सरकारी लोकपाल बिल : यह अंधा क़ानून है

Share via

Anna-Hazare-Interview-on-Lokpal-Bill-300x221पांच जून, 1975 को पटना के गांधी मैदान में लालू प्रसाद यादव ने कहा था कि इस संसद को आग लगा दो. अगले दिन अ़खबारों ने उनके इसी वाक्य को इस समाचार का शीर्षक बनाया. लालू यादव उस व़क्त छात्रनेता थे, युवा थे और जयप्रकाश जी के आंदोलन के महत्वपूर्ण आंदोलनकारी थे. 29 दिसंबर, 2011 को लालू यादव सचमुच संसद को आग लगाने का काम कर रहे थे. राज्यसभा में दिन भर लोकपाल बिल पर बहस होती रही. सरकार के पास बिल को पास कराने के लिए बहुमत नहीं था. रात नौ बजे से ऐसी खबरें आने लगीं कि सरकार जानबूझ कर हंगामा करने वाली है. बहस को लंबा करके 12 बजा दिया जाएगा और फिर सत्र अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया जाएगा. रात के 10 बजकर 50 मिनट पर लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के सांसद राजनीति प्रसाद भाषण दे रहे थे. पूरा देश राज्यसभा को लाइव देख रहा था. तभी एक अंग्रेजी चैनल के संपादक-एंकर ने अपने रिपोर्टर से कुछ ताज़ा जानकारी मांगने के लिए सवाल पूछा. राजनीति प्रसाद का नाम सुनते ही उस रिपोर्टर ने सरकार की पूरी योजना बता दी. 10 बजकर 50 मिनट पर उस रिपोर्टर ने बताया कि राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के सांसदों को सदन में हंगामा करने की ज़िम्मेदारी दी गई है. उसने यह भी बताया कि जब मंत्री सवालों के जवाब देंगे, तब हंगामा होगा. उसने यह भी बताया कि कांग्रेस पार्टी और इन पार्टियों के बीच यह योजना बनी है कि जब मंत्री महोदय अल्पसंख्यकों के आरक्षण के मामले पर बोलना शुरू करेंगे, उसी व़क्त राजनीति प्रसाद उन्हें रोकेंगे.

इस रिपोर्टर ने जैसी जानकारी दी, बिल्कुल वैसा ही हुआ. जब पीएमओ में राज्यमंत्री नारायण सामी जवाब दे रहे थे, तभी राजनीति प्रसाद ने उनसे बिल की कापी छीन कर उसे फाड़ दिया और हॉल में उछाल कर फेंक दिया. राज्यसभा में हंगामा मचाने की योजना के सूत्रधार लालू यादव संसद में मौजूद थे और जब यह शर्मनाक वाक्या घटित हो रहा था, उस व़क्त लालू यादव गैलरी में पूरे नज़ारे का आनंद उठा रहे थे. हंगामा हुआ. सदन की कार्रवाई रोक दी गई. विपक्ष यह कहता रह गया कि वह संसद में लगातार बैठने और वोटिंग कराने को राजी है, लेकिन सभापति हामिद अंसारी ने अनिश्चितकाल के लिए सदन की कार्रवाई स्थगित करते हुए राष्ट्रगान शुरू करने का आदेश दे दिया. पूरा देश हैरान और शर्मसार होकर इस ड्रामे को देख रहा था. लोकपाल बिल लटक गया और संसद कलंकित हो गई. इस तरह भ्रष्टाचार के खिला़फ कड़ा क़ानून बनाने निकली सरकार द्वारा प्रजातंत्र में भ्रष्टाचार का नया इतिहास लिख दिया गया.

जिन्हें संसद की गरिमा का ख्याल था, जिन्हें संसद में सिविल सोसाइटी का दखल पसंद नहीं था, जिन पर संसद की साख बचाने की ज़िम्मेदारी थी, जिनके सामने इतिहास गढ़ने का मौका था, वे चूक गए और उन्होंने सब कुछ गंवा दिया. कांग्रेस पार्टी ने लोकपाल पर जो किया, उससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि देश चलाने वालों में भ्रष्टाचार खत्म करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है. भ्रष्टाचार के अंधकार को खत्म करने के लिए सरकार को क़ानून बनाना था, लेकिन उसने भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाला एक अंधा क़ानून बनाने की पहल की है.

