बीजेपी-की सरकार बनाना चाहता है- मोसाद

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मैं किसी के घर खाना खाने नहीं जाता, यह हमारी प्रथा के खिलाफ है. आडवाणी जी के घर आया हूं, क्योंकि मुझे लगता है कि मैं अपने घर में आया हूं. इजरायल और भारत में दोस्ती के लिए गृह मंत्री के रूप में आडवाणी जी ने अहम भूमिका अदा की. यह एक ऋण है, जो हम हमेशा याद रखेंगे. 

 

moshadमोसाद के मंसूबों का बीजारोपण हिंदुस्तान में आडवाणी की वजह से ही हुआ

ज़रायल की खुफिया एजेंसी मोसाद भारत में बीजेपी की सरकार बनाना चाहती है. खुफिया सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार मोसाद ने भारत में फैले अपने नेटवर्क को चुनाव में बीजेपी और संघ परिवार की मदद के लिए लगा दिया है. अगर खुफिया एजेंसियों के हालिया इतिहास पर नजर दौडाएंगे, तो साफ हो जाएगा कि मोसाद बीजेपी की मदद क्यों कर रहा है और क्यों आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाना चाहता है. आडवाणी जब भारत के गृहमंत्री थे, तब उन्होंने इज़रायल की खुफिया एजेंसी मोसाद को भारत में अपना जाल फैलाने की इजाज़त दी थी. कहा जाता है कि इसके पीछे पाकिस्तान को तबाह कर जम्मू-कश्मीर को आजाद कराने की आडवाणी की छिपी हुई हसरत काम कर रही थी. रॉ के अधिकारियों के मुताबिक इस गठजोड़ का मकसद था मिल-जुल कर आतंकवाद के खतरे से निपटना और पाकिस्तान का सफाया करना. मकसद चाहे जो भी हो, लेकिन ऐसी पहल से बीजेपी की मानसिकता साफ समझी जा सकती है. आडवाणी ने न केवलमोसाद को खुली छूट दी बल्कि भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ को अपनी तहकीकात में मिलने वाली पाकिस्तान के खिलाफ सभी सूचनाओं को मोसाद के साथ साझा भी करने का करार किया. बीजेपी सरकार ने एक खास मानसिकता के तहत भारत में इज़रायल की मदद से इस्लामिक आतंकवाद के जवाब में प्रतिरोधी आतंकवाद कायम करने की कोशिश की. इसके लिए बहुत बड़ा खुफिया जाल इज़रायल और अमरीका के सहयोग से भारत में बिछाया गया. इस तरह बीजेपी सरकार के कार्यकाल के दौरान भारत में रॉ, सीआईए और मोसाद का गठजोड़ बना. इस गठजोड़ का आधार ये है कि दोनों देशों का दुश्मन एक ही है. मतलब इस्लामिक आंतकवाद और पाकिस्तान. बीजेपी सरकार ने इज़रायल और अमेरिका के साथ मिल कर आतंकवाद और पाकिस्तान के खिलाफ ङ्गस्ट्राइक एंड क्रश यानी हमला करने और कुचलने की नीति बनायी. इस तरह भारत में मोसाद ने अपने पैर जमाने शुरू किये. भारत की खुफिया एजेंसी और मोसाद के बीच सहयोग बढ़ा. भारत और इज़राइल के बीच इस समझौते के लिए आडवाणी ने गृहमंत्री रहते सन 2000 में इजरायल का दौरा भी किया था. बताया जाता है कि इसके बाद भारत, इज़रायल और अमेरिका की खुफिया एजेंसियों और कट्‌टर धार्मिक नेताओं के साथ बैठकों का दौर शुरू हो गया. सूत्र बताते हैं कि खुफिया एजेंसियों के पास आरएसएस के मोसाद और इज़रायल के धार्मिक नेताओं के साथ बातचीत और मुलाकात से लेकर खतो-किताबत तक के खुफिया ताल्लुकात होने के सबूत मौजूद हैं. उनकी मजबूरी यह है कि वे खुल कर सामने नहीं आ सकते क्योंकि भारतीय खुफिया एजेंसियों के अधिकारी भी मोसाद के साथ मिल कर काम करते हैं. बीजेपी सरकार ने मोसाद के साथ रिश्ते को छुपाने के लिए कई हथकंडे अपनाये.

