राजनीति में चीज़ों को दिल पर नहीं लेना चाहिए. चुनाव में हार जीत लगी रहती है. भाजपा के ख़िलाफ जनता ने जनादेश दे दिया है. अचरज की बात है कि भाजपा के सबसे बड़े नेता ही अपनी हार नहीं पचा पा रहे हैं. वैसे भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़ी है जहां वह पांच वर्षों पहले थी. उस वक्त भी भाजपा के नेताओं को लग रहा था कि वेे आसानी से चुनाव जीत जाएंगे. जनता ने 2004 मेंइंडिया शाइनिंग को नकार दिया. भारतीय जनता पार्टी ने पराजय से सबक नहीं सीखा. इस बार भी वही गलतियां हुई जो पिछली बार हुई थी. जनता के संकेतों को समझ नहीं पाने की वजह से अपनी खामियों को दूर नहीं कर सके. भाजपा के रणनीतिकार ये समझ नहीं सके कि जनता उन्हें वोट देती है जिन्हें वह अपना समझती है.
अगर कोई सोच ले कि टेलीविजन के जरिए, अखबार के जरिए चुनाव जीता जा सकता है और राजनीतिक दलों को जमीनी कार्यकर्ताओं की जरूरत नहीं है तो परिणाम यही होगा जो बीजेपी के साथ हुआ है. देश की जनता ने इस चुनाव में एक महत्वपूर्ण संकेत दिया कि अगर उनका वोट लेना है तो जमीन पर उतर कर काम करो. जिन दलों के कार्यकर्ताओं और संगठन ने जनता से रिश्ते स्थापित नहीं किए उन्हें हार का सामना करना पड़ा.
कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी से बेहतर तौर पर संगठन के संचालन का परिचय दिया. भाजपा सांगठनिक तौर पर पांच वर्षों तक निष्क्र्रिय रही. सिर्फ चुनाव के दौरान संगठन में सुगबुगाहट होती है. संगठन के महत्व को कांग्रेस ने समझा और पिछले पांच साल तक सरकार चलाने के साथ साथ सोनिया गांधी और राहुल गांधी संगठन को मजबूत करने के लिये देश भर का दौरा करते रहे. युवाओं को राजनीति में अपनी पहचान बनाने का मौका दिया. दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालयों और देश भर में बड़े- बड़े संस्थानों से आए युवाओं और नेताओं ने कांग्रेस की उर्जा बढ़ा दी. दिल्ली विश्वविद्यालयों के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की लगातार हार हुई. संगठन बर्बाद हो गया. ऐसा नहीं है कि संघ और एबीवीपी में अच्छे लोग नहीं है. जो कुछ हैं उन्हें भाजपा प्रत्साहित करने में विफल रही या उन्हें दरकिनार कर दिया गया. भाजपा के कार्यकर्ताओं ने बताया कि अगर यहां राजनीति करनी है तो जेब से भारी और दिमाग से खाली होना अनिवार्य है. यही वजह है कि एक भी अच्छे और पढ़े लिखे छात्र ने विद्यार्थी परिषद से जुड़ना बंद कर दिया. छात्रों का संकेत भाजपा समझ नहीं पाई. नतीजा है कि आज भारतीय जनता पार्टी में युवा नेताओं का अकाल है. जो हैं वे भी विचारधारा की वजह से नहीं, किसी और वजह से हैं. पिछले पांच साल में भारतीय जनता पार्टी में एक भी नया नेता नहीं उभरा. वहीं कांग्रेस के संगठन को मजबूत करने वाले राहुल गांधी ने ये भी निश्चित किया कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में युवाओं को टिकट दिया जाए. आज उनमें से ऐसे कई लोग हैं जो पंद्रहवीं लोकसभा में सांसद चुन कर आए हैं.
भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को शायद इस बात का अंदाजा नहीं है कि उनके कार्यकर्ता कितने नाराज थे. भाजपा मुख्यालय के अंदर बैठे ऐसे कई कार्यकर्ता है जो साफ साफ कहते हैं कि जब से एनडीए की सरकार बनी तब से आजतक भाजपा के कार्यकर्ता के साथ पार्टी ने अनदेखी की. यह बात बहुत कम लोगों को पता है कि सांसदों के पैसे लेकर सवाल पूछने वाले स्टिंग ऑपरेशन के सूत्रधार बाहर के नहीं थे. भाजपा कार्यालय में काम करने वाले पार्टी के कार्यकर्ता थे. इस घटना से कार्यकर्ताओं की नाराजगी का अंदाजा लगाया जा सकता है. इसके अलावा पार्टी के शीर्ष नेताओं की खुली लड़ाई ने भी कार्यकर्ताओं को पार्टी से दूर किया.
इस चुनाव की शुरुआत से ही ये पता था कि इस बार युवाओं की अहम भूमिका होने वाली है. भारतीय जनता पार्टी ने हालांकि अपनी चुनावी तैयारी में इस महत्वपूर्ण विषय पर कोई तैयारी नहीं थी. इस देश के युवाओं ने भारतीय जनता पार्टी का साथ नहीं दिया. भारतीय जनता पार्टी का राहुल गांधी के मुकाबले वरुण गांधी को मैदान में उतारने का पासा भी उलटा पड़ गया. उन्होंने ऐसा बयान दे दिया कि पूरा माहौल ही भाजपा के खिलाफ तैयार हो गया. इसका फायदा कांग्रेस ने उठाया और उत्तर प्रदेश में शानदार प्रदर्शन करने में सफल हुई.
युवा वर्ग भाजपा से इसलिए नाराज था क्योंकि एनडीए की सरकार ने युवाओं के लिये कुछ खास नहीं किया. एनडीए सरकार के दौरान सरकारी नौकरी पर गाज तो गिरी ही, सरकार ने हर प्रतियोगिता परीक्षा में सीटें भी घटा दी. प्रतियोगिता में हिस्सा लेने वाले छात्र भाजपा से नाराज हो गए. यूजीसी के जरिए छात्रों को मिल रही छात्रवृत्ति में भी कटौती हुई. रोजगार के नए अवसर बनाने की जगह हर जगह कटौती का आलम रहा. कांग्रेस ने ठीक इससे उलट काम किया. कालेज और यूनिवर्सिटी में भारी पैमाने पर भर्ती हुई. एम फिल और पीएचडी करने वाले हर छात्रों को कम से कम पांच हजार रुपये देने की योजना पर अमल किया गया. अब भाजपा को यह कौन समझाए कि वोट पाने के लिये सरकार को क्या करना होता है.
भारतीय जनता पार्टी को इस चुनाव में जनता ने बता दिया कि उनके वोट सस्ते नहीं हैं. इस बार भाजपा का चुनाव अभियान जितना दिशाहीन और निर्देश से रहित लग रहा था, वैसा शायद ही पहले कभी रहा. पार्टी कांग्रेस का विरोध तो कर रही थी लेकिन विरोध का आधार ही गलत था. आडवाणी मनमोहन सिंह को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बहस करने के लिये ललकारते रहे. घोषणा पत्र में राम मंदिर, सामान नागरिक संहिता, अनुच्छेद 370 और गोहत्या के मुद्दे को शामिल किया गया, लेकिन अपने भाषणों में एक भी नेता कुछ भी बोलने से मुकरता रहा. देश की जनता को भाजपा की यह चालाकी समझ में आ गई. गौर करने वाली बात यह भी है कि न तो आडवाणी और नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय पुन्रनिर्णाण के बारे पूरे चुनाव के दौरान एक भी शब्द नहीं कहा. ऐसा लग रहा था कि भाजपा के नेता ही अपनी विचारधारा को भुला चुके हैं. विचारधारा को लेकर भारतीय जनता पार्टी में मौजूद भ्रम की स्थिति से दोहरा नुकसान हुआ. जो लोग भाजपा को हिंदुओं की पार्टी समझते हैं, वे ठगे से महसूस करने लगे. संघ और भाजपा के कार्यकर्ता पार्टी से ही नाराज हो गए. उन्हें ये लगा कि पार्टी ने विचारधारा का परित्याग कर दिया है. जो लोग एनडीए के अच्छे कामों की वजह से वोट देने का मन बना रहे थे, वेे घोषणा पत्र में सांप्रदायिक मुद्दे को देख कर नाराज हो गए. उन्हें लगा कि यह पार्टी फिर से देश के माहौल को खराब करने पर आमदा है.
