एक सच्ची घटना है- कुत्ता क्यों मरा? पंजाब के सबसे क़द्दावर मुख्यमंत्री थे सरदार प्रताप सिंह कैरो. स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ बड़े क़द्दावर नेता थे. एक बार दिल्ली से चंडीगढ़ जा रहे थे. उनके साथ उनके संसदीय सचिव देवीलाल भी थे. सरदार कैरो की गाड़ी तेज़ी से भाग रही थी कि एक कुत्ता बीच में आ गया. कुत्ते की मौत हो गई. सरदार कैरो ने थोड़ी दूर जाकर गाड़ी रुकवाई. सड़क किनारे दो चक्कर लगाए और देवीलाल जी को बुलाया. उन्होंने पूछा, देवीलाल ये बताओ कुत्ता क्यों मरा? का़फी सोचने के बाद देवीलाल ने कहा कि कुत्ते तो मरते रहते हैं, यूं ही मर गया होगा. सरदार प्रताप सिंह कैरो ने फिर पूछा, बताओ कुत्ता क्यों मरा? देवीलाल जी खामोश रहे, फिर कहा कि आप ही बताइये. तब सरदार प्रताप सिंह कैरो ने देवीलाल से कहा कि यह कुत्ता इसलिए मरा, क्योंकि यह फैसला नहीं कर पाया कि सड़क के इस किनारे जाना है या उस किनारे. फैसला न लेने की वजह से वह बीच में खड़ा रह गया. अगर इसने फैसला कर लिया होता तो सड़क के इस किनारे या उस किनारे चला गया होता और बच जाता. फैसला नहीं लेने की वजह से यह कुत्ता मारा गया. देवीलाल को राजनीति का मंत्र मिल गया. उन्होंने जीवन भर इसका पालन किया. वह कभी बीच में नहीं रहे. राजनीति में उन्होंने हमेशा फैसला लिया. हमेशा इधर या उधर खड़े रहे. इसी सीख की वजह से वह देश के उपप्रधानमंत्री भी बने.
आंदोलन की शुरुआत से ही सरकार ने यह सा़फ कर दिया कि अन्ना हजारे जिस तरह का लोकपाल बनाना चाहते हैं, वह उसके पक्ष में नहीं है. सरकार के पक्ष को जानते हुए भी जंतर-मंतर के आंदोलन के पहले और बाद में उन्होंने कई चिट्ठियां लिखीं, लेकिन कोई हल नहीं निकला. हल इसलिए नहीं निकला, क्योंकि सरकार अपनी ज़िद पर अड़ी थी. जंतर-मंतर के आंदोलन के बाद संयुक्त बैठक में जो हुआ उससे भी यह सा़फ हो गया कि सरकार टाल-मटोल कर रही है.
अन्ना की समस्या बिल्कुल यही है. वह फैसला नहीं कर पा रहे हैं कि क्या करें? इधर जाएं या उधर जाएं. वह कभी यात्रा पर निकलने की बात करते हैं, फिर बीच में यात्रा करने का इरादा छोड़ देते हैं. उन्होंने बड़े ज़ोर-शोर से यह ऐलान किया कि संसद सत्र में लोकपाल बिल पास नहीं हुआ तो फिर से आंदोलन करेंगे, फिर अचानक से चुप हो गए. अन्ना तय नहीं कर पा रहे हैं कि आंदोलन करना है या नहीं. सरकार का समर्थन करना है या नहीं. उत्तर प्रदेश में यात्रा करनी है या नहीं. अन्ना हजारे के फैसला नहीं लेने की वजह से भ्रम की स्थिति बनती जा रही है. इस बीच अन्ना का बयान आया कि अगर सरकार मज़बूत लोकपाल बिल लेकर आ जाएगी तो वह कांग्रेस का समर्थन करेंगे और अगर लोकपाल बिल नहीं आया तो वह भारतीय जनता पार्टी का समर्थन करेंगे. अन्ना अब तक यह फैसला नहीं कर पाए हैं