इस रिश्ते को अलग अलग रूप देकर सरकार ने आधिकारिक करने की भी पहल की. मोसाद की मदद के लिए सीआईपीयू यानी सेंट्रल इंटेलीजेंस प्रोसेसिंग यूनिट बनाया गया. इसमें आईबी, सीबीआई, बीएसएफ और होम मिनिस्ट्री के उच्च अधिकारी सीधे तौर पर शरीक थे. अपनी योजना को आधिकारिक रूप देने के लिए पिछले दरवाज़े से वर्ल्ड कौंसिल ऑफ रिलीजस लीडर्स का गठन हुआ और हिंदू-यहूदी समिट का सिलसिला शुरू हुआ. नोट करने वाली बात यह है कि मोसाद और संघ का गठजोड़ भी धर्म की आड़ में हुआ.  5-7 फरवरी, 2007 में पहला यहूदी-हिंदू लीडरशिप समिट हुआ. दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में इसका आयोजन किया गया. इसमें हिंदुओं की तरफ संघ से जुड़े और उसके नजदीकी 30 धर्माचार्यों ने हिस्सा लिया. इजराइल की तरफ से इसमें जो लोग शरीक हुए, उनका वास्ता इजराइल की सेना से रहा, इज़रायल सरकार की एजेंसियों से रहा है. इस समिट में इजराइल का एक प्रतिनिधिमंडल दिल्ली पहुंचा, जिसमें धार्मिक नेताओं के साथ साथ मोसाद और मोसाद के पूर्व एजेंट्‌स शामिल थे. इस सम्मेलन में 9 सूत्रीय घोषणा की गयी, जिसमें हिंदुओं और यहूदियों की साझा चुनौतियों को रेखांकित किया गया. इस घोषणा पर हिंदुओं की तरफ से आऱएसएस के करीबी और धर्मसभा के चीफ स्वामी दयानंद सरस्वती और यहूदियों की तरफ से चीफ रब्बी योना मेट्‌ज्गर ने हस्ताक्षर किये. आचार्य दयानंद सरस्वती और कांची के शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती ने आचार्य सभा और धर्मसभा के क्रिया-कलापों को सन 2001 में ही इजरायल के अधिकारियों और धार्मिक नेताओं के साथ शेयर करना शुरू कर दिया था. इस गतिविधि पर किसी की सीधी नज़र न पड़े, इसके लिए अमेरिका को जरिया बनाया गया. इसके लिए नार्थ अमेरिका में हिंदू कलेक्टिव इनीसिएटिव नाम की संस्था का गठन किया गया और आरएसएस की शाखा आचार्य सभा और घर्म सभा को उससे जोड़ दिया गया. इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों संगठनों ने धर्म की आड़ में संगठन बनाए ताकि उनकी गतिविधियां बेरोकटोक चल सके. यह बात इस बात से भी साफ हो जाती है, जो चीफ रब्बी मेट्‌ज्गर ने इस समिट के दौरान कही. उन्होंने कहा किहमारे (भारत और इज़रायल) पड़ोसी हमारे दुश्मन हैं. अगर आप टेलीविजन पर देखें तो हमारे इलाके में अशांति नजर आती है, जो हमारी परंपरा के खिलाफ है. हमलोग सिर्फ अपनी सुरक्षा चाहते हैं लेकिन मीडिया सिर्फ दूसरे पक्ष को दिखाता है. ईश्वर हमें ऐसी ताकत दे, जिससे हमें खुद का बचाव करना न पड़े.  इस समिट में चीफ रब्बी मेट्‌ज्गर ने बीजेपी लीडर लालकृष्ण के उन प्रयासों की भी तारीफ की, जिसकी वजह से भारत और इज़रायल के बीच

