खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश : सरकार देश को गुमराह कर रही है

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wallmartखुदरा व्यापार का मतलब है कि कोई दुकानदार किसी मंडी या थोक व्यापारी के माध्यम से माल या उत्पाद खरीदता है और फिर अंतिम उपभोक्ता को छोटी मात्रा में बेचता है. खुदरा व्यापार का मतलब है कि वैसे सामानों की खरीद-बिक्री, जिन्हें हम सीधे इस्तेमाल करते हैं. रोजमर्रा में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं या सामान को हम किराने की दुकान, कपड़े की दुकान, रेहड़ी और पटरी वाले आदि से खरीदते हैं. ये दुकानें घर के आसपास होती है. फिर शहरों में एक नया दौर आया, जब बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल खुलने लगे, जहां बिग बाजार, रिलायंस आदि जैसे सुपर मार्केट में खुदरा सामान बिकने लगा. एक ही छत के  नीचे इन बड़ी-बड़ी दुकानों में रोजमर्रा के इस्तेमाल के सामान मिलने लगे. हर शहर में इसका ट्रेंड चल पड़ा. पिछले कुछ सालों में इन मॉल्स का ज्यादा विपरीत असर पारंपरिक खुदरा बाज़ार पर तो कम पड़ा, लेकिन विदेशी निवेश आने से खुदरा बाज़ार की पूरी रूपरेखा बदल जाएगी. इसलिए यह समझना जरूरी है कि जब बड़ी-बड़ी कंपनियां खुदरा बाज़ार में आती हैं तो क्या होता है. अब तक जो कंपनियां भारत में काम कर रही थीं, उनकी तुलना में विदेशी कंपनियां काफी बड़ी हैं. उनके पास बेशुमार पूंजी है. सरकार जो यह दावा कर रही है कि उसने 10 करोड़ डॉलर से कम के निवेश पर पाबंदी लगाई है तो वालमार्ट, कैरीफोर, टेस्को, स्टार बॅक्स, वेस्ट वाय एवं मेट्रो जैसी विदेशी कंपनियों के  लिए यह रकम कुछ भी नहीं है. इसलिए इसमें शक नहीं है कि भारत के खुदरा बाज़ार की चाल, चरित्र और चेहरा बदलने वाला है. भारत पर इन कंपनियों की नज़र इसलिए है, क्योंकि भारत का खुदरा व्यापार दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन यह असंगठित और बिखरा हुआ है. इसलिए इसमें कम पूंजी लगाकर भी अरबों-खरबों की कमाई हो सकती है. यही वजह है कि इस पर विदेशी कंपनियों की नज़र है. वालमार्ट, कैरीफोर, टेस्को, स्टार बॉक्स, वेस्ट वाय एवं मेट्रो जैसी विदेशी कंपनियों के लिए भारत एक सोने की चिड़िया है.

देश को फिर से एक सपना दिखाया जा रहा है. फिर से सरकार देश को गुमराह कर रही है. सरकार कह रही है कि खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश आने दो, अर्थव्यवस्था सुधर जाएगी, किसान मालामाल हो जाएंगे, बिचौलिए और दलाल खत्म हो जाएंगे, खाद्यानों की बर्बादी खत्म हो जाएगी, उत्पादन बढ़ेगा, लोगों को रोजगार मिलेगा, महंगाई खत्म हो जाएगी. मनमोहन सिंह ने बीस साल पहले ऐसा ही एक सपना दिखाया था. 1991 में उन्होंने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीति लागू की. यह भरोसा दिलाया था कि बीस साल बाद यानी 2010 में भारत विकसित देशों की कतार में खड़ा हो जाएगा. नतीजा यह निकला कि आज किसान आत्महत्या कर रहे हैं, मजदूरों की हालत बद से बदतर होती जा रही है. शहर और गांवों में इतना अंतर पैदा हो गया है कि देश शीत गृहयुद्ध के मुहाने पर खड़ा है. लेकिन भारत में एक तबका ऐसा भी है, जो सरकार की नव उदारवादी नीतियों के समर्थन में है. उसका मानना है कि हर नागरिक को कम कीमत पर अच्छा और ब्रांडेड माल खरीदने का अधिकार है. जिस देश में 80 फीसदी लोगों की दैनिक आय दो डॉलर से कम हो, उस देश में ऐसी दलील देना अमानवीय है.

