जय प्रकाश जी के आंदोलन का स्कोप बड़ा था. वह व्यवस्था परिवर्तन के लिए आंदोलन कर रहे थे. उन्होंने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया था. अन्ना हजारे और जय प्रकाश नारायण में एक बड़ा अंतर यह है कि अन्ना ख़ुद इस आंदोलन के जनक थे. लोकपाल बिल की मांग पर वह ख़ुद अनशन पर बैठ गए. मीडिया ने जब इसे दिखाया तो समर्थन बढ़ने लगा, इंटरनेट के माध्यम से लोग जुड़ने लगे और आंदोलन बड़ा हो गया. जय प्रकाश जी ने स्वयं आंदोलन शुरू नहीं किया.
अन्ना के आंदोलन के दौरान युवाओं को यह कहते पाया गया कि उन्होंने न तो जेपी को देखा और न ही गांधी को देखा, उनके लिए अन्ना हजारे ही गांधी और जय प्रकाश नारायण हैं. इसमें कोई शक़ नहीं है कि अन्ना हजारे ने शहरी युवाओं को जगाया है. आज के संदर्भ में यह एक अनोखी उपलब्धि है. जबसे देश में नव उदारवाद की नीतियां अपनाई गईं, तबसे पढ़े-लिखे युवा अपनी ही उलझन में उलझ गए हैं. आर्थिक नीति ने युवाओं को जीवन के ऐसे चक्रव्यूह में फंसा दिया है कि वे देश और समाज से दूर होते जा रहे हैं. विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति से दूर चले गए हैं. शिक्षा का उद्देश्य नौकरी पाने तक सीमित हो गया है. ज़्यादातर विश्वविद्यालयों में स्टूडेंट यूनियन के चुनाव नहीं होते. राजनीतिक दलों की युवा शाखाएं तो हैं, लेकिन उन्हें राजनीति में बच्चा समझ कर मुख्य धारा से दूर रखा जाता है. यह एक प्रकार की साजिश है, जिसके तहत युवाओं को राजनीतिक और सामाजिक सरोकारों से दूर रखा जाता है. देश की सरकार तो युवाओं को अफीम की गोली खिलाकर सुला देना चाहती है. युवाओं को भविष्य के लिए किस तरह तैयार करना है, सरकार के पास इस बारे में न तो कोई सोच है और न ही कोई योजना. अन्ना हजारे के आंदोलन ने यह सब बदल दिया. कई सालों बाद शहरी युवाओं ने युवा भारत का एक नया चेहरा पेश किया है. इसका समर्थन होना चाहिए. अब देखना यह है कि ये शहरी युवा कब तक जाग्रत अवस्था में रहते हैं. लोकपाल बिल तैयार हो जाएगा, संसद में पास भी हो जाएगा, लेकिन क्या भ्रष्टाचार देश से ख़त्म हो जाएगा? भ्रष्टाचार के ख़िला़फ यह लड़ाई लंबी है. हैरानी की बात यह है कि चार दिनों के आंदोलन को इस तरह से पेश किया जा रहा है कि जैसे देश में कोई क्रांति हो गई.
कुछ लोग अन्ना हजारे की तुलना लोकनायक जय प्रकाश नारायण से करने लगे हैं. इन लोगों को लगता है कि जिस तरह से दिल्ली के जंतर-मंतर में अन्ना हजारे ने लोगों को जमा किया, लोकपाल बिल के मुद्दे पर सरकार को झुकाया, उससे जेपी आंदोलन की याद ताज़ा हो गई. यह बात बिल्कुल सही है कि अन्ना उन शहरी युवाओं को सड़क पर उतारने में कामयाब हुए, जो अब तक सामाजिक और राजनीतिक विषयों को लेकर बेपरवाह थे. पिछले कुछ महीनों से लोग हर दिन एक नए घोटाले की ख़बर सुनकर चिंतित थे. जनता भ्रष्टाचार को लेकर नाराज़ थी. अन्ना हजारे को इस बात के लिए श्रेय मिलना चाहिए कि उन्होंने इस आंदोलन को लोगों की नाराज़गी ज़ाहिर करने का एक ज़रिया बनाया. यह आंदोलन अगर बाबा रामदेव करते या फिर कोई और करता तो मीडिया के कारण उस आंदोलन को भी वैसा ही समर्थन मिलता, जैसा अन्ना हजारे को मिला. जहां तक बात अन्ना हजारे से जय प्रकाश नारायण की तुलना की है तो फर्क़ ज़मीन और आसमान का है. सबसे बड़ा अंतर विचारधारा और लक्ष्य का है. जय प्रकाश नारायण कोई साधारण नेता नहीं थे, वह एक राजनीतिक और सामाजिक विचारक थे. अन्ना विचारक नहीं, एक एक्टिविस्ट हैं. अन्ना हजारे का आंदोलन स़िर्फलोकपाल बिल में सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधियों की हिस्सेदारी तक सीमित है. सरकार ने मांग पूरी कर दी तो आंदोलन भी ख़त्म हो गया. जबकि जय प्रकाश जी किसी एक मुद्दे को लेकर सरकार का विरोध नहीं कर रहे थे.
