चाल,चिंतन और चरित्र में राजनीति अद्भुत होती है। हालिया चुनावी नतीजों ने यह बात बेहद साफ कर दी है। भाजपा के लिए तो और अधिक। कितनी अजीब बात है कि पांच वर्षों तक लालकृष्ण आडवाणी जिस शख्स के इशारे पर फैसले लेते रहे, जिस सलाहकार की हर बात को पत्थर की लकीर मानते रहे, आज वही शख्स हार के लिए आडवाणी को ही ज़िम्मेदार बता रहा है। वह शख्स हैं-सुधींद्र कुलकर्णी। आडवाणी के सलाहकार नंबर वन। उन्होंने चुनाव नतीजे आने के अगलेे ही दिन एक अंग्रेज़ी अख़बार में लिख दिया कि इस चुनाव में आडवाणी एक विजेता के तेवर नहीं दिखा सके। आडवाणी अगर चुनाव के दौरान कुछ कठोर फैसले लेे लिए होते तो शायद भारतीय जनता पार्टी की ऐसी स्थिति नहीं होती। सुधींद्र कुलकर्णी की बातों से तो यही लगता है कि वह समझते हैं कि उनकी सलाह तो सही थी, लेकिन आडवाणी ही उन पर अमल नहीं कर सके। क्या सुधींद्र की नज़र में आडवाणी कड़े फैसले लेने में अक्षम हैं? अब इसका जवाब तो भाजपा के लोग ही दे सकते हैं कि जो सलाहकार भाजपा के ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार आडवाणी पर सवाल खड़ा करे, उसकी पार्टी में उपयोगिता क्या है?
2009 के आम चुनाव में जनता ने मज़बूत नेता, मजबूर नेता और कमज़ोर नेता की बहस को ही ख़त्म कर दिया। लालकृष्ण आडवाणी न सिर्फ चुनाव हारे, बल्कि लौहपुरुष और मज़बूत नेता के ख़िताब से भी हाथ धो बैठे। अब भी भाजपा अगर उन्हें लौहपुरुष कहना जारी रखती है तो लोगों को हंसी ही आएगी। इसमें कोई शक़ नहीं कि आडवाणी भारतीय राजनीति के मैराथन धावक हैं। छह दशकों से भारतीय राजनीति की मुख्यधारा के वह एक अहम सिपाही रहे। लेकिन जीवन के आख़िरी पड़ाव में उन लोगों पर भरोसा कर लिया जो उनके पूरे किए-धरे को धो डालने की जुगत में थे। अपने जीवन की अंतिम लड़ाई में वह ऐसे सलाहकारों से घिर गए जो अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं और देश की जनता को समझने में अक्षम थे।
आडवाणी के सलाहकारों में वे लोग थे जिन्हें चुनावी राजनीति का अनुभव नहीं है। ये लोग टीवी पर बहस करने जाते हैं। एक से एक तर्क देते हैं, जिससे सामने वाला निरुत्तर हो जाता है, या कम से कम ऐसा दिखने तो लगता ही है। लेकिन उन्हें यह बात समझ में नहीं आई कि तर्क से बहस जीती जा सकती है, चुनाव जीतने के लिए तो वोट चाहिए होते हैं। आडवाणी के सलाहकारों में ऐसा कोई नहीं था जिसने चुनाव लड़ा हो, जो जनता के बीच से यानी ज़मीनी संघर्ष से पैदा हुआ नेता या विचारक हो। भाजपा के इन सलाहकारों और रणनीतिकारों में चुनाव लड़ने का अनुभव किसी के पास नहीं है। ये लोग एयरकंडीशन कमरे और टीवी स्टूडियो में अपनी चमक बिखेरते हैं। बात जब ज़मीनी राजनीति की हो तो ये धूमिल हो जाते हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने पिछली बार इंडिया शाइनिंग का नारा बुलंद किया था, जिसके कारण 2004 में पराजय का सामना करना पड़ा। भाजपा की आदत बेपरवाही की बन चुकी है या उसने अपनी ग़लतियों से नहीं सीखने का प्रण कर लिया है। वरना जिन कारणों की वजह से वह 2004 का चुनाव हार गई थी, वही ग़लती कैसे दोहरा सकती थी?
