अन्ना को किसी ने धोखा नहीं दिया, बल्कि अन्ना ने देश की जनता के साथ धोखा किया है. वह लोगों में आशा जगाकर खुद मैदान से भाग खड़े हुए. अन्ना के जिस आर्थिक मसौदे का समर्थन ममता बनर्जी ने किया था, वह भारत के विकास में ग़रीबों, मज़दूरों, दलितों एवं अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी का एजेंडा था. भाषण देना अलग बात है, लेकिन सीधे तौर पर बाज़ारवाद को चैलेंज करना किसी भी पार्टी के वश की बात नहीं है. अन्ना के ऐलान पर ममता बनर्जी ने वह हिम्मत दिखाई. अन्ना ने टीवी पर प्रचार किया. देश भर के कई संगठनों ने इस आर्थिक नीति का स्वागत किया. देश की राजनीति एक नए मोड़ पर खड़ी थी, लेकिन समाजसेवी के भेष में छिपे राजनीतिक दलों के दलालों, विदेशी धन पर पलने वाले आंदोलनकारियों एवं एनजीओ के चक्कर में अन्ना फंस गए. समाजवादियों के भेष में बाज़ारवाद के दलालों ने ऐसी घुट्टी पिलाई कि अन्ना मैदान से ऐसे भागे कि खुद की साख पर तो बट्टा लगाया ही, साथ ही ममता बनर्जी का भारी नुक़सान कर गए.
अन्ना हजारे कुछ दिनों पहले तक ममता बनर्जी के समर्थन में टीवी पर प्रचार करते नज़र आ रहे थे. अचानक ऐसा क्या हो गया कि अन्ना और ममता के बीच रिश्ते ख़त्म हो गए. दरअसल, यह बात सामने आ गई कि ममता बनर्जी की पार्टी उत्तर प्रदेश और बिहार में 50 मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा करने वाली है. इनमें कई ऐसे थे, जो मंत्री रह चुके हैं, सांसद रह चुके हैं और कई एक-दो बार विधायक रह चुके हैं. रणनीति यह थी कि पार्टी मुसलमानों को ज़्यादा से ज़्यादा टिकट देकर और मुसलमानों के लिए एक नीतिगत एजेंडा लेकर मैदान में उतरती, अन्ना एवं उनके समर्थक हर चुनाव क्षेत्र में प्रचार करते और मुसलमानों को झांसा देने वाली पार्टियों को बेनकाब करते. यह ख़बर बाहर आते ही उन राजनीतिक दलों के कान खड़े हो गए, जिनकी राजनीति मुसलमानों को ठग कर वोट लेने की है. इस ख़तरे से निपटने के लिए इन राजनीतिक दलों ने अपने एजेंटों को तैयार किया और फौरन अन्ना के पास रवाना किया. योजना यह तैयार हुई कि अगर अन्ना को ममता से अलग कर दिया जाए, तो ममता की राजनीति बंगाल के बाहर ख़त्म हो जाएगी. ममता के लिए बंगाल का चुनाव ज़्यादा महत्वपूर्ण है, इसलिए वह बंगाल के बाहर न तो चुनाव प्रचार कर पाएंगी और जब अन्ना भी नहीं होंगे, तो तृणमूल को न तो उम्मीदवार मिलेगा और न ही वह 50 मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा कर पाएगी. समझना यह है कि ममता और अन्ना के साथ आने से क्या होता और दूसरे यह कि वे कौन लोग थे, जो दोनों को अलग करना चाहते थे.
