अचानक ऐसी क्या बात हो गई कि टीम अन्ना और अन्ना के बीच मतभेद सामने आ गए, ऐसा क्या हो गया कि अन्ना इतने नाराज़ हो गए कि उन्होंने अरविंद केजरीवाल और टीम अन्ना के लोगों से कहा कि न तो आप मेरे नाम का और न मेरे फोटो का इस्तेमाल कर सकते हैं. इसमें दो बातें हैं. राजनीतिक दल बनाने की घोषणा जंतर-मंतर के आंदोलन के दौरान नहीं हुई थी. भूख हड़ताल के प्रति सरकार और कांग्रेस पार्टी बिल्कुल असंवेदनशील हो गई. बातचीत के रास्ते खत्म हो गए. अनशन कर रहे आंदोलनकारियों की तबियत बिगड़ने लगी थी. जब कोई रास्ता नहीं दिख रहा था, तब देश के कुछ बड़े-बड़े लोगों ने एक चिट्ठी तैयार की, जिसके जरिए यह अनुरोध किया गया कि आप इन-इन चीजों को ध्यान में रखते हुए अनशन वापस ले लें, जिस पर अनशन वापस ले लिया गया. उसके तहत पॉलिटिकल पार्टी की बात नहीं थी, पॉलिटिकल अल्टरनेटिव की बात थी. मतलब यह कि एक राजनीतिक विकल्प तैयार होना चाहिए, लेकिन सवाल यह था कि वह राजनीतिक विकल्प क्या हो? पॉलिटिकल पार्टी के रूप में हो, कोई एक ऐसा सिविल सोसायटी का जत्था, कोई ग्रुप बने, जो किसी राजनीतिक दल का समर्थन करे, क्योंकि पॉलिटिकल अल्टरनेटिव एक बड़ा ही उलझाने वाला और विस्तीर्ण शब्द है, जिसके कई मतलब निकाले जा सकते हैं.
पॉलिटिकल अल्टरनेटिव की ज़रूरत क्यों है, अन्ना के विरोध का मतलब क्या है और आगे क्या होगा, यह समझना ज़रूरी है. जिस दिन यह फैसला लिया गया कि आंदोलन रोककर हम एक राजनीतिक विकल्प की तलाश करेंगे, उस दिन मीडिया ने यह घोषणा कर दी कि टीम अन्ना अब एक राजनीतिक दल बनाएगी. जंतर-मंतर पर इंडिया अगेंस्ट करप्शन के कार्यकर्ताओं को भी लगा कि अब यह आंदोलन राजनीतिक दल में तब्दील होने वाला है. अचानक जंतर-मंतर पर बवाल मच गया. वहां अंधेरा था, टीवी चैनलों के संवाददाता बहुत कम थे और जो थे, उन्हें समझ में नहीं आया कि क्या हो रहा है. इंडिया अगेंस्ट करप्शन के कई कार्यकर्ता आगबबूला थे. वे राजनीतिक दल बनाने के फैसले का विरोध कर रहे थे. कई कार्यकर्ताओं ने अपना बैच, आइडेंटिटी कार्ड और टीशर्ट आदि फेंकना शुरू कर दिया. जंतर- मंतर में ऐसे नाराज़ लोगों की संख्या 100 से ज़्यादा थी. उन्होंने कहा कि हम इस आंदोलन में पॉलिटिकल अल्टरनेटिव तैयार करने के लिए नहीं शामिल हुए. इंडिया अगेंस्ट करप्शन का पूरा संगठन वैचारिक तौर पर बीच से टूट गया. युवा कार्यकर्ताओं को लगा कि भ्रष्टाचार खत्म करने का सही रास्ता स़िर्फ आंदोलन है. उधर टीवी चैनलों पर लगातार लोगों की राय ली जा रही थी कि क्या अन्ना हजारे को राजनीतिक दल बनाना चाहिए या नहीं. हर चैनल की पोलिंग यही बता रही थी कि बिना राजनीतिक दल बनाए भ्रष्टाचार खत्म नहीं किया जा सकता है. वैसे सच्चाई यह भी है कि टीम अन्ना ने राजनीतिक दल बनाने का फैसला आंदोलन शुरू होने से पहले ही कर लिया था और जिसकी घोषणा अनशन के दौरान होनी थी.
