शाहरूख खान और फॉक्‍स ने ठाकरे और पूरे देश को मूर्ख बनाया

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यह एक शर्मनाक़ स्थिति है कि माई नेम इज ख़ान विवाद ने ऐसा रूप अख्तियार कर लिया, जहां राज्य सरकार ने फिल्म को रिलीज और हिट कराने का ज़िम्मा अपने सिर ले लिया हो. हद तो तब हो गई, जब उप मुख्यमंत्री आर आर पाटिल ख़ुद फिल्म देखने थियेटर पहुंच गए. जिस हिसाब से कांग्रेस और एनसीपी की सरकार ने इस फिल्म को रिलीज कराने में अपनी सारी ताक़त झोंक दी, अगर वैसी ही कोशिश ग़रीब टैक्सी वालों के लिए की गई होती, तो मुंबई की सड़कों पर बिहार एवं यूपी के टैक्सी ड्राइवर और परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा न गया होता.

shahrukh khanफिल्म के प्रमोशन दो तरह के होते हैं. एक अच्छा प्रमोशन और दूसरा बुरा. अच्छा प्रमोशन वह है, जिसमें लोगों में ख़ुशियां बांटी जाती हैं, सकारात्मक मनोरंजन होता है और जिसमें लोग ख़ुशी-ख़ुशी शरीक होते हैं. बुरा प्रमोशन वह होता है, जिससे समाज में कलह, धार्मिक द्वेष और हिंसा फैलती है. अच्छे और बुरे प्रमोशन में यही फर्क़ होता है. फिल्म माई नेम इज ख़ान ने इतिहास में अपना नाम दर्ज़ करा लिया. यह कोई क्लासिक नहीं है और न ही यह फिल्म पापुलर कैटेगरी में दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे की तरह है. यह फिल्म दूसरे सप्ताह में ही अपनी हैसियत पर आ गई. दूसरे सप्ताह में ही सिनेमाघरों के मालिकों ने इस फिल्म को बाहर का रास्ता दिखा दिया या फिर इस फिल्म के शोज कम कर दिए. कई जगहों पर माई नेम इज ख़ान को हटाकर पुरानी फिल्में लगा दी गई हैं. इसके  बावजूद इस फिल्म को ग़लत वजहों के कारण याद किया जाएगा. फॉक्स-स्टार, शाहरुख ख़ान और करण जौहर ने इस फिल्म के लिए प्रमोशन का जो तरीक़ा अपनाया, उसे जानकर कोई भी इंसान हैरान हो जाएगा. मीडिया, नेता और सरकारों की मूर्खता का इससे बेहतर नमूना पहले कभी नहीं देखा गया.

माई नेम इज ख़ान का प्रमोशन नवंबर या दिसंबर में शुरू नहीं हुआ. इस फिल्म के प्रमोशन का पहला दांव शाहरुख ख़ान ने 14 अगस्त 2009 को खेला. वह भी अमेरिका में. भारत में स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा था. छुट्टी का दिन था. लोग अपने-अपने घरों में टीवी देख रहे थे. ऐसे में बिजली की तरह एक ख़बर चमकी. शाहरुख ख़ान को न्यू जर्सी एयरपोर्ट पर सुरक्षा के लिहाज़ से रोका गया है और उन्हें अपमानित किया गया है. शाहरुख ख़ान ने अमेरिका से टीवी चैनलों पर फोन से इस फिल्म का पहला डायलॉग पूरे देश को सुनाया-माई नेम इज ख़ान एंड आई एम नॉट ए टेरररिस्ट. उन्होंने बताया कि उनके नाम के पीछे ख़ान लगा है, इसलिए उनके साथ दुर्व्यवहार हुआ है. टीआरपी के भूखे टीवी चैनलों का आलम यह था कि उन्होंने देश भर में प्रायोजित जुलूस और प्रदर्शन को ऐसे दिखाना शुरू किया, जैसे अमेरिका ने भारत पर हमला कर दिया हो. ऐसी घटना पहले भी हो चुकी है. देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम आज़ाद को भी सुरक्षा जांच के लिए रोका गया था. देश के कद्दावर नेता एवं रक्षा मंत्री होते हुए जॉर्ज फर्नांडीस के साथ भी यही हुआ था. मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल ग़ौर को तो केवल अंडरवियर पहनने की इजा़जत दी गई थी.

