आडवानी जी को क्या हो गया है?

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भारतीय जनता पार्टी पर आडवाणी एंड कंपनी का एकाधिकार स्थापित हो चुका है. ऐसा लगता है कि राजनीति विज्ञान का गिने-चुने लोगों द्वारा शासन करने का सिद्धांत (आयरन लॉ ऑफ ओलीगार्की) भाजपा पर हावी हो चुका है. यह धारणा आडवाणी के  हाल के  बयान और संघ के  अंदर चल रहे आत्ममंथन से पुष्ट होती है. आडवाणी ने अपने पद पर बने रहने की सनक से न स़िर्फकार्यकर्ताओं के  मनोबल को तोड़ा है, बल्कि विरोध के  स्वर को पार्टी में जगह नहीं देकर पार्टी के  चरित्र को भी दाग़दार किया है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आडवाणी के  बयान ने आरएसएस की उलझन बढ़ा दी है. भाजपा के चिंतन बैठक का हाल यह है कि पार्टी के नाराज़ नेताओं को आडवाणी एंड कंपनी ने इस बैठक से ही बाहर कर दिया. इन सबसे आरएसएस इतना नाराज़ है कि उसने अपने प्रतिनिधि को भी इस चिंतन बैठक में जाने से मना कर दिया है.

lal krishna advaniचुनाव में बुरी तरह परास्त होने के बाद पहली बार लौहपुरुष लालकृष्ण आडवाणी मीडिया के सामने आए. अपने बयान से उन्होंने एक साथ कई शिकार किए. बड़े नेताओं का खेल भी बड़ा होता है. उन्होंने बिना कुछ कहे, अपने नेतृत्व पर सवाल खड़े करने वाले विरोधियों को पार्टी में हाशिए पर डाल दिया, अपने गुट के  नेताओं के ख़िला़फ बयानबाज़ी करने वाले नेताओं को चेतावनी दे डाली और आरएसएस को भाजपा से दूर रहने की नसीहत दे दी. अपने बयान से उन्होंने सत्तालोलुपता का ऐसा सबूत दिया कि लोग हैरान हैं. कार्यकर्ता निराश हैं तो भाजपा के  कई बड़े नेता परेशान हैं. आडवाणी ने ऐलान कर दिया है कि भारतीय जनता पार्टी की चिंतन बैठक में लोकसभा चुनाव में मिली शिकस्त पर कोई चर्चा नहीं होगी. भाजपा के  कुछ कार्यकर्ता और समर्थक यह सोच रहे थे कि शिमला की वादियों में भाजपा में फैली आग शांत हो जाएगी. नाराज़ नेताओं को अपनी बात कहने का मौक़ा दिया जाएगा. हार की वजह क्या है, यह कार्यकर्ताओं के  सामने रखा जाएगा और इस बार चिंतन बैठक में दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा. हालांकि, जो लोग भाजपा को जानते हैं उन्हें पता है कि ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है. भाजपा ने साबित कर दिया है कि यह पार्टी कितनी अप्रजातांत्रिक है, ओलीगार्किक (कुछ लोगों की टोली से शासित होने वाली) है और एक सच्ची दक्षिणपंथी पार्टी है. यहां सब कुछ हो सकता है, बदलाव के  अलावा. आडवाणी एंड कंपनी पार्टी के  अंदर स्थिति ऐसी पैदा करना चाहती है कि नाराज़ नेताओं को या तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए या फिर पार्टी छोड़ने के  लिए उन्हें मजबूर कर दिया जाए. पिछले कुछ सालों में ऐसा कई बार हो चुका है और इस बार भी इसकी संभावना प्रबल है. अगर आत्ममंथन की चिंता होती, तो भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में इस इस विषय को टाला नहीं गया होता. इसलिए 19 अगस्त से होने वाली यह बैठक, चिंतन बैठक नहीं, बीजेपी के अधिकारियों और नेताओं की दिल्ली की गर्मी से दूर शिमला की ठंडी वादियों में पिकनिक भर है.