जो पार्टी चुनाव के दौरान एकजुट हो कर रही उन्हें जनता ने विजयी बनाया. जिन पार्टियों में आपसी मतभेद थे जिनके नेता सार्वजनिक तौर पर आपस में लड़ रहे थे, उन्हें जनता ने नकार दिया. भारतीय जनता पार्टी जनता के इस संदेश को समझ नहीं सकी. चुनाव के दौरान ही पार्टी के मुख्य रणनीतिकार अरुण जेटली और भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह उलझ गए. सार्वजनिक तौर पर बयानबाजी होने लगी. सुधांशु मित्तल के सवाल पर अरुण जेटली ने मर्यादा का सवाल उठा कर राजनाथ सिंह को निशाने पर लिया. पार्टी का अंदरुनी झगड़ा सार्वजनिक करके उन्होंने पार्टी को बहुत नुकसान पहुंचा. इस आपसी झगड़े से कार्यकर्ता निराश हो गए और देश की जनता का भाजपा पर से विश्वास उठ गया.
यह किसी के भी समझ के बाहर है कि भारतीय जनता पार्टी ने यह जानते हुए भी कि वह अकेले सरकार नहीं बना सकती है, फिर भी उसने नए सहयोगियों को जुटाना तो दूर पुराने साथियों से भी संबंध तोड़ लिया. प्रचार करने का नकली तरीका अपना कर भाजपा ने रही -सही कसर भी पूरी कर दी. अमेरिका के प्रचार अभियान की नकल कर ये बात साबित कर दी कि पार्टी अब जमीन पर संघर्ष करने में विश्वास नहीं रखती.
फुटबाल के मैच में कभी कभी ऐसा है जब गोलपोस्ट खाली होता है, खिलाड़ी को गोल करने के लिये बॉल को सिर्फ पोस्ट के अंदर डालना होता है, लेकिन वह चूक जाता है. भाजपा ने अपनी गलतियों की वजह से यही कीर्तिमान दो बार स्थापित किया है. भाजपा के लिये चुनाव जीतने की सारी परिस्थितियां थी लेकिन वह हार गई. देश में मंहगाई है, आर्थिक मंदी है, किसान बेहाल हैं, मजदूर परेशान हैं, पीने के पानी की समस्या है, स्वास्थ्य की घालमेल हालत है, आतंकवाद का खतरा है, नक्सलियों की समस्या है लेकिन भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकारों को कुछ भी नजर नहीं आया. चुनाव को मनमोहन सिंह बनाम आडवाणी बनाने की राणनीति बनाकर अपनी हार उन्होंने सुनिश्चित कर ली.
चुनाव में हार और जीत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. अपनी हार से सीखना ही अकलमंदी है. भाजपा में कई अच्छे युवा हैं, जो पढ़े लिखे हैं, प्रतिभावान लोग भी हैं जिन्हें आगे लाने की जरूरत है. भाजपा को विचारधारा और संगठन के प्रति समर्पित कार्यकर्ताओं की जरूरत है. एयरकंडीशन कमरे में बैठकर योजना बनाने वाले नेताओं से पार्टी को बचाना होगा. भाजपा को केंद्र में अगर सरकार बनानी है तो नए चेहरे को आगे लाने की जरूरत है. संगठन और विचारधारा पर नए सिरे से काम करने और विचार करने की जरूरत है. पार्टी के चाल, चरित्र और चिंतन को बेहतर करने की जरूरत है. अगर इस हार के बावजूद भाजपा कुछ सीख नहीं लेती तो अगले चुनाव का परिणाम भी वही होगा जो इस बार है.