ऐसा हर किसी के साथ होता है, लेकिन इसे मुद्दा नहीं बनाया जाता. यह बात और है कि अमेरिका में स्टार के प्रतियोगी टीवी चैनल सीएनएन ने उसी दिन यह ख़बर भी दिखाई कि शाहरुख ख़ान अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिए अमेरिका आए हैं. इस फिल्म का विषय नस्लवाद से जुड़ा है और उन्होंने नॉर्मल सिक्योरिटी चेकअप को मुद्दा बनाकर का़फी पब्लिसिटी हासिल कर ली है. अगर शाहरुख ख़ान के साथ दुर्व्यवहार हुआ तो उन्होंने कोई मामला क्यों नहीं दर्ज़ कराया. स़िर्फ मीडिया में बयानबाज़ी करके वह क्या हासिल करना चाहते थे? यह बात और है कि जिस किसी ने माई नेम इज ख़ान देखी, उसे यह समझाने की ज़रूरत नहीं है कि फिल्म का पहला सीन 14 अगस्त के वाकये का नाट्य रूपांतर है. फिल्म में भी मिस्टर ख़ान के साथ एयरपोर्ट के अधिकारियों ने कुछ नहीं किया और असल ज़िंदगी में भी शाहरुख ख़ान के साथ ऐसा ही हुआ. आज की तारीख़ में इस मामले को लेकर दुनिया की किसी भी अदालत में कोई केस नहीं है.

माई नेम इज ख़ान के निर्माण में कई बड़े नाम और बड़ी कंपनियां जुड़ी हैं. इसमें शाहरुख ख़ान का रेड चिली प्रोडक्शन, करण जौहर का धर्मा प्रोडक्शन भी शामिल है. इसके अलावा इस फिल्म के लिए पहली बार फॉक्स सर्चलाइट और स्टार नेटवर्क ने साझीदारी करते हुए फॉक्स स्टार बैनर बनाया. भारत के बाहर इस फिल्म के वितरण अधिकार फॉक्स स्टार के पास हैं. यह भी याद रखना चाहिए कि फॉक्स और स्टार दुनिया के दो सबसे शक्तिशाली मीडिया हाउस हैं. फिल्मों के अलावा इनके पास दुनिया भर में कई टीवी चैनल और बड़े-बड़े अख़बार हैं. अमेरिका, यूरोप और भारत में इनकी पहुंच सीधे केंद्रीय मंत्रियों और अधिकारियों तक है. यह बात भी सच है कि इन कंपनियों के पास दुनिया की सबसे बेहतरीन प्रमोशनल टीम है, जो जब चाहे जहां चाहे, विवाद खड़ा कर सकती है. समाज में कोहराम मचा सकती है. यह ख़बरें बनाने, उन्हें टीवी और अखबार में प्रकाशित करके दुनिया भर में हंगामा खड़ा करने की ज़बरदस्त ताक़त रखती है. इसलिए माई नेम इज ख़ान के प्रमोशन का सारा ज़िम्मा इन कंपनियों के पास होना स्वाभाविक है. माई नेम इज ख़ान की प्रमोशन टीम दुनिया भर में सक्रिय थी. चाहे वह यूरोप का कोई देश हो या फिर अमेरिका.

shahrukh khANहर जगह फॉक्स स्टार की प्रमोशन टीम ने पूरी दक्षता के साथ फिल्म को प्रमोट किया और उसमें सफलता पाई. इस टीम ने भारत और भारत के बाहर के देशों के लिए एक सटीक फार्मूला बनाया. इसकी रिसर्च इतनी पक्की है और यह जानती है कि यूरोप और अमेरिका में वे फिल्में ज़बरदस्त हिट साबित होती हैं, जो वहां की जीवनशैली पर सवाल उठाती हैं. माई नेम इज ख़ान इसी अमेरिकन शैली पर सवाल उठाने वाली फिल्म है. साथ ही भारत, पाकिस्तान और पश्चिम एशिया के देशों में पहले से ही अमेरिका के ख़िला़फ वातावरण है. साथ ही कुछ कट्टरवादी संगठनों की वजह से भारत में धार्मिक उन्माद खड़ा करना बड़ा आसान हो गया. फिल्म माई नेम इज ख़ान के प्रमोशन का फार्मूला इन्हीं बातों पर आधारित था. फॉक्स स्टार की अन्य फिल्में भी कई मसलों पर विवादित रही हैं. स्लमडॉग मिलेनियर को लेकर यह कंपनी विवाद के  घेरे में आ चुकी है. इसके प्रमोशन में जिस तरह भारत के ग़रीबों को पेश किया गया, उससे यही साबित होता है कि इन कंपनियों को यह अच्छी तरह से पता है कि भारत के कौन से विषय, विवाद और स्टार्स विदेशों में बेचे जा सकते हैं. यह इनकी मीडिया की ताक़त का ही असर है कि स्लमडॉग मिलेनियर की बाल कलाकार रूबीना को उसके पिता द्वारा तीन लाख डॉलर में बेचने की ख़बर फैलाकर इस फिल्म का प्रमोशन किया गया था. कुछ साल पहले वाराणसी में दीपा मेहता की फिल्म वाटर की शूटिंग के दौरान हंगामा हुआ. फिल्म वाटर के वितरण अधिकार भी फॉक्स फिल्म्स के  पास थे. लेकिन, माई नेम इज ख़ान का प्रमोशन अपने आप में इतिहास है. इस फिल्म की प्रमोशन टीम ने एक ही झटके में राजनीतिक दलों, मीडिया, मंत्रियों, सरकारों और देश की जनता को बेवकू़फ बना दिया. हैरानी की बात यह है कि ये लोग बेवकू़फ भी बन गए और इन्हें इस बात की भनक तक नहीं है.