आडवाणी के प्रमुख सलाहकार सुधींद्र कुलकर्णी थे। वह ङ्क्षआडवाणी के सबसे निकट माने जाते हैं। वह भाजपा के चुनावी वार रूम के मुखिया थे। सुधींद्र ने आईआईटी मुंबई से बी-टेक करने के बाद पत्रकारिता की ओर रुख़ किया। सुधींद्र एक मार्क्सवादी हैं। उनकी लेखनी भी सशक्त है। मार्क्स और लेनिन की विचारधारा उनके लेखन में झलकती है। लेकिन वह वामपंथी विचारधारा से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बीच की दूरी को ख़त्म नहीं कर सके। शायद यह बात बहुत कम लोग ही जानते हैं कि सुधींद्र का वामपंथी होना ही आडवाणी से उनकी नज़दीकी की वजह है।
आडवाणी के सलाहकारों ने पिछले पांच सालों में जितने भी सलाह दिए, उसी का खामियाजा आज बीजेपी भुगत रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के चुनाव अभियान की नकल करने के विचार के सूत्रधार भी सुधींद्र ही थे। इन सलाहकारों के सौजन्य से यहां भी भाजपा की ़फजीहत ही हुई। युवाओं को लुभाने के नाम पर इस वेबसाइट पर भाजपा के करोड़ों रुपए खर्च कर दिए गए। इस कवायद का नतीजा क्या निकला ? दस हज़ार युवा भी इसके जरिए साथ नहीं आ सके। इन सलाहकारों को इतनी सी बात समझ में नहीं आई कि भारत असल में गांवों में रहता है, जहां इंटरनेट नहीं है और जिनके पास इंटरनेट हैं वे लोग यदा-कदा ही वोट देने जाते हैं।
सुधींद्र के कहने पर ही आडवाणी ने अपनी जीवनी लिखी। उन्होंने आडवाणी को समझाया कि देश की जनता उन्हें एक कट्टर नेता मानती है। इस जीवनी के जरिए लोग उनके सही चरित्र को जान पाएंगे। लोग आडवाणी कोे उदारवादी समझने लगेंगे। सुधींद्र की यह सलाह भी मुसीबत साबित हुई। वह यह ़फर्क़ नहीं कर पाए कि राजनीति में नेता की पहचान उसके असली चरित्र को लेकर नहीं, बल्कि उसकी छवि से होती है। इस किताब में आडवाणी ने कई ऐसे मद्दों पर ऐसी-ऐसी बातें लिख दीं जिनकी वजह से उनकी ़फजीहत हुई। कंधार हाईजैक के मामले पर जब आडवाणी ने लिख दिया कि आतंकवादियों को वापस भेजने के फैसले बारे में उन्हें जानकारी नहीं थी, तो कांग्रेस ने उनके ही इस बयान से यह मुद्दा बना दिया कि आडवाणी कितने ग़ैर-ज़िम्मेदार गृहमंत्री थे।
दरअसल सुधींद्र की हर सलाह आडवाणी को प्रधानमंत्री की कुर्सी से दूर ले गई। वह सुधींद्र की वजह से ही जिन्ना प्रकरण में फंसे। आडवाणी के दिमाग़ में सुधींद्र ने ही यह बात डाली थी कि जिन्ना सेकुलर थे और नेहरू से महान थे। सुधींद्र की इस एक सलाह की वजह से आडवाणी को पूरे एक साल तक राजनीतिक वनवास लेना पड़ा। और तब से लोग आडवाणी को एक भ्रमित और दिशाहीन नेता मानने लगे। अगर उस वक्त भी आडवाणी ने सुधींद्र का परित्याग कर दिया होता तो आज शर्मसार होने से बच जाते। इस मुद्दे के जरिए आडवाणी ने विरोधियों को हमला करने का हथियार दे दिया और अपने समर्थकों को शर्मसार किया। कार्यकर्ता खुद को ठगा महसूस करने लगे। हैरानी की बात है कि भाजपा के नेता नाराज़ थे, संघ नाराज़ था, कार्यकर्ता नाराज़ थे, समर्थक नाराज़ थे और आडवाणी के ये महान सलाहकार टीवी चैनलों में आडवाणी के बयान को सही ठहराने के लिए कुतर्क पेश कर रहे थे। इसका नतीजा हुआ कि भाजपा के कार्यकर्ता आडवाणी की नेतृत्व क्षमता पर ही सवाल करने लगे।