सरकार कहती है कि खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश होने से देश को फायदा होगा. सरकार के मुताबिक, किसानों को फायदा होगा. उन्हें अपने उत्पाद की वाजिब कीमत मिलेगी और बिचौलियों का तंत्र खत्म हो जाएगा. अगले तीन सालों में रोजगार के एक करोड़ अवसर पैदा होंगे. खुदरा बाजार की सप्लाई चेन की कार्यक्षमता बेहतर हो जाएगी. सरकार यह भी दावा करती है कि दस करोड़ डॉलर से कम के पूंजी निवेश पर रोक है और हर निवेशक को करीब 50 फीसदी पूंजी का निवेश खुदरा बाज़ार से जुड़ी मूलभूत सुविधाओं पर खर्च करना होगा. विदेशी कंपनियों को यह रकम कोल्ड स्टोरेज, रेफ्रिजरेटर, ट्रांसपोर्ट, पैकिंग एवं छंटाई वगैरह में खर्च करनी होगी. सरकार का मानना है कि इससे खुदरा सामानों की कीमत कम होगी और वे बर्बाद नहीं होंगे. सरकार एक और बात कहकर अपनी पीठ थपथपा रही है कि इन विदेशी कंपनियों को कम से कम 30 फीसदी सामान भारत के लघु एवं कुटीर उद्योगों से खरीदना होगा. इससे देश में उत्पादन बढ़ेगा, लोगों की आय बढ़ेगी और नई तकनीक का उन्नतिकरण होगा. सरकार चीन, थाईलैंड और इंडोनेशिया का उदाहरण देकर यह दलील देती है कि इन देशों में विदेशी निवेश आने से न सिर्फ खुदरा बाजार को फायदा हुआ, बल्कि पहले से चल रही किराने की दुकानों में न तो कोई कमी आई, न उन्हें नुकसान हुआ. इन देशों में बड़ी-बड़ी दुकानों के साथ-साथ छोटे दुकानदार भी फल-फूल रहे हैं. खुदरा बाजार में विदेशी निवेश आने से सरकार को ज्यादा सेल्स टैक्स और प्रॉपर्टी टैक्स मिलेगा. सरकार के दावों में कितनी सच्चाई है, यह समझना जरूरी है.

सरकार के एक बयान पर ताज्जुब हुआ. सरकार कहती है कि हर निवेशक को करीब 50 फीसदी पूंजी का निवेश खुदरा बाजार से जुड़ी मूलभूत सुविधाओं पर खर्च करनी होगी. सरकार इसे ऐसे बता रही है, जैसे कि यह कोई प्रतिबंध है या उन पर कोई दबाव है. सच्चाई यह है कि वालमार्ट और टेस्को जैसी कंपनियों का काम करने का तरीका ही यही है कि वे अपनी सप्लाई चेन खुद बनाती हैं.

पब्लिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट ऑफ कैलिफोर्निया ने 2005 में वाल मार्ट के असर पर एक रिसर्च की. इस रिसर्च के मुताबिक, वालमार्ट के खुलने से रिटेल सेक्टर में चार फीसदी रोजगार कम हुए और इस क्षेत्र में काम करने वालों की आय में 5 फीसदी गिरावट आई. समझने वाली बात यह भी है कि यूरोप और अमेरिका का खुदरा बाजार संगठित है. भारत में 96 फीसदी खुदरा व्यापार असंगठित और अनियोजित क्षेत्र में है, इसलिए बेरोजगारी का खतरा और भी ज़्यादा है. भारत में तो इसका असर व्यापक होने वाला है. वालमार्ट जैसी कंपनियों की रणनीति यह है कि शुरुआती दिनों में यह सामानों की कीमत घटा देती हैं, जिसकी वजह से प्रतियोगी दुकानों और खुदरा सामान बेचने वाली दुकानों की बिक्री कम हो जाती है. दुकानदार अपनी दुकान में काम करने वाले लोगों को बाहर करने लगता है. फिर धीरे-धीरे दुकानें बंद होने लगती हैं. एक बार इन कंपनियों का बाज़ार पर कब्ज़ा हो जाता है. तब यह मनमाने तरीके से कीमतों को बढ़ा देती हैं. यही पूरी दुनिया में हो रहा है. एक रिसर्च के मुताबिक, जहां-जहां मल्टीनेशनल कंपनियां खुदरा बाजार में गईं, वहां दस साल के अंदर खुदरा दुकानों की संख्या आधी रह गई. भारत में इसका असर पहले साल से ही दिखने लगेगा. एक अनुमान के मुताबिक, एक करोड़ लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ सकता है. मतलब यह कि बड़े-बड़े सुपर मार्केट बनने से नए अवसर तो पैदा होंगे, लेकिन इन कंपनियों की वजह से बेरोजगार होने वालों की संख्या रोजगार पाने वालों की संख्या से बहुत ही ज्यादा होगी.

