खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश : यह एक छलावा है

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walmartभारतीय राजनीति में शर्मनाक कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं. क्या हमने अमेरिका को भारत की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप करने की छूट दे दी है. अगर नहीं, तो देश की विपक्षी पार्टियां और मीडिया ने यह बात क्यों नहीं उठाई कि अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने ममता बनर्जी से खुदरा बाज़ार में विदेशी पूंजी निवेश जैसे विवादित मामले पर क्यों बात की? जबकि सबको यह पता है कि विदेशी पूंजी निवेश एक ऐसा मसला है, जिसे लेकर यूपीए गठबंधन में रस्साकशी चल रही है. विपक्ष हंगामा कर रहा है. यह मामला संसद में बहस का मुद्दा है. यह ऐसा मुद्दा है, जिस पर सरकार का भविष्य अधर में लटका हुआ है. तृणमूल कांग्रेस खुदरा बाज़ार में विदेशी पूंजी निवेश का विरोध कर रही है और हक़ीक़त यह है कि उसके समर्थन के बिना सरकार इसे लागू नहीं कर सकती है. तो क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि तृणमूल कांग्रेस को इस मुद्दे पर मनाने के लिए हिलेरी क्लिंटन को लगाया गया है. खुदरा बाज़ार में विदेशी पूंजी निवेश को लाया जाएगा या नहीं, इसका फैसला संसद में होगा. इस मुद्दे पर देश की राजनीतिक पार्टियों को जनता को जवाब देना होगा, लेकिन सरकार को सबसे पहले यह बताना चाहिए कि उसने इस मुद्दे पर हिलेरी क्लिंटन की ममता बनर्जी से बातचीत पर ऐतराज़ क्यों नहीं जताया? क्या कल हम किसी विदेशी राजनयिक के साथ नक्सली समस्या, पुलिस एवं न्यायिक व्यवस्था से जुड़े विवादों के बारे में बातचीत करेंगे?

हैरानी की बात है कि सरकार कहती है कि विदेशी निवेश से रोज़गार बढ़ेगा, लेकिन बेरोज़गारी की मार सबसे ज़्यादा अमेरिका पर पड़ रही है. यह समझ में नहीं आता है कि अगर खुदरा क्षेत्र में बड़ी-बड़ी कंपनियों के निवेश से रोज़गार के मौक़े बढ़ते हैं तो इन कंपनियों को पहले अपने ही देश का उद्धार करना चाहिए. वैसे भी हिंदुस्तानियों को रोज़गार देने के लिए ये कंपनियां भारत में निवेश करेंगी नहीं. सच्चाई तो यह है कि इन बड़ी-बड़ी कंपनियों में काम करने वाले लोगों का मानना है कि पूरे यूरोप और अमेरिका में ये कंपनियां कर्मचारियों को सबसे कम वेतन देने और ख़राब व्यवहार करने के लिए बदनाम हैं. जो लोग इन कंपनियों में काम करते हैं, वे खुश नहीं हैं. सरकार कहती है कि विदेशी निवेश आने से देश में प्रतियोगिता बढ़ेगी, रोज़गार मिलेगा, लेकिन यह बात भूलने की नहीं है कि खुदरा बाज़ार में हिस्सा लेने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियां अत्यधिक पूंजी लगाकर सबसे पहले सप्लाई चेन पर कब्ज़ा करती हैं और फिर क़ीमतें घटा देती हैं. सप्लाई चेन पर कब्ज़ा करने का मतलब यह है कि आज जितने लोग खाद्यान्न, फल, सब्ज़ी और दूसरी रोज़मर्रा की वस्तुओं के उत्पादन से लेकर बाज़ार तक पहुंचाने की प्रक्रिया में शामिल हैं, उनकी आजीविका पर हमला होगा. होता यह है कि बाज़ार में प्रतियोगिता ही खत्म हो जाती है. पुराने दुकानदारों को धीरे-धीरे घाटा लगने लगता है. छोटे दुकानदारों को पहले अपने कर्मचारियों को हटाना पड़ता है, ख़र्च में कटौती करनी पड़ती है और बाद में ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है कि उन्हें अपनी दुकान बंद करनी पड़ती है. दुनिया भर में जहां-जहां इस तरह की नीति अपनाई गई, वहां यही हाल है. पुराने बाज़ारों ने दम तोड़ दिया और उनकी जगह पर बड़े-बड़े मॉल्स खुल गए. खुदरा बाज़ार में विदेशी पूंजी के निवेश से प्रतियोगिता ही ख़त्म नहीं होती, बल्कि समूचे बाज़ार पर उनका एकाधिकार हो जाता है. फिर वे जो उत्पाद चाहेंगी, उसे बेचेंगी. लोगों को मन मुताबिक़ सामान नहीं मिलेगा. इसके अलावा पूंजी की ताकत पर ये कंपनियां मनमानी क़ीमत पर सामान बेचती हैं और सरकार हाथ पर हाथ रखकर देखती रह जाती है. दरअसल, शुरुआती दौर में ये कंपनियां पुराने बाज़ार और सप्लाई चेन को नष्ट करने के लिए क़ीमतें कम करती हैं, अच्छा सामान बेचती हैं और जब इस क्षेत्र पर कुछ मुट्ठी भर कंपनियों का एकाधिकार हो जाता है, तब ये लोगों का शोषण करने से नहीं चूकतीं.