जय प्रकाश जी के आंदोलन का स्कोप बड़ा था. वह व्यवस्था परिवर्तन के लिए आंदोलन कर रहे थे. उन्होंने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया था. अन्ना हजारे और जय प्रकाश नारायण में एक बड़ा अंतर यह है कि अन्ना ख़ुद इस आंदोलन के जनक थे. लोकपाल बिल की मांग पर वह ख़ुद अनशन पर बैठ गए. मीडिया ने जब इसे दिखाया तो समर्थन बढ़ने लगा, इंटरनेट के माध्यम से लोग जुड़ने लगे और आंदोलन बड़ा हो गया. जय प्रकाश जी ने स्वयं आंदोलन शुरू नहीं किया. छात्र आंदोलित थे, उन्हें लगा कि एक सर्वमान्य नेता की ज़रूरत है तो उन्होंने जेपी को आमंत्रित किया कि वह आएं और उनका नेतृत्व करें. उनके आते ही छात्र आंदोलन का चरित्र बदल गया और वह आज़ाद भारत का सबसे बड़ा आंदोलन बन गया. जय प्रकाश नारायण ने इसलिए आंदोलन का नेतृत्व किया, क्योंकि उन्हें लगता था कि सरकार ग़रीबों के हितों की रक्षा करने में असमर्थ हो गई है. जय प्रकाश नारायण को शहरी युवाओं एवं छात्रों के साथ-साथ मज़दूरों, किसानों और ग्रामीणों का भी समर्थन मिला था. अन्ना हजारे के आंदोलन में स़िर्फ शहरी युवाओं की हिस्सेदारी थी.
उन्होंने जो मुद्दा उठाया, उसका सरोकार शहरी और पढ़ी-लिखी जनता से है. अन्ना पढ़े-लिखे शहरी युवाओं अथवा यूं कहें कि शिक्षित भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे, लेकिन जय प्रकाश जी पढ़े-लिखे शहरी युवाओं के साथ-साथ मज़दूरों, किसानों और ग्रामीणों का नेतृत्व कर रहे थे. अन्ना के साथ शौकिया एक्टिविस्ट थे, वहीं जय प्रकाश नारायण के आंदोलन में शामिल होने वाले लोगों में अनुभवी राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता थे, जिन्होंने अपने-अपने संगठनों और विचारधाराओं को त्याग कर इस आंदोलन में हिस्सा लिया. अन्ना ने नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के बारे में एक बयान क्या दे दिया, आंदोलन में शामिल लोगों ने अन्ना के नेतृत्व पर ही सवाल खड़े कर दिए. अन्ना अपने समर्थकों के वैचारिक मतभेदों की दीवार गिराने में असफल रहे हैं. जय प्रकाश ने तो भूदान और सर्वोदय की बात की. देश के गांवों की रूपरेखा बदलने की ठानी थी. उन्होंने यह काम स़िर्फ सार्वजनिक उन्माद के आधार पर नहीं किया था, बल्कि उनके पास एक विज़न था. उन्होंने गांधी और पश्चिम के आदर्शों को एक सूत्र में पिरो कर गांवों को आधुनिक तकनीक के साथ बदलने की कोशिश की. उन्होंने बिहार के नक्सलियों और चंबल के डाकुओं के बीच भी बहुत काम किया और उन्हीं की वजह से बड़ी संख्या में डाकुओं ने आत्मसमर्पण किया. आज की तरह 1974 में भी महंगाई, बेरोज़गारी, खाद्य पदार्थों की भारी कमी और भ्रष्टाचार ने देश में उथल-पुथल मचा दी थी, लेकिन जेपी ने इन मुद्दों को अपना लक्ष्य नहीं बनाया. पटना में एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, यह एक क्रांति है. हम यहां बस इसलिए नहीं आए हैं कि बस विधानसभा को स्थगित कर दिया जाए. आज हमें संपूर्ण क्रांति चाहिए.