अब सवाल यह है कि ऐसे प्रमोशन की ज़रूरत क्यों पड़ी. फिल्म से जुड़े सभी निर्माताओं को इस बात का अंदाज़ा था कि यह फिल्म ज़्यादा नहीं चलेगी, क्योंकि ऐसी ही कहानी पर आधारित करण जौहर की ही फिल्म क़ुर्बान बॉक्स आफिस पर पिट चुकी थी. माई नेम इज ख़ान का हाल भी कहीं क़ुर्बान जैसा न हो, इसलिए एक आक्रामक रणनीति बनाई गई. शाहरुख ख़ान और करण जौहर की रणनीति सा़फ है. इस फिल्म को 50 करोड़ रुपये की लागत से बनाया गया और फॉक्स ग्रुप को 90 करोड़ रुपये में भारत के बाहर के अधिकार बेच दिए गए.

मतलब यह कि फिल्म रिलीज़ होने से पहले ही करण जौहर और शाहरुख ख़ान मुना़फे में थे. इस फिल्म के सुपरहिट होने पर भी मुंबई में स़िर्फ 10 करोड़ रुपये ही कमाए जा सकते थे, जो फिल्म की कुल कमाई के 10 फीसदी के बराबर हैं. माई नेम इज ख़ान के रणनीतिकारों ने इसी 10 करोड़ रुपये पर जुआ खेला. बॉक्स आफिस का गणित सा़फ है कि ख़राब से ख़राब हालत में भी मुंबई से 4-5 करोड़ रुपये आ सकते हैं. यह समझने के लिए किसी को बहुत बड़ा रणनीतिकार होने की ज़रूरत नहीं है कि मुंबई में हुई घटनाओं का असर मुंबई के बाहर होगा. मुंबई में अगर शिवसेना ने फिल्म का विरोध किया और टीवी पर इसे जमकर दिखाया गया तो देश के दूसरे हिस्सों में लोग फिल्म देखने ज़रूर निकलेंगे. प्रमोशन के इस ख़तरनाक खेल को फॉक्स-स्टार की टीम ने बड़ी खूबी से अंजाम दिया. स्टार ग्रुप के न्यूज चैनल देश के हर रीजन और भाषा में भी हैं. अ़खबारों में भी इनकी साख है. इसके अलावा इस फिल्म के प्रचार के लिए टीवी चैनलों और अ़खबारों में जमकर खर्च किया गया. विवाद खड़ा होते ही इन टीवी चैनलों और अ़खबारों ने अपना फर्ज़ निभाया. इन टेलीविजन चैनलों, अ़खबारों और रेडियो ने मुंबई की घटनाओं से जुड़ी खबरों को ऐसे दिखाया, जैसे कोई राष्ट्रीय संकट पैदा हो गया हो. यह संभव है कि टीवी चैनल एवं अ़खबार प्रमोशन के इस खतरनाक खेल से अंजान हों और वे स़िर्फ अपने व्यवसायिक हित के लिए ऐसा कर रहे हों. दरअसल, सटीक प्रोपेगंडा का उसूल ही यही है कि जो लोग इसमें शामिल होते हैं, उन्हें इस बात का पता ही न चले कि वे किसके लिए काम कर रहे हैं.