तृणमूल कांग्रेस खुदरा बाज़ार में विदेशी पूंजी निवेश का विरोध कर रही है और हक़ीक़त यह है कि उसके समर्थन के बिना सरकार इसे लागू नहीं कर सकती है. तो क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि तृणमूल कांग्रेस को इस मुद्दे पर मनाने के लिए हिलेरी क्लिंटन को लगाया गया है. खुदरा बाज़ार में विदेशी पूंजी निवेश को लाया जाएगा या नहीं, इसका फैसला संसद में होगा.

आज़ादी के 65 सालों के बाद अगर सरकार यह कहे कि अनाज बर्बाद हो रहा है, देश में कोल्ड स्टोरेज की कमी है. तो ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हमारी सरकार इतने दिनों तक देश में कोल्ड स्टोरेज बनाने के भी काबिल नहीं रही, क्या देश में कोल्ड स्टोरेज के लिए ज़मीन की कमी है, क्या देश में कोल्ड स्टोरेज बनाने के लिए पूंजी नहीं है और क्या स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि अनाज भंडारण के लिए गोदाम बनाने के लिए भी विदेशी कंपनियों की ज़रूरत पड़ती है? अगर यह सच है तो हमें शर्मशार होना चाहिए कि इतने सालों में हम किसानों और अनाज को बर्बाद होने से रोकने के लिए कुछ भी नहीं कर सके. एक और छलावा सरकार कर रही है कि किसानों को फायदा होगा, उन्हें उनके उत्पाद के लिए ज़्यादा कीमतें मिलेंगी. जहां तक बात किसानों को ज़्यादा क़ीमतें मिलने की है तो यह भी एक मिथ्या है. कई देशों में वॉलमार्ट-टेस्को जैसी कंपनियां चीनी सामान बेचती हैं. अगर भारत में ऐसी स्थिति हो गई तो देश के उत्पादक कहां जाएंगे.

सरकार के एक बयान पर ताज्जुब हुआ. सरकार कहती है कि हर निवेशक को करीब 50 फीसदी पूंजी खुदरा बाज़ार से जुड़ी मूलभूत सुविधाओं पर ख़र्च करनी होगी. सरकार इसे ऐसे बता रही है, जैसे कि यह कोई प्रतिबंध है या उन पर दबाव है. सच्चाई यह है कि वॉलमार्ट जैसी कंपनियों का यह काम करने का तरीका है कि वे अपनी सप्लाई चेन बनाती हैं. मूलभूत सुविधाओं का मतलब यह नहीं कि वे गांवों में सड़क बनवाएंगी और किसानों के लिए बिजली-पानी मुहैया कराएंगी. जिन जगहों पर ये कंपनियां सामान बेचती हैं, वहां इनका अपना कोल्ड स्टोरेज होता है. माल ढुलाई के लिए ट्रक और यातायात के दूसरे साधन होते हैं. इसमें शामिल लोग कंपनी के कर्मचारी होते हैं. उन सब पर भारी ख़र्च होता है, जिसकी वजह से ये कंपनियां सस्ता सामान बेच पाती हैं. विदेशी कंपनियां अगर सीधे खेतों से सामान उठाएंगी तो यह सप्लाई चेन बर्बाद हो जाएगी. इस प्रक्रिया में शामिल लोग बेरोज़गार हो जाएंगे.

यूपीए सरकार और उसके मंत्री खुदरा व्यापार के बारे में ग़लत तथ्यों को पेशकर आम जनता को गुमराह कर रहे हैं. देश की आर्थिक स्थिति ऐसी है कि इस संदर्भ में सरकार जो कुछ कहती है, उसका ठीक उल्टा होता है. सरकार कहती है कि तीन महीने बाद महंगाई में कमी आएगी, महंगाई बढ़ जाती है. सरकार कहती है कि विकास दर 9 फीसदी होगी. रिपोर्ट आती है कि विकास दर 6.9 फीसदी है. देश की जनता का सरकारी तंत्र से भरोसा उठ ही रहा है, अब तो सरकार में बैठे अर्थशास्त्रियों के ज्ञान से भी भरोसा उठने लगा है. महंगाई इतनी है कि भारत दुनिया के सबसे पिछड़े देशों के साथ खड़ा है. दुनिया के 223 देशों की सूची में भारत 202वें स्थान पर है यानी दुनिया में महज 20 ऐसे देश हैं, जहां भारत से ज़्यादा महंगाई है. यह सब तब हो रहा है, जब देश की शीर्ष कुर्सी पर भारत में उदारवाद के जनक एवं अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह विराजमान हैं. इन मुश्किलों से निपटने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने फिर से एक सपना दिखाया है