सरकार कहती है कि विकास दर 9 फीसदी होगी, रिपोर्ट आती है कि विकास दर 6.9 फीसदी है. देश की जनता का सरकारी तंत्र से तो भरोसा उठ ही रहा है, अब तो सरकार में बैठे अर्थशास्त्रियों के ज्ञान से भी भरोसा उठने लगा है. महंगाई इतनी है कि भारत दुनिया के सबसे पिछड़े देशों के साथ खड़ा है. दुनिया के 223 देशों की सूची में भारत 202वें स्थान पर है. सरकार की बातों पर भरोसा करना ही मुश्किल हो गया है.

इसके बावजूद सरकार कहती है कि खुदरा बाजार में विदेशी निवेश से रोजगार बढ़ेगा. खुदरा व्यापार रोजगार एवं जीविका प्रदान करने के मामले में कृषि के बाद दूसरे स्थान पर है, लेकिन इसमें विदेशी निवेश आने से बेरोजगारी बढ़ेगी. अब तक जो लोग खुदरा बाजार से जुड़े हैं, उन्हें अपनी दुकानें बंद करनी होंगी. इसका असर सप्लाई चेन पर पड़ने वाला है. सप्लाई चेन का मतलब खेतों से बाजार तक सामान पहुंचाने के तरीके और सिलसिले से है. किसान खेतों में अनाज या कच्चा माल पैदा करते हैं. यह अलग-अलग हाथों से गुजरता हुआ जिलास्तरीय मंडियों तक पहुंचता है. आम तौर पर यहां इसकी छंटाई और पैकिंग होती है, जिसे फिर बड़ी-बड़ी मंडियों में भेज दिया जाता है. इन मंडियों से ही उद्योग और थोक विक्रेता इन सामानों को खरीदते हैं. जो फिर कई हाथों से गुजरते हुए बाजार और छोटी-छोटी दुकानों तक पहुंचाया जाता है. बड़ी-बड़ी मंडियों से जो सामान इंडस्ट्री में जाता है, वह एक अलग रास्ते से बाजार तक पहुंचता है. इस पूरी प्रक्रिया में छंटाई से लेकर सामान को बाजार तक पहुंचाने में करोड़ों लोग जुटे हैं. बड़ी-बड़ी कंपनियां सीधे खेतों या उत्पादक से सामान उठाती हैं, खुद उनकी प्रोसेसिंग करती हैं और फिर बेचती हैं. इससे इन कंपनियों को दो फायदे होते हैं. एक तो ये बड़ी कंपनियां बाजार से दूसरे प्रतियोगियों को भगा देती हैं. दूसरा यह कि सप्लाई चेन बर्बाद हो जाती है, उत्पादक और किसान इन कंपनियों पर आश्रित हो जाते हैं.

सरकार कहती है कि खुदरा बाजार में विदेशी निवेश आने से प्रतियोगिता बढ़ेगी. सच्चाई यह है कि विदेशी कंपनियों के आने से प्रतियोगिता ही खत्म हो जाएगी. खुदरा बाजार पर उनका कब्जा हो जाएगा. अपनी पूंजी की ताकत पर ये कंपनियां पूरे बाजार पर नियंत्रण करेंगी. उनका प्रबंधन इतना चतुर होता है कि पूंजी के बल पर वे बाजार में कुछ जरूरी चीजों की मांग पैदा करती रहती हैं और रिटेल बाजार में आम उपभोक्ताओं की जेबें कटती हैं. आम तौर पर ये विदेशी कंपनियां दुनिया के कोने-कोने से सस्ता माल खरीदती हैं और जहां सबसे ज्यादा मुनाफा मिलता है, वहां ले जाकर बेचती हैं. मान लीजिए, भारत में काम करने वाली विदेशी कंपनियां चीन और दूसरे देशों से माल लाकर बेचने लग जाएंगी तब देश के उत्पादकों और किसानों का क्या होगा. अब भला ऐसे माहौल में बाजार में किस तरह से प्रतियोगिता बच पाएगी. दरअसल, ये कंपनियां इतनी बड़ी हैं कि इनसे किसी की प्रतियोगिता हो ही नहीं सकती है. खुदरा बाजार में विदेशी कंपनियों के प्रवेश से इस क्षेत्र में एकाधिकार की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ेगी. दरअसल, होता यह है कि शुरुआती दौर में ये कंपनियां पुराने बाजार और सप्लाई चेन को नष्ट करने के लिए कीमतें कम करती हैं और जब इस क्षेत्र पर कुछ मुट्ठी भर कंपनियों का एकाधिकार हो जाता है, तब ये सामानों का मनमाना दाम वसूलती हैं.