इन सलाहकारों को एक छोटी-सी बात समझ में नहीं आई कि वेबसाइट निकालने से, किताब लिखने से, अमेरिका से लाए गए मार्केटिंग एजेंसी और ब्रांड बनाने वाली एजेंसी से आडवाणी जैसे नेता का इमेज मेकओवर नहीं हो सकता। साठ साल तक देश की राजनीति की मुख्यधारा में सक्रिय रहने वाले नेता की छवि को रातों-रात बदला नहीं जा सकता है। इन सलाहकारों को लग रहा था कि आडवाणी को एक उदारवादी नेता के रूप में पेश किए जाने से उन्हें फायदा होगा। आडवाणी एक मास लीडर हैं। उन्हें देश भर में चाहने वाले लोग हैं। इन सलाहकारों ने उन्हीं गुणों-अवगुणों को ख़त्म करने की कोशिश की, जिसकी वजह से लोग उन्हें चाहते थे। नतीजा हुआ कि आडवाणी न अटल बन सके और न ही आडवाणी रह सके। वह अपने सलाहकारों के चंगुल में फंसे एक मजबूर नेता होकर रह गए। इन सलाहकारों का हर प्रयास विफल रहा। जनता जिस आडवाणी को जानती थी और इस चुनाव के दौरान जिस तरह से उन्हें पेश किया गया, उसमें काफी फर्क था। सलाहकार उदारवादी बता रहे थे, और टीवी पर मज़बूत नेता के नाम से प्रचार चल रहा था। लौह-पुरुष को उनके ही सलाहकारों ने आडवाणी ही नहीं रहने दिया। नतीजा हुआ कि चुनाव के दौरान आडवाणी की इमेज एक चतुर राजनीतिज्ञ की बन गई। जिसका सामना सत्ता त्याग करने वाली सोनिया और सीधे-सादे और ईमानदार मनमोहन सिंह से था। यही वजह है कि इस चुनाव में आडवाणी सबसे कमज़ोर नेता बन गए।
आडवाणी के सलाहकारों की सबसे खास बात यह रही कि वह आडवाणी को बराक ओबामा बनाना चाहते थे। यह लोग अमेरिका के चुनाव प्रचार से इतने प्रभावित हुए कि उसकी नकल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक मजेदार बात ये रही कि चुनाव प्रचार में आडवाणी के प्रचार में उनके परिवार का भी इस्तेमाल किया गया। ठीक वैसे ही, जैसे अमेरिका में राष्ट्रपति के उम्मीदवार करते हैं। इन सलाहकारों ने ये समझाया कि परिवार के साथ दिखने से देश की जनता उन्हें एक पारिवारिक व्यक्ति समझेगी और उनकी कट्टर छवि को धोने का काम करेगी। इन सलाहकारों की समझ की बलिहारी है। वो ये भूल गए कि ये इंडिया है अमेरिका नहीं। यहां का हर आदमी परिवार के साथ ही रहता है। जो परिवार के साथ नहीं रहता है उसे गलत मानते हैं और जो रहता है उसे किसी सर्टिफिकेट जरूरत पड़ती। ये अमेरिका नहीं इसलिये यहां हर चीज के बारे में लोग अपनी राय बना लेते हैं। आडवाणी के साथ उनकी बेटी प्रतिभा को देख कर लोग कहने लगे कि आडवाणी अपनी बेटी को राजनीति में लाना चाह रहे हैं। जैसे कांग्रेस में राहुल गांधी नेता बन गए वैसे आडवाणी की बेटी भी भाजपा में नेता बनेगी। हालांकि ये बात सही नहीं लेकिन जनता है वो अपने हिसाब से सोचती है। यही आडवाणी के सलाहकार नहीं समझ सके।
आडवाणी की छवि बदलने के लिये उनकी बेटी प्रतिभा आडवाणी ने न्यूज चैनलों में इंटर्व्यू भी दिया। हर बार एक बात कही कि आडवाणी नर्मदिल इंसान हैं मीडिया ने उनकी छवि कट्टर और सख्त नेता की बना दी। प्रतिभा की बातों से लगा कि वो ये बातें उन्हीं सलाहकारों के बताए वाक्यों को दोहरा रहीं थी। आडवाणी के पूरे प्रचार में एक समानता ये थी कि इन सलाहकारों ने उन्हें अटल जी की तरह छवि वाले नेता बनाने की कोशिश की लेकिन वे असफल रहे। बेटी उन्हें नर्मदिल इंसान बता रही थी लेकिन उसी इंटर्व्यू के बाद या बीच के ब्रेक में आडवाणी का मजबूत नेता का प्रचार चल रहा था। अब इन सलाहकारों को कौन समझाए कि जिस आडवाणी को देश की जनता जानती है पहचानती है और जैसा देखना चाहती है उस छवि को बदलने की भूल आडवाणी के सारे गुणों को धुमिल कर दिया।