सरकार की नीयत में खोट है, यह शुरुआत से ही लग रहा था. जो लोकपाल क़ानून सरकार लागू करना चाहती है, वह इस बात का सबूत है. जबसे लोकपाल को लेकर विवाद शुरू हुआ, तबसे दो-दो लोकपाल बिलों की बात चली. एक वह, जो सरकार बनाना चाहती थी और दूसरा वह, जो अन्ना हजारे की टीम ने तैयार किया था, जिसे जन लोकपाल बिल कहा जाता है. भ्रष्टाचार के खिला़फ एक सशक्त लोकपाल बने, इसके लिए अन्ना हजारे ने 5 अप्रैल, 2011 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनशन शुरू किया, उन्हें लोगों का अपार समर्थन मिला. सरकार भी डर गई कि दिल्ली में कहीं मिस्र जैसी हालत न हो जाए. इसलिए सरकार ने बिल को तैयार करने के लिए एक संयुक्त समिति बनाई, जिसमें टीम अन्ना के पांच सदस्य शामिल किए गए. टीम अन्ना की तरफ से अन्ना हजारे, शांतिभूषण, प्रशांत भूषण, संतोष हेगड़े और अरविंद केजरीवाल थे तो सरकार की तरफ से प्रणव मुखर्जी, कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम, अभिषेक मनु सिंघवी और सलमान खुर्शीद थे. सरकार के पास उस व़क्त भी लोकपाल बिल का एक मसौदा था. संयुक्त कमेटी में टीम अन्ना ने कुछ सुझाव दिए.

सरकार की नीयत में खोट थी, इसलिए उसने टीम अन्ना की बात नहीं मानी. आखिर उसने संयुक्त समिति का ड्रामा क्यों किया? इस संयुक्त समिति में यह फैसला लिया गया कि दोनों ही लोकपाल बिल कैबिनेट के सामने रखे जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अन्ना ने रामलीला मैदान में अनशन किया. तेरह दिनों के बाद सरकार और अन्ना में समझौता हुआ. प्रधानमंत्री ने पत्र लिखकर सेंस ऑफ हाउस (संसद की भावना) को लागू करने का आश्वासन दिया. अन्ना की यह मांग थी कि लोकपाल बिल संसद के शीतकालीन सत्र में पास कर दिया जाए. सरकार ने शीतकालीन सत्र के दौरान लोकपाल बिल पेश किया. सरकार की चाल, चरित्र और चेहरा उजागर हो गया. अन्ना हजारे के आंदोलन से पहले सरकार ने लोकपाल क़ानून का जो मसौदा तैयार किया था, उसकी तुलना में मौजूदा सरकारी लोकपाल बिल का स्वरूप खराब और कमज़ोर है.

देश की भावना क्या है. देश की भावना यही है कि सरकार भ्रष्टाचार के खिला़फ एक कठोर क़ानून लाए. एक ऐसा क़ानून, जिससे भ्रष्टाचार को मिटाया जा सके. सरकार ने न देश की भावना का ख्याल रखा और न वह संसद की भावना को लागू करना चाहती है. सेंस ऑफ द हाउस क्या था. संसद में यह तय हुआ था कि लोकपाल बिल में सी और डी कैटेगरी के कर्मचारी लोकपाल के अधीन होंगे और सिटीजंस चार्टर को लोकपाल में शामिल किया जाएगा. इसके अलावा राज्यों में लोकायुक्त का गठन लोकपाल क़ानून के तहत होगा, लेकिन सरकार ने जो वायदा किया था, उसे नहीं निभाया. सिटीजंस चार्टर बिल को अलग कर दिया गया. राज्यों में लोकायुक्त के लिए अलग व्यवस्था है और निचले कर्मचारियों को लोकपाल की जगह केंद्रीय सतर्कता आयोग के अधिकार क्षेत्र में दे दिया गया. अगर यह क़ानून पास हो गया होता तो निचले कर्मचारियों का भ्रष्टाचार लोकपाल के तहत नहीं आता. सेना के भ्रष्टाचार की तहकीकात करने का अधिकार लोकपाल के पास नहीं है. सांसदों का भ्रष्टाचार भी अब लोकपाल के दायरे से बाहर कर दिया गया है. न्यायपालिका भी लोकपाल के अधिकार क्षेत्र से बाहर है. संसद में सरकारी पक्ष ने अपनी किरकिरी खुद कराई. लोकसभा में सरकारी लोकपाल बिल में कुल 55 संशोधनों पर वोटिंग होनी थी, जिनमें से स़िर्फ 9 संशोधन ही पास हो पाए. ये नौ संशोधन वे थे, जिन्हें सरकारी पक्ष की तरफ से रखा गया. हैरतअंगेज बात यह है कि सरकार ने खुद बिल तैयार किया और खुद संशोधन की अर्जी भी लगाई.

