मेरे खिलाफ लिखना मना है

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बिहार के अख़बारों पर नज़र डालें तो एक अजीबोग़रीब पैटर्न दिखता है. पहले पेज पर सरकार के अच्छे कामों का बढ़ा-चढ़ा ब्यौरा मिलता है, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अच्छी तस्वीर होती है और बाक़ी जगह पर हत्या, बलात्कार और लूट की ख़बरें होती हैं. जितना विकास हुआ नहीं, अख़बार उससे कहीं ज़्यादा ढोल पीटते हैं.

likhna mana haiसरकार की योजनाओं और कामों को प्रचारित करने के लिए जनसंपर्क विभाग होता है. हर सरकार यही चाहती है कि उसके अच्छे कामों का प्रचार हो और सरकार की कमज़ोरियां बाहर न आएं. सरकार की विफलताओं और कमज़ोरियों को जनता के सामने लाना मीडिया का काम है. लेकिन बिहार में स्थिति अलग है. बिहार में अघोषित सेंसरशिप लागू है. पटना के अख़बारों ने नीतीश सरकार की ग़लतियों और बुराइयों को छापना बंद कर दिया है. सरकार के ख़िला़फ ख़बर छापने पर अख़बार मालिकों को माफी मांगनी पड़ती है और ख़बर लिखने वाले पत्रकार को सजा मिलती है. बिहार के मीडिया ने सरकार के सामने घुटने टेक दिए हैं और वह जनसंपर्क विभाग की तरह काम कर रहा है.

पटना के एक शख्स को जनता की समस्याओं को लेकर बटाईदारी क़ानून के बारे में एक ख़बर छपवानी थी. यह ख़बर नीतीश सरकार के ख़िला़फ थी. वह शख्स पटना के सारे अख़बारों के  दफ़्तरों के चक्कर लगाता रहा, लेकिन हर अख़बार ने इस ख़बर को छापने से मना कर दिया. इस शख्स को अख़बार के दफ़्तरों में बताया गया कि जो ख़बर आप छपवाना चाहते हैं, वह नीतीश सरकार के ख़िला़फ है, इसलिए हम नहीं छाप सकते. उस शख्स ने अपनी ख़बर एक इश्तेहार के रूप में छपवाने की कोशिश की, लेकिन फिर भी किसी अख़बार ने उस ख़बर को छापने की हिम्मत नहीं की.

बिहार के अख़बारों पर नज़र डालें तो एक अजीबोग़रीब पैटर्न दिखता है. पहले पेज पर सरकार के अच्छे कामों का बढ़ा-चढ़ा ब्यौरा मिलता है, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अच्छी तस्वीर होती है और बाक़ी जगह पर हत्या, बलात्कार और लूट की ख़बरें होती हैं. जितना विकास हुआ नहीं, अख़बार उससे कहीं ज़्यादा ढोल पीटते हैं. नीतीश कुमार के विरोधियों, दूसरे नेताओं और उनके विचारों को ज़्यादा महत्व नहीं दिया जाता है. बिहार के कुछ पत्रकारों से बात करने पर पता चला कि वे राज्य की समस्याओं के बारे में लिखना चाहते हैं, लेकिन उनकी कलम को रोक दिया जाता है. जिस अख़बार में नीतीश सरकार के ख़िला़फ ख़बर छप जाती है, उस अख़बार को सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो जाता है. यह तब तक बंद रहता है, जब तक अख़बार के मालिक बिहार सरकार के मुखिया के पास जाकर गिड़गिड़ाते नहीं हैं. बिहार के पत्रकारों ने बताया कि कुछ दिन पहले हिंदी के एक बड़े अख़बार ने बिहार सरकार के  ख़िला़फ एक ख़बर छापी. ख़बर की हेडिंग थी- मुख्यमंत्री जी, शराब बड़ी जालिम होती है. इस स्टोरी में एक्साइज डिपार्टमेंट के एक घोटाले की कहानी थी. यह ख़बर छपते ही इस अख़बार को मिलने वाले सारे सरकारी विज्ञापन बंद हो गए. मालिकों ने घुटने टेक दिए. संपादक-मालिकों को माफी मांगनी पड़ी और रिपोर्टर को पटना से ट्रांसफर करके झारखंड के जंगलों में नक्सलियों की खबर लेने भेज दिया गया. फिलहाल इस बीच मालिकों में से एक ने नीतीश कुमार के विरोधियों से हाथ मिला लिया. उन्होंने नीतीश के विरोधियों को बताया कि सरकार ज़्यादती कर रही है. बिहार में सरकार के ख़िला़फ और विपक्ष की ख़बरों को प्रमुखता देने का अंजाम क्या होता है, आदि बातें आम हैं.

