2014 लोकसभा चुनाव ने भारतीय राजनीति के कई मिथकों को तोड़ा है. सर्वे कराने वाली देश के सारी एजेंसियां फेल हो गईं. विश्लेषकों की भविष्यवाणी झूठी साबित हुई. टीवी चैनलों पर चुनाव से पहले दिखाए गए आकलन और विश्लेषण को फिर से दिखाया जाए, तो देश के सभी चुनावी विश्लेेषकों की फ़जीहत हो जाए. पूर्वाग्रह कहें या अक्षमता, लेकिन हक़ीक़त यह है कि उन महान पत्रकार को भी वास्तविकता की भनक नहीं लगी, जो जगह-जगह जाकर रिपोर्टिंग कर रहे थे. विचारकों, विश्लेषकों और पत्रकारों की बातें व्यक्तिगत होती हैं. यह उनका विश्लेषण, उनकी धारणा और उनका अनुमान होता है. लेकिन चुनाव नतीजे अनुमान नहीं होते. यह हक़ीक़त बताता है. और हक़ीक़त यह है कि देश के युवाओं ने राजनीति का खेल बदल दिया है. वो लोग जो अबतक राजनीति से दूर रहते थे और वोट देने नहीं जाते थे, उन्होंने राजनीति के महान रणनीतिकारों और विश्लेषकों को झूठा साबित कर दिया.
2014 के चुनाव ने कई मिथकों को तोड़ा भी है. सबसे पहला मिथक कि भारत में अब किसी भी पार्टी को लोकसभा में बहुमत नहीं मिल सकता. यह माना जा रहा था कि भारत की राजनीति में क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ रहा है. लेकिन देश की जनता ने इस चुनाव में राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया है. एक-दो राज्यों को छोड़कर लोगों ने राष्ट्रीय दलों को वोट दिया है. एक और मिथक यह था कि अगर कोई पार्टी बहुमत लाने में कामयाब भी हुई, तो वो सिर्फ कांग्रेस पार्टी है. भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा में बहुमत मिलेगा, यह तो किसी ने सोचा भी नहीं था, क्योंकि इस दलील के पीछे एक मिथक था कि बीजेपी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी नहीं है. यह स़िर्फ उत्तर भारत की पार्टी है. चार-पांच राज्यों के बाहर इस पार्टी की कोई साख नहीं है. नरेंद्र मोदी ने इस मिथक को भी तोड़ दिया. भारतीय जनता पार्टी तमिलनाडु में भी सीट जीतने में कामयाब हुई. जम्मू-कश्मीर में 6 में से 3 सीट जीतने में कामयाब हुई. यहां स़िर्फ सीट ही नहीं जीती, बल्कि सबसे ज्यादा वोट भी लेकर आई. उत्तर-पूर्व भारत में इस बार भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. इन सात छोटे-छोटे राज्यों में 21 सीटों में 12 सीटों पर एनडीए को सफलता मिली, जिसमें 7 सीटें बीजेपी की है. वहीं उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत में बीजेपी विपक्षी पार्टियों का सूपड़ा साफ करने में कामयाब हो गई. सवाल यह है कि ऐसी क्या बात है कि 2014 में अचानक से राजनीति के सारे विद्वान चारों खाने चित हो गए.