अन्ना हजारे और टीम अन्ना-अलग क्या हुए कि उनके विरोधियों को लगा कि उन्होंने महाभारत जीत ली. कांग्रेस पार्टी के कई नेताओं ने तो यहां तक कह दिया कि अन्ना को अब अक्ल आई है, क्योंकि अरविंद केजरीवाल और उनके साथी उनका इस्तेमाल कर रहे थे. कुछ ने यह भी कहा कि टीम अन्ना के सदस्य पहले ही राजनीति कर रहे थे और आंदोलन का यह नाटक स़िर्फ सांसद बनने के लिए किया जा रहा था. क्या अन्ना हजारे के अलग होने से भ्रष्टाचार के खिला़फ आंदोलन खत्म हो गया, क्या टीम अन्ना का राजनीतिक दल बनाना एक भूल है?
राजनीतिक दल बनाने के मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल और टीम अन्ना की सोच बहुत सा़फ और सही है. अगर इस देश में भ्रष्टाचार खत्म करना है, लोकपाल बनाना है, ट्रांसपेरेसी यानी सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाना है, तो इसकी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी से उम्मीद नहीं की जा सकती है. अगर अधिकारियों की जवाबदेही तय करनी है और सरकारी तंत्र को जनता के प्रति संवेदनशील बनाना है, तो संसद में अच्छे लोगों की ज़रूरत पड़ेगी. अगर देश में ग़रीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों एवं आदिवासियों की बात सुनने वाली सरकार और उनके विकास के लिए नीतियां बनानी हैं तो राजनीतिक दल की ज़रूरत पड़ेगी. अगर इस तरह के बदलाव के लिए लोग सड़क पर आते हैं तो वे सड़क पर आते ही रह जाएंगे, क्योंकि वर्तमान में सरकार बनाने वाले राजनीतिक दल सुधरने वाले नहीं हैं. यह बिल्कुल सही बात है, क्योंकि इन राजनीतिक दलों पर चुनाव, पैसे, चापलूसी और पैरवी का बोझ होता है. इसके बिना इनका काम नहीं चलता है. ये चुनाव से पहले हर उद्योगपति से भीख मांगते हैं कि पैसा दो, क्योंकि इन्होंने देश के अंदर एक ऐसा सिस्टम बना लिया है कि अगर आप करोड़ों ख़र्च नहीं कर सकते तो चुनाव नहीं जीत सकते. अगर इस सिस्टम को बदलना है तो बदलाव संसद से होगा. संसद में अच्छे लोग जाएं तो वहां से यह खेल शुरू होगा. अरविंद केजरीवाल और टीम अन्ना की यह सोच बिल्कुल सही है, लेकिन अन्ना हजारे की राय टीम अन्ना की राय से अलग है. दरअसल, अन्ना हजारे एक सच्चे गांधीवादी हैं, एक सच्चे आंदोलनकारी हैं. उन्हें लगता है किसी भी प्रजातंत्र में जनता सर्वोपरि है, इसलिए जनता के आंदोलन के सामने सरकार को झुकना ही पड़ेगा और जनता के दबाव में राजनीतिक दलों को चाल, चरित्र और चेहरा बदलना पड़ेगा. अन्ना हजारे को जनता की इस ताकत पर भरोसा है और अब तक वह आंदोलन करते हुए कई बार सरकारों को झुकाने में कामयाब रहे हैं.