सरकार की नीयत में खोट है, यह शुरुआत से ही लग रहा था. जो लोकपाल क़ानून सरकार लागू करना चाहती है, वह इस बात का सबूत है. जबसे लोकपाल को लेकर विवाद शुरू हुआ, तब से दो-दो लोकपाल बिलों की बात चली. एक वह, जो सरकार बनाना चाहती थी और दूसरा वह, जो अन्ना हजारे की टीम ने तैयार किया था, जिसे जन लोकपाल बिल कहा जाता है. भ्रष्टाचार के खिला़फ एक सशक्त लोकपाल बने, इसके लिए अन्ना हजारे ने 5 अप्रैल, 2011 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनशन शुरू किया, उन्हें लोगों का अपार समर्थन मिला. सरकार भी डर गई कि दिल्ली में कहीं मिस्र जैसी हालत न हो जाए.

सरकार की मंशा देखिए, ऐसा लगता है कि लोकपाल क़ानून बनाने वालों को भ्रष्टाचारियों की चिंता ज़्यादा है. सरकारी लोकपाल क़ानून के अनुसार, अगर किसी अधिकारी के खिला़फ भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो उसे सरकार की तरफ से वकील दिया जाएगा. मतलब यह कि भ्रष्ट अधिकारियों को वकील पर पैसा भी नहीं खर्च करना पड़ेगा. हैरानी की बात यह भी है कि अगर कोई व्यक्ति लोकपाल के पास किसी अधिकारी के खिला़फ शिकायत दर्ज कराएगा तो सरकार उस अधिकारी को वकील मुहैया कराएगी, ताकि वह अदालत में शिकायतकर्ता पर यह मुकदमा कर सके कि उसके खिला़फ लगाए गए आरोप फर्ज़ी हैं. सरकार अधिकारियों को बचाने के लिए एक और नियम बनाना चाहती है. आरोपी अधिकारी के खिला़फ एफआईआर दर्ज कराने से पहले उसे एक नोटिस देकर पूछा जाएगा कि उसके खिला़फ एफआईआर क्यों न दर्ज कराई जाए. साथ ही उसके खिला़फ जितने सबूत हैं, वे उसे दिखाए जाएंगे. आरोपी उस नोटिस का पहले जवाब देगा, तब जाकर उसके खिला़फ एफआईआर दर्ज की जा सकेगी. इसका मतलब यह है कि जिस अधिकारी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगेगा, उससे पहले पूछा जाएगा कि उसके खिला़फ कार्रवाई क्यों न की जाए. अगर उसके खिला़फ कार्रवाई हुई भी तो पहले सारे सबूत उसके सामने रखने का प्रावधान बनाया गया है. सरकार ऐसा क़ानून बनाना चाहती है, जिसमें भ्रष्टाचार का मामला जांच और कार्रवाई के लिए दफ्तरों में घूमता रहेगा और भ्रष्ट अधिकारी को इतना समय मिल जाएगा कि वह सारे सबूत नष्ट कर सके.