2014 के चुनाव में ऐतिहासिक मतदान हुआ. इस बार 66 फ़ीसदी लोग घर से बाहर आए और अपना फैसला सुनाया. सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि वो कौन लोग हैं, जिनकी वजह से लोकसभा चुनाव में औसतन 10 फ़ीसदी मतदान में इजाफ़ा हुआ. इसका उत्तर आसान है. ये लोग वो हैं जो पहले वोट नहीं दिया करते थे. इसमें हर वर्ग और जाति के वैसे लोग जो मतदान के दिन घर बैठे रहते थे. इसमें ज्यादातर युवा, महिलाएं और पहली बार वोट देने वाले भी शामिल हैं. कहने का मतलब कि ये लोग नॉन-कमिटेड यानी गैर-प्रतिबद्धित मतदाता हैं. ये किसी वोट बैंक का हिस्सा नहीं रहे. ये किसी पार्टी के कैडर नहीं है. इनकी राय अबतक किसी चुनाव नतीजे में नहीं आई थी. अब तक भारत में औसतन 55 फ़ीसदी मतदान होता रहा और पार्टियां जातीय समीकरण से चुनाव जीतती रही हैं. उन राज्यों में जहां चुनाव में वोटिंग 55 फ़ीसदी या उससे कम होती है, वहां जातीय समीकरण के जरिए नतीजों को तो समझा जा सकता है. उसका विश्लेषण किया जा सकता है. विश्लेषकों ने चुनावी विश्लेषण को जातीय समीकरण का विश्लेषण बना दिया. जो पुराने विश्लेषक थे, उन्होंने नए विश्लेषक तैयार किए जिनके पास भी चुनाव के एनालाइज करने के लिए स़िर्फ जाति नाम का टूल ही रहा. यही वजह है कि मीडिया में चुनाव की जो भी बात होती है, वह जाति समीकरण में आकर फंस जाती है. यही ग़लती राजनीतिक दलों ने भी किया. चुनाव को जाति के बीच का झगड़ा बना दिया. लेकिन जैसे ही मतदान 60 फ़ीसदी से ऊपर चला जाता है, तो चुनाव की सारी एनालिसिस बेकार हो जाती है. सर्वे झूठे हो जाते हैं. यही वजह है कि बिहार विधानसभा चुनाव हो या फिर उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव, वोटिंग 60 फ़ीसदी के पार गई और देश के सारे विश्लेषक और सर्वे धाराशायी हो गए. यही ग़लती राजस्थान, मध्यप्रदेश में हुई. जाति की पट्टी बांधे विश्लेषक और राजनीतिक दल एकतरफा जनमत को भी पहचानने में चूक गए. इन सब जगहों पर जो नतीजे आए, वो ऐतिहासिक थे. नीतीश कुमार, अखिलेश यादव, शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे सिंधिया ने ऐतिहासिक जीत दर्ज़ कर मुख्यमंत्री बने, लेकिन किसी को भनक नहीं लगी. आख़िर ऐसा क्यों होता है कि जनमत को पहचानने में विश्लेषक चूक कर देते हैं.
यह माना जाता है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी यादवों की पार्टी है. बिहार में लालू प्रसाद यादव की पार्टी यादवों की पार्टी है. नीतीश कुमार कुर्मी और कोइरी जाति के नेता हैं. दलितों की नेता मायावती हैं. लेकिन इसका मतलब क्या है. क्या 100 फ़ीसदी यादव मुलायम सिंह को वोट देते हैं. क्या बिहार के सारे यादव लालू यादव को वोट देते हैं. इसका जवाब है नहीं. समझने वाली बात यह है कि हम ऐसे किसी पार्टी का उदाहरण लेते हैं, तो इसका मतलब यह है कि उस जाति विशेष में बहुमत का समर्थन है. यह समर्थन 40 से 60 फ़ीसदी तक हो सकता है. इससे ज्यादा नहीं. कहने का मतलब यह है कि अगर लालू यादव को यादवों का पूरा समर्थन है, तो इसका मतलब है कि ज्यादा से ज्यादा 60 फ़ीसदी यादव लालू के साथ हैं. यानी लालू के इतने कमिटेड यादव वोटर (प्रतिबद्ध) मतदाता हैं. इससे यह भी पता चलता है कि बाक़ी 40 फ़ीसदी यादव मतदाता नॉन-कमिटेड यानी गैर-प्रतिबद्ध मतदाता हैं. ये कहां और किसे समर्थन दे रहे हैं, यह पता नहीं होता है. प्रतिबद्ध मतदाता की ख़ासियत यह है कि वे चुनाव में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं और हर बार वोट देने जाते हैं. ध्यान देने वाली बात ये भी है कि जब वोटिंग 50 फ़ीसदी के आसपास होती है, तो इसका मतलब है कि कुल मतदान में प्रतिबद्ध मतदाताओं की संख्या ज्यादा है. इसलिए जातीय समीकरण का विश्लेषण करके चुनाव नतीजे का आंकलन व भविष्यवाणी की जा सकती है. लेकिन जैसे ही यह मतदान 60 फ़ीसदी से ज्यादा हो जाता है, तो इसका मतलब यह है कि गैर-प्रतिबद्ध मतदाताओं की संख्या ज्यादा है. फिर, जातीय समीकरण धाराशायी हो जाते हैं. इस बार लोकसभा चुनाव में तो 66 फ़ीसदी मतदान हुआ. इसलिए जातीय समीकरण नश्तेनाबूद हो गया. चुनाव का ़फैसला गैर-प्रतिबद्ध मतदाताओं ने भारी संख्या में वोट देकर सभी सर्वे और विश्लेषकों को झूठा साबित कर दिया.