अचानक से उनके सामने एक ऐसी स्थिति पैदा हो गई, जहां उनका आंदोलन एक राजनीतिक पार्टी में तब्दील होने जा रहा था. जिस तरह गांधी ने अपने सिद्धांत के लिए कई आंदोलनों को बीच में ही रोक दिया था, वैसी ही स्थिति अन्ना के सामने खड़ी हुई. आंदोलन किया जाए या राजनीतिक दल चलाया जाए, यही सवाल उनके सामने था. अन्ना का फैसला आंदोलन के पक्ष में होगा, यह पहले से ही तय था. अन्ना का मानना है कि एक राजनीतिक लड़ाई आंदोलन से हटकर लड़नी चाहिए. यही वजह है कि वह राजनीतिक दल बनाने वाले अपने अनुयायियों से अलग हो गए. इंडिया अगेंस्ट करप्शन से, अन्ना के आंदोलन से युवाओं में आशा जगी. उन्हें लगा कि आंदोलन के जरिए देश में बदलाव आ सकता है. देश भर के युवा और आम जनता अन्ना के आंदोलन से ज़ुड़ गए. अन्ना के समर्थकों में ऐसे लोगों की संख्या ज़्यादा है, जो राजनीति को घृणा की दृष्टि से देखते हैं. इसलिए अगर टीम अन्ना राजनीतिक दल में परिवर्तित हो जाती तो ऐसे लोग, जो देश में आंदोलन करना चाहते हैं, आवाज़ उठाना चाहते हैं, उनके लिए फिर कोई जगह नहीं बचती. सच्चाई यह है कि भ्रष्टाचार के खिला़फ मजबूत आंदोलन जारी रहे, यही वक्त की मांग है और साथ ही एक राजनीतिक विकल्प तैयार होना भी ज़रूरी है. इसलिए जो आंदोलन कर रहे हैं, वे भी सही कर रहे हैं, वे अन्ना के साथ हो जाएंगे और वे लोग, जो इस बात में यकीन करते हैं कि बिना पॉलिटिकल पार्टी के, बिना पॉलिटिकल अल्टरनेटिव के, संसद में अच्छे लोगों को भेजे बिना समाधान नहीं निकल सकता, उनके लिए टीम अन्ना काम करेगी. सारे मीडिया ने कहा कि टीम अन्ना टूट गई, खत्म हो गई, टीम अन्ना को तो चुनाव ही लड़ना था, लेकिन यह ग़लत विश्लेषण है. सबसे बड़ी बात यह नज़र आ रही है कि भ्रष्टाचार के खिला़फ जो आंदोलन इस देश में तैयार हुआ है, उसमें यह फूट एक्सीलेटर का काम करेगी. इसे आंदोलन के विस्तार के रूप में देखना चाहिए. चिराग भी जलेगा, मतदान भी होगा और यही आंदोलनकारी संसद के अंदर बैठकर नीतियां भी बनाएंगे.
एक खबर आई कि बाबा रामदेव, अन्ना हजारे एवं जनरल वी के सिंह की मुलाकात किसी जगह पर हुई और अगर ये तीनों इस आंदोलन को आगे बढ़ाते हैं तो इस देश के लिए इससे अच्छी खबर आज की तारीख़ में कोई और नहीं हो सकती. लोकपाल, काला धन और संस्थागत भ्रष्टाचार के खिला़फ जनजागरण में इन तीनों का बड़ा योगदान है. इसलिए ये तीनों बदलाव के आंदोलन के नेचुरल लीडर हैं. इनके पास वे नैतिक अधिकार हैं, जिनसे लोगों में विश्वास जगता है. इसलिए इन तीनों का एक साथ आना बहुत बड़ी बात है और हिंदुस्तान के लिए इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता. ये तीनों एक साथ आएं और देश में लूट-खसोट करने वाले तंत्र, मंत्रियों एवं नौकरशाही को बेनक़ाब करें. इस पूरे लूट तंत्र को एक प्रो-पीपुल, ग़रीबों के प्रति संवेदना रखने वाले सिस्टम के रूप में तब्दील करें, ऐसी उम्मीद करनी चाहिए. कुछ नकारात्मक बातें मीडिया में फैलाई जा रही हैं कि टीम टूट गई, अन्ना अलग हो गए, रामदेव भी अलग हो गए, आंदोलन खत्म हो गया, वगैरह-वगैरह. ऐसे लोगों को एक बात पता नहीं है कि जनता जब तक खुद को ठगा हुआ महसूस करेगी, जब तक उसे लगेगा कि टैक्स के नाम पर सरकार लूट रही है, जब तक उसे लगेगा कि देश में भ्रष्टाचार है, यह देश लोगों को ग़ुलाम बनाकर रख रहा है, जब तक वह महंगाई से जूझेगी, तब तक आंदोलन खत्म नहीं होंगे. आंदोलन चलेंगे और ज़्यादा मजबूती से चलेंगे.