पहले जो क़ानून लाया जा रहा था, उसमें यह प्रावधान था कि भ्रष्टाचार के प्रत्येक मामले को छह महीने की अवधि के अंदर निपटा दिया जाएगा. अब यह अनिवार्य समय सीमा हटा ली गई है. मतलब यह कि अब किसी घोटाले की जांच कई सालों तक चल सकती है. जैसा कि बड़े-बड़े घोटालों में हुआ, जांच और अदालत में सुनवाई होते-होते ज़माना बीत गया और घोटालेबाज छूट गए. हैरानी की बात यह है कि यह प्रावधान सरकार ने लोकसभा में संशोधन के तहत किया. अब सवाल उठता है कि सरकार भ्रष्टाचारियों को पकड़ना चाहती है या फिर उन्हें बचने का रास्ता देना चाहती है. लोकपाल क़ानून बनाने वालों की महानता देखिए. अगर कोई ग़रीब आदमी ग़लती से चोरी कर लेता है तो पुलिस उसे तुरंत गिरफ्तार करके उसके खिला़फ मुकदमा दर्ज कर लेती है और उसे जेल भेज दिया जाता है, उसे बोलने का मौका भी नहीं दिया जाता. क़ानून में ऐसे लोगों के लिए कोई रहम नहीं है. सरकार ने जो लोकपाल बिल तैयार किया, उसके पीछे की दलील यही लगती है कि वह यह मानती है कि देश के अधिकारी ईमानदार हैं.

निचले कर्मचारियों को सीवीसी के हाथों सौंप दिया गया है. देश में 60 लाख सरकारी कर्मचारी हैं, जो केंद्र सरकार से जुड़े हैं. इनमें से स़िर्फ 3 लाख कर्मचारी ही लोकपाल के दायरे में हैं. लोकपाल के पास स़िर्फ ए और बी ग्रुप के अधिकारी हैं. सरकार की दलील है कि सारे कर्मचारियों को लोकपाल के तहत नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि यह संख्या का़फी ज़्यादा है. अगर यह दलील है तो उन्हें सीवीसी को क्यों दे दिया गया, क्या सीवीसी के पास इतने लोग हैं या उसकी इतनी क्षमता है कि वह 57 लाख कर्मचारियों के भ्रष्टाचार के मामलों की तहकीक़ात कर सके. सरकार ने यह दलील देकर निचले कर्मचारियों को तो निकाल दिया, लेकिन उनकी जगह करोड़ों संस्थाओं और लोगों को लोकपाल के हवाले कर दिया. निजी संगठन, मंदिर, मठ, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च, ट्रस्ट, यूथ क्लब, निजी स्कूल-कॉलेज और अस्पताल, ये सब लोकपाल के दायरे में डाल दिए गए हैं. इसके पीछे दलील यह है कि जो भी व्यक्ति या संगठन चंदा इकट्ठा करते हैं, उन्हें लोकपाल के दायरे में शामिल कर दिया गया है. लोकपाल बिल का मसौदा इस बात का प्रमाण है कि सरकार ने वही किया, जो वह पहले करना चाह रही थी.

अब सवाल उठता है कि लोकपाल का चयन कौन करेगा. उसके चयन के लिए पांच लोगों की एक कमेटी गठित होगी, जिसमें प्रधानमंत्री, स्पीकर, चीफ जस्टिस, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत एक न्यायविद्‌ को शामिल किया जाएगा. मतलब यह कि चीफ जस्टिस एवं नेता प्रतिपक्ष के अलावा सभी सदस्य सत्ता पक्ष के होंगे और सरकार अपने हिसाब से लोकपाल चुनेगी. इस तरह लोकपाल का भी राजनीतिकरण हो जाएगा. जो हाल राज्यपाल के पद का है, उसी तरह सरकार अपनी पार्टी के रिटायर लोगों को लोकपाल बना देगी यानी सरकार जिसे चाहेगी, उसे लोकपाल बनाएगी. सरकार ही लोकपाल को हटा सकती है, जब चाहे उसे सस्पेंड कर सकती है. अन्ना हजारे की टीम ने लोकपाल को हटाने का अधिकार जनता को दिया था. जन लोकपाल मसौदे के मुताबिक़, कोई भी आम नागरिक लोकपाल के खिला़फ सुप्रीम कोर्ट जा सकता है और उसे हटवा सकता है, लेकिन सरकारी लोकपाल को हटाने का हक़ स़िर्फ और स़िर्फ सरकार के पास रहेगा. कहने का मतलब यह है कि लोकपाल पूरी तरह सरकार के हाथों की कठपुतली बन जाएगा. अब यह समझ में नहीं आता है कि सरकार जो लोकपाल नियुक्त करेगी और उसके निलंबन-ब़र्खास्तगी का अधिकार अपने पास रखेगी, वह लोकपाल मंत्रियों, मंत्रालयों और बड़े-बड़े अधिकारियों के खिला़फ कार्रवाई कैसे कर सकेगा? जिस तरह सीवीसी सरकार के मंत्रियों के खिला़फ कोई कार्रवाई नहीं कर सकती, उसी तरह लोकपाल भी सीबीआई और सीवीसी जैसी नख-दंत-विष हीन संस्था बनकर रह जाएगा. मनमोहन सिंह सरकार का यही सशक्त लोकपाल है.