रक्षा सौदों के लिए चाहिए बीजेपी की सरकार

यह आडवाणी की पहल है, जिसकी वजह से भारत और इजराइल आंतकवाद के खिलाफ लड़ने के नाम पर साथ आये. मोसाद को पूरे भारत में अपना नेटवर्क तैयार करने की छूट मिल गयी. इसे रोकने के बजाय हमारी खुफिया एजेंसी ने भी मोसाद का खुल कर साथ दिया. भारत की गुटनिरपेक्षता सेमिनारों तक ही सीमित रह गई है. बीजेपी की सरकार के दौरान हिंदुत्व ब्रिगेड और कट्टर यहूदियों के वैचारिक मेलजोल ने इजरायल और भारत की नजदीकियां बढ़ा दी. खुफिया अधिकारी बताते हैं कि बीजेपी के शासनकाल में प्रधानमंत्री आफिस और अलग-अलग सत्ता केंद्रों पर यहूदी समर्थक हिंदू ब्रिगेड का कब्जा हो गया. एनडीए सरकार के दौरान कई सारे रिसर्च इंस्टीट्यूट का जन्म हुआ, जिन-का एकमात्र काम यह था कि देश में असुरक्षा की स्थिति को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करके हथियार खरीदने के लिए जमीन तैयार की जाए. इसके बाद बीजेपी की सरकार ने इजराइल से हथियार खरीदने का सिलसिला शुरू किया. इन डीलों सेआए कमीशन और किक बैक को संघ परिवार और उससे जुड़े संगठनों को फायदा हुआ. हैरानी की बात यह है कि बीजेपी की सरकार के जाने बाद भी इजराइल के साथ हुए सैन्य समझौते, न्यूक्लियर और मिसाइल टेक्नालॉजी की साझेदारी, खुफिया जानकारी का आदान-प्रदान कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थन से चलने वाली यूपीए सरकार के दौरान भी जारी रहा. इसका मतलब साफ है कि मोसाद के पैर भारत में इतने जम चुके हैं कि वो हमारे ही तंत्र का इस्तेमाल करता है और हमारी सरकार को कानोकान खबर तक नहीं होती. रक्षा सामग्री का निर्यात इजरायल की आमदनी का मुख्य जरिया है. हैरानी की बात यह है कि भारत इजराइल से हथियार खरीदने वाला सबसे बड़ा देश बन चुका है. अब यह सोचने वाली बात है कि ये कमाल कैसे हुआ. जिस देश के साथ हमारे ताल्लुकात के अभी कुछ ही साल हुए हैं, उसके हम इतने गहरे दोस्त कैसे बन गये. हमारे देश में जिस तरह से हथियार खरीदे जाते हैं, उससे तो यही लगता है कि बिचौलियों की भूमिका बहुत अहम है. यह मामला सिर्फ दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्रालयों के बीच तक सीमित नहीं है. दरअसल मोसाद और रॉ का गठजोड़ ही इन दोनों देशों के बीच की बढती नजदीकियों को हवा दे रहा है. बीजेपी की सरकार के आने से फिर से रिसर्च इंस्टीट्यूट को सक्रिय कर दिया जाएगा. हथियारों की कमी का झूठा डर फैलाया जाएगा. फिर से इजरायल और भारत के बीच रक्षा सौदों का सिलसिला मजबूत होगा. यह भी एक वजह है कि इजरायल आडवाणी को भारत का प्रधानमंत्री बनाना चाहता है. मोसाद देश में बीजेपी की सरकार बनाना चाहता है.

