि वह इस बात को साबित करना चाहते थे कि वह सरकार सड़क से चला सकते हैं. अरविंद केजरीवाल को समझना चाहिए कि हमारे संविधान को बनाने वाले नेहरू, अंबेडकर, मौलाना आज़ाद, पटेल एवं राजेंद्र प्रसाद जैसे महापुरुष थे. उन्होंने भारत की विशालता को देखते हुए डायरेक्ट या पार्टिसिपेटरी डेमोक्रेसी को खारिज किया था. केजरीवाल को शायद यह लगता है कि वह उन महापुरुषों से ज़्यादा राजनीतिक-सामाजिक समझ और ज्ञान रखते हैं. लेकिन, जब असलियत से सामना हुआ, तो अरविंद केजरीवाल ने जनता दरबार ही बंद कर दिया. वैसे अरविंद केजरीवाल ने व्यवस्था परिवर्तन का ब्लूप्रिंट अपनी एक पुस्तक स्वराज में लिखा है. दु:ख की बात यह है कि उक्त किताब भी विवादों के घेरे में आ गई है, क्योंकि यह आरोप लगा है कि अरविंद केजरीवाल ने किसी दूसरी किताब से विचारों और वाक्यों की चोरी की है.
अरविंद केजरीवाल ने चुनाव से पहले जिन-जिन मुद्दों को प्राथमिकता दी, उन्हें वह पूरा करने में विफल रहे. एक महत्वपूर्ण मुद्दा था ठेके पर काम करने वाले लोगों का. मतलब यह कि दिल्ली में ज़्यादातर विभाग स्थायी नौकरी देने की जगह लोगों से ठेके पर काम कराते हैं. इनमें टीचर, चपरासी, सफाई कर्मचारी, ड्राइवर, मजदूर और ऑफिस में काम करने वाले लोग हैं, जिनकी नौकरी परमानेंट नहीं है. केजरीवाल ने वादा किया था कि सरकार बनाते ही वह दिल्ली में ठेकेदारी प्रथा ख़त्म करेंगे. सरकार बनने के बाद उन्होंने ऐसे लोगों की नौकरी स्थायी नहीं की. लोग धरना-प्रदर्शन करने लगे. केजरीवाल ने मामला टालने के लिए एक कमेटी बना दी और धरना-प्रदर्शन ख़त्म न करने पर नौकरी से हटाने की धमकी दी. ऐसे लोग आज खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं. दरअसल, अरविंद केजरीवाल अपने ख़िलाफ़ किसी विरोध को झेल नहीं सकते. उन्हें लगता है कि वह जो करते हैं, वही सही है, बाकी सब गलत है. लेकिन एक मुद्दा ऐसा भी है, जिस पर आम आदमी पार्टी भागती फिरती नज़र आती है. यह मामला अरविंद केजरीवाल की सुरक्षा का है. वैसे तो मुख्यमंत्री के साथ सुरक्षाकर्मी होना ही चाहिए, लेकिन अरविंद ने इसे मीडिया में छाए रहने का एक मुद्दा बना दिया. सरकार बनने से पहले उन्होंने कहा कि वह सुरक्षा नहीं लेंगे. उन्हें किसी चीज का भय नहीं है, लेकिन हकीकत यह है कि उनके साथ हमेशा सुरक्षाकर्मी चलते हैं. सिविल ड्रेस में या फिर कभी-कभी टोपी लगाकर भी नज़र आए हैं.
अब जरा समझते हैं किस तरह से केजरीवाल ने बिजली और पानी के मुद्दे पर लोगों को झांसा दिया. चुनाव से पहले उन्होंने बिजली के बिल को लेकर आंदोलन किया था और लोगों से अपील की थी कि वे बिजली का बिल न भरें. कई लोगों ने बिल का भुगतान नहीं किया. बिजली कंपनियों से ऐसे लोगों को नोटिस भेजा गया, जुर्माना लगाया गया. चुनाव से पहले केजरीवाल ने यह वादा किया कि ऐसे सभी लोगों का बिल माफ कर दिया जाएगा, लेकिन सरकार बनने के बाद ऐसे लोगों को न तो माफी मिली और न ही बिल में कोई छूट दी गई. ये लोग अब अपना माथा पीट रहे हैं. पानी की छूट पर चुनाव से पहले जो वादा किया, उसे लागू नहीं किया. मुफ्त पानी देने में केजरीवाल ने एक शर्त लगा दी. मुफ्त पानी स़िर्फ उन चंद परिवारों को मिल रहा है, जिनके घरों में मीटर लगा है. ज़्यादातर लोगों के घरों में मीटर नहीं है, उन्हें इसका फायदा नहीं मिलेगा. लेकिन टीवी में छाने की रणनीति में अरविंद ने उन लोगों को भुला दिया, जिनके इलाके में पाइप लाइन तक नहीं है. ऐसा ही हाल बिजली बिल में माफी का है. दिल्लीवासियों के पास अब बिल आने लगे हैं और वादे के मुताबिक बिल में 50 फ़ीसद की छूट नहीं मिल रही है. देश की जनता को अरविंद केजरीवाल की कथनी-करनी में फर्क का प्रमाण तब मिला, जब वह गणतंत्र दिवस के दो दिन पहले तक धरना दे रहे थे और गणतंत्र दिवस परेड को दिखावा बता रहे थे. उन्होंने कहा था कि वह आम जनता के बीच बैठकर परेड को देखेंगे, लेकिन जब टीवी पर वह यूपीए मिनिस्टर्स के बीच वीवीआईपी गैलरी में नज़र आए, तो उनकी असलियत सामने आ गई. वह बोलते कुछ हैं और करते कुछ हैं.
अरविंद केजरीवाल आम आदमी के नाम पर आम आदमी के साथ छलावा कर रहे हैं, उसका इस्तेमाल कर रहे हैं. ठीक वैसे ही, जैसे उन्होंने अन्ना हजारे का इस्तेमाल किया. उनकी राजनीति वर्तमान व्यवस्था से नाराज लोगों को भड़काने की राजनीति है. अरविंद केजरीवाल की राजनीति भावनाओं की राजनीति है, प्रजातांत्रिक संस्थानों को अविश्वसनीय बनाने वाली राजनीति है, प्रजातंत्र को कमजोर करने वाली राजनीति है, अराजकता फैलाने वाली राजनीति है. आम आदमी पार्टी की राजनीति व्यक्तिवादी है. यह स़िर्फ अरविंद केजरीवाल की जय-जयकार की राजनीति है. यह विचारहीन राजनीति है. समझने वाली बात यह है कि हमारे देश में, हमारी व्यवस्था में कई कमियां ज़रूर हैं, जिन्हें दुरुस्त करने की ज़रूरत है, लेकिन उसके लिए एक रोडमैप होना चाहिए. प्रजातंत्र को जीवित रखते हुए हमें यह बदलाव लाना होगा. इसके लिए लोगों को संघर्ष करना होगा. यह काम किसी आत्मकामी व्यक्ति के वश की बात नहीं है, जो सफेद झूठ एवं आधारहीन आरोपों को राजनीति का माध्यम बनाता है और जनता को ठग कर वोट लेने को ही राजनीति समझता है. आम आदमी पार्टी की राजनीति दिन-रात झूठ बोलकर हंगामा खड़ा करने और टीवी चैनलों पर चेहरा चमकाने की राजनीति है. अगर यही नई राजनीति की परिभाषा है, तो ऐसी नई राजनीति को अविलंब इतिहास बना देना चाहिए.