भारतीय जनता पार्टी अब पार्टी विथ डिफरेंस के बजाय पार्टी इन डिलेमा बन गई है. दूसरे दलों से अलग होने का दंभ भरने वाली पार्टी अब असमंजस और विरोधाभास से ग्रसित हो चुकी है. वह भीषण गुटबाज़ी की चपेट में है, जिसकी वजह से पार्टी कार्यकर्ता आम जनता से दूर होते जा रहे हैं और पार्टी के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं में दूरियां बढ़ गई हैं. पार्टी के अंतर्द्वंद्व का हाल यह है कि नेता प्रतिपक्ष का कोई बयान आता है तो पार्टी के दूसरे नेता नाराज़ हो जाते हैं. नेता प्रतिपक्ष और पार्टी अध्यक्ष में महीनों बातचीत ही नहीं होती. अध्यक्ष सबकी राय सुनने के चक्कर में कोई निर्णय नहीं कर पाते. कोई प्रदेश अध्यक्ष कुछ बयान दे देता है तो पूरी पार्टी उसके पीछे लग जाती है. कोई युवा नेता कोई आंदोलन करना चाहता है तो उसे बड़े नेता हाईजैक कर ले जाते हैं. हर नेता दूसरे नेता को ठिकाने लगाने में जुटा हुआ है. जिससे हिसाब चुकाना है, उसे पहले ज़िम्मेदारी दे दी जाती है, फिर पीछे से उसे विफल करने के षड्यंत्र रचे जाते हैं. देश के मुख्य विपक्षी दल का हाल ऐसा है कि उसके कार्यकर्ता पार्टी कार्यालय में बैठकर पार्टी को ही कोसते रहते हैं.
प्रजातंत्र में विपक्ष की पूंजी विश्वसनीयता होती है. विपक्षी पार्टी का चाल, चरित्र और चेहरा ऐसा होना चाहिए, जिससे जनता को यह लगे कि यह वर्तमान सरकार से बेहतर सरकार दे सकती है. सरकार कितनी भी भ्रष्ट हो, अगर देश में त़ेजतर्रार विपक्ष मौजूद रहे तो जनता का सरकारी तंत्र में भरोसा बना रहता है. विपक्ष का काम ही यही है कि वह पांच साल तक जनता के मुद्दों, उनकी परेशानियों और मुश्किलों के लिए लड़े. भारतीय जनता पार्टी विपक्ष की इस ज़िम्मेदारी को ही नहीं समझ सकी. भाजपा अगर भ्रष्टाचार, महंगाई, काला धन और किसानों की ज़मीन को लेकर कोई व्यापक आंदोलन करती तो आज लोगों में निराशा नहीं होती. भारतीय जनता पार्टी की ग़लतियों की वजह से पूरा पॉलिटिकल क्लास ही सवालों के घेरे में आ गया. यह आम धारणा बन गई है कि सरकार भ्रष्ट है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी में क्या चल रहा है, यह आगे पढ़िए…
भारतीय जनता पार्टी की मध्य प्रदेश इकाई के अध्यक्ष प्रभात झा ने एक चिट्ठी लिखी. सही लिखा. यह चिट्ठी राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के नाम थी. इस चिट्ठी में प्रभात झा ने महंगाई को मौत के बराबर बताते हुए इच्छा मृत्यु की मांग की थी. उन्होंने लिखा कि लगातार बढ़ती महंगाई में ज़िंदा रहना मुश्किल हो गया है, लिहाज़ा उन्हें इच्छा मृत्यु की इजाज़त दी जाए, क्योंकि अब उनके सारे रास्ते बंद हो चुके हैं और विरोध का यही तरीक़ा बचता है. प्रभात झा ने दलील दी कि कांग्रेस के गठबंधन वाली सरकार ने 100 दिनों में महंगाई कम करने का भरोसा दिलाया था, मगर सत्ता हासिल करने के सात साल बाद भी महंगाई पर क़ाबू नहीं पाया जा सका, बल्कि महंगाई मौत का पर्याय बन चुकी है. देश के 115 करोड़ लोग महंगाई की मार से जूझ रहे हैं. इतना ही नहीं, उनके लिए यह महंगाई समस्या बन चुकी है और इससे छुटकारा पाने के लिए वह इच्छा मृत्यु चाहते हैं. प्रभात झा ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के अलावा अपनी पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज, राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली को भी चिट्ठी की कॉपी भेज दी. इस चिट्ठी से पॉलिटिकल सर्किल और मीडिया में हंगामा मच गया. अ़खबारों में तरह-तरह की बातें लिखी गईं. किसी ने कहा नौटंकी है, किसी ने कहा ड्रामा है और किसी ने इसे महंगाई के मुद्दे पर पब्लिसिटी बटोरने के लिए नया शिगू़फा बताया. कांग्रेस पार्टी इस चिट्ठी का मज़ाक़ उड़ाए, मीडिया अपने तरीक़े से इसका विश्लेषण करे, यह तो समझ में आता है, लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि प्रभात झा को इस चिट्ठी को लेकर अपनी ही पार्टी में विरोध झेलना पड़ रहा है.