मोसाद ने विदेश नीति की हवा निकाली

भारत फिलिस्तीन का हमेशा से समर्थक रहा है. आजादी से पहले गांधी और नेहरू ने इजरायल के निर्माण का विरोध किया था. इजरायल के साथ भारत के रिश्ते कैसे हैं, यह 1948 से ही गुप्त रहा. यही वजह है कि दोनों देशों को अपने-अपने दूतावास खोलने में 44 साल लग गये. 1992 में नयी दिल्ली में इजराइली दूतावास और तेल अवीव में भारतीय दूतावास बना. इजरायल और भारत के रिश्ते में बहुत बड़ा बदलाव तब आया, जब भारत में बीजेपी की सरकार बनी. भारत में पहली बार दक्षिणपंथी हिंदुत्व की विचार-धारा सत्ता में आयी और इजरायल पहले से ही फिलिस्तीनियों के अधिकारों को कुचलता रहा है. दोनों सरकारों की वैचारिक समानता ने दोनों को नजदीक कर दिया. बीजेपी सरकार ने भारत की विदेश नीति को बदल दिया. अरब देशों को नजरअंदाज करके इजराइल से दोस्ती कर ली. भारत की खुफिया एजेंसियों, बीजेपी और संघ परिवार के संगठनों के संरक्षण में मोसाद को खुली छूट मिल गयी. इसका परिणाम ये हुआ कि मोसाद ने सत्ता के अलग अलग केंद्रों में अपने एजेंट्‌स बिठा दिये. कई नये संगठन बनाये गये. इजराइल और संघ परिवार की दोस्ती का मकसद है – मुसलमानों को खत्म करने की अंतर्राष्ट्रीय पहल. इन दोनों को लगता है कि ये दुश्मनों से घिरे हैं. इसके अलावा बीजेपी और इजरायल अमेरिका के साथ अच्छे संबंध बनाने का पक्षधर है. बीजेपी और इजरायल की विदेश नीति में काफी समानताएं हैं. यह भी एक वजह है कि इजरायल चाहता है कि भारत में बीजेपी की सरकार बने.