बिहार और उत्तर प्रदेश का चुनाव सबसे जटिल होता है और यही दो राज्य हैं, जहां जातिगत राजनीति सबसे ज्यादा होती है. इन्हीं दो राज्यों के उदाहरण से समझते हैं कि चुनाव के नतीजे ऐसे क्यों आए. सबसे पहले बिहार की बात करते हैं. बिहार के नतीजों ने भी सभी को चौंका दिया. बिहार में एनडीए को 31 सीटें आई. लालू यादव की पार्टी भी स़िर्फ चार सीट ही जीत पाई, जबकि उनके परिवार के सारे लोग हार गए. नीतीश कुमार की पार्टी को भी स़िर्फ 2 सीटें मिली. दो सीट कांग्रेस ने हासिल की और एक सीट एनसीपी के तारिक अनवर जीतने में कामयाब हुए. जबकि यह अनुमान लगाया जा रहा था कि लालू यादव के जेल जाने की वजह से यादव एकजुट हो गए. लालू यादव का यादव वोट बैंक एक बार फिर से उनके साथ आ गया है. विधानसभा चुनाव में लालू यादव को यादवों का पूरा समर्थन नहीं मिला था. टीवी चैनलों पर विश्लेषकों ने यह भी बताया कि मुसलमान तो उन्हीं उम्मीदवारों को वोट देंगे, जो बीजेपी के उम्मीदवार को हरा दे. मुस्लिम मतदाताओं ने बीजेपी को हराने के लिए यूपीए को वोट भी दिया और इसबार मुसलमान 2009 के मुक़ाबले ज्यादा संख्या में वोट देने निकले. चुनाव से पहले यह बताया गया कि बिहार में लालू यादव की वापसी होगी. वेे 20 से ज्यादा सीटें जीतेंगे, क्योंकि लालू यादव का मुस्लिम-यादव गठजोड़ फिर से एकजुट हो गया है. लेकिन जब नतीजे आए तो सारी भविष्यवाणियां बेकार साबित हुईं. आख़िर ऐसा क्या हुआ कि बिहार का सारी जातीय समीकरण फेल हो गया.