कि सरकार का समर्थन करना है या नहीं. अन्ना भंवर में हैं. अब तक उन्हें यह समझ में ही नहीं आया है कि सरकार लोकपाल के साथ क्या करना चाहती है, जबकि यह दिन के उजाले की तरह सा़फ है कि सरकार जन लोकपाल बिल लाने के पक्ष में नहीं है. सवाल यह उठता है कि इस तरह के बयान का क्या मतलब है? क्या अन्ना हजारे की नज़र में जनता की ताक़त का कोई महत्व नहीं है? क्या जनता की ताक़त में उनका भरोसा नहीं है? जो लोग अन्ना हजारे के आंदोलन में शामिल हुए वे न तो कांग्रेस के थे और न ही भारतीय जनता पार्टी के थे. यह आम जनता थी. सरकारी तंत्र में मौजूद भ्रष्टाचार से त्रस्त और नाराज़ जनता थी. तो अब यह कहना कि कांग्रेस का समर्थन कर दूंगा, का क्या मतलब है. क्या अन्ना को लगता है कि वह जिसका समर्थन कर देंगे, वह चुनाव जीत जाएगा या जिसका विरोध करेंगे वह चुनाव हार जाएगा. इससे तो दिग्विजय सिंह की यह दलील सही लगती है कि अन्ना और उनकी टीम को चुनाव लड़ना चाहिए.
अन्ना हजारे को यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि रामलीला मैदान के अनशन से वह कुछ हासिल नहीं कर पाए. इस बात पर ग़ौर करने की ज़रूरत है कि रामलीला मैदान के अनशन से पहले जो जन लोकपाल बिल की स्थिति थी और जो स्थिति आज है, उसमें कोई अंतर नहीं है. अन्ना हजारे को देश भर में जो समर्थन मिला, उसका फायदा टीम अन्ना नहीं उठा सकी. या यूं कहें कि इस अपार जन समर्थन की ताक़त को आंकने में अन्ना हजारे से चूक हो गई.
जब से अन्ना हजारे ने जन लोकपाल के लिए आंदोलन शुरू किया है, तब से लेकर आज तक ऐसे कई मौ़के आए, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अन्ना ठोस फैसले नहीं ले पाते हैं. आंदोलन की शुरुआत से ही सरकार ने यह सा़फ कर दिया कि अन्ना हजारे जिस तरह का लोकपाल बनाना चाहते हैं, वह उसके पक्ष में नहीं है. सरकार के पक्ष को जानते हुए भी जंतर-मंतर के आंदोलन के पहले और बाद में उन्होंने कई चिट्ठियां लिखीं, लेकिन कोई हल नहीं निकला. हल इसलिए नहीं निकला, क्योंकि सरकार अपनी ज़िद पर अड़ी थी. जंतर-मंतर के आंदोलन के बाद संयुक्त बैठक में जो हुआ उससे भी यह सा़फ हो गया कि सरकार टाल-मटोल कर रही है. फिर भी अन्ना हजारे और उनकी टीम यह ठोस फैसला नहीं कर सकी कि सरकार के खिला़फ जाना है या नहीं. इसका नतीजा यह हुआ कि सरकार ने अपनी मनमानी की. मजबूर होकर अन्ना को रामलीला मैदान में अनशन करना पड़ा. इस आंदोलन के दौरान सरकार ने उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया. आंदोलन के लिए जगह देने में कई रुकावटें खड़ी कीं. इतना सबकुछ होने के बावजूद अन्ना यह फैसला नहीं कर सके कि सरकार से किस तरह से लड़ना है. इसका नतीजा यह हुआ कि तेरह दिनों तक चला अन्ना का अनशन सरकार के साथ बातचीत में उलझ कर रह गया.
