किरगिज़स्तान ही नहीं, पूरे सेंट्रल एशिया में जातीय दंगों का खतरा मंडरा रहा है. यूं कहें कि पूरा सेंट्रल एशिया जातीय दंगे के ज्वालामुखी पर बैठा है. किरगिज़स्तान के अलावा यह ज्वालामुखी फिलहाल शांत है. यह कब कहां और कैसे फट पड़े, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. किरगिज़स्तान में जो जातीय दंगे हुए, वह कोई अचानक से घटित होने वाली घटना नहीं है. यह कई दशकों से चली आ रही सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक नीतियों का नतीजा है.
ओश और ज़लालाबाद सेंट्रल एशिया के सबसे उपजाऊ इलाक़े फरगना घाटी के हिस्से हैं. सोवियत संघ के दौरान इस घाटी को उज़्बेकिस्तान, किरगिज़स्तान और ताज़िकिस्तान राज्यों के बीच बांट दिया गया. किरगिज़ और उज्बेक दोनों ही सुन्नी मुसलमान हैं, लेकिन उज़्बेकों के पास पैसा है, वे ज़्यादा अमीर हैं. सोवियत संघ के ज़माने से ही उज़्बेकों का इस इलाक़े में रुतबा रहा है. ओश में 1990 में भी भयंकर दंगे हुए थे. यह व़क्त सोवियत संघ का था. किरगिज़स्तान के उज़्बेकों ने अदालत नाम का संगठन बनाया था, जो ओश और इसके आसपास के इलाक़े को उज़्बेकिस्तान सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक में शामिल करना चाहता था. साथ ही उज़्बेकी को इस इलाक़े में राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर आंदोलन कर रहा था. इसके विरोध में किरगिज़ियों ने ओश ऐमागे नामक संगठन बना लिया.
इलाक़े में बेरोज़गारी और ग़रीबी की वजह से जब ज़मीन के बंटवारे का मामला आया तो दंगे शुरू हो गए. इस दंगे में 300 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई, लेकिन वह सोवियत संघ का ज़माना था, इसलिए सोवियत सैनिकों ने उस पर क़ाबू पा लिया. लेकिन इस बार किरगिज़स्तान का दंगा सेंट्रल एशिया का सबसे खतरनाक दंगा है. इस दंगे में कितने लोग मारे गए हैं, अभी तक इसकी सही जानकारी नहीं मिली है. सरकारी और ग़ैर सरकारी आंकड़ों से यही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस हिंसा में 2000 से ज़्यादा लोग मारे गए हैं. मारे गए लोगों में ज़्यादातर लोग उज्बेक समुदाय के हैं. किरगिज़स्तान का उज़्बेक समुदाय अपने घरों को छोड़ कर किसी तरह से उज़्बेकिस्तान जाने की जुगत में है. किरगिज़स्तान के दक्षिणी इलाक़े से करीब चार लाख लोग पलायन कर चुके हैं. सीमा के पार पांच किलोमीटर की दूरी पर उज़्बेकिस्तान में उनके लिए बने कैंपों में खाने-पीने की व्यवस्था भी हो रही है.
किरगिज़स्तान में दंगों की शुरुआत ओश शहर के एक बाज़ार में दो गुटों की छोटी सी झड़प से हुई, लेकिन देखते ही देखते जंगल की आग की तरह यह हिंसा पहले इस शहर के कई इलाक़ों में, फिर दूसरे शहरों में फैल गई. बाज़ार में हुई झड़प के कुछ ही घंटों बाद ओश शहर के कई इलाक़ों से गोलियों की आवाज़ें सुनाई देने लगीं. किरगिज़ समुदाय के लोगों ने उज़्बेकों पर हमला शुरू कर दिया. किरगिज़स्तान में उज्बेक अल्पसंख्यक हैं. ओश के कुछ ही घंटों बाद जलालाबाद में भी किरगिज़ियों ने उज़्बेकों पर हमला शुरू कर दिया. इससे तो यही लगता है कि उज्बेकों पर जो हमला हुआ, वह सुनियोजित था या फिर किरगिज़स्तान के लोग उज्बेकों से काफी ऩफरत करते हैं. इतने भयंकर दंगे को समझने के लिए हमें पूरे सेंट्रल एशिया के डेमोग्राफी और राजनीति को समझना ज़रूरी है.