चुनाव के बाद किए गए एक सर्वे से इसे समझा जा सकता है. यह सर्वे इंडिया टुडे और सिसरो एजेंसी ने किया है. इस सर्वे के मुताबिक़ पिछले लोकसभा चुनाव यानी 2009 में यूपीए को, यानी लालू यादव की पार्टी और कांग्रेस को 55 फ़ीसदी वोट मिले थे. समझने वाली बात यह है कि 2009 में भी मुस्लिम-यादव वोट वैंक एकजुट ही था. वहीं, 2009 में एनडीए को 7 फ़ीसदी और जदयू को 16 फ़ीसदी वोट मिले थे. लेकिन 2014 लोकसभा चुनाव में यादवों का 60 फ़ीसदी वोट यूपीए के खाते में आया. पांच फ़ीसदी यादव वोटों का इज़ाफा हुआ. लेकिन बीजेपी को 2014 में 24 फ़ीसदी यादव वोट मिले. बीजेपी के यादव वोटों में 17 फ़ीसदी का इज़ाफा हुआ. अब ज़रा मुस्लिम वोट के पैटर्न को देखते हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में यूपीए यानी कांग्रेस और लालू यादव की पार्टी को 51 फ़ीसदी वोट मिले थे. बीजेपी को 4 फ़ीसदी वहीं जदयू को 19 फ़ीसदी मुसलमानों ने वोट दिया था. समझने वाली बात है कि पिछले चुनाव में बीजेपी जदयू के साथ गठबंधन में थी, इसलिए मुसमलानो का 4 फ़ीसदी वोट मिला. लेकिन 2014 में यूपीए को 58 फ़ीसदी मुसलमानों ने वोट दिए. यह पिछली बार से 7 फीसदी ज्यादा है. वहीं जदयू को पिछली बार से 2 फ़ीसदी कम यानी स़िर्फ 17 फ़ीसदी मुस्लिम वोट मिले. मतलब यह कि नीतीश कुमार जब बीजेपी के साथ थे, तब उन्हें मुसमलानों का ज्यादा समर्थन मिला था.
नीतीश कुमार कुर्मी और कोइरी जाति के नेता माने जाते हैं. इस सर्वे में एक और महत्वपूर्ण बात सामने आई है कि नीतीश कुमार को 2009 और 2014 में कुर्मी और कोईरी का वोट लगभग एक जैसा ही मिला है. 2009 में 45 फ़ीसदी और 2014 में 46 फ़ीसदी, लेकिन बीजेपी को यहां भी बढ़त मिली है. इस बार एनडीए को कुर्मी और कोइरी जाति का 37 फ़ीसदी वोट मिला, जबकि 2009 में स़िर्फ 27 फ़ीसदी वोट मिला था. यहां समझने वाली बात यह है कि ज्यादातर मुसलमान और यादव के प्रतिबद्ध मतदाता होते हैं. वे हर चुनाव में भारी मतदान करते हैं. इसलिए जो औसतन 10 फ़ीसदी की बढ़त हुई, वह ग़ैर-प्रतिबद्ध मतदाताओं की वजह से हुई. इसलिए एनडीए के खाते में कुर्मी और कोइरी के वोटों में इज़ाफा हो गया. यादवों का 24 फ़ीसदी वोट एनडीए के खाते में चला गया और तो और 8 फ़ीसदी मुसलमान मतदाताओं ने भी एनडीए को वोट दिया. इसका मतलब यही है कि युवा मुस्लिम मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दिया. यही वजह है कि लालू के मुस्लिम-यादव गठजोड़ मजबूत होने के बावजूद बीजेपी चुनाव जीतने में कामयाब रही. उत्तर प्रदेश में भी बिहार की तरह गैर-प्रतिबद्ध मतदाताओं ने जाति का प्रभाव निष्क्रिय कर दिया. सबसे ज्यादा आश्चर्य मायावती की बहुजन समाज पार्टी के प्रदर्शन से हुआ. कई विश्लेषक मुज़फ्फरनगर दंगे और चुनाव से पहले मायावती के सबसे ज्यादा सीट जीतने का दावा कर रहे थे. उनकी दलील थी कि समाजवादी पार्टी की सरकार का रुख़ दंगों के दौरान ऐसा रहा, जिससे मुसलमान मुलायम सिंह यादव को वोट नहीं देंगे. कांग्रेस की हालत ख़राब है, तो बीजेपी को हराने के लिए लोग बीएसपी को ही वोट देंगे. इनकी दलील थी कि अगर मुसलमान और दलित एक साथ हो जाएं, तो सबकी छुट्टी हो जाएगी. अपने दावों को सही ठहराने के लिए ये ज़ोेर देकर कहते रहे कि कुछ भी हो जाए, मायावती का वोटर टस से मस नहीं होते, उन पर किसी लहर का असर नहीं होता. जब नतीजे आए तो ये सारी दलीलें खोखली साबित हुईं.