अन्ना हजारे को यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि रामलीला मैदान के अनशन से वह कुछ हासिल नहीं कर पाए. इस बात पर ग़ौर करने की ज़रूरत है कि रामलीला मैदान के अनशन से पहले जो जन लोकपाल बिल की स्थिति थी और जो स्थिति आज है, उसमें कोई अंतर नहीं है. अन्ना हजारे को देश भर में जो समर्थन मिला, उसका फायदा टीम अन्ना नहीं उठा सकी. या यूं कहें कि इस अपार जन समर्थन की ताक़त को आंकने में अन्ना हजारे से चूक हो गई. अब हालत यह है कि सरकार वैसा ही बिल लेकर आ रही है, जैसा वह पहले लाना चाहती थी. सरकार ने जो मसौदा तैयार किया है, उसमें प्रधानमंत्री लोकपाल के दायरे से बाहर हैं. सरकारी लोकपाल बिल में केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा और केंद्रीय सतर्कता आयोग को लोकपाल से बाहर रखा गया है. सरकार ने निचले स्तर के अधिकारियों को भी लोकपाल के दायरे से बाहर कर दिया. न्यायपालिका में होने वाला भ्रष्टाचार भी लोकपाल के दायरे में नहीं है. सरकार तो अपनी जगह से हिली नहीं, वह जैसा लोकपाल लाने के लिए पहले से तैयार थी, वैसा ही बिल तैयार किया है. तो अब सवाल पूछना लाज़िमी है कि टीम अन्ना को अनशन से क्या हासिल हुआ. प्रधानमंत्री से पटवारी तक लोकपाल के दायरे में हों, यह मांग कहां ग़ायब हो गई.
प्रधानमंत्री लोकपाल के दायरे में हों? इस पर अनशन खत्म करने से पहले समझौता क्यों नहीं हुआ? साधारण सा सवाल है. सरकार का जो लोकपाल बिल है, वह क्या जन लोकपाल बिल है. इस सवाल का साधारण सा जवाब है ही नहीं. इसका मतलब यही है कि अन्ना का पिछला आंदोलन सफल नहीं रहा. अन्ना ने पिछला आंदोलन शुरू किया था, तो यह नारा दिया कि जन लोकपाल बिल पास करो. लेकिन तेरह दिनों के बाद टीम अन्ना ने जन लोकपाल बिल को छोड़ दिया और स़िर्फ तीन मांगों तक सीमित रहकर अनशन तोड़ दिया. इन तीन मांगों में प्रधानमंत्री, न्यायपालिका, सीबीआई, सीवीसी और निचले स्तर के अधिकारी कहां हैं? मामला संसद में चला गया. संसद में बहस हुई, लेकिन किस क़ानून के तहत हुई, यह किसी को पता नहीं है. इस बहस की क़ानून की नज़र में क्या प्रासंगिकता और मान्यता है? राजनीतिक दलों ने इसे सेंस ऑफ द हाउस बताया. लोकसभा की प्रक्रिया के मुताबिक़ इस प्रस्ताव को स्पीकर के समक्ष पेश करना था. क्या इस प्रस्ताव को लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार ने रखा? नहीं, इसे प्रणव मुखर्जी ने रखा. लोकसभा में क्या इन मांगों पर मतदान हुआ? नहीं, सरकार ने पूरी बहस को स्टैंडिग कमेटी के पास भेज दिया. हैरानी की बात तो यह है कि इससे पहले भी अन्ना हजारे स्टैंडिंग कमेटी में अपनी बात कह चुके थे. एक सांसद ने तो जन लोकपाल बिल को ही स्टैंडिंग कमेटी को सौंप दिया. मतलब यह है कि जो सुझाव अनशन के बाद स्टैंडिंग कमेटी को दिया गया, वह स्टैंडिंग कमेटी के पास पहले से ही था. इससे सा़फ पता चलता है कि टीम अन्ना से चूक हुई है. इसे भी स्वीकार करने की ज़रूरत है.