यह देश के प्रजातंत्र के लिए सबसे खतरनाक संकेत है. भारतीय जनता पार्टी चिंतित, भ्रमित, असंगठित, दिशाहीन और बिखरी नज़र आ रही है. नेताओं का ध्यान महंगाई, भ्रष्टाचार, घोटाले, काला धन, लोकपाल जैसे मुद्दों पर नहीं है. आडवाणी के बाद प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा, इसी बात को लेकर भारतीय जनता पार्टी में शीतयुद्ध चल रहा है.
दरअसल, इस चिट्ठी के पीछे एक कहानी है. जब पेट्रोल, डीजल, किरोसिन और रसोई गैस के दाम बढ़ाए गए तो प्रभात झा भावुक हो गए. उन्होंने पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी से बात की. उन्होंने यह इच्छा जताई कि वह राष्ट्रपति के नाम इस तरह की चिट्ठी लिखना चाहते हैं. नितिन गडकरी ने उन्हें अनुमति दे दी, लेकिन चिट्ठी आते ही पार्टी के अंदर हंगामा मच गया. यह चिट्ठी पार्टी के उन नेताओं को चुभ गई, जो दिल्ली मुख्यालय में बैठकर पार्टी की रणनीति तय करते हैं. उन्हें लगा कि प्रभात झा ऐसा करके पब्लिसिटी बटोरना चाहते हैं. 9, अशोक रोड (भाजपा मुख्यालय) की परिपाटी के मुताबिक़ मीडिया को ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग होने लग गई. नेताओं ने संवाददाताओं को यह बताना शुरू किया कि राजनीति करने का यह अच्छा तरीक़ा नहीं है. मीडिया ने इस चिट्ठी का मखौल उड़ा दिया. हालांकि इस बात का कौन जवाब दे कि चिट्ठी में लिखी गई बात सौ फीसदी सच है. देश के 75 फीसदी से ज़्यादा लोगों की आमदनी 40-50 रुपये प्रतिदिन है. उनकी आमदनी का लगभग पूरा हिस्सा ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी भोजन पर खर्च होता है. ऐसे में जब खाने-पीने का सामान महंगा हो जाता है तो देश की यह आबादी क्या करे, कैसे ज़िंदा रहे. पार्टी को प्रभात झा की चिट्ठी का मज़ाक़ बनाने के बजाय उसका समर्थन करना चाहिए था, लेकिन पार्टी ने इस चिट्ठी को ही सेंसर कर दिया. संगठन में यह बात पहुंचा दी गई कि इस चिट्ठी का कहीं भी ज़िक्र नहीं होना चाहिए.
आज देश का हर व्यक्ति भ्रष्टाचार, घोटाले और महंगाई से त्रस्त है. देश एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है, जहां बदलाव अवश्यंभावी है. इतिहास बहुत ही क्रूर होता है, वह किसी को नहीं छोड़ता. इस मंथन में जो तटस्थ रहेगा, वह इतिहास में उपहास का पात्र बनेगा. चुनाव जीतना तो दूर, उसके अस्तित्व के लिए ख़तरा पैदा हो सकता है.