साथ ही इसके अलावा काराकल्पकस्तान, ततारिस्तान जैसे छोटे-छोटे समुदायों के लिए भी अलग से व्यवस्था की गई. 1920 के दशक में सेंट्रल एशिया के लोगों में राष्ट्रीयता का बोध नहीं था. इस इलाक़े में ताज़िक को छोड़कर ज़्यादातर लोग कबीलाई थे. ये लोग खुद की पहचान क्लैन से करते थे. इनकी अपनी बोली थी, लेकिन स्क्रिप्ट तक नहीं थी. सोवियत संघ की नीतियों ने यहां की जनता में राष्ट्रीयता का बोध कराया, लेकिन इस दौरान एक बड़ी चूक हो गई. ऐसी चूक, जिसका खामियाज़ा सेंट्रल एशिया के लोग भुगत रहे हैं. लेनिन और स्टालिन ने इस तरह से सेंट्रल एशिया का बंटवारा किया कि ज़्यादातर लोग खुद को सीमा की दूसरी तरफ पाया. उदाहरण के तौर पर उज़्बेकिस्तान को ले लीजिए. राष्ट्रीयता नीति और नेशनल डीलिमीटेशन का मक़सद यह था कि उज़्बेक बहुल इलाकों को जोड़कर उज़्बेकिस्तान बनाया जाए, लेकिन जब उज़्बेकिस्तान बना तो उसमें कुछ उज्बेक बाहर हो गए और दूसरे समुदाय के लोग उज्बेकिस्तान में आ गए. हैरानी की बात यह है कि ताजिकिस्तान से ज़्यादा ताजिक उज़्बेकिस्तान में फंस गए. कई सदियों से जो शहर ताजिकों के थे, जैसे की समरकंद और बुखारा, उज्बेकिस्तान को दे दिए गए.
वह जमाना सोवियत संघ का था, जहां सरकार सर्वशक्तिमान होती थी, इसलिए कोई संगठन या व्यक्ति इसके खिलाफ आवाज नहीं उठा सका. दूसरी बात यह थी कि धर्मों पर प्रतिबंध लगा था. लोग खुद को सुन्नी मुसलमान तो मानते थे, लेकिन मस्जिदें नहीं थीं, मिलजुल कर नमाज भी पढ़ना ग़ैरक़ानूनी था. सोवियत सरकार एथिस्म और धर्म का दमन करने वाली सरकार थी. लेकिन जो लोग धर्म को मानते थे, वे घर के अंदर ही नमाज पढ़ते, ईद-बकरीद मनाते और अपने बच्चों को धार्मिक शिक्षा देते. यही वजह है कि 75 साल के दमन के बाद भी सेंट्रल एशिया में इस्लाम मौजूद है. जब गोर्बाचेव ने सामाजिक एवं राजनीतिक उदारीकरण की राह पर चलना शुरू किया तो लोगों के बीच पहचान को लेकर रस्साकशी शुरू हो गई. हर राज्यों में दूसरे समुदाय के प्रति गुस्सा उभरने लगा. उज़्बेकिस्तान उज़्बेकों के लिए, ताज़िकों के लिए ताजिकिस्तान और किरगिज़ियों का किरगिज़स्तान जैसे नारे बुलंद होने लगे. सोवियत संघ जब तक जिंदा रहा, तब तक दूसरे राज्यों में फंसे लोगों को उतनी मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ता था, लेकिन अचानक इतिहास ने ऐसी करवट ली कि लाखों लोग रिफ्यूजी बन गए. 1991 में सोवियत संघ का आकस्मिक विघटन हो गया.