लोकपाल क़ानून बनाते समय सरकार से एक और ग़लती हुई. इस ग़लती की शिकार हुई है सीबीआई यानी देश की प्रीमियम जांच एजेंसी. सरकार ने दो काम किए. एक तो सीबीआई को कमज़ोर किया और अपना शिकंजा भी बरक़रार रखा. लोकपाल या भ्रष्टाचार से लड़ने वाली किसी भी संस्था की परिकल्पना जांच के अधिकार के बिना नहीं की जा सकती, लेकिन सरकार ने लोकपाल तो बनाया, पर उसे जांच के कोई अधिकार नहीं दिए. अधिकार स़िर्फ इतना दिया गया कि वह संबंधित मामले की जांच सीबीआई, ईडी या किसी अन्य जांच एजेंसी से करा सकती है. जांच में क्या हो रहा है, आरोपी को गिरफ्तार करना है या नहीं, उसके घर छापा मारना है या नहीं, सबूत इकट्ठा करने के लिए क्या करना है आदि बातों से लोकपाल को कोई लेना-देना नहीं है. वह जांच अधिकारी या एजेंसी से कोई पूछताछ नहीं कर सकता, वह स़िर्फ जांच एजेंसियों की रिपोर्ट पर ही कार्रवाई कर सकता है. 2-जी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ गेम्स या फिर हसन अली के मामले में जांच एजेंसियों ने क्या किया, यह जगज़ाहिर है. सुप्रीम कोर्ट अगर प्रोएक्टिव न होता तो इन बड़े-बड़े घोटालों में किसी को कुछ नहीं होता.

संसद और राजनीतिक दलों ने एक अजीबोग़रीब संदेश दिया है. लोकपाल के दायरे से बड़ी-बड़ी कंपनियों को बाहर कर दिया गया. इस काम में सभी पार्टियों ने सरकार की मदद की. 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो या कॉमनवेल्थ गेम्स का घोटाला, देश में भ्रष्टाचार का तरीका बदला है. आज जितने भी घोटाले होते हैं, उनमें बड़ी-बड़ी कंपनियां शामिल रहती हैं, जो अधिकारियों को रिश्वत देती हैं, काग़ज़ों पर शब्दों के हेरफेर से करोड़ों रुपये कमाती हैं. ये बड़ी-बड़ी कंपनियां अधिकारियों और नेताओं से हाथ मिलाकर देश की खनिज संपदा लूट रही हैं, किसानों की ज़मीनों पर क़ब्ज़ा कर रही हैं. सरकारी लोकपाल क़ानून में इन कंपनियों के खिला़फ कोई प्रावधान नहीं है. अब ऐसे में निष्कर्ष यही निकाला जा सकता है कि सरकार भ्रष्टाचार को खत्म करना ही नहीं चाहती है, क्योंकि इन कंपनियों से नेताओं, अधिकारियों और राजनीतिक दलों की कमाई होती है. जनता का राजनीतिक दलों से विश्वास उठता जा रहा है. सरकार ही अगर संसद में हंगामा करने लग जाए तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. दूसरे राजनीतिक दलों का रवैया भी टालमटोल वाला रहा. देश की जनता को इन राजनीतिक दलों का चरित्र पहचानने की ज़रूरत है. जनता को इनकी जवाबदेही तय करने की ज़रूरत है, वरना लोकपाल बिल हमेशा के लिए लटका रह जाएगा. अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार से लड़ने वाले अन्य लोगों के सामने चुनौती है. उन्हें नए सिरे से आंदोलन का आगाज करना होगा, सरकार और राजनीतिक दलों पर दबाव बनाना होगा, ताकि भ्रष्टाचार के खिला़फ एक निर्णायक लड़ाई की शुरुआत हो सके.

Share via

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *