देश के सर्वोच्च न्यायालय में सेना और सरकार आमने-सामने हैं. आज़ादी के बाद भारतीय सेना की यह सबसे शर्मनाक परीक्षा है, जिसमें थल सेनाध्यक्ष की संस्था को सरकार दाग़दार कर रही है. पहली बार सेनाध्यक्ष और सरकार के बीच विवाद का फैसला अदालत में होगा. विवाद भी ऐसा, जिसे सुनकर दुनिया भर में भारत की हंसी उड़ रही है. यह मामला थल सेनाध्यक्ष जनरल विजय कुमार सिंह की जन्मतिथि का है. इस मामले में एक पीआईएल सुप्रीम कोर्ट के सामने है. वहां क्या होगा, यह पता नहीं, लेकिन इस विवाद को लेकर जो भ्रम फैलाया जा रहा है, उसे समझना ज़रूरी है. चौथी दुनिया ने इस विवाद पर तहक़ीक़ात की. क़रीब छह महीने पहले हमने इस विवाद से जुड़े सारे तथ्यों को सामने रखा, सारे दस्तावेज़ पेश किए. सारे तथ्य और सबूत इस बात को साबित करते हैं कि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 है, लेकिन सरकार ने इस तथ्य को ठुकरा दिया और उनकी जन्मतिथि 10 मई, 1950 मान ली. सरकार की इस ज़िद का राज़ क्या है. सरकार क्यों देश के सर्वोच्च सेनाधिकारी को बेइज़्ज़त करने पर तुली है, जबकि यह बात दिन के उजाले की तरह सा़फ है कि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 है. साक्ष्य इतने पक्के हैं कि सुप्रीम कोर्ट के तीन-तीन भूतपूर्व चीफ जस्टिस ने अपनी राय जनरल वी के सिंह के पक्ष में दी है. इसके बावजूद अगर विवाद जारी है तो इसका मतलब है कि दाल में कुछ काला है.
एक भ्रम फैलाया जा रहा है कि जनरल वी के सिंह ने ही अपनी जन्मतिथि का विवाद उठाया है. मीडिया झूठी ख़बर दिखा रहा है कि जनरल वी के सिंह अपनी जन्मतिथि को बदलना चाहते थे. यह विवाद जनरल वी के सिंह ने नहीं उठाया. हक़ीक़त यह है कि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि को लेकर कभी कोई विवाद ही नहीं था.
एक भ्रम फैलाया जा रहा है कि जनरल वी के सिंह ने ही अपनी जन्मतिथि का विवाद उठाया है. मीडिया झूठी ख़बर दिखा रहा है कि जनरल वी के सिंह अपनी जन्मतिथि को बदलना चाहते थे. यह विवाद जनरल वी के सिंह ने नहीं उठाया. हक़ीक़त यह है कि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि को लेकर कभी कोई विवाद ही नहीं था. जबसे वह सेना में आए, तबसे 36 साल तक सेना के आधिकारिक दस्तावेज़ों, प्रोमोशन और हर जगह उनकी जन्मतिथि 10 मई, 1951 ही है. जब जनरल वी के सिंह थल सेनाध्यक्ष बने, उस समय ऐसी ख़बरें आम थीं कि देश भर में सेना की ज़मीन की लूट हो रही है. देश के अलग-अलग इलाक़ों से सेना की ज़मीनों पर अवैध निर्माण या उनके बिक जाने की ख़बरें टीवी चैनलों और प्रिंट मीडिया में लगातार आती थीं. सेना के अधिकारी और भू-मा़फिया मिलजुल कर इस काम को अंजाम दे रहे थे. सुकना ज़मीन घोटाला सामने आया. इस घोटाले में पूर्व मिलिट्री सेक्रेटरी लेफ्टिनेंट जनरल अवधेश प्रकाश का नाम आया. उस व़क्त वह तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल दीपक कपूर के प्रमुख सलाहकारों में थे. सुकना ज़मीन घोटाले पर जनरल वी के सिंह ने अपनी रिपोर्ट दी. लगा कि सेना की ज़मीन का सौदा करने वाले अधिकारियों को सज़ा मिलेगी, लेकिन जनरल कपूर ने ख़ुद से कोई एक्शन नहीं लिया. हक़ीक़त यह है कि चंद सैन्य अधिकारी भू-मा़फियाओं के साथ मिलकर सेना की ज़मीनों का बंदरबांट कर रहे थे. वी के सिंह के आते ही यह गोरखधंधा बंद हो गया. जनरल वी के सिंह ने सेना की प्रतिष्ठा वापस दिलाई और भ्रष्टाचार को रोका. ऐसी क्या बात है कि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि का विवाद तब उठाया गया, जब अवधेश प्रकाश का नाम सुकना ज़मीन घोटाले में उजागर हुआ.
जनरल वी के सिंह ने चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को पत्र लिखा कि आपने मुझे बुलाया, आपने मुझसे कहा कि आप मेरे मामले को क़ानून मंत्रालय भेज रहे हैं. आप पर चीफ के नाते मेरा पूरा विश्वास है, लेकिन आपने वायदे के हिसाब से जो कहा था, वह नहीं किया. एथिकली और लॉजिकली यह सही नहीं है.
यह विवाद जनरल वी के सिंह ने नहीं, बल्कि मिलिट्री के सेक्रेटरी ब्रांच ने शुरू किया है. वह भी तब, जबकि जनरल वी के सिंह 36 सालों तक सेना को अपनी सेवाएं दे चुके थे. पूरे 36 सालों तक उनकी जन्मतिथि 10 मई, 1951 ही रही. सवाल यह उठता है कि किसी भी सैनिक की जन्मतिथि के रिकॉर्ड को रखने की ज़िम्मेदारी किसकी है और कौन सा रिकॉर्ड आधिकारिक रूप से मान्य है. क़ानून के मुताबिक़, यह काम मिलिट्री की एडजूटैंट ब्रांच का है. सरकार को देश की जनता को यह बताना चाहिए कि उसने एडजूटैंट ब्रांच के रिकॉर्ड को तरजीह क्यों नहीं दी, जबकि यही आधिकारिक रूप से मान्य है. सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि वह इस विवाद में सेक्रेटरी ब्रांच की बात को सच मान रही है, जिसका काम अधिकारियों का रिकॉर्ड रखना नहीं है.
सरकार की नाराज़गी की कई वजहें हैं. भारतीय सेना एक ट्रक का इस्तेमाल करती है, जिसका नाम है टेट्रा ट्रक. भारतीय थलसेना टेट्रा ट्रक का इस्तेमाल मिसाइल लांचर की तैनाती और भारी-भरकम चीजों के ट्रांसपोर्टेशन में इस्तेमाल करती है. इन ट्रकों का पिछला ऑर्डर फरवरी, 2010 में दिया गया था, लेकिन ख़रीद में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी की शिकायतें सामने आईं तो आर्मी चीफ वी के सिंह ने इस सौदे पर मुहर लगाने से इंकार कर दिया.
कुछ लोग दलील दे रहे हैं कि उन्होंने एनडीए के फॉर्म में अपनी जन्मतिथि 10 मई, 1950 दर्ज कराई थी, इसीलिए उनकी जन्मतिथि यह बताई जा रही है. हक़ीक़त यह है कि जब वह एनडीए में शामिल हुए, तब उनकी उम्र 15 साल थी. मतलब यह कि वह नाबालिग थे. किसी नाबालिग द्वारा भरे गए फॉर्म का क़ानून में कोई स्थान नहीं है. क़ानून के मुताबिक़, जब कोई नाबालिग किसी दस्तावेज़ को पेश करता है तो उसे पर्याप्त सबूत पेश करना पड़ता है. क़ानून की नज़र में जन्मतिथि का सबसे बड़ा सबूत दसवीं क्लास का सर्टिफिकेट माना जाता है. जनरल वी के सिंह के हाईस्कूल सर्टिफिकेट में उनकी जन्मतिथि 10 मई, 1951 दर्ज है. जनरल वी के सिंह का सर्टिफिकेट दो-तीन सालों के बाद एनडीए में जमा किया गया, क्योंकि उस ज़माने में स्कूल और कॉलेज के सर्टिफिकेट बनने में इतना समय लग जाता था. इसके बाद से उनकी जन्मतिथि 10 मई, 1951 हो गई. 1997 में एडजूटैंट जनरल ब्रांच ने लिखकर दिया कि जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि 10 मई, 1951 है. 2007 में भी एडजूटैंट जनरल ब्रांच ने फिर यह बताया कि उनकी सही जन्मतिथि 10 मई, 1951 है.
मीडिया में एक ख़बर फैलाई जा रही है कि जनरल वी के सिंह ने 24 जनवरी, 2008 को यह मान लिया था कि उनकी जन्मतिथि 10 मई, 1950 है. जबकि यह मामला कुछ और ही है. चौथी दुनिया इस विवाद के पहले ही यह जानकारी दे चुका है कि तत्कालीन थल सेनाध्यक्ष दीपक कपूर ने वी के सिंह पर यह दबाव डाला था कि वह एक सहमति पत्र लिखकर दें, नहीं तो उनके ख़िला़फ एक्शन लिया जा सकता है और जनरल वी के सिंह ने यह लिखकर दे दिया था कि ऐज डायरेक्टेड बाई चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ, आई एक्सेप्ट. जनरल वी के सिंह का अंबाला से कलकत्ता ट्रांसफर हो गया. उन्होंने फिर चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को पत्र लिखा कि आपने मुझे बुलाया, आपने मुझसे कहा कि आप मेरे मामले को क़ानून मंत्रालय भेज रहे हैं. आप पर चीफ के नाते मेरा पूरा विश्वास है, लेकिन आपने वायदे के हिसाब से जो कहा था, वह नहीं किया. एथिकली और लॉजिकली यह सही नहीं है. चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ ने वह पत्र रख लिया, जवाब नहीं दिया. जब जनरल वी के सिंह मिलने गए तो जनरल दीपक कपूर ने कहा, मैं कुछ नहीं करूंगा, तुम चीफ बनना तो ख़ुद ठीक करा लेना अपनी जन्मतिथि. जनरल वी के सिंह चुपचाप वापस चले आए. अब सरकार उसी पत्र को एक सबूत के रूप में पेश कर रही है.
सरकार की नाराज़गी की कई वजहें हैं. भारतीय सेना एक ट्रक का इस्तेमाल करती है, जिसका नाम है टेट्रा ट्रक. भारतीय थलसेना टेट्रा ट्रक का इस्तेमाल मिसाइल लांचर की तैनाती और भारी-भरकम चीजों के ट्रांसपोर्टेशन में इस्तेमाल करती है. इन ट्रकों का पिछला ऑर्डर फरवरी, 2010 में दिया गया था, लेकिन ख़रीद में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी की शिकायतें सामने आईं तो आर्मी चीफ वी के सिंह ने इस सौदे पर मुहर लगाने से इंकार कर दिया. भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड यानी बीईएमएल लिमिटेड को जिस व़क्त इन ट्रकों की आपूर्ति का ठेका मिला, तब भारतीय सेना की कमान जनरल दीपक कपूर के हाथ में थी. नियमों के मुताबिक़, हर साल आर्मी चीफ को इस डील पर साइन करने होते हैं, लेकिन रिश्वतखोरी से लेकर मानकों के उल्लंघन तक की शिकायतों की वजह से जनरल वी के सिंह ने साइन नहीं किए. क़ानून के मुताबिक़, टेट्रा ट्रकों की ख़रीददारी सीधे कंपनी से होनी चाहिए, लेकिन बीईएमएल ने यह ख़रीददारी टेट्रा सिपॉक्स (यूके) लिमिटेड से की, जो नतो स्वयं उपकरण बनाती है और न उपकरण बनाने वाली कंपनी की सब्सिडियरी है. उपकरण बनाने वाली मूल कंपनी का नाम है टेट्रा सिपॉक्स एएस, जो स्लोवाकिया की कंपनी है.
दरअसल, बीईएमएल द्वारा टेट्रा ट्रकों की ख़रीद का पूरा मामला संदेह के घेरे में है. एक अंग्रेजी अख़बार डीएनए के मुताबिक़, रक्षा मंत्रालय की ओर से अभी तक दिए गए कुल ठेकों में भारी धनराशि बतौर रिश्वत दी गई है. डीएनए के मुताबिक़, यह पूरा रैकेट 1997 से चल रहा है. बीईएमएल में उच्च पद पर रह चुके एक पूर्व अधिकारी के हवाले से यह भी ख़बर आई कि अभी तक कंपनी टेट्रा ट्रकों की डील से जुड़ा कुल 5,000 करोड़ रुपये तक का कारोबार कर चुकी है. यह कारोबार टेट्रा सिपॉक्स (यूके) लिमिटेड के साथ किया गया है. इसे स्लोवाकिया की टेट्रा सिपॉक्स एएस की सब्सिडियरी बताया जाता रहा है. बीईएमएल के इस पूर्व अधिकारी के मुताबिक़, 5,000 करोड़ रुपये के इस कारोबार में 750 करोड़ रुपये बीईएमएल एवं रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों को बतौर रिश्वत दिए गए. बात यहीं ख़त्म नहीं होती है. बीईएमएल के एक शेयरधारक एवं वरिष्ठ अधिवक्ता के एस पेरियास्वामी राष्ट्रपति के हस्तक्षेप और सीबीआई जांच की मांग कर चुके हैं. वह कहते हैं, ख़रीद के लिए जितनी रकम की मंजूरी दी जाती है, उसका कम से कम 15 फीसदी हिस्सा कमीशन में चला जाता है. ऊपर से नीचे तक सबको हिस्सा मिलता है. मैंने 2002 में कंपनी की एजीएम में यह मुद्दा उठाया था, लेकिन इस पर चर्चा नहीं की गई. एक प्रतिष्ठित बिजनेस अख़बार ने यहां तक लिखा कि बीईएमएल की टेट्रा ट्रकों की डील को कारगर बनाने में जुटी हथियार विक्रेताओं की लॉबी ने आर्मी चीफ को आठ करोड़ रुपये की रिश्वत की पेशकश भी की थी, जिसे जनरल वी के सिंह ने ठुकरा दिया.
ट्रकों की संदेहास्पद डील को लेकर 8 मई, 2005 को मीडिया में ख़बर आई थी. डीएनए अख़बार ने एक और ख़ुलासा किया कि टेट्रा सिपॉक्स (यूके) लिमिटेड की स्थापना 1994 में ब्रिटेन में हुई थी. जोजफ मजिस्की और वीनस प्रोजेक्ट्स लिमिटेड इसके शेयर होल्डर थे. स्लोवाकिया के न्याय मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक़, टेट्रा सिपॉक्स एएस 1998 में अस्तित्व में आई. इसका मतलब यह हुआ कि 1997 में बीईएमएल ने ऐसी कंपनी की सब्सिडियरी के साथ समझौता किया, जो उस समय अस्तित्व में ही नहीं थी. टेट्रा सिपॉक्स (यूके) की शेयर होल्डिंग में कई बार बदलाव हुआ, लेकिन स्लोवाक कंपनी के पास कभी इसका एक शेयर भी नहीं रहा. बीईएमएल के चेयरमैन वी आर एस नटराजन के मुताबिक़, इंग्लैंड के वेक्ट्रा ग्रुप के पास टेट्रा कंपनियों का स्वामित्व है. वेक्ट्रा ग्रुप के चेयरमैन रविंदर ऋषि हैं. वेक्ट्रा ग्रुप के पास ही टेट्रा सिपॉक्स (यूके) का भी मालिकाना हक़ है. टेट्रा चेक कंपनी के भी बहुमत शेयर वेक्ट्रा ग्रुप के पास हैं. अब सवाल यह उठता है कि क्या आर्मी चीफ पर इसलिए पद छोड़ने का दबाव है, क्योंकि उन्होंने टेट्रा डील पर दस्तख़त नहीं किए थे? क्या बीईएमएल सेकेंड हैंड ट्रकों का आयात कर रही है और क्या स्लोवाकिया में मैन्युफैक्चरिंग प्लांट बंद हो गया है? क्या पुराने ट्रकों की मरम्मत को घरेलू उत्पादन के तौर पर दिखाया जा रहा है? रविंदर ऋषि कौन है, उसे इतने रक्षा सौदों का ठेका क्यों दिया जा रहा है? इस लॉबी के लिए सरकार में काम करने वाले लोग कौन हैं? अगर सरकार इन सवालों का जवाब नहीं देती है तो इसका मतलब यही है कि आर्मी चीफ को ठिकाने लगाने के लिए मा़फिया और अधिकारियों ने मिलजुल कर जन्मतिथि का बहाना बनाया है.
इसके अलावा जनरल वी के सिंह ने सेना के आधुनिकीकरण के लिए एक प्लान तैयार किया, यह प्लान डिफेंस मिनिस्ट्री में लटका हुआ है. उन्होंने इस बीच कई ऐसे काम किए, जिनसे आर्म्स डीलरों और बिचौलियों की नींद उड़ गई. सिंगापुर टेक्नोलॉजी से एक डील हुई थी. इस कंपनी की राइफल को टेस्ट किया गया, उसके बाद जनरल वी के सिंह ने रिपोर्ट दी कि यह राइफल भारत के लिए उपयुक्त नहीं है. भारतीय सेना को नए और आधुनिक हथियारों की ज़रूरत है. इस ज़रूरत को देखते हुए वह अगले एक-दो सालों में भारी मात्रा में सैन्य शस्त्र और नए उपकरण ख़रीदने वाली है. ख़ासकर, भारत इस साल भारी मात्रा में मॉडर्न असॉल्ट राइफलें ख़रीदने वाला है. भारत का सैन्य इतिहास यही बताता है कि आर्म्स डील के दौरान जमकर घूसखोरी और घपलेबाज़ी होती है. जनरल वी के सिंह सेना के अस्त्र-शस्त्रों की ख़रीददारी में पारदर्शिता लाना चाहते हैं. वह एक ऐसा सिस्टम बनाना चाहते हैं, जिसमें सैनिकों को दुनिया के सबसे आधुनिकतम हथियार मिलें, लेकिन कोई बिचौलिया न हो और न कहीं किसी को दलाली खाने का अवसर मिले. जबसे वह सेनाध्यक्ष बने हैं, तबसे भारतीय सेना पर कोई घोटाले या भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा. भ्रष्टाचार के जो पुराने मामले थे, उन्हें न स़िर्फ निपटाया गया, बल्कि उन्होंने आदर्श जैसे घोटाले की जांच में एजेंसियों की मदद की. आदर्श हाउसिंग सोसाइटी के ज़मीन घोटाले में जनरल वी के सिंह ने मुस्तैदी दिखाई. सेना की कोर्ट ऑफ इनक्वायरी का गठन किया, जिसमें दो पूर्व सेनाध्यक्षों-जनरल दीपक कपूर और जनरल एन सी विज सहित कई टॉप अधिकारियों को ज़िम्मेदार ठहराया गया. इन सबका नतीजा यह हुआ कि आर्म्स डीलरों की लॉबी, अधिकारी, ज़मीन मा़फिया और ऐसे कई सारे लोग जनरल वी के सिंह के ख़िला़फ लामबंद हो गए और उनकी जन्मतिथि के विवाद को हवा दी.
जनरल वी के सिंह ने एक और काम किया, जिसकी वजह से अधिकारियों को परेशानी हुई. यह मामला जवानों की यूनिफॉर्म यानी कपड़ों से जुड़ा है. पहले जो यूनिफॉर्म सप्लाई होती थी, वह आधे से ज़्यादा लोगों को फिट नहीं होती थी. जवानों को उनकी माप के मुताबिक़ कपड़े नहीं मिलते थे. उन कपड़ों को फिर से सिलवाने की ज़रूरत पड़ती थी. जनरल वी के सिंह ने इसे रोका. उन्होंने फैसला लिया कि जवानों को मिलने वाले कपड़े अच्छी कंपनी के हों और हर सैनिक की माप लेकर सिलाई हो. जनरल वी के सिंह ने एक और फैसला लिया, जो अधिकारियों को चुभ गया. उन्होंने सेना में मीट की सप्लाई करने वाले मीट कारटेल का स़फाया कर दिया, वे लोग जो मीट सप्लाई करते थे, वह ठीक नहीं था. जनरल वी के सिंह ने इसके लिए ग्लोबल टेंडर की शुरुआत की, ताकि दुनिया का सबसे बेहतर मीट सेना के जवानों को मिले. जब जनरल वी के सिंह ने थल सेनाध्यक्ष का पद संभाला, उस व़क्त भारतीय सेना की साख दांव पर लगी थी. सेना के कई घोटाले उजागर हो चुके थे. अब तक ईमानदार समझे जाने वाले इस महकमे को लोग शक की निगाह से देखने लगे थे. सेना के लोग भी दबी ज़ुबान में कहने लगे थे कि कुव्यवस्था की वजह से उनकी स्थिति ख़राब होती जा रही है. ऊपर से पाकिस्तान की तऱफ से घुसपैठियों का भारत में आना निरंतर जारी था. देश में नक्सली हमले हो रहे थे. सरकार नक्सलियों के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई करने का मन बना रही थी. मतलब यह कि जनरल वी के सिंह के सामने कई चुनौतियां थीं. सेनाध्यक्ष बनते ही उन्होंने सेना में मौजूद भ्रष्टाचार और मा़फिया तंत्र को ख़त्म करना शुरू कर दिया. लगता है, यह बात नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक में बैठे अधिकारियों को ख़राब लगी. देश में सरकारी तंत्र कैसे चल रहा है, यह एक स्कूली बच्चे को भी पता है. लगता है, देश में जो ईमानदार और आदर्शवादी लोग हैं, उनके लिए सरकारी तंत्र में कोई जगह नहीं रह गई है. उन्हें ईनाम मिलने की जगह सज़ा दी जाती है और जलील किया जाता है.
क्या इस देश में अलग-अलग नागरिकों के लिए अलग-अलग क़ानून हैं या फिर यह मान लिया जाए कि इस देश को मा़फिया सरगना और सरकार में बैठे उनके दलाल चला रहे हैं. पूरे देश की जनता एक ऐसे घिनौने वाक्ये से रूबरू हो रही है, जिसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पिछले सात सालों में जिस तरह देश में संवैधानिक और राजनीतिक संस्थानों की बर्बादी हुई है, वैसी पहले कभी नहीं हुई. हैरानी की बात यह है कि सरकार एक तऱफ यह कह रही है कि थल सेनाध्यक्ष झूठ बोल रहे हैं और दूसरी तऱफ वह उनसे डील भी करती है कि उन्हें किसी देश का राजदूत या किसी राज्य का गवर्नर बना दिया जाएगा. यही नहीं, यह धमकी भी दी जा रही है कि अगर वह कोर्ट गए तो उन्हें सेनाध्यक्ष के पद से ब़र्खास्त कर दिया जाएगा. जनरल वी के सिंह को कोर्ट जाने का पूरा अधिकार है, क्योंकि यह मामला स़िर्फ जनरल वी के सिंह का नहीं है, यह उनकी जन्मतिथि के विवाद का मामला नहीं है, यह मामला देश के सर्वोच्च थलसेना अधिकारी नामक संस्था से जुड़ा है. सरकार जिस तरह इस संस्था पर कीचड़ उछाल रही है, वह इस देश के नागरिक-सैन्य रिश्ते, प्रजातंत्र और भविष्य के लिए घातक है. एक सच्चे सैनिक को हर हाल में लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए. इसलिए जनरल वी के सिंह को ख़ुद के लिए नहीं, बल्कि इस संस्था की गरिमा बचाने के लिए कोर्ट में जाना चाहिए. अगर वह नहीं गए तो इसका मतलब यही है कि देश के माफिया, अधिकारी और नेता जब चाहें, गिरोह बनाकर भविष्य के सेनाध्यक्षों को नीचा दिखा सकते हैं, उन्हें मनचाहा काम कराने के लिए मजबूर कर सकते हैं. जनरल वी के सिंह लड़ रहे हैं, यह अच्छी बात है. हो सकता है, भविष्य में किसी दूसरे ईमानदार सेनाध्यक्ष के साथ फिर ऐसा हो, लेकिन वह जनरल वी के सिंह की तरह लड़ भी न सके.