आडवाणी ने वैसे सलाहकारों पर भरोसा किया, जिनकी आस्था न तो पार्टी की विचारधारा के प्रति थी और न ही संगठन के प्रति। इनमें से ज़्यादातर ऐसे लोग हैं जो एनडीए सरकार के दौरान अपनी व्यक्तिगत पसंद या मजबूरी की वजह से बीजेपी के नजदीक आए और अपने तर्क, बुद्धि और ज्ञान की चमक दिखाकर आडवाणी के करीब आ गए। उनके सलाहकारों में सुधींद्र कुलकर्णी, चंदन मित्रा और बलबीर पुंज हैं। संघ और भाजपा में इनकी हैसियत विचारकों की है। इनके अलावा भाजपा महासचिव अरुण जेटली प्रमुख रणनीतिकार की भूमिका में रहे। साथ ही दीपक चोपड़ा, वेंकैया नायडू और अनंत कुमार आडवाणी के नज़दीकी सलाहकार थे।
चंदन मित्र एक अंग्रेज़ी अख़बार के संपादक हैं। आडवाणी के करीबी माने जाते हैं। भाजपा ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया। सांसद बनने के बाद जब से उन्होंने टीवी पर दिखना और बोलना शुरू किया तब से ख़ुद को एक तटस्थ विचारक की तरह पेश करते रहे। भाजपा के बारे में जब वह बोलते थे तो उनके विचार एक राजनीतिक विश्लेषक की तरह होते थे। उनको यह बताने में भी झिझक होती थी कि वह भारतीय जनता पार्टी के नुमाइंदे हैं। यह भारतीय जनता पार्टी में ही हो सकता है कि जिस शख्स को पार्टी का समर्थक बताने में शर्मिंदगी महसूस होती है, वह पार्टी का सलाहकार बना हुआ है। पार्टी के अहम फैसले में वह शामिल है। चुनाव के दौरान की घटना है। इस चुनाव में चंदन मित्र एक चैनल पर बहस करने लगातार जाते रहे। अपनी छवि को धूमिल न करते हुए जितना हो सका उन्होंने भाजपा का बचाव भी किया। उनकी ग़ैरमौजूदगी में इस पैनल में बैठे एक विश्लेषक ने साफ-साफ कहा कि चंदन ने उनसे अनौपचारिक बातचीत में बताया है कि पार्टी की विचारधारा को लेकर वोट जुगाड़ने में काफी परेशानी हो रही है। मोदी और वरुण की वजह से लोग भाजपा से नाराज़ चल रहे हैं। उनका कहना ग़लत नहीं है। वह पत्रकार हैं। अच्छी बहस करते हैं। तर्क देने में उनका जोड़ नहीं है। दुविधा बस यह है कि आडवाणी और बीजेपी को क्या ऐसे सलाहकारों की वाकई ज़रूरत है, जो संगठन की आंतरिक बैठक में कुछ और कहते हैं और बाहर निकलकर कुछ और कहने लगते हैं। शायद आडवाणी की यह मजबूरी होगी कि उनके आसपास रणनीति और योजना बनाने वाला कोई नहीं था। इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी यह तय ही नहीं कर सकी कि उन्हें किस पर भरोसा करना है और किस पर नहीं।
सुधींद्र की तरह चंदन मित्र भी मार्क्सवादी हैं। एनडीए के उत्थान के बाद ही उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का दामन पकड़ा। सेंट स्टीफंस के छात्र रहे चंदन भाजपा के इंडिया शाइन और इस बार के प्रचार के पुरोधा थे। भाजपा के लिए सबसे बड़ी परेशानी रही कि पेशे से पत्रकार रहे ये लोग ख़ुद को स्पिन डाक्टर समझते हैं। चंदन मित्र अब तक ऐसा कोई कमाल नहीं दिखा सके हैं जिसे देखकर यह कहा जा सकता हो कि उनमें राजनीतिक सलाहकार बनने के गुण हैं। फिर भी भाजपा ने उन्हें बीजू जनता दल के साथ गठबंधन को बचाने के लिए भुवनेश्वर भेज दिया। नतीजा वही निकला, जो निकलना तय था। गठबंधन टूट गया। उड़ीसा में भारतीय जनता पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया। पत्रकारों से राजनीति करवाना आडवाणी को महंगा पड़ा। भाजपा की हार की एक बहुत बड़ी वजह ये सलाहकार हैं।
अंत में, इन सलाहकारों के बारे में कहने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं है, बस हिंदी फिल्म के एक गाने की चंद लाइनें याद आती हैं,
माना तूफां के आगे, नहीं चलता ज़ोर किसी का,
मौजों का दोष नहीं है, ये दोष है और किसी का
मझधार में नैया डोले, तो माझी पार लगाए,
माझी जो नाव डुबोए, तो उसे कौन बचाए।