वैसे चुनाव परिणाम के  बाद पहली बार प्रेस के  सामने आए आडवाणी ने जब बोलना शुरू किया, तभी पूरा खेल समझ में आ गया था. उन्होंने साफ कर दिया कि फिलहाल वह अपनी कुर्सी छोड़ने वाले नहीं हैं और पूरे पांच साल तक नेता प्रतिपक्ष बने रहेंगे. जब पत्रकारों ने आडवाणी से पूछा कि आपका आगे का प्लान क्या है, तो बगल में बैठी सुषमा स्वराज कूद पड़ीं. कहा, इस सवाल का जवाब मैं दूंगी. नेता प्रतिपक्ष का चुनाव पूरे टर्म के  लिए होता है. इसकी कोई डेडलाइन नहीं है. आडवाणी ने भी सुषमा की बातों की पुष्टि करते हुए कहा कि मैं जिस भी बात के लिए राज़ी हुआ, वह मेरी ख़ुद की इच्छा रही. मेरा जो राजनीतिक जीवन रहा है और उसमें देश की ओर से मुझे जो प्रशंसा मिली है, उसमें मैं ऐसा कोई कार्य नहीं करता, जो मुझे पसंद न हो.

आडवाणी और सुषमा स्वराज के  बयान से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में खलबली मच गई है. आडवाणी की यह घोषणा आरएसएस के  लिए एक सदमे जैसा है. आडवाणी एंड कंपनी ने आरएसएस के  निर्देशों का खुला उल्लंघन किया है. ऐसा करके आडवाणी ने चिंतन बैठक के  पहले ही एजेंडे को हाईजैक कर लिया है. चुनाव के  बाद यह ख़बर मिली थी कि आरएसएस और भाजपा के शीर्ष के 14 नेताओं की एक गुप्त बैठक हुई, जिसमें मोहन भागवत ने साफ-साफ कहा कि पार्टी का नेतृत्व किसी नए नेता के  हाथ में दे दिया जाए. मोहन भागवत ने इसके  लिए भाजपा नेताओं को अगस्त तक की डेडलाइन दी थी. नोट करने वाली बात यह है कि मीटिंग में भाजपा नेता भी इस बात सहमत थे कि आडवाणी को नेता प्रतिपक्ष से इस्ती़फा दे देना चाहिए. इसलिए तय हुआ कि आडवाणी जी मानसून सत्र तक नेता प्रतिपक्ष बने रहेंगे. लेकिन मानसून सत्र के अंत में आडवाणी ने प्रेस कांफ्रेस में बयान देकर यह साफ कर दिया कि उन्होंने  आरएसएस की सलाहों को दरकिनार कर दिया है. अब आरएसएस को इस बात पर विचार करना होगा कि आगे वह भाजपा के साथ किस तरह के  संबंध बनाए रखेगी.

आरएसएस के  सूत्रों के  मुताबिक संघ ने आडवाणी को यह भरोसा दिया था कि अगर वह नेता प्रतिपक्ष के  पद से इस्ती़फा दे दें तो उन्हें भाजपा के  सांगठनिक मामलों में सक्रिय रखा जाएगा, नए नेताओं और पार्टी के  लिए वह एक मार्गदर्शक का काम करेंगे और संघ उनकी यात्रा का समर्थन करेगी. आडवाणी ने कुर्सी न छोड़ने की बात करके आरएसएस की सारी