मोसाद और बीजेपी

आडवाणी के घर पर एक भोज का भी आयोजन हुआ जिसमें इज़रायली राजदूत डेविड डैनियली, लेफ्टि. जनरल (रिटायर्ड) जे आर एफ जैकब और स्वामी जयेंद्र सरस्वती मौजूद थे. इस दौरान चीफ रब्बी मेट्‌ज्गर ने कहा कि मैं किसी के घर खाना खाने नहीं जाता, यह हमारी प्रथा के खिलाफ है. आडवाणी जी के घर आया हूं, क्योंकि मुझे लगता है कि मैं अपने घर में आया हूं. इजरायल और भारत में दोस्ती के लिए गृह मंत्री के रूप में आडवाणी जी ने अहम भूमिका अदा की. यह एक ऋण है, जो हम हमेशा याद रखेंगे. इस समिट से मिली जानकारियां इस बात के सबूत हैं कि क्यों इजरायल सरकार की एजेंसियां भारत में लालकृष्ण आडवाणी को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती हैं. इसी तरह दूसरा यहूदी-हिंदू लीडरशिप समिट मार्च 2008 में इजराइल में हुआ. संघ से जुड़े धर्माचार्यों ने तेलअवीव जाकर इसमें हिस्सा लिया. इस दौरान उनकी मुलाकात इजरायल के अन्य अधिकारियों से हुई. 2009 में भी यह समिट अमेरिका में होना था. लेकिन यह टाल दिया गया. बताया जा रहा है कि चुनाव के ठीक पहले इस तरह की मीटिंग का अगर मीडिया में खुलासा हो गया, तो विरोधी पार्टियों को एक मुद्दा हाथ लग जाएगा. तीसरे समिट को टालने की वजह थी मालेगांव धमाके मामले में हिंदू संगठनों पर सवाल उठना है. खुफिया जानकारी के मुताबिक इस धमाके में मोसाद और इजरायल पर भी शक की सुई जाती है. मुंबई के आतंकी हमले में शहीद हुए एटीएस चीफ हेमंत करकरे अपनी शहादत के महज एक दिन बाद यानी कि 27 नवंबर 2008 को मालेगांव धमाकों से संबंधित एक बेहद सनसनीखेज खुलासा करने वाले थे. खुफिया सूत्रों के मुताबिक हेमंत करकरे को इस बात के पुख्ता सबूत मिल चुके थे कि मालेगांव बम धमाकों केआरोपियों के गहरे रिश्ते इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद के अधिकारियों से थे और मोसाद से उनका संपर्क आरएसएस की बदौलत हुआ था, जहां से उन्हें प्रशिक्षण के साथ-साथ भरपूर आर्थिक मदद भी मिलती थी.  बीजेपी सरकार के दौरान इजरायली खुफिया एजेंसी मोसाद को दिल्ली में आफिस खोलने की छूट मिली. एफबीआई की तर्ज पर मोसाद ने भी दिल्ली में अपने पैर जमा लिए. इज़रायली खुफिया एजेंसी मोसाद का नेटवर्क दुनिया के कई देशों में फैला है. मोसाद दुनिया की सबसे खतरनाक खुफिया एजेंसी है. मोसाद रक्षा सौदे, आर्थिक सहायता, मेडिकल और कृषि के क्षेत्र में मदद मुहैया कराता है. ये इजरायल और दूसरे देशों के बीच रिश्ते बनाने का काम करता है. लेकिन इनके काम में अगर कोई आड़े आता है तो उसे रास्ते से साफ कर देता है. दुनिया भर में ये राजनीतिक हत्या और भितरघात के लिए जाना जाता है. इसका नेटवर्क खुफिया तरीके से काम करता है. इसके क्रिया-कलापों के बारे में किसी को कानोकान खबर नहीं होती है. यही वजह है कि भारत सरकार यहां के हिंदुओं और मुसलमानों को इजरायल के रिश्ते के बारे में खुल कर नहीं बताती है. भारत सरकार और इजरायल के बीच 1970 से गुप्त संबंध हैं. लेकिन इसका कोई रिकार्ड लोगों के सामने नहीं है. जब से भारत में बीजेपी की सरकार बनी, मोसाद भारत में सक्रिय हो गया. मोसाद के जरिये भारत में इजरायल से जासूसी के लिए खुफिया उपकरण भी मंगाये गये. खुफिया अधिकारियों के मुताबिक मोसाद देश के मुस्लिम संगठनों, भारत और पाकिस्तान के रिश्ते पर खास नजर रखता है. ये खबरें भी आ चुकी हैं कि मोसाद के एजेंट पर्यटक बन कर कश्मीर घाटी में जासूसी कर रहे हैं. पिछले साल कुल 40 हजार इजरायलियों ने जम्मू-कश्मीर का दौरा किया है. यह सरकारी कामकाज पर भी नजर रखता है.खुफिया अधिकारियों के मुताबिक मोसाद ने 198 किमी लंबी जम्मू-कश्मीर और पंजाब की अंतर्राष्ट्रीय सीमा का मुआयना किया. समझौता एक्सप्रेस के ट्रैक पर भी गहन तफ्तीश की. कहा तो यह भी जाता है कि जब मोसाद ने इस योजना को हरी झंडी दी, तब ही इसको सरकार ने लागू किया. यह आडवाणी की ही पहल है, जिसकी वजह से मोसाद का नेटवर्क पूरे देश में फैला. मोसाद के साथ खुफिया जानकारी के आदान-प्रदान का औपचारिक अनुमोदन हुआ और जम्मू-कश्मीर में आंतक की समस्या से निपटने के लिए मोसाद से भारत सरकार ने मदद ली. पाकिस्तान को भी इस बात की पूरी जानकारी थी. लंदन में पाकिस्तान के राजदूत रहे कुतुबुद्दीन अज़ीज ने रॉ और मोसाद के एक साथ मिल कर काम करने के मसले पर अपनी सरकार को आगाह किया था. उन्होंने एक लेख में इस पर जो लिखा, वह डेंजरस नेक्सस बिटविन इजराइल एंड इंडिया नाम से अप्रैल 2001 में प्रकाशित भी हुई. बीजेपी सरकार के दौरान मिली छूट और बीजेपी का सांप्रदायिक एजेंडा हर मायने में मोसाद के लिए फायदेमंद है. भारत में किसी दूसरी पार्टी की सरकार शायद मोसाद के लिए मुसीबत खड़ा कर सकती है, इसलिए मोसाद  बीजेपी की मदद करने में जुटी है.   मोसाद और भाजपा का हाथ मिलाना, वह भी धर्म का सहारा लेकर, भारत की राजनीति को किधर ले जाएगा, अभी केवल इसका अंदाज़ा लगा सकते हैं. राजनीति, खासकर चुनावी राजनीति भारतीय लोकतंत्र की बुनियादी मान्यताओं के इर्द-गिर्द ही चलनी चाहिए. पर ये राजनीति का हमाम है, देखना है कौन कितने कपड़े पहने है.

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