कोई भी आंदोलन दलील से नहीं, बल्कि जनभावना से ब़डा बनता है. जन लोकपाल के मामले में भी यही बात लागू होती है. जनभावना के सहारे अन्ना और उनकी टीम सरकार पर भारी प़ड गई. लेकिन जब बात समझौते तक पहुंची, तब दलील के आगे जनभावना कमज़ोर प़ड गई. लोकपाल बिल पास कराने की जल्दबाज़ी में जो कुछ हुआ, उसमें आम आदमी कहीं नहीं है. उधर, अन्ना भी संशय की स्थिति में हैं. भारत भ्रमण और जन जागरण का उनका कार्यक्रम अब तक अधर में है. दूसरी ओर, वह खुद लोकपाल बिल के भविष्य को लेकर दुविधा में हैं.
जिस व़क्त अन्ना हजारे रामलीला में अनशन कर रहे थे, उस समय देश के हर कोने में अनशन चल रहा था. अन्ना के समर्थन में देश में कहां-कहां आंदोलन हुए, यह तो टीम अन्ना को भी पता नहीं होगा. भारतीय नागरिकों ने तो अमेरिका में भी अनशन किया. गांवों और क़स्बों में जो लोग आंदोलन कर रहे थे, उन्होंने तो आंदोलन से पहले अन्ना का नाम तक नहीं सुना था. फिर भी आंदोलन में शामिल हुए. उनकी नाराज़गी सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के खिला़फ थी. महंगाई, बेरोज़गारी, बिजली आदि समस्याओं से जूझ रहे लोगों को लगा कि इस आंदोलन की वजह से बदलाव आएगा. सबकुछ बदल जाएगा. यही वजह है कि बच्चे, बूढ़े, नौजवान, औरतें, अमीर-ग़रीब, हर जाति और वर्ग के लोगों ने अन्ना हजारे को समर्थन दिया. हर राजनीतिक दल के समर्थकों के साथ-साथ हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सब अन्ना के आंदोलन में थे. ये लोग स़िर्फ जन लोकपाल के लिए अन्ना को समर्थन नहीं दे रहे थे.
अन्ना में लोग गांधी देख रहे थे, जो भारत की तस्वीर बदलने की आशा जगा रहा था. अन्ना के पास यह एक मौका था कि वह इस आंदोलन को स़िर्फ लोकपाल की बजाय व्यवस्था परिवर्तन और सरकारी तंत्र के तौर-तरीक़ों को बदलने का आंदोलन बना सकते थे. लेकिन अन्ना ने लोगों को निराश किया. अनशन के बाद हॉस्पिटल और वहां से वापस अपने गांव जाकर बैठ गए. अगर अन्ना देश की यात्रा पर निकल जाते. हर राज्य में निस्वार्थ रूप से आंदोलन करने वाले युवाओं और जनता से मिलते तो आज सरकार को एक लुंजपुंज लोकपाल क़ानून बनाने की हिम्मत नहीं प़डती. फिर कभी अन्ना को आंदोलन करने की ज़रूरत पड़ती तो उनकी एक आवाज़ पर देश के हर कोने में आंदोलन शुरू हो जाते. वह लोगों की इस ताक़त को समझ नहीं पाए. वह यह नहीं समझ पाए कि लोगों की आकांक्षाओं और सपनों से ज़ुडने के बाद अपनी मर्ज़ी नहीं चलती. जनता की भावनाओं के साथ उन्हें चलना पड़ता है, लेकिन अन्ना हजारे ने ठीक उल्टा किया. जिस तरह सरकार लोगों की भावनाओं का मज़ाक़ उड़ा रही है, वैसा ही अन्ना हजारे कर रहे हैं.