अन्ना और ममता किसी के कहने पर साथ नहीं आए. न ही किसी ने बीच में बातों को इधर-उधर किया, न किसी ने अन्ना को धोखा दिया और न ही किसी ने ममता को धोखा दिया. दरअसल, अन्ना कांग्रेस, वाममोर्चा और आम आदमी पार्टी के दलालों के धोखे में आ गए. अन्ना और ममता के साथ आने की कहानी तब शुरू हुई, जब छह-सात महीने पहले अन्ना ने सभी दलों को एक पत्र लिखा, जिसमें 17 सूत्रीय आर्थिक कार्यक्रम था. उन्होंने लिखा था कि उनके कार्यकर्ता पूछ रहे हैं कि लोकसभा के चुनाव में क्या करें. इसलिए उन्होंने एक एजेंडा तैयार किया और सबको भेज दिया. किसी पार्टी ने पलट कर जवाब नहीं दिया, स़िर्फ ममता बनर्जी ने दिया. फिर ममता बनर्जी ने मुकुल राय को अन्ना के पास भेजा. अन्ना पार्टी के प्रचार के लिए राजी हो गए. अन्ना ने कहा कि देश इतना बड़ा है, हर जगह कैसे प्रचार होगा, तो एक हवाई जहाज और हेलिकॉप्टर बुक करने की बातें हुईं. फिर अन्ना ने शर्तें रखीं कि वह पार्टी का प्रचार तब करेंगे, जब उसके प्रत्याशी स्टैम्प पेपर पर हलफनामा देंगे कि वे अन्ना के एजेंडे को लागू करेंगे. उत्तर भारत के हर टिकटार्थी ने वह हलफनामा दिया है. टीवी पर जो विज्ञापन आया, उसकी शूटिंग मुंबई में हुई. अन्ना ने हर शॉट को खुद ही तय किया, उसे देखा और टेक रिटेक किया. फिर यह अन्ना का ही सुझाव था कि दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली की जाए. इस रैली का नाम जनतंत्र रैली रखा गया. यह टीएमसी की चुनावी रैली नहीं थी, क्योंकि अभी तक तो उम्मीदवार भी तय नहीं हुए थे. अन्ना को हवाई जहाज से दिल्ली लाया गया. वह रैली में शामिल होने आए थे, लेकिन अचानक वह पलट गए और उन्होंने रैली में शामिल होने से मना कर दिया. आइए, सबसे पहले यह समझते हैं कि अन्ना और ममता के गठजोड़ की वजह से उत्तर भारत का राजनीतिक परिदृश्य कैसा होता.
जबसे अन्ना और ममता का विज्ञापन टीवी पर दिखने लगा, कई पार्टियों में खलबली मच गई. खलबली मचने की कई वजहें और भी थीं. सबसे पहला झटका इमाम बुखारी ने दिया, जब उन्होंने ऐलान कर दिया कि ममता प्रधानमंत्री पद के लिए मुसलमानों की सबसे पहली पसंद हैं. कई मुस्लिम संगठनों और मौलानाओं ने तृणमूल की पहल का स्वागत किया. बंगाल में ममता को मुसलमानों का एकतरफ़ा समर्थन है. अन्ना की वजह से ममता बंगाल में 35 सीटें जीत सकती थीं, इसलिए बंगाल को लेकर वाममोर्चा और कांग्रेस चिंतित हो गए. इसके अलावा तृणमूल कांग्रेस ने बिहार और बंगाल में ज़्यादा से ज़्यादा मुसलमानों को टिकट देने की रणनीति बनाई. कहने का मतलब यह कि बिहार के 40 में से 20 उम्मीदवार मुसलमान होते. उत्तर प्रदेश में 80 सीटों में से 30 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारने की तैयारी थी. साथ ही डॉ. अयूब की पीस पार्टी से भी समझौता हो चुका था. डुमरियागंज में अन्ना और ममता बनर्जी की एक रैली की तैयारी शुरू हो चुकी थी. तृणमूल कांग्रेस ने दिल्ली में सभी 7 सीटों पर मजबूत उम्मीदवार खड़ा करने का मन बना लिया था. आम आदमी पार्टी से निष्कासित विधायक विनय कुमार बिन्नी का पूर्वी दिल्ली से उम्मीदवार बनना भी तय हो चुका था. अन्ना की वजह से दिल्ली में आम आदमी पार्टी से नाराज़ लोग तृणमूल में शामिल हो रहे थे. चंडीगढ़, गुड़गांव, गाजियाबाद एवं हिसार की पूरी की पूरी आम आदमी पार्टी तृणमूल में शामिल होने को तैयार थी. दिल्ली में तृणमूल कांग्रेस का दफ्तर आम आदमी पार्टी से नाराज़ अन्ना समर्थकों का केंद्र बन चुका था. इस गठजोड़ की धमक दूसरे राज्यों में भी सुनाई पड़ने लगी थी. झारखंड में जदयू के सारे पदाधिकारी एवं नेता पार्टी छोड़कर तृणमूल में शामिल होने को तैयार हो गए थे. बिहार में कांग्रेस एवं लोक जनशक्ति पार्टी के कई वरिष्ठ नेता तृणमूल से चुनाव लड़ने के लिए अपना आवेदन कर चुके