बड़े लोगों और छोटे लोगों में एक बुनियादी फर्क़ होता है. बड़े लोग बेवजह कुछ नहीं बोलते हैं. शिवसेना के हंगामे, महाराष्ट्र सरकार की सुरक्षा व्यवस्था के  बीच मीडिया में बयानों की बौछार और खिचखिच के बीच 16 दिसंबर 2009 को शाहरु़ख खान ने जो कहा, उस पर से लोगों का ध्यान हट गया. मीडिया ने शाहरु़ख खान के बयानों को सही परिपेक्ष्य में देखा होता तो शायद सच्चाई पर से कुछ पर्दा उतर जाता. 16 दिसंबर 2009 को शाहरु़ख, काजोल और करण जौहर माई नेम इज खान के प्रमोशन के लिए मीडिया के सामने आए. शाहरु़ख से एक सवाल पूछा गया कि फिल्म रिलीज होने से पहले विवाद क्यों हो जाते हैं? जिस तरह आमिर फिल्म थ्री इडियट्स के लिए शहर-शहर जाकर प्रमोशन कर रहे हैं, जब आपकी फिल्म आएगी, तब आप क्या करेंगे?

शाहरु़ख खान ने जवाब दिया कि अंदाज़ वही होगा, जो मेरा अंदाज़ है. तुझे देखा तो यह जाना सनम… कंट्रोवर्सी करना तो छिछोरापन होता है. हम फिल्म की पब्लिसिटी के लिए छिछोरापन नहीं करेंगे. हमारे प्रमोशन का अपना ही तरीक़ा होगा. इस प्रेस कांफ्रेंस में शाहरु़ख ने यह पहले ही ऐलान कर दिया था कि मुझे लगता है कि इस फिल्म का जादू दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे से डेढ़ करोड़ गुना ज़्यादा चलेगा. हम तीनों जादूगर हैं. जब हम आएंगे, तब पूरी दुनिया देखेगी. फिल्म आ गई और दुनिया ने भी देख लिया. शाहरु़ख ने जिस अंदाज़ में यह बयान दिया, उससे सा़फ ज़ाहिर होता है कि फिल्म के प्रमोशन के लिए वह कुछ अलग और कुछ बड़ा करेंगे.

माई नेम इज खान को इतिहास में एक अच्छी फिल्म की तरह नहीं, लेकिन शिवसेना और शाहरु़ख के विवाद के लिए जाना जाएगा. फिल्म रिलीज होने वाली थी. उससे पहले शाहरु़ख खान का बयान आया कि आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को मौक़ा मिलना चाहिए था. यह एक विचित्र स्थिति है. शाहरु़ख खान खुद आईपीएल की एक टीम कोलकाता नाइट राइडर्स के मालिक हैं. उन्होंने खुद किसी पाकिस्तानी को नहीं चुना और बाद में उनके चुनाव के लिए मीडिया में बयानबाज़ी करने लगे. शाहरु़ख खान भले ही लोगों को शटअप कहने का अधिकार रखते हों, लेकिन उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि पाकिस्तानी क्रिकेटरों के आईपीएल में न चुने जाने का उन्होंने विरोध तो किया, लेकिन अपनी ही टीम में किसी भी पाकिस्तानी खिलाड़ी को जगह क्यों नहीं दी.

इस पूरे विवाद में देश की जनता की भावनाओं से खिलवाड़ किया गया. जनता की इस परेशानी के बीच तीन ऐसे मोहरे थे, जिन्हें इस विवाद से भरपूर फायदा हुआ शिवसेना, शाहरु़ख-फॉक्स और कांग्रेस-एनसीपी सरकार. बाल ठाकरे पिछले कुछ दिनों से महाराष्ट्र की राजनीति के साइड हीरो बन चुके थे. कई महीनों से अ़खबारों ने बाल ठाकरे के बारे में लिखना भी बंद कर दिया था. टीवी पर बाल ठाकरे दिखना बंद हो गए थे. बाल ठाकरे की जगह मराठा मानुष के नाम पर गुंडागर्दी करने का ज़िम्मा राज ठाकरे ने ले लिया. राज ठाकरे ने शिवसेना के मुद्दे को हथिया कर उनकी नींद उड़ा दी. लेकिन एक ही झटके में सब कुछ बदल गया. फिल्म माई नेम इज खान की रिलीज के साथ ही वह अचानक केंद्र में आ आए. अ़खबारों में बाल ठाकरे की तस्वीरें छपने लगीं. बाल ठाकरे द्वारा लिखे गए लेख टीवी चैनलों पर बार-बार दिखाए जाने लगे. शिवसेना पहली बार राज ठाकरे पर भारी दिखाई दी. यह सही है कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव हारने के बाद शिवसेना में मायूसी है. कार्यकर्ता निराश होकर राज ठाकरे की पार्टी की तरफ झुकने लगे थे. शिवसेना का वोट बैंक खिसकने लगा था. लोकसभा और विधानसभा में हारने के बाद बीएमसी का चुनाव सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. फिलहाल इस पर शिवसेना और बीजेपी का क़ब्ज़ा है और वे इसे किसी भी सूरत में अपने हाथ से गंवाना नहीं चाहती हैं. माई नेम इज खान विवाद ने शिवसेना के संगठन में जान डाल दी. इस विवाद के दौरान हुए हंगामे में 1500 से ज़्यादा कार्यकर्ता गिरफ्तार हुए. तीन-चार दिनों तक वे जेल में रहे. और, जब वे बाहर निकले तो अपने-अपने इला़के में उनका जमकर स्वागत हुआ. फूल-मालाओं से और जुलूस निकाल कर लोगों ने इनका स्वागत किया. जेल गए शिवसैनिकों को सरकार के इस कदम से का़फी लोकप्रियता मिली और शिवसेना के संगठन को नई ऊर्जा. इसका असर यह है कि अब शिवसेना अपने वोटबैंक को बिखरने से बड़ी आसानी से बचा पाएगी. यही वजह है कि इस विवाद के दौरान राज ठाकरे शिवसेना पर ही हमला करते नज़र आए.