सोवियत संघ के 15 राज्य अचानक 15 देशों में बदल गए. अब जो लोग दूसरे राज्य में थे, उन्हें विदेशी माना जाने लगा. किरगिज़स्तान में जिन उज़्बेकों को मारा जा रहा है, वे वही उज़्बेक हैं, जो सोवियत संघ की नीतियों की वजह से उज़्बेकिस्तान के बजाय किरगिज़स्तान में चले गए. किरगिज़स्तान के उज़्बेकों की तरह सेंट्रल एशिया में बीस से ज़्यादा समुदाय ऐसे हैं, जिनकी हालत इनकी तरह है. यही वजह है कि सेंट्रल एशिया के हर इलाके में ओश और जलालाबाद जैसी स्थिति मौजूद है. कहीं भी, कभी भी हिंसा भड़क सकती है.
सोवियत संघ के दौरान ग़लत फैसले के अलावा धार्मिक कट्टरवाद भी सेंट्रल एशिया में जातीय दंगों को हवा देने का काम कर रहा है. सोवियत संघ के विघटन के बाद से इस इलाके में धर्म का विस्तार हुआ है. इनमें कट्टरवादी विचारधारा को ज़्यादा सफलता मिली है. उसकी वजह भी सेंट्रल एशिया की सरकारें ही हैं. दुनिया भर में प्रजातंत्र का परचम लहरा रहा है, लेकिन सेंट्रल एशिया में सोवियत संघ का तंत्र छोटे-मोटे बदलाव के साथ आज भी मौजूद है. यही वजह है कि विपक्ष के लिए इन देशों में कोई स्थान नहीं है. इन देशों के ज़्यादातर लोकप्रिय नेता या तो जेल में हैं या फिर यूरोप में छुपे बैठे हैं. इसलिए विपक्ष के स्थान पर कट्टरवादी संगठनों ने क़ब्ज़ा कर लिया है. सेंट्रल एशिया के पांचों देश इसी चक्र में फंसे हुए हैं. धार्मिक कट्टरवाद को मिटाने के नाम पर सरकार लोगों पर ज़ुल्म करती है, जिससे कट्टरवादी संगठनों को ज़्यादा मज़बूती मिल जाती है. कुछ साल पहले ताशकंद विश्वविद्यालय के छात्रों को सरकार ने दाढ़ी-मूंछ सा़फ करने के आदेश दे दिए थे. जिसने भी ऐसा करने से मना किया, उसे सरकार ने वहाबी कहकर जेल में डाल दिया. जब किसी इलाक़े में इस तरह का माहौल हो तो कट्टरवादी संगठनों के लिए लोगों के बीच काम करना आसान हो जाता है. यही वजह है कि किरगिज़स्तान में हुए दंगों में कट्टरवादी संगठनों के नाम सामने आ रहे हैं. 1991 में आज़ाद होने के बाद उज़्बेकों और किरगिज़ों के बीच के रिश्ते अच्छे नहीं रहे. इसकी वजह यह है कि इन इलाकों में आतंकवादी और धार्मिक उन्माद फैलाने वाले कई संगठन सक्रिय हैं, जो किरगिज़ों और उज़्बेकों की ऐतिहासिक विभिन्नताओं का हवाला देकर समाज में हिंसा का ज़हर घोल रहे हैं.
पूरी दुनिया ग्लोबलाइजेशन की ओर बढ़ रही है. देशों, समुदायों एवं जातियों की पहचान मिल कर एक हो रही है. दुनिया एक ग्रह और एक इंसानियत की बात कर रही है. पूरा अफ्रीका एक पहचान की ओर बढ़ रहा है, यूरोपियन यूनियन बन रही है, लेकिन सेंट्रल एशिया दुनिया का अकेला ऐसा इलाक़ा है, जहां आज भी क्लैन, जाति और समुदाय की पहचान की लड़ाई चल रही है. जातीय दंगे हो रहे हैं. ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक या फिर सांस्कृतिक, वजह चाहे जो भी हो, सेंट्रल एशिया दुनिया के सामने एक अजीबोग़रीब मिसाल पेश कर रहा है.