यही वजह है, बिहार के अख़बारों और समाचार चैनलों की रिपोर्टों से बस यही लगता है कि बिहार में सब कुछ ठीक चल रहा है. ज़्यादातर अख़बार और न्यूज़ चैनल चारणों की तरह नीतीश सरकार की शान में क़सीदे ऐसे पढ़ते और लिखते हैं कि जैसे आप बिहार सरकार का चैनल देख रहे हों या फिर बिहार सरकार के पब्लिक रिलेशन डिपार्टमेंट का कोई पर्चा पढ़ रहे हों.

इस साल चुनाव होने वाले हैं. नीतीश सरकार अपने पांच साल पूरे करने वाली है, लेकिन इस कार्यकाल के दौरान क्या-क्या कमियां रहीं, यह छापने या दिखाने की हिम्मत कोई भी अख़बार या न्यूज़ चैनल नहीं कर सका. कुछ लोग यह कह सकते हैं कि बिहार सरकार मीडिया को मैनेज कर रही है, लेकिन सच्चाई यह है कि मीडिया ख़ुद बिकने के  लिए बाज़ार में खड़ा है. सरकार को उसे मैनेज करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि वह ख़ुद मैनेज होने के लिए तैयार बैठा है. अब जब मीडिया ही सरकार के पब्लिक रिलेशन का काम करने लग जाए तो ऐसे में अख़बारों और न्यूज़ चैनलों से क्या उम्मीद की जाए.

नीतीश कुमार की सरकार पहले से बेहतर तरीक़े से बिहार में काम कर रही है. इसमें कोई शक़ नहीं है कि विकास के  काम हो रहे हैं. यह भी सच है कि इस साल होने वाले चुनाव की नज़र से देखा जाए तो फिलहाल नीतीश बढ़त की स्थिति में हैं. वह अपने विरोधियों से आगे चल रहे हैं, लेकिन यह वॉक ओवर वाला मामला नहीं है. थोड़ी सी स्थिति बदलने से नीतीश कुमार के लिए चुनाव जीतना मुश्किल हो सकता है. हैरानी की बात यह है कि बिहार के अख़बार जिस तरह से राजनीतिक रिपोर्ट पेश कर रहे हैं, उससे यही लगता है कि मीडिया नीतीश कुमार को चुनाव से पहले ही विजयी बनाने में लगी है. ऐसा लगता है कि बिहार के अख़बार नीतीश सरकार के पब्लिक रिलेशन डिपार्टमेंट में तब्दील हो चुके हैं.

बिहार में क्या ज़मीन के बंटवारे की स्थिति सुधर गई है, क्या हर शहर और ग्रामीण इलाक़ों में पीने का साफ पानी मिलने लगा है, क्या बिहार में बेरोज़गारी पर जीत हासिल कर ली गई है, क्या बिहार की स्वास्थ्य-चिकित्सा व्यवस्था ठीक हो गई है, क्या महादलितों की समस्याओं का हल हो चुका है, क्या बाढ़ग्रस्त इलाक़ों में राहत का काम सही तरीक़े से हो चुका है, क्या बिहार में नरेगा जैसी योजनाओं में कोई भ्रष्टाचार नहीं है, क्या बिहार में सरकारी दफ़्तरों में घूसखोरी ख़त्म हो गई है, क्या बिहार में शिक्षा व्यवस्था बेहतर हुई है और क्या बिहार में क़ानून व्यवस्था की हालत अच्छी हो गई है? किसी पत्रकार ने यह हिम्मत नहीं जुटाई कि कोसी के सच को सामने लाया जाए. बिहार के कई पत्रकार कहते हैं कि सरकार के ख़िला़फ ख़बर लिखने का मतलब नौकरी से हाथ धोना है. लेकिन, विज्ञापन का लड्डू दिखाकर बिहार सरकार जो खेल कर रही है, वह नया नहीं है. हमें यह भी याद रखना चाहिए कि 2004 के चुनावों में एनडीए की सरकार ने भी शाइनिंग इंडिया के विज्ञापन के  नाम पर मीडिया को करोड़ों रुपये दिए थे. उस व़क्त भी अख़बारों और टीवी चैनलों ने चुनाव से पहले एनडीए की सरकार को विजयी घोषित कर दिया था. उस चुनाव का परिणाम क्या निकला, यह भी हम लोगों के सामने है.