योजनाओं की हवा निकाल दी. आरएसएस के  सूत्र बताते हैं कि संघ ने आडवाणी के  बाद पार्टी को फिर से खड़ा करने की सारी योजना भी बना ली थी. पार्टी को फिर से पार्टी विथ द डिफरेंस बनाने के लिए संघ के नेताओं की सितंबर में बैठक भी होने वाली थी. सूत्रों के  मुताबिक संघ की योजना यह थी कि भाजपा में पांच सौ नए और युवा कार्यकर्ताओं को भेजा जाएगा, जो पार्टी को ऊर्जा प्रदान करेंगे और कुछ समय में पार्टी में मौजूद जितने भी अवांछित लोग हैं उन्हें दरकिनार करने का काम करेंगे. लेकिन आडवाणी ने यू-टर्न ले लिया है. अब संघ की अग्निपरीक्षा का व़क्त आ गया है. आडवाणी के  बयान से नाराज़ आरएसएस के अधिकारी अब यह कहने लगे हैं कि भाजपा के बिना संघ रह सकता है, लेकिन संघ के बिना भाजपा कुछ भी नहीं है. आरएसएस को लगता है कि भाजपा का भविष्य आडवाणी के  साथ नहीं, बल्कि नई पीढ़ी के  नेताओं के  साथ है. वहीं आडवाणी गुट के  लोग पार्टी के  मामलों में आरएसएस की कोई भूमिका नहीं चाहते हैं. अब आरएसएस के नज़दीकी भाजपा नेता आडवाणी के  नेता प्रतिपक्ष चुने जाने के  तकनीकी पहलू को उठा रहे हैं. उनका कहना है कि आडवाणी को पार्टी के  किस फोरम में नेता प्रतिपक्ष नहीं चुना गया है. अगर उनका चुनाव किसी भी फोरम में नहीं हुआ है तो वह नेता प्रतिपक्ष कैसे बन गए.

आडवाणी ने न स़िर्फ चिंतन बैठक में चुनाव में मिली हार पर बहस को ख़त्म किया है, बल्कि एक रणनीति के  तहत यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी को इस चिंतन बैठक से ही बाहर कर दिया है. दोनों पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं. भाजपा की सरकार में प्रमुख और महत्वपूर्ण मंत्रालयों में कैबिनेट मंत्री रहे हैं. हार के बाद इन लोगों ने पार्टी में आडवाणी एंड कंपनी से मुक़ाबला करने का हौसला दिखाया था. कार्यकर्ताओं की बात पार्टी के  कर्ता-धर्ता के सामने रखी थी. इन दोनों प्रमुख नेताओं को चिंतन बैठक से बाहर रख कर पार्टी ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि भाजपा चंद लोगों की मर्ज़ी के  मुताबिक ही चलेगी. जिन्हें यह पसंद नहीं है वे अपना रास्ता ख़ुद तय कर सकते हैं. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पार्टी अध्यक्ष ने यह घोषणा की थी कि चिंतन बैठक में विरोध कर रहे नेताओं की बात सुनी जाएगी और हार के  लिए ज़िम्मेदार कौन हैं, इस पर चर्चा होगी. यानी चुनाव नतीजे का पोस्टमार्टम होगा. अगर किसी कारणवश पार्टी ने यह नहीं करने का फैसला किया है तो राजनाथ सिंह को चाहिए कि देश के सामने यह स्पष्ट करें कि किन कारणों और मजबूरियों की वजह से चिंतन बैठक में चुनावी हार पर बातचीत नहीं होगी, चिंतन बैठक में इन दोनों को क्यों नहीं बुलाया गया आदि-आदि. लेकिन अध्यक्ष जी चुप हैं.

इस चिंतन बैठक के संदर्भ में नोट करने वाली बात यह है कि पहले यह तय हुआ था कि देश भर से 40 वरिष्ठ नेताओं को चिंतन बैठक के  लिए बुलाया जाएगा. लेकिन भाजपा मुख्यालय के  लोगों के मुताबिक यह संख्या घट कर 25 कर दी गई है. जब लोगों की संख्या कम होगी, तो विरोध के  स्वर भी कम होंगे. लेकिन वे 15 लोग कौन हैं, जिन्हें इस लिस्ट से बाहर किया गया है? पार्टी के  एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि उन सभी