जो लोग अन्ना हजारे की तुलना जय प्रकाश नारायण से करना चाहते हैं, उन्हें यह समझना होगा कि विचारधारा, जनता का समर्थन, नेतृत्व, संगठन शक्ति और लक्ष्य किसी आंदोलन का आधार होता है. हक़ीक़त यह है कि इन पैमानों पर अन्ना हजारे और जय प्रकाश नारायण में कोई समानता ही नहीं है. नई पीढ़ी के लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम नहीं देखा और न ही गांधी को देखा. जब अन्ना हजारे ने आंदोलन शुरू किया तो कई लोग यह कहने लगे कि अन्ना आज के युग के गांधी हैं. महात्मा गांधी राष्ट्रपिता हैं. गांधी को राष्ट्रपिता की उपाधि देने वाले सुभाष चंद्र बोस थे. सुभाष चंद्र बोस को गांधी की वजह से कांग्रेस से बाहर जाना पड़ा था. कांग्रेस से बाहर जाने के बाद ही उन्होंने गांधी को राष्ट्रपिता की उपाधि दी थी. महात्मा गांधी की विचारधारा, राजनीतिक सोच, संगठन शक्ति, लक्ष्य और व्यक्तित्व के सामने देश के बड़े-बड़े इतिहासपुरुष और नेता बौने नज़र आते हैं. उनके आगे विरोधी भी नतमस्तक हो जाते थे. जवाहर लाल नेहरू, पटेल, मौलाना आज़ाद जैसे महापुरुषों का उनसे कई विषयों पर मतभेद रहा, लेकिन उन्होंने अपनी विचारधारा के साथ समझौता नहीं किया. अपने हर आंदोलन में गांधी ने देश के हर वर्ग को अपने साथ लिया. गांधी को सबसे अधिक भरोसा गांव की ग़रीब जनता पर था. गांधी गांव-गांव दौरा और पदयात्रा करते थे. वह गांव की जनता को समझाते थे कि अंग्रेज देश को लूट रहे हैं.
भारत का स्वतंत्रता आंदोलन देश के गांवों से ही निकल कर आया. गांधी का पूरा जीवन सर्वश्रेष्ठ आदर्शों के लिए संघर्ष की किताब है. सबसे पहले गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में एक प्रवासी वक़ील के रूप में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष किया. 1915 में वापसी के बाद उन्होंने भारत में किसानों, कृषि मज़दूरों और शहरी श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए एकजुट किया. 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद गांधी जी ने देश भर में ग़रीबी से राहत दिलाने, महिलाओं के अधिकारों के विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता के निर्माण, आत्मनिर्भरता, छुआछूत के अंत के लिए बहुत से आंदोलन चलाए. इन सबके बीच विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाले स्वराज की प्राप्ति उनका प्रमुख लक्ष्य रहा. गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाए गए नमक कर के विरोध में 1930 में दांडी मार्च और इसके बाद 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन छेड़कर स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया. दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें जेल में रहना पड़ा. गांधी जी की विशेषता यह है कि वह स़िर्फ एक आंदोलनकारी ही नहीं, बल्कि एक राजनीतिक विचारक थे. गांधी जी ने सबसे पहले समझा कि देश का अंग्रेजी तंत्र कैसा है, अंग्रेजी राज का आधार क्या है. गांधी जी ने समझा कि देश को बदलने का तरीक़ा किसी एक या दो मुद्दों पर अंग्रेजी सरकार को घेरना नहीं है. उन्होंने यह दिखाया कि सरकार किस तरीक़े से अपने आप में ही अवैध है, किस तरह सरकार भारतीय लोगों की न होकर ब्रिटेन के लोगों के ़फायदे के लिए यहां राज कर रही है. यह समझने के बाद ही उन्होंने अनशन और असहयोग जैसे कारगर अस्त्र निकाले. गांधी जी यह मानते थे कि देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास की ज़िम्मेदारी स़िर्फ सरकार की ही नहीं, बल्कि लोगों की भी समान ज़िम्मेदारी है. यही वजह है कि जातिगत हिंसा हो या धार्मिक हिंसा अथवा छुआछूत, इन सबसे निपटने के लिए उन्होंने जनांदोलन किया. वह हमेशा इस बात पर जोर देते थे कि जब तक देश के लोगों की सोच और मानसिकता नहीं बदलेगी, क़ानून बनाने से कोई फायदा नहीं होने वाला. यह बात समझनी होगी कि गांधी का जीवन संघर्ष की गाथा है. एक-दो आंदोलन करने से कोई गांधी नहीं होता. किसी मुद्दा विशेष पर आंदोलन करने से कोई गांधी नहीं होता. गांधी होने के लिए गांधी के आदर्शों के साथ-साथ गांधी जैसा विचारक बनना भी ज़रूरी है.