सरकार के जनसंपर्क विभाग की तरह काम करना बिहार में पत्रकारिता का नया चेहरा है. क्या कारण है कि हड़ताल से बिहार में पूरा तंत्र चरमरा जाता है और अख़बारों में इस ख़बर को अंदर के पन्नों में छोटी सी जगह मिल पाती है. क्यों सरकार के विरोधियों को विलेन के रूप में पेश किया जाता है. नीतीश सरकार ने सरकारी विज्ञापनों का इस्तेमाल कर अख़बार मालिकों को लालच दिया और अख़बारों को पालतू बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. बिहार के  कुछ वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि अख़बारों को भेजे गए विपक्षी दलों के बयान छपने से पहले मुख्यमंत्री की टेबल पर पहुंच जाते हैं. यहां तक कि दिल्ली से चलाई गई ख़बरों को लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय से निर्देश आते हैं कि सरकार की नकारात्मक छवि वाली ख़बरें न छापी जाएं. बिहार में यह अघोषित सेंसरशिप बहुत ही सुनियोजित ढंग से लागू की गई है और अख़बारों को अपने हित में इस्तेमाल कर उन्हें राज्य सरकार का एजेंट बना डाला गया है. मंदी के दौर में नीतीश सरकार ने मीडिया की कमज़ोरी को भलीभांति समझा और सरकारी विज्ञापन को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया. ऐसे-ऐसे हथकंडे अपनाए गए, जिन्हें हम तानाशाही से जोड़ कर देख सकते हैं. लालू-राबड़ी की सरकार के  दौरान बिहार में जंगलराज पर हमेशा कुछ न कुछ ख़बरें छपा करती थीं, लेकिन वर्तमान दौर में ख़बर छापने से पहले इस बात का ख्याल रखा जाता है कि सरकार के मुखिया का राजनीतिक क़द कम न हो जाए.

दरअसल, नीतीश सरकार ने मीडिया की कमज़ोरी को पहचान लिया है. और, यह कमज़ोरी है विज्ञापन की. नीतीश सरकार ने विज्ञापनों के सहारे मीडिया को नियंत्रित रखने का काम बखूबी किया है. सूचना एवं जनसंपर्क विभाग की ओर से साल 2005 से 2010 के बीच (नीतीश कुमार के कार्यकाल के चार सालों में) लगभग 64.48 करोड़ रुपये ख़र्च कर दिए गए. जबकि लालू-राबड़ी सरकार के कार्यकाल के अंतिम 6 सालों में महज़ 23.90 करोड़ रुपये ही ख़र्च हुए थे. मिली सूचना के मुताबिक़, सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने साल 2009-10 में (28 फरवरी 2010 तक) 19,66,11,694 (लगभग 20 करोड़) रुपये के विज्ञापन जारी किए हैं, जिनमें से 18,28,22,183 (लगभग 18 करोड़ से ज्यादा) रुपये के विज्ञापन प्रिंट मीडिया और 1,37,89,511 (लगभग डेढ़ करोड़) रुपये के विज्ञापन इलेक्ट्रानिक मीडिया को दिए गए. इतना ही नहीं, नीतीश सरकार के चार वर्ष पूरे होने पर एक ही दिन में 1,15,44,045 (लगभग 1 करोड़ से ज़्यादा) रुपये का विज्ञापन एक साथ 24 समाचारपत्रों को जारी किया गया. इसमें भी सबसे ज़्यादा विज्ञापन एक ख़ास समूह के अख़बार को दिया गया. कुछ ख़ास अख़बारों को तो अकेले 50 लाख रुपये से ज़्यादा का विज्ञापन दिया गया है.