थे. कांग्रेस, जदयू, राजद एवं झारखंड विकास पार्टी समेत कई दलों के वर्तमान सांसद अपनी पार्टी छोड़कर ममता के साथ आने की तैयारी कर रहे थे. तृणमूल कांग्रेस की स्ट्रेटजी यह थी कि लोकसभा के साथ-साथ उन राज्यों में पार्टी संगठन को तैयार किया जाए, जहां 2014 एवं 2015 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. दिल्ली का हाल तो यह था कि कई लोगों ने विधानसभा चुनाव के लिए फॉर्म भरना शुरू कर दिया था, क्योंकि तृणमूल कांग्रेस ने लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा चुनाव की भी तैयारी शुरू कर दी थी. दिल्ली के 70 में से 55 विधानसभा क्षेत्रों में तृणमूल कांग्रेस के दफ्तर भी खुल चुके थे. इसके अलावा उत्तर भारत के 30 से ज़्यादा शहरों में तृणमूल कांग्रेस के दफ्तर खोलने की तैयारी पूरी हो चुकी थी. एक ऐसा माहौल तैयार हो रहा था, जिससे कई राजनीतिक दलों का चुनावी अंकगणित और बीजगणित चौपट हो जाता, लेकिन अन्ना ने अचानक ऐसी पलटी मारी, जिससे बाज़ारवाद को मजबूत करने वाली शक्तियां जीत गईं और तृणमूल कांग्रेस का विजय रथ पटरी से उतर गया.
अन्ना और ममता के साथ आने से सबसे बड़ा चुनावी नुक़सान कांग्रेस पार्टी को होने वाला था. बंगाल में कांग्रेस पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाती. बिहार में तृणमूल कांग्रेस सभी 40 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही थी, जिनमें 20 से ज़्यादा मुस्लिम उम्मीदवार थे. पार्टी पहले चरण के चुनाव के लिए छह लोकसभा क्षेत्रों में से जहानाबाद, औरंगाबाद, नवादा एवं नालंदा से मुस्लिम उम्मीदवारों को फाइनल कर चुकी थी. अगर ऐसा होता, तो लालू यादव और कांग्रेस के गठबंधन को मुसलमानों का समर्थन नहीं मिलता. कांग्रेस और लालू यादव जो कुछ 8-10 सीटें जीतने वाले थे, वे भी हाथ से निकल गई होतीं. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी पिछली बार मुस्लिम वोटों की मदद से 22 सीटें जीतने में कामयाब रही थी, लेकिन जिस तरह से कांग्रेस ने पिछले विधानसभा चुनाव में आरक्षण का धोखा देकर वोट ठगने का प्रयास किया था, उस चालाकी को मुसलमानों ने पकड़ लिया. इस वजह से कांग्रेस पार्टी को इस बार मुस्लिम वोट मिलने की संभावना नहीं है. उधर, मुजफ्फरनगर के दंगों की वजह से मुसलमान समाजवादी पार्टी से भी नाराज़ हैं, इसलिए पीस पार्टी के साथ मिलकर ममता बनर्जी मुसलमानों का विश्वास जीतने में कामयाब हो सकती थीं. ऐसा इसलिए भी संभव था, क्योंकि अन्ना के 17 सूत्रीय एजेंडे में मुसलमानों के लिए आरक्षण की बात साफ़-साफ़ लिखी गई थी और तृणमूल कांग्रेस 30-35 मुस्लिम उम्मीदवार भी मैदान में उतार रही थी. बिहार और उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक मतदाताओं के बीच तृणमूल कांग्रेस की साख मजबूत होने में ज़्यादा वक्त भी नहीं लगता. बिहार और उत्तर प्रदेश में ममता-अन्ना की जोड़ी कितनी सीटें जीतती, यह तो कहना मुश्किल है, लेकिन वह कांग्रेस, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, मायावती और नीतीश कुमार के लिए परेशानी का सबब ज़रूर बन जाती और कई सीटें उनके हाथ से बाहर निकल जातीं. यह बात और है कि ममता और अन्ना हजारे के एक साथ होने का सबसे ज़्यादा फ़ायदा भारतीय जनता पार्टी को होता. भारतीय जनता पार्टी को ममता और अन्ना की जोड़ी से नुक़सान उत्तराखंड में होने वाला था, क्योंकि यहां से भाजपा के कई पूर्व मंत्री, सांसद एवं विधायक तृणमूल कांग्रेस के संपर्क में थे. उन्हें केवल भाजपा के टिकट ऐलान का इंतजार था. टिकट न मिलने की स्थिति में उन्होंने तृणमूल से चुनाव लड़ने का मन बना लिया था. साथ ही उत्तराखंड की क्षेत्रीय पार्टी यूकेडी के एक घटक के विलय होने की बात चल रही थी, लेकिन यह सब होता, उससे पहले ही अन्ना अपने वादों से पलट गए.