अन्ना हजारे ने देश के शहरी नौजवानों को आंदोलित करके अनोखा काम किया है, लेकिन वह यह नहीं समझ पाए कि आज देश में एक प्रजातंत्र है और प्रजातंत्र में लोगों का सहयोग लेना ज़रूरी होता है. अन्ना के आंदोलन में किसान नहीं थे, मज़दूर नहीं थे, ग़रीब नहीं थे. अन्ना के आंदोलन में अल्पसंख्यक भी नहीं थे. अन्ना ने बस कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं पर ही विश्वास किया है. सच्चाई यही है कि मीडिया और इंटरनेट ने इस आंदोलन का प्रचार-प्रसार करके शहरी युवाओं को सड़क पर ला खड़ा किया. गांधी जी और जय प्रकाश नारायण ने आम जनता को अपने आंदोलन में साथ लिया था. उनके साथ गांव और तहसील में संघर्ष कर रहे सामजिक कार्यकर्ताओं की भीड़ थी, लेकिन अन्ना के आंदोलन में ऐसे लोगों की भारी कमी दिखाई पड़ी. जो सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना के साथ नज़र आए, वे किसी न किसी एनजीओ या फिर निज स्वार्थ के लिए आंदोलन करने वाले प्रोफेशनल थे. अन्ना के आंदोलन का एकमात्र एजेंडा लोकपाल बिल रहा, जो इस आंदोलन के लक्ष्य को बहुत ही सूक्ष्म बनाता था. अगर गांधी जी या जय प्रकाश ऐसे आंदोलन का नेतृत्व कर रहे होते तो वे सरकार के साथ-साथ लोगों के व्यक्तित्व में भी बदलाव की बात करते. वे इस सवाल का जवाब ढूंढते कि भ्रष्टाचार के ख़िला़फ क़ानून होने के बावजूद देश गर्त में कैसे चला गया? गांधी जी और जेपी इस बात पर भी ज़ोर देते कि देश में क़ानून लागू करने वाले ही व्यवस्था को खराब करते हैं और अगर उनका हृदय परिवर्तन नहीं होगा, उनकी मानसिकता नहीं बदलेगी तो कल कोई भी लोकपाल बन जाए, वह भी अपने पद का दुरुपयोग कर सकता है.
आम नेता और ऐतिहासिक नेता में एक ़फर्क़ होता है. गांधी और जय प्रकाश जैसे नेता का आंदोलन समग्र होता था. आंदोलन का वैचारिक आधार होता था और उन आंदोलनों में भविष्य के सवालों का जवाब भी होता था. यही वजह है कि गांधी और जय प्रकाश नारायण को लोग आंदोलन का नेतृत्व करने का आमंत्रण देते थे. राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर महात्मा गांधी अप्रैल 1917 में मोतिहारी आए और उन्होंने नील की खेती से त्रस्त किसानों को उनका अधिकार दिलाया. 1974 में बिहार में आंदोलन हुआ, लेकिन आंदोलन के लक्ष्य और प्रयोजन के विस्तार के लिए लोगों ने जेपी को आमंत्रित किया था. गांधी और जय प्रकाश जहां-जहां गए, जनसैलाब उनके साथ नज़र आया. अन्ना का विरोध बस देश के शहरी लोगों और विश्वविद्यालय के छात्रों तक ही सीमित रहा. देश के छात्रों में भी गांधी जी की ऐसी साख थी कि उन्होंने पढ़े-लिखे, उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों को गांव-गांव जाकर जागरूकता फैलाने का काम दिया और बख़ूबी कराया. लेकिन अन्ना के छात्र बस धरने पर बैठे टीवी पर भाषण दे रहे थे. उनमें से कितनों को अन्ना गांव जाने के लिए तैयार कर पाते, यह सोचनीय विषय है. अन्ना गांधी नहीं हैं, अन्ना जय प्रकाश नहीं हैं. अन्ना स़िर्फ अन्ना हजारे हैं.
वैसे जितने कम समय में इस आंदोलन ने ऊंचाई हासिल की, उतने ही व़क्त में अन्ना हजारे का आंदोलन अब थमने भी लगा है. आंदोलन में दरार भी नज़र आने लगी है. जो लोग कल तक अन्ना हजारे का समर्थन कर रहे थे, अब अन्ना के ख़िला़फ बयान दे रहे हैं. अन्ना हजारे ने मोदी के बारे में एक बयान क्या दिया, मेधा पाटेकर, अरुणा राय और मल्लिका साराभाई समेत कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और सहयोगियों ने अन्ना के विचारों और नेतृत्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया. इस विरोध को नज़रअंदाज़ तो नहीं किया जा सकता. विचारधारा की शून्यता किसी भी आंदोलन को दिशाहीनता की स्थिति में पहुंचा देती है.