नेताओं को इस चिंतन बैठक से बाहर किया जाएगा, जिन पर ज़रा भी शक़हो कि वे बैठक में चुनाव समीक्षा की बात उठा सकते हैं.
भाजपा के  कुछ नेता मानते हैं कि आडवाणी जी चुनाव समीक्षा से इसलिए कतरा रहे हैं क्योंकि वह ख़ुद इस चुनाव के  केंद्रबिंदु थे और उनके  ही नज़दीकी नेता और सलाहकार चुनाव प्रचार के  कमांडर थे. पार्टी आडवाणी एंड कंपनी की मुट्‌ठी में बंद है. हार की समीक्षा होती तो यह सवाल भी उठता कि युवाओं के  लिए पार्टी का दरवाज़ा किसने बंद कर रखा है? किसने युवा मोर्चे के  राष्ट्रीय अध्यक्ष को टिकट न देने का फैसला किया? कार्यकर्ता क्यों नाराज़ है और सवाल यह भी उठता कि पार्टी ने कितने पैसे कहां-कहां ख़र्च किए और किसके ज़रिए ख़र्च किया गया. चिंतन बैठक में अगर हार पर चर्चा होगी तो आडवाणी के  नज़दीकी लोग ही निशाने पर आएंगे और उन पर भी सवाल खड़े होंगे. चिंतन बैठक में समीक्षा के दौरान ये सवाल भी उठते कि अटल बिहारी वाजपेयी को चुनाव प्रचार से दूर क्यों रखा गया, उनके  पोस्टर्स या उनके मैसेज को क्यों नहीं जनता तक पहुंचाया गया. ज़ाहिर है, इन सवालों के जवाब आडवाणी जी को ही देने पड़ते, जो वह नहीं चाहते हैं.

उधर, आडवाणी कैंप से इसकी वजह बताई जा रही है कि पिछले संसद सत्र में भाजपा का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है, जिससे कार्यकर्ताओं का हौसला बुलंद हुआ है. इसलिए हम हार पर चर्चा करके उनका मनोबल तोड़ने के पक्ष में नहीं हैं और इस बेवजह बहस से पार्टी में अंदरूनी कलह का दौर शुरू हो जाएगा. लेकिन पार्टी के  युवा नेता कह रहे हैं यह बात पहले से ही तय थी कि शिमला में  होने वाली चिंतन बैठक एक छलावा है. वहां कुछ भी नया नहीं होने वाला है. जो लोग पार्टी को बर्बाद करने पर तुले हैं, उन्हें रोकना किसी के  वश में नहीं है.  लोकसभा चुनाव में हार के  बाद आडवाणी कैंप से यह ख़बर आई थी कि इस शर्मनाक हार के  बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास की घोषणा कर दी है. बीजेपी में जो नेता आडवाणी के  सहारे अपनी राजनीति चमकाते हैं, उन लोगों ने उन्हें मनाया और उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का इरादा बदल लिया और नेता प्रतिपक्ष बनने के  लिए राज़ी हो गए. बताया गया कि आडवाणी कैंप की तऱफ से यह एक चाल चली गई, ताकि वह पार्टी में नया अध्यक्ष बनने तक सक्रिय रह सकें. इसके बाद यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और अरुण शौरी ने आडवाणी सहित पार्टी नेतृत्व पर आरोप लगाया कि हार के कारणों की समीक्षा करने के  बजाय इसके  ज़िम्मेदार लोगों को पुरस्कृत किया जा रहा है. नाराज़ नेताओं का मानना है कि आडवाणी के  सलाहकारों और चुनाव प्रचार के  कमांडरों की वजह से ही पार्टी चुनाव हारी है. यह व़क्त पार्टी की ग़लतियों को छुपाने का नहीं, सच का सामना करने का है. पार्टी ने पिछले दस सालों में क्या-क्या ग़लत किया उस पर विचार करने का है. उन वजहों को समझने की ज़रूरत है कि क्यों भाजपा के कार्यकर्ता नाराज़ हैं. क्यों भाजपा के  समर्थक वोट देने अपने घरों से नहीं निकल रहे हैं. ज़मीनी नेताओं, ख़ासकर युवाओं को, जिनकी छवि अच्छी हो और जो निजी महत्वाकांक्षाओं से ऊपर उठकर पार्टी के  प्रति ईमानदार हों, आगे लाने की ज़रूरत है. लेकिन यह भी तय है कि पार्टी बदलाव की राह पर चलने को तैयार नहीं है. आडवाणी जी ने चिंतन बैठक में चुनावी हार पर चर्चा न कराने के  ऐलान से ख़ुद को पार्टी में अंदरूनी कलह का एक केंद्र बना लिया है. एक सर्वमान्य नेता के  रूप में अपनी साख बनाने और नए नेताओं के  मार्गदर्शक बनने के  बजाय उनके निशाने पर आ गए हैं. पता नहीं इस उम्र में आडवाणी जैसे प्रखर नेता को क्या हो गया है?

नहीं करेगी भाजपा सच का सामना

जब भाजपा के  नाराज़ नेता चिंतन बैठक में नहीं होंगे, तो शिमला में क्या होगा? आडवाणी ने कहा कि हार की समीक्षा नहीं होगी, तो फिर पार्टी शिमला में किस बात पर चिंतन करेगी? अब आडवाणी जी अगले पांच साल तक नेता प्रतिपक्ष बने रहेंगे, मतलब नेतृत्व में परिवर्तन की भी गुंज़ाइश नहीं है, तो फिर इस बैठक के  क्या मायने हैं? आरएसएस ने इस बैठक में हिस्सा लेने से मना कर दिया है, तो चिंतन बैठक का उद्देश्य क्या है? शिमला की वादियों में तीन दिनों तक चिंतन बैठक होगी. पत्रकार भी जाएंगे. पार्टी चिंतन भी करेगी और शिमला में पूरे देश को बताया जाएगा कि आडवाणी ही भाजपा के  नेता हैं और रहेंगे. यह भी बताया जाएगा कि पार्टी ने चुनाव में पराजय के  कारणों की समीक्षा की, विचारधारा पर बातचीत हुई, पार्टी को फिर से कैसे मज़बूत किया जाएगा उसकी रणनीति तैयार हुई है, युवाओं और नए चेहरों को कैसे पार्टी में शामिल किया जाए, उस पर चर्चा हुई.  चुनावी हार के  बारे में बताया जाएगा कि चिंतन बैठक में 15वीं लोकसभा चुनाव की समीक्षा हुई. जिसका निष्कर्ष यह है कि देश की जनता वामपंथियों को सबक़ सिखाने की ठान चुकी थी. पिछली बार वामपंथियों ने सरकार को इतना परेशान किया कि लोग उनसे नाराज़ हो गए. चुनाव समीक्षा में पार्टी का मानना है कि देश द्विदलीय प्रणाली की ओर जा रही है. जनता देश में द्विदलीय प्रणाली चाहती है, इसलिए लोगों ने क्षेत्रीय दलों को नकार दिया. यह भी बताया जाएगा कि उत्तर प्रदेश में वरुण गांधी के  बयान से वोटों का ध्रुवीकरण हो गया, जिसकी वजह से उम्मीद के  मुताबिक सींटे नहीं आईं. कुछ राज्यों में हमारी उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन रहा, तो कुछ राज्यों में वहां की क्षेत्रीय परिस्थितियों के  कारण सीटें कम हुईं. चिंतन बैठक के  बाद यह भी बताया जाएगा कि पार्टी की विचारधारा में कोई बदलाव नहीं आया है, पार्टी इनक्लुसिव हिंदुत्व में विश्वास रखती है, पार्टी दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के  बताए राष्ट्रवाद पर चलेगी. पार्टी चिंतन बैठक के  बाद यह  कहेगी कि भाजपा चुनाव हारी नहीं है, कांग्रेस जीती है. पार्टी में युवाओं को शामिल करने की भी तैयारी बताई जाएगी, लेकिन इसकी रणनीति क्या होगी इसे आगे के लिए टाल दिया जाएगा. आरएसएस के  साथ संबंधों के  बारे में  बताया जाएगा कि संघ भाजपा के  लिए प्रेरणास्रोत था और रहेगा. चिंतन बैठक से भाजपा के  उन नाराज़ नेताओं को भी संदेश दिया जाएगा कि पार्टी में रहना है तो उनके हिसाब से चलना होगा. अगर पसंद नहीं है तो आप अपना अलग  रास्ता चुन सकते हैं. इस चिंतन बैठक में हार के  कारणों का सार यह होगा कि चुनाव प्रचार और रणनीति में कोई कमी नहीं थी. बस, देश की जनता ही उनकी बातों को समझ नहीं पाई.

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