भारतीय जनता पार्टी गृह युद्ध से तो ग्रसित है ही, साथ ही पार्टी में एक परंपरा बनती जा रही है कि जो भी जनता के नज़दीक जाता है, जो जनता के दु:ख-दर्द को बांटने जाता है, जो जनता के मुद्दों को उठाना चाहता है, जो जनता के विश्वास को जीतने की कोशिश करता है, उसे पार्टी में दरकिनार कर दिया जाता है. जितने भी ज़मीनी नेता थे, वे दरकिनार कर दिए गए हैं. जो उभरना चाहते हैं, उन्हें साइड लाइन कर दिया जाता है. प्रभात झा जबसे मध्य प्रदेश इकाई के अध्यक्ष बने हैं, तबसे वह लोगों के बीच घूम-घूमकर काम कर रहे हैं. मुख्यमंत्री से ज़्यादा मीडिया कवरेज प्रभात झा को मिल रहा है. प्रभात झा के रूप में भारतीय जनता पार्टी को एक ज़मीनी स्तर का राष्ट्रीय नेता मिल सकता है. शायद पार्टी को ऐसे नेताओं की ज़रूरत नहीं है, इसलिए उनकी चिट्ठी का मज़ाक़ उड़ा दिया गया. प्रभात झा की चिट्ठी को कोई ड्रामा तो कह सकता है, लेकिन यह कौन झुठला सकता है कि महंगाई ने देश की ग़रीब जनता को मौत के कगार पर खड़ा कर दिया है. इस घटना से पार्टी की मानसिकता समझ में आती है कि क्यों देश के ज्वलंत मुद्दों पर वह स़िर्फ नाम के लिए विरोध प्रदर्शन करती है. पार्टी के रवैये से यह समझ में आता है कि वह किसानों के आंदोलन में खुलकर हिस्सा क्यों नहीं लेती, क्यों महंगाई पर जनता के साथ खड़ी नज़र नहीं आती, भ्रष्टाचार मिटाने के लिए देशव्यापी आंदोलन क्यों नहीं करती और काले धन के मुद्दे पर स़िर्फ टीवी चैनलों पर बहस क्यों करती है? लगता तो यही है कि देश की मुख्य विपक्षी पार्टी जनता से दूरी बनाने में विश्वास करने लगी है. दिल्ली में बैठे नेताओं के पास कार्यकर्ताओं के लिए व़क्त नहीं है और कार्यकर्ता आम जनता के सामने जाते नहीं, क्योंकि उनमें हौसला नहीं बचा है. पार्टी में दम नहीं रहा. इसका परिणाम यह है कि पार्टी ज़मीन से कट गई है.
यह देश के प्रजातंत्र के लिए सबसे खतरनाक संकेत है. भारतीय जनता पार्टी चिंतित, भ्रमित, असंगठित, दिशाहीन और बिखरी नज़र आ रही है. नेताओं का ध्यान महंगाई, भ्रष्टाचार, घोटाले, काला धन, लोकपाल जैसे मुद्दों पर नहीं है. आडवाणी के बाद प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा, इसी बात को लेकर भारतीय जनता पार्टी में शीतयुद्ध चल रहा है. इस युद्ध को चार महत्वपूर्ण घटनाओं से समझा जा सकता है. पहला विवाद सुषमा स्वराज से जुड़ा है, जब उन्होंने सीवीसी पी जे थॉमस की नियुक्ति को लेकर बयान दिया था. दूसरा विवाद महाराष्ट्र के नेता गोपीनाथ मुंडे से जुड़ा है, जब उन्होंने पार्टी छोड़ने की धमकी दी. तीसरा मामला है राजनाथ सिंह को उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रभारी बनाने का और चौथा उमा भारती की वापसी. कुछ समय पीछे चलते हैं, जब भारतीय जनता पार्टी चुनाव हार गई. आडवाणी जी का सपना चकनाचूर हो गया, तब आरएसएस ने कहा कि पार्टी को सर्जरी की ज़रूरत है. इसलिए उसने नितिन गडकरी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया. यह सोचकर बनाया कि पार्टी में विचारधारा को पुन: स्थापित किया जाएगा, गडकरी पार्टी संगठन को मज़बूत करेंगे और पार्टी की अंतर्कलह को खत्म करेंगे. नितिन गडकरी को अध्यक्ष बने अब का़फी समय हो गया है, लेकिन पार्टी में कोई बदलाव नहीं आया. एक ही मुद्दे पर अलग-अलग सदनों में भाजपा का अलग-अलग स्टैंड होता है. यह इसलिए, क्योंकि राज्यसभा और लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली एवं सुषमा स्वराज में अब तक तालमेल नहीं बैठ पाया है. नितिन गडकरी दोनों में सुलह कराने में कामयाब नहीं रहे.
सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के बीच का़फी समय से शीतयुद्ध चल रहा है. दोनों आडवाणी का उत्तराधिकारी बनने की अभिलाषा रखते हैं. अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी की दोस्ती है. यही वजह है कि बिहार चुनाव के दौरान एक बार सुषमा स्वराज ने कह दिया था कि नरेंद्र मोदी का जादू गुजरात में ही चलता है. सुषमा के बयान पर मोदी नाराज़ थे. इस बात को लेकर मोदी ने पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी से भी शिक़ायत की थी. इस विवाद पर न तो आडवाणी कुछ बोले और न नितिन गडकरी. अब स्थिति बदल गई है. नितिन गडकरी अब अरुण जेटली की बात सुनते हैं. इसी वजह से सुषमा स्वराज के खेमे को अब स़िर्फ आडवाणी जी ही सुनते हैं. सुषमा स्वराज ने सीवीसी पी जे थॉमस की नियुक्ति को लेकर यह बयान दिया था कि जब सरकार ने ग़लती मान ली है तो यह मामला अब खत्म हो गया है. अगले ही दिन नितिन गडकरी ने मीडिया को बताया कि वह इस मामले को जनता में लेकर जाएंगे और यह मामला खत्म नहीं हुआ है. वैसे गडकरी या भारतीय जनता पार्टी इस मामले को लेकर जनता में नहीं गए, लेकिन यह संदेश ज़रूर दे दिया गया कि सुषमा स्वराज की बातों की अहमियत पार्टी में नहीं है. गडकरी और सुषमा स्वराज के रिश्ते में खटास है. भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता बताते हैं कि सुषमा स्वराज, अनंत कुमार एवं गोपीनाथ मुंडे का एक अलग कैंप है और नितिन गडकरी, अरुण जेटली एवं उमा भारती का दूसरा खेमा है. इसलिए गोपीनाथ मुंडे का मामला उठा था. उनकी शिकायत यह थी कि उनकी बातों को पार्टी में कोई नहीं सुनता है. सुषमा स्वराज की कमज़ोरी यह है कि उन्हें आरएसएस का समर्थन नहीं है. उन्हें आडवाणी जी के अनुरोध पर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया गया था. गोपीनाथ मुंडे महाराष्ट्र के नेता है, पार्टी के एकमात्र बड़े ओबीसी लीडर हैं. वह स्वर्गीय प्रमोद महाजन के बहनोई भी हैं. प्रमोद महाजन के निधन के बाद पार्टी में उनकी हैसियत में कमी आई है. नितिन गडकरी का कद गोपीनाथ मुंडे से छोटा था, लेकिन अब वह पार्टी अध्यक्ष बन चुके हैं. नितिन गडकरी का महाराष्ट्र की राजनीति में दखल देना स्वाभाविक है. दोनों में शीतयुद्ध चल रहा है. इससे उमा भारती की वापसी का राज समझ में आता है. उमा भारती की वापसी का विरोध शिवराज सिंह चौहान से ज़्यादा सुषमा स्वराज कर रही थीं. अरुण जेटली और नितिन गडकरी ने उमा भारती की वापसी के ज़रिए एक ही तीर से कई निशाने साधे. सुषमा स्वराज और गोपीनाथ मुंडे को साइड लाइन कर दिया गया, क्योंकि पार्टी को उमा भारती के रूप में एक महिला और एक ओबीसी लीडर मिल गया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को खुश कर दिया गया, क्योंकि वह कई महीने से उमा भारती को वापस लेने का दबाव बना रहा था.