मायावती एक भी सीट नहीं जीत पाईर्ं. ग़ाज़ियाबाद का उदाहरण बहुत सटीक है. यहां चार दिग्गज चुनाव लड़ रहे थे. भारतीय जनता पार्टी से जनरल वीके सिंह, कांग्रेस से राज बब्बर, बहुजन समाज पार्टी से मुकुल उपाध्याय और आम आदमी पार्टी से शाज़िया इल्मी. चुनाव के शुरुआत से ही बीजेपी में काफी उठापटक हो रही थी. जनरल वीके सिंह का विरोध बीजेपी के कार्यकर्ता कर रहे थे. बताया गया कि राजपूत नाराज़ हैं, त्यागी नाराज़ हैं और वे एक बाहरी उम्मीदवार हैं. वहीं, राजबब्बर के खाते में पंजाबी वोट, मुस्लिम और दादरी आंदोलन की वजह से उन्हें ग्रामीण क्षेत्र में वोट मिलने के आसार थे. मुकुल उपाध्याय के बारे में कहा गया कि वे दलितों, उत्तराखंड के निवासियों और ब्राह्मण वोट की वजह से चुनाव जीत जाएंगे. आम आदमी पार्टी की शाज़िया इल्मी के बारे में भी यही सोच थी. विश्लेषक बता रहे थे कि चूंकि ग़ाज़ियाबाद दिल्ली से सटा हुआ है, तो आम आदमी पार्टी का असर ज़रूर दिखेगा. दूसरी दलील यह कि आम आदमी पार्टी के मुख्य कार्यालय ग़ाज़ियाबाद में है और पूरे आंदोलन का संचालन यहीं से हुआ, तो शाज़िया को इसका फ़ायदा मिलेगा. इन चारों के अलावा समाजवादी पार्टी का भी उम्मीदवार मैदान में था. जब नतीजा आया तो पता चला कि जनरल वीके सिंह रिकॉर्ड वोट से जीत गए और बाक़ी सभी लोगों की ज़मानत ज़ब्त हो गई. अब सवाल तो यह उठना ही चाहिए दिल्ली में बैठे सारे विश्लेषक, सर्वे एजेंसियां और पत्रकारों को वास्तविकता का आभास नहीं हो सका, तो इसे क्या कहा जाए.
यूपी में भारतीय जनता पार्टी को 80 में से 73 सीटें इसिलए नहीं आई कि बाक़ी पार्टियों के मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दे दिया. दरअसल, चाहे वह समाजवादी पार्टी हो, बहुजन समाज पार्टी या फिर कांग्रेस, उन्हें लगभग उतना ही वोट मिला जितना उन्हें मिलता रहा है. इन सभी पार्टियों के प्रतिबद्ध-मतदाताओ ने उसी तरह वोट दिया, जिस तरह से वे अब तक देते आए हैं. लेकिन ग़ैर-प्रतिबद्ध मतदाताओं यानी नॉन-कमिटेड वोटर्स की वजह से चुनाव का अंकगणित बदल गया. उत्तर प्रदेश में भी रिकॉर्ड वोटिंग हुई. वैसे लोग जो अब तक वोट नहीं देते थे, वे इस बार घर से बाहर निकले. गांव हो या शहर हर जगह मतदान में वृद्धि हुई. ग़ैर-प्रतिबद्ध वोटरों की वजह से मतदान में अभूतपुर्व वृद्धि हुई और ये वोट बीजेपी की झोली में गए. इसलिए कहा जा सकता है कि ग़ैर-राजनीतिक व ग़ैर-प्रतिबद्ध मतदातओं के समर्थन की वजह से बीजेपी ने ऐतिहासिक जीत हासिल की.