ममता बनर्जी और अन्ना हजारे के साथ आने से सबसे ज़्यादा परेशानी आम आदमी पार्टी की बढ़ जाती. एक तो अन्ना के साथ आने से आम आदमी पार्टी एवं अरविंद केजरीवाल का एजेंडा ही हाथ से निकल जाता और दूसरी तरफ़ ममता की सादगी, त्याग एवं ईमानदारी के सामने अरविंद केजरीवाल बौने नज़र आते. अरविंद केजरीवाल के बर्ताव, पार्टी की विचारधारा, भाई-भतीजावाद, टिकट वितरण में गड़बड़ी और आम आदमी पार्टी के राष्ट्र विरोधी चरित्र की वजह से जितने भी लोग नाराज़ हैं, उनके लिए तृणमूल कांग्रेस सबसे बढ़िया विकल्प बन चुकी थी. अन्ना के आंदोलन से जुड़े आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए तृणमूल ने अपना दरवाजा खोल रखा था. तृणमूल कांग्रेस ने दिल्ली की सभी 7 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने का मन बना लिया था. इन उम्मीदवारों में आम आदमी पार्टी से बगावत करने वाले विनय कुमार बिन्नी भी थे. कहने का मतलब यह कि दिल्ली के कई इलाकों के आम आदमी पार्टी के पदाधिकारी एवं कार्यकर्ता तृणमूल में शामिल होने के लिए बेताब थे. अगर अन्ना ने ममता का साथ दिया होता, तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी की ताकत आधी हो जाती. यहां भी स्थिति कमोबेश यही होती कि तृणमूल कांग्रेस चुनाव नहीं जीतती, लेकिन आम आदमी पार्टी भी एक सीट नहीं जीत पाती. दिल्ली में भी फ़ायदा भाजपा का होता. कहने का मतलब यह है कि ममता और अन्ना के साथ आने से कांग्रेस पार्टी और सेकुलर राजनीति करने वाली कई पार्टियों को जोर का झटका लगने वाला था, यही बात कई लोगों को खटकने लगी थी. इसलिए एक साजिश की रचना हुई, एक पटकथा लिखी गई, समाजसेवियों के भेष में छुपे शॉर्प शूटरों को तैयार कर अन्ना को निशाने पर लिया गया और साजिश सफल हो गई.