सरकार अन्ना की इस कमज़ोरी को भली-भांति जानती है. यही वजह है कि सरकार एक लुंजपुंज लोकपाल बनाकर अन्ना के आंदोलन को खत्म करना चाहती है. सरकारी बिल में जन लोकपाल बिल के कई मुद्दों को दरकिनार कर दिया गया है. बिल में स़िर्फ उन्हीं मुद्दों को शामिल किया गया है, जिससे सरकार टीवी चैनलों और संसद में बहस के दौरान विपक्ष के सवालों का गोलमोल जवाब दे सके. सरकार जानती है कि लोकपाल बिल पेश करने के साथ ही टीम अन्ना का समर्थन आधा हो जाएगा. अगर ऐसा हुआ तो इसके लिए सरकार के साथ अन्ना हजारे भी ज़िम्मेदार होंगे. सरकार ने टीम अन्ना से निपटने के लिए दूसरे रास्ते भी खोल दिए हैं. सरकार उनके सहयोगियों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर उन्हें बदनाम करना चाहती है. पहले कांग्रेस पार्टी प्रवक्ता मनीष तिवारी ने अन्ना हजारे को भ्रष्ट बताया. शशि भूषण और प्रशांत भूषण के खिला़फ सीडी निकल जाती है. अरविंद केजरीवाल पर जुर्माना लगाया जाता है और किरण बेदी को हवाई स़फर के टिकट के लिए ज़लील किया जाता है. सरकार हर तरी़के से अन्ना हजारे और टीम अन्ना के सदस्यों को परेशान कर रही है. इसके बावजूद टीम अन्ना के सदस्य टेलीविजन कैमरे को देखते ही भ्रम फैलाने वाले बयान दे देते हैं. वे मीडिया के दबाव में आ जाते हैं. उन बातों पर ध्यान देने लग जाते हैं, जिनकी कोई ज़रूरत नहीं होती है. एक तऱफ सरकार एक लुंजपुंज लोकपाल क़ानून ला रही है, तो दूसरी तऱफ अन्ना हजारे और उनकी टीम ऐसे कामों में लगी है, जिसकी ज़रूरत नहीं है. यह समय सरकार पर दबाव देने का है तथा ऐसी योजनाएं बनाने का है कि अगर सरकार अपनी बात पर अडिग रही तो क्या करना होगा.
हैरानी तो इस बात से होती है कि अन्ना हजारे अपनी टीम में पारदर्शिता लाने और संगठन में प्रजातांत्रिक मूल्यों को बढ़ाने के लिए समाज के और लोगों को भी शामिल करने में समय नष्ट कर रहे हैं. लोगों के मन में यह सवाल उठने लगा है कि अगर सरकार मज़बूत लोकपाल क़ानून नहीं लाई, तब क्या होगा. क्या फिर से देश में पहले जैसा आंदोलन खड़ा हो सकेगा? ऐसे महौल में राजनीति और चुनावों पर अन्ना भी चौंकाने वाले बयान दे देते हैं. सरकार देश को गुमराह कर रही है, लेकिन टीम अन्ना भी इसमें पीछे नहीं है. लोकपाल के मुद्दे पर सरकार ने पब्लिक ओपिनियन यानी जनमत का अनादर किया है. संसद में लोकपाल पर हुई चर्चा के दौरान राजनीतिक दलों और सरकार ने लोगों की भावनाओं के साथ मज़ाक़ किया है. सरकार के इस अपराध में अन्ना भी शामिल हैं. प्रजातंत्र में लोकमत सर्वोपरि होता है. देश की जनता भ्रष्टाचार के खिला़फ एक कड़ा क़ानून चाहती है. यही जनमत है. देश की जनता घोटालों, महंगाई, भ्रष्टाचार, कालाधन, बिजली, स्वास्थ्य सेवाओं और रोज़गार की कमी से त्रस्त हो चुकी है. अन्ना ने लोगों में आशा जगाई, इसलिए लोग अन्ना के आंदोलन से जुड़े. देश की आर्थिक स्थिति खराब हो रही है. राजनीति का भी वही हाल है. उत्तर प्रदेश में चुनाव है. कुछ लोग यह मान रहे हैं कि लोकसभा का चुनाव भी ज़्यादा दूर नहीं है. यह व़क्त फैसला लेने का है. अन्ना को यह फैसला लेना है कि भ्रष्टाचार और मज़बूत लोकपाल की लड़ाई में वह कहां खड़े हैं. कुत्ता क्यों मरा-के ज़रिए प्रताप सिंह कैरो ने जो सीख देवीलाल को दी, वही सीख अन्ना हजारे को लेने की ज़रूरत है.