सरकार कहती है कि किसानों को फायदा होगा, उन्हें उनके उत्पाद की ज्यादा कीमतें मिलेंगी. किसानों का अनाज-उत्पाद सड़ जाता है, बर्बाद हो जाता है, इससे निजात मिल जाएगी. सवाल है कि अगर यह सच्चाई है तो इसका इलाज क्या है? क्या सरकार का यह फर्ज नहीं बनता है कि वह देश में कोल्ड स्टोरेज की चेन बनाए, अनाजों के रखरखाव के लिए गोदाम बनाए. या फिर हमें यह मान लेना चाहिए कि देश की सरकार इतनी कमजोर है कि अनाज भंडारण, गोदाम बनाने के लिए भी विदेशी कंपनियों की जरूरत पड़ती है. जहां तक बात किसानों को ज्यादा कीमतें मिलने की है तो यह भी एक मिथ्या है. इन बड़ी-बड़ी कंपनियों को चलाने वाले चतुर-चालाक होते हैं. वे आम किसानों से सामान नहीं खरीदते, कांट्रेक्ट फार्मिंग कराते हैं. वे पहले किसानों से अपना सीधा रिश्ता बनाते हैं, उन्हीं चीजों के उत्पादन पर जोर देते हैं, जिनकी इन रिटेल कंपनियों के स्टोरों में खपत होती है. सप्लाई चेन बर्बाद हो जाती है और किसान अपना सामान बेचने के लिए इन कंपनियों पर आश्रित हो जाते हैं. देखा यह गया है कि कुछ सालों में किसान इन कंपनियों के चंगुल में फंस जाते हैं. इसका एक उदाहरण गुजरात के मेहसाणा जिले में दिखता है. यहां मैकडोनल्ड कंपनी फ्रेंच फ्राई के लिए किसानों से विशेष किस्म का आलू पैदा कराती है. इस साल बारिश की वजह से फसल बर्बाद हो गई. अब सवाल उठता है कि ये किसान कहां जाएंगे, इनकी भरपाई कौन करेगा? इन कंपनियों के साथ जुड़ने से किसानों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है. ज्यादा से ज्यादा पैदावार के लिए ये किसानों को कृत्रिम बीज, खादों, कीटनाशकों एवं अन्य रसायनों का प्रयोग करने पर बाध्य करती हैं, ताकि उत्पाद ज्यादा समय तक तरोताजा दिखे. इसका स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ता है. यही वजह है कि अमेरिकी जनता का एक अच्छा-खासा हिस्सा ज्यादा कीमत चुकाकर ऍार्गेनिक खाद्यान्न एवं फल-सब्जी की खरीदारी करने लगा है. ये कंपनियां भारत में निवेश करने के लिए दूसरे देशों में अपने रिटेल शॉप्स बंद कर रही हैं, क्योंकि भारत एक बड़ा बाजार है. क्या देश की सरकार इन कंपनियों को जैविक उत्पाद यानी ऍार्गेनिक प्रोडक्ट बेचने के लिए बाध्य नहीं कर सकती है. कई देशों ने खाद्य पदार्थों, फल-सब्जियों एवम मांस-मछली के खुदरा बाजार में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्रवेश की इजाजत नहीं दी है. जबकि भारत सरकार सबसे पहले फलों, सब्जियों एवं खाद्य पदार्थों के व्यापार में ही विदेशी पूंजी लगाने के लिए उतावली है.