आज अन्ना अलग हुए हैं, तो कल जुड़ भी सकते हैं. यह आंदोलन है. कांग्रेस पार्टी जब आज़ादी की लड़ाई लड़ रही थी, उस दौरान बहुत सारे लोग बाहर हो गए थे. सुभाष चंद्र बोस ने आंदोलन छोड़ दिया था, महात्मा गांधी रूठकर घर बैठ जाते थे, पार्टी की बात नहीं मानते थे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सब कुछ खत्म हो गया था. इसका उस नज़रिए से विश्लेषण करने की ज़रूरत है. बात बहुत साधारण है, यह देश संकट के दौर से गुज़र रहा है और जब तक यह संकट है, तब तक आंदोलन है. नेता पैदा होंगे, संकट में ही समाज में परिवर्तन होता है. दूसरी बात यह है कि राजनीतिक दल, जो राज्य में सरकार चला रहे हैं और केंद्र में भी, उनके पास मौका है इन सच्चाइयों को समझने का, इनके अनुसार नीतियां अपनाने का. लेकिन वे ठीक इसके विपरीत कर रहे हैं.
आज अन्ना अलग हुए हैं, कल जुड़ भी सकते हैं. यह आंदोलन है. कांग्रेस पार्टी जब आज़ादी की लड़ाई लड़ रही थी, उस दौरान बहुत सारे लोग बाहर हो गए थे. सुभाष चंद्र बोस ने आंदोलन छोड़ दिया था, महात्मा गांधी रूठकर घर बैठ जाते थे, पार्टी की बात नहीं मानते थे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सब कुछ खत्म हो गया था. इसका उस नज़रिए से विश्लेषण करने की ज़रूरत है. बात बहुत साधारण है, यह देश संकट के दौर से गुज़र रहा है और जब तक यह संकट है, तब तक आंदोलन है. नेता पैदा होंगे, संकट में ही समाज में परिवर्तन होता है. दूसरी बात यह है कि राजनीतिक दल, जो राज्य में सरकार चला रहे हैं और केंद्र में भी, उनके पास मौक़ा है इन सच्चाइयों को समझने का, इनके अनुसार नीतियां अपनाने का. लेकिन वे ठीक इसके विपरीत कर रहे हैं. एक अपवाद है. हमें ममता बनर्जी को सलाम करना चाहिए, क्योंकि वह एक आशा जगाती हैं कि आज भी देश में राजनीति करने वालों में ऐसे लोग हैं, जो सिद्धांत के लिए, विचारधारा के लिए, जनता के हक के लिए लड़ सकते हैं, एफडीआई, रसोई गैस में कमी या महंगाई के खिला़फ. ऐसे राजनीतिक दल बहुत कम हैं, जो जनता का दर्द अपने साथ लेकर 6-6 मंत्रालयों को ठोकर मार दें. यह बताता है कि आने वाले दिनों में परिवर्तन तय है, भ्रष्टाचार खत्म होना भी तय है. इसमें कितना वक्त लगेगा, नहीं पता, लेकिन एक संकेत जो ममता बनर्जी ने दिया है, वह सकारात्मक है. आने वाले दिनों में राजनीतिक माहौल भी इस देश में बदलेगा. इसलिए जो लोग पारदर्शी हैं, जो ग़रीबों, अल्पसंख्यकों एवं आदिवासियों के लिए खड़े हो रहे हैं, वह चाहे अरविंद केजरीवाल हों, अन्ना हजारे हों, जनरल वी के सिंह हों या रामदेव, उनका इस देश में स्वागत होना चाहिए.