अब आपको बताते हैं कि ख़तरे की घंटी कहां बजी. तृणमूल कांग्रेस ने अन्ना के सहयोगी एवं किसान नेता बिनोद सिंह को नेशनल कैंपेन कमेटी का संयोजक बनाया था. उन्हें अन्ना की जनतंत्र यात्रा के मध्य प्रदेश के संयोजक डॉ. सुनीलम का फोन आया. डॉ. सुनीलम का परिचय यह है कि वह मध्य प्रदेश के भूतपूर्व विधायक हैं. वह पहले समाजवादी पार्टी में थे, लेकिन उन्हें वामपंथी पार्टियों की हार की चिंता सताती है. फिलहाल वह आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए प्रचार कर रहे हैं. वह एनजीओ चलाते हैं, साथ ही आंदोलन भी करते हैं और उनके बच्चे विदेश में पढ़ते हैं. अदालत उन्हें एक किसान आंदोलन के दौरान भड़की हिंसा के लिए उम्रकैद की सजा सुना चुकी है. वह जमानत पर बाहर हैं. डॉ. सुनीलम खुद को समाजवादी कहते हैं, लेकिन जरा उनके काम को देखिए. समाजवादी चिंतक डॉ. सुनीलम ने अन्ना का आर्थिक मसौदा नहीं पढ़ा, लेकिन अन्ना-ममता के गठजोड़ से वह इतने बौखला गए कि उन्होंने बिनोद सिंह को फोन करके कहा कि यह तो बड़ा गलत हो जाएगा, बंगाल में वामपंथी पार्टियां साफ़ हो जाएंगी और देश में वामपंथ को बड़ा नुक़सान हो जाएगा. अब यह तो डॉ. सुनीलम ही बता सकते हैं कि उन्होंने किसके कहने पर फोन किया और किस वजह से उनमें इतने साहस का संचार हुआ कि वह तृणमूल कांग्रेस की नेशनल कैंपेन कमेटी के संयोजक को ही झांसा देने में लग गए. यह तो डॉ. सुनीलम ही बता सकते हैं कि वह अन्ना से किसके एजेंट बनकर मिले और किसे धोखा दे रहे थे. डॉ. सुनीलम अन्ना की उस दुर्भाग्यपूर्ण प्रेस कांफ्रेंस में उनके साथ स्टेज पर थे.
अन्ना द्वारा ममता बनर्जी के समर्थन के ख़तरे को समझाने वाले ऐसे भी लोग थे, जिनके जीवन की एक ही पूंजी है कि वे टीवी पर अन्ना समर्थक बनकर ज्ञान बांटते हैं. इनमें ज़्यादातर लोग ऐसे हैं, जो आंदोलन के नाम पर, समाजसेवा के नाम पर चंदा इकट्ठा करते हैं या फिर सरकारी धन में उलट-फेर करके जीवनयापन करते हैं. कहने का मतलब यह है कि ये लोग कांग्रेस के रहमोकरम पर जीते हैं. इनमें से एक महिला जो टीवी पर नज़र आती हैं, वह खेल से जुड़ी हुई हैं. उन्हें सरकार की ओर से घर और दफ्तर मिला हुआ है. खिलाड़ियों के लिए जो सामान आता है, उसे वह लोगों में बेच देती हैं. कुछ एनजीओ वाले ऐसे हैं, जो कांग्रेस पार्टी के नेताओं के घर चक्कर काटते हैं और समाजसेवा के नाम पर जो धन मिलता है, उसे चट कर जाते हैं. इन लोगों ने एड़ी-चोटी का जोर लगाकर अन्ना और ममता में दूरियां पैदा करने के लिए कहानियां सुनाईं.
अन्ना को बहकाने वालों में कुछ तो ऐसे महापुरुष हैं, जो सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की आरती उतारने में कई घाघ कांग्रेसियों को भी पीछे छोड़ देते हैं. एक तो महापुरुष ऐसे हैं, जो 2009 में कांग्रेस की जीत को गंगा मैया की कृपा बताते हैं. उनका मानना यह है कि कांग्रेस पार्टी ने गंगा के लिए इतना कुछ किया, जिससे गंगा मैया खुश हो गईं और गंगा किनारे की ज़्यादातर सीटें कांग्रेस के पास चली गईं. वहीं उत्तराखंड में भाजपा ने गंगा पर बांध बनवाए, इसलिए वह उत्तराखंड में एक भी सीट नहीं जीत सकी. देश का राजनीतिक और चुनावी विश्लेषण करने वालों को ऐसे महापुरुष से कोचिंग लेनी चाहिए. कांग्रेस ने गंगा के नाम पर केवल इतना किया कि इस महापुरुष को गंगा सेवा अभियान में पदाधिकारी बना दिया.
अन्ना पलट गए. अन्ना वापस रालेगण सिद्धि पहुंच गए, लेकिन वह अपने पीछे खुद को ठगा महसूस करने वाले कार्यकर्ताओं को छोड़ गए, जिन्हें अब समझ में नहीं आ रहा है कि वे क्या करें और किधर जाएं?