सरकार कहती है कि किसानों को फायदा होगा, उन्हें उनके उत्पाद की ज्यादा क़ीमतें मिलेंगी. किसानों का अनाज-उत्पाद सड़ जाता है, बर्बाद हो जाता है, इससे निजात मिल जाएगी. सवाल है कि अगर यह सच्चाई है तो इसका इलाज क्या है? क्या सरकार का यह फर्ज नहीं बनता है कि वह देश में कोल्ड स्टोरेज की चेन बनाए, अनाजों के रखरखाव के लिए गोदाम बनाए. या फिर हमें यह मान लेना चाहिए कि देश की सरकार इतनी कमज़ोर है कि अनाज भंडारण, गोदाम बनाने के लिए भी विदेशी कंपनियों की जरूरत पड़ती है.

सरकार के एक बयान पर ताज्जुब हुआ. सरकार कहती है कि हर निवेशक को करीब 50 फीसदी पूंजी का निवेश खुदरा बाजार से जुड़ी मूलभूत सुविधाओं पर खर्च करनी होगी. सरकार इसे ऐसे बता रही है, जैसे कि यह कोई प्रतिबंध है या उन पर दबाव है. सच्चाई यह है कि वालमार्ट जैसी कंपनियों का काम करने का तरीका ही यही है कि वह अपनी सप्लाई चेन बनाती हैं. मूलभूत सुविधाओं का मतलब यह नहीं कि वे गांवों में सड़क बनाएंगी या किसानों के लिए बिजली-पानी मुहैया कराएंगी. जिन जगहों पर ये कंपनियां सामान बेचती हैं, वहां इनका अपना कोल्ड स्टोरेज होता है, माल ढुलाई के लिए ट्रक और यातायात के दूसरे साधन होते हैं, इसमें शामिल लोग कंपनी के स्टाफ होते हैं. विदेशी कंपनियां अगर सीधे खेतों से सामान उठाएंगी तो सप्लाई चेन बर्बाद हो जाएगी. इस प्रक्रिया में शामिल लोग बेरोजगार हो जाएंगे. खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश का असर सिर्फ आर्थिक ही नहीं है, बल्कि यह समाज और संस्कृति पर भी असर करता है. किसी भी देश के सामाजिक ढांचे पर उसकी आर्थिक व्यवस्था का भरपूर असर होता है. पिछले 20 सालों में बाजार का असर समाज पर क्या हुआ है, यह किसी से छुपा भी नहीं है. अब विदेशी निवेश भी आ रहा है तो लोगों के रहन-सहन एवं खान-पान पर भी इसका असर होगा. यह कहा जा सकता है कि खुदरा बाजार में विदेशी निवेश एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आगमन अर्थव्यवस्था के नव उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाएगा और भारत की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था को प्रभावित करेगा. कुछ प्रभाव अच्छे होंगे, लेकिन विपरीत असर ज्यादा होगा. सरकार जल्दबाजी में लगती है. यूपीए सरकार और उसके मंत्रीगण खुदरा व्यापार के बारे में गलत तथ्यों को पेश कर आम जनता को गुमराह कर रहे हैं. देश की आर्थिक स्थिति ऐसी है कि सरकार इस संदर्भ में जो कुछ कहती है, उसके ठीक उल्टा होता है. सरकार कहती है कि तीन महीने बाद महंगाई में कमी आएगी, महंगाई बढ़ जाती है. सरकार कहती है कि विकास दर 9 फीसदी होगी, रिपोर्ट आती है कि विकास दर 6.9 फीसदी है. देश की जनता का सरकारी तंत्र से तो भरोसा उठ ही रहा है, अब तो सरकार में बैठे अर्थशास्त्रियों के ज्ञान से भी भरोसा उठने लगा है. महंगाई इतनी है कि भारत दुनिया के सबसे पिछड़े देशों के साथ खड़ा है. दुनिया के 223 देशों की सूची में भारत 202वें स्थान पर है. यानी दुनिया भर में महज 20 ऐसे देश हैं, जहां भारत से ज्यादा महंगाई है. यह सब तब हो रहा है, जब देश की शीर्ष कुर्सी पर भारत में उदारवाद के जनक एवं अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह विराजमान हैं. इन मुश्किलों से निपटने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने फिर एक सपना दिखाया है, खुदरा बाजार में विदेशी निवेश का. पिछली बार भरोसा करके देश ने बीस साल गंवा दिए. देखना यह है कि इस सपने पर भरोसा करने की किसकी हिम्मत है.

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