इस विवाद से सबसे ज़्यादा फायदा शाहरु़ख खान और स्टार-फॉक्स को हुआ. शाहरु़ख खान ने यह साबित किया है कि फिल्म की मार्केटिंग और प्रमोशन करने में वह आमिर और सलमान जैसे दूसरे प्रतियोगी फिल्म स्टार से का़फी आगे हैं. टीवी चैनलों ने इस फिल्म की रिलीज को एक राष्ट्रीय पर्व बना दिया. शिवसैनिकों के बयान दिखाए जा रहे थे. न्यूज़ चैनलों पर बहस और लोगों की राय का सिलसिला फिल्म के हिट हो जाने तक चलता रहा. पुलिस का इंतजाम कैसा है, यह देखने के लिए टीवी चैनलों के कैमरों के सामने नेता, अधिकारी और मंत्रियों की लाइन लग गई. शाहरु़ख खान की राहुल गांधी से नजदीकियां जगज़ाहिर हैं, इसलिए महाराष्ट्र के कांग्रेसी नेता और मंत्री लाइन में लगकर टिकट खरीदते दिखे. हर सिनेमाहाल के बाहर पुलिस का जमावड़ा था. शिवसैनिकों की पकड़-धकड़ न्यूज़ चैनलों में लगातार दिखाई गई. यह एक शर्मनाक स्थिति है कि माई नेम इज खान विवाद ने ऐसा रूप अख्तियार कर लिया, जहां राज्य सरकार ने फिल्म को रिलीज और हिट कराने का ज़िम्मा अपने सिर ले लिया हो. हद तो तब हो गई, जब उप मुख्यमंत्री आर आर पाटिल खुद फिल्म देखने थियेटर पहुंच गए. जिस हिसाब से कांग्रेस और एनसीपी की सरकार ने इस फिल्म को रिलीज कराने में अपनी सारी ताक़त झोंक दी, अगर वैसी ही कोशिश ग़रीब टैक्सी वालों के लिए की गई होती, तो मुंबई की सड़कों पर बिहार एवं यूपी के टैक्सी ड्राइवर और परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा न गया होता. आर आर पाटिल साहब ने बिहार या यूपी वालों की टैक्सियों पर बैठने की ज़हमत क्यों नहीं उठाई?

देश के कई शहरों में खौ़फ और आतंक का माहौल, दुनिया भर की मीडिया में खलबली, शिवसैनिकों का हंगामा, हिंदुस्तान-पाकिस्तान के नेताओं की बयानबाज़ी, राज्य के मुख्यमंत्री, गृहमंत्री और कई नेताओं का सड़क पर उतरना, कई शहरों में सुरक्षा व्यवस्था, 1500 से ज़्यादा लोगों की गिरफ़्तारी. इतनी सारी घटनाएं, त़ेजी से चला घटनाचक्र, सौ करोड़ का देश और इन्हें अपने जाल में फंसाने वाली अमेरिका की एक कंपनी, जिसने देश की बीस करोड़ से ज़्यादा मुस्लिम आबादी को भी अपने जाल में भावनात्मक रूप से फंसा उन्हें फिल्म देखने सिनेमाहाल में भेज दिया. आमतौर पर मुसलमान अमेरिका के खिला़फ हैं, लेकिन इस मसले में वे अमेरिकी कंपनी के जाल में फंसे और खूब फंसे. पर अमेरिकी कंपनी फॉक्स ने जिस तरह रणनीति बनाई, उसके लिए उसकी तारी़फ होनी चाहिए और भारतीयों को उसके जाल में फंसने के लिए अपना सिर पीटना चाहिए.

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