उमा भारती की वापसी से जेटली कैंप ने उत्तर प्रदेश में कंफ्यूजन फैला दिया. आडवाणी का उत्तराधिकारी बनने के एक और दावेदार हैं राजनाथ सिंह. बहुत दिनों बाद उत्तर प्रदेश में कलराज मिश्र और राजनाथ सिंह के स्वर मिल रहे थे. राजनाथ सिंह इस कोशिश में थे कि कलराज मिश्र को उत्तर प्रदेश में आगे रखा जाए. इसके पीछे राजनाथ सिंह की यह मंशा हो सकती है कि वह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं, इसलिए राज्यों के चुनाव का ज़िम्मा कलराज मिश्र को देने में कोई आपत्ति नहीं है. अरुण जेटली ने पहले उमा भारती को उत्तर प्रदेश में लगा दिया. कई राज्यस्तरीय नेता नाराज़ हुए, फिर राजनाथ सिंह को चुनाव प्रभारी बना दिया गया. कलराज मिश्र नाराज़ हो गए. उन्होंने हाल में एक इंटरव्यू दिया, जिसमें कहा कि उत्तर प्रदेश की जनता यह जानना चाहती है कि भारतीय जनता पार्टी का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है. अजीबोगरीब स्थिति है. अब उत्तर प्रदेश में तीन-तीन दिग्गज मौजूद हैं तो इगो क्लैश होना स्वाभाविक है. वैसे भी भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकारों को पता है कि उत्तर प्रदेश में मनमुताबिक़ नतीजे आने वाले नहीं हैं. यही अरुण जेटली की रणनीति है कि चुनाव नतीजे आने के बाद राजनाथ सिंह पर हार का ठीकरा फोड़ दिया जाएगा और वह आडवाणी का उत्तराधिकारी बनने की दौड़ से बाहर हो जाएंगे. सुषमा स्वराज और बाकी लोग तो पहले से ही साइड लाइन कर दिए गए हैं.
किसी भी राजनीतिक दल में नेताओं के बीच प्रतियोगिता होना अच्छी बात है. यह प्रतियोगिता सकारात्मक हो तो पार्टी के लिए बेहतर है. इससे दल मज़बूत होता है, लेकिन इसके लिए भी एक समय होता है. आज देश का हर व्यक्ति भ्रष्टाचार, घोटाले और महंगाई से त्रस्त है. देश एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है, जहां बदलाव अवश्यंभावी है. इतिहास बहुत ही क्रूर होता है, वह किसी को नहीं छोड़ता. इस मंथन में जो तटस्थ रहेगा, वह इतिहास में उपहास का पात्र बनेगा. भारतीय जनता पार्टी को यह समझना पड़ेगा कि इस दौर में वह अपनी विश्वसनीयता खो रही है. अगर वह तटस्थ रही तो चुनाव जीतना तो दूर, उसके अस्तित्व के लिए ख़तरा पैदा हो सकता है. कार्यकर्ता पार्टी की तरफ आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं कि कोई बड़ा फैसला होगा और पार्टी देश में बदलाव के लिए कोई बड़ा आंदोलन करेगी. राजनीति को जो भी समझते हैं, उन्हें पता है कि यह जनता के अधिकारों के लिए लड़ने का व़क्त है. किसान, मज़दूर, आदिवासी, अल्पसंख्यक और युवा सभी आंदोलित हैं. भारतीय जनता पार्टी को समझना होगा कि यह व़क्त आपस में लड़ने का नहीं, बल्कि जनता के साथ क़दम से क़दम मिलाकर मैदान में उतरने का है.