कुछ दिन पहले पटना में बिहार में पत्रकारिता विषय पर एक सेमिनार हुआ. इस सेमिनार का आयोजन हाल में ही लांच हुए बिहार के टीवी चैनल मौर्य टीवी ने किया था. इसमें बिहार के सारे बड़े संपादक, ब्यूरो चीफ और संवाददाता मौजूद थे. इस सेमिनार में कुछ नेता भी थे. सेमिनार में अजीबोग़रीब नज़ारा देखने को मिला. नेता पत्रकारों को खरी-खोटी सुना रहे थे और पत्रकार चुपचाप सुन रहे थे. सेमिनार से जो बात सामने आई, वह यह है कि बिहार का मीडिया सरकार द्वारा नियंत्रित संस्थान हो चुका है. सरकार जिसख़बर को दबाना चाहती है, वह दब जाती है और जिसे लोगों तक पहुंचाना चाहती है, उसे बिना किसी विश्लेषण या टिप्पणी के छाप दिया जाता है. नीतीश कुमार अपना काम सही ढंग से कर रहे हैं. वह तो यही चाहेंगे कि वह जो काम करते हैं, उसे अख़बार में हज़ार गुना ज़्यादा दिखाया जाए. वह तो यही चाहेंगे कि उनके हर काम का प्रचार हो और जो बुरा है, उसे जनता की नज़रों से बचाया जाए. प्रजातंत्र में पत्रकारों की भूमिका इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि उन पर यह दायित्व है कि वे सरकार के सभी क्रियाकलापों पर नज़र रखें और उसमें जो ग़लत है, उसे जनता के सामने लाएं. पत्रकारों का यह काम है कि किसी डॉक्टर की तरह शरीर की सुंदरता के अंदर से बीमारी को निकाल बाहर करना. अगर अख़बार चारण का काम करने लगेंगे तो जनता के सवालों को सरकार तक कौन पहुंचाएगा. अगर बिहार के पत्रकार यह कहें कि उनके हाथ बंधे हैं, अगर सरकार के ख़िला़फ ख़बर लिखने पर उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाए तो ऐसी स्थिति को क्या कहेंगे? क्या यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि बिहार में अघोषित सेंसरशिप है.

इसलिए हम चुप रहते हैं…

नीतीश सरकार ने चार साल पूरा होने के अवसर पर एक ही दिन में इन अख़बारों को 1 करोड़ 15 लाख 44 हज़ार रुपये के विज्ञापन दिए

अखबार : भुगतान की गई राशि (रुपये में)

हिंदुस्तान                :               37,09,162

दैनिक जागरण   :               27,89,835

आज   :               3,66,546

प्रभात खबर     :               3,89,622

राष्ट्रीय सहारा    :               1,52,132

टाइम्स ऑफ इंडिया      :               1,80,850

हिंदुस्तान टाइम्स :               15,80,640

इंडियन एक्सप्रेस   :               1,15,784

दैनिक भास्कर       :      1,30,486

सन्मार्ग   :      63,916

इकोनॉमिक टाइम्स               :      2,17,845

पंजाब केसरी          :      1,91,543

बिजनेस स्टैंडर्ड (दिल्ली)     :      50,643

बिजनेस स्टैंडर्ड (मुंबई)        :      25,321

प्रात: कमल (मुजफ्फरपुर)  :      28,595

कौमी तंजीम          :      2,70,162

फारुकी तंजीम (पटना)         :      2,70,162

पिंदार (पटना)       :      2,51,580

संगम (पटना)       :      2,70,162

इंकलाब-ए-जदीद (पटना)     :      38,595

प्यारी उर्दू (पटना) :      71,880

राजस्थान पत्रिका (जयपुर)  :      1,86,642

अमर उजाला (दिल्ली)         :      88,829

राष्ट्रीय सहारा रोजनामा (पटना)          :      93,117

पांच साल – करोड़ों का विज्ञापन

प्रिंट मीडिया     इलेक्ट्रॉनिक मीडिया

2005-06                4,49,99,894=00                  शून्य

2006-07                5,40,01,195=00                  शून्य

2007-08                9,65,85,105=00                  शून्य

2008-09                24,99,92,986=00                25,30,326=00

2009-10                18,28,22,183=00                1,37,89,511=00

(कुल 66 करोड़ रुपये से भी ज़्यादा)

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