जनता गले तक महंगाई में डूबी हुई है, उसका दम घुट रहा है. सरकार का रवैया उदासीन है. वित्त मंत्री कहते हैं कि घबराने की ज़रूरत नहीं है. खाने-पीने की वस्तुओं की क़ीमतें आसमान पर हैं, लेकिन कृषि मंत्री कहते हैं कि देश में महंगाई बढ़ने का उनके विभाग से कोई लेना-देना नहीं. पेट्रोलियम मंत्रालय हाथ पर हाथ धरकर बैठ गया है. पेट्रोल के दाम बढ़ते हैं तो सरकार कहती है कि यह काम पेट्रोलियम कंपनियों का है और कंपनियों की मनमानी हद पार कर रही है. विपक्ष इसकी आड़ में राजनीतिक रोटी सेंकने में लगा है. आखिर जनता क्या करे, किसके पास जाए? ईमानदारी से काम करके मासिक वेतन पाने वाले इंसान के लिए देश में जीने की संभावना ही खत्म हो गई है. अगर वह बीमार हो जाए तो उसे डॉक्टरों और दवा कंपनियों के हाथों मरना पड़ेगा. सरकार ने देश की जनता को ऐसी हालत में लाकर छोड़ दिया है, जहां लोगों के चेहरों पर उदासी है, घरों में अंधेरा है. इस पूरी व्यवस्था से अमीर भी परेशान हैं, ग़रीब की पूछ ही कहां है. हैरानी तो यह है कि किसी को पता तक नहीं है कि ग़रीब कौन है, उसकी क्या परिभाषा है? असल ग़रीब के घर में खाने को अनाज नहीं है, पहनने को कपड़े नहीं हैं, वह फुटपाथ पर सोता है और उसके लिए बनी सरकारी योजनाओं के नाम पर गुंडे-मवाली मौज कर रहे हैं.

विदेशी पूंजी निवेश का सही फायदा तभी संभव है, जब देश की मूलभूत सुविधाएं पहले से मजबूत हों. देश के किसानों, मज़दूरों एवं व्यापारियों की सुरक्षा और सुविधा ऐसी हो कि वे विदेशी पूंजी का सामना कर सकें. जिन देशों में इन बड़ी-बड़ी कंपनियों को बिना किसी सुरक्षा व्यवस्था के निमंत्रण दिया गया, वहां का खुदरा बाज़ार तबाह हो गया. भारत में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति क्या है, यह जगज़ाहिर है. फिर भी सरकार इन कंपनियों के लिए रेड कारपेट बिछा रही है. यह सबसे सही समय है, जब सरकार को यह बताना चाहिए कि इससे कितना रोज़गार मिलेगा, इन कंपनियों के आने से कितने लोग बेरोज़गार होंगे, कितनी दुकानों को नुक़सान होगा, किसानों को कितना फायदा होगा, मज़दूरों के जीवन पर विदेशी निवेश का क्या असर पड़ेगा, देश के कुटीर उद्योगों पर क्या असर पड़ेगा और गांव-शहर पर क्या असर पड़ेगा? इन सवालों पर सरकार को एक श्वेत पत्र जारी करना चाहिए, ताकि विदेशी पूंजी निवेश से जुड़ी भ्रांतियां ख़त्म हो सकें.

फिर एक नया सपना

देश को फिर से एक सपना दिखाया जा रहा है. फिर से सरकार देश को गुमराह कर रही है. सरकार कह रही है कि खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश आने दो, अर्थव्यवस्था सुधर जाएगी, किसान मालामाल हो जाएंगे, बिचौलिए और दलाल खत्म हो जाएंगे, खाद्यान्नों की बर्बादी खत्म हो जाएगी, उत्पादन बढ़ेगा, लोगों को रोज़गार मिलेगा, महंगाई खत्म हो जाएगी. मनमोहन सिंह ने बीस साल पहले ऐसा ही एक सपना दिखाया था. 1991 में उन्होंने उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण की नीति लागू की थी और यह भरोसा दिलाया था कि बीस साल बाद यानी 2010 में भारत विकसित देशों की कतार में खड़ा हो जाएगा. नतीजा यह निकला कि आज किसान आत्महत्या कर रहे हैं, मज़दूरों की हालत बद से बदतर होती जा रही है. शहर और गांवों में इतना अंतर पैदा हो गया है कि देश शीत गृहयुद्ध के मुहाने पर खड़ा है, लेकिन भारत में एक तबका ऐसा भी है, जो सरकार की नव उदारवादी नीतियों के  समर्थन में है. उसका मानना है कि कम क़ीमतों पर अच्छा और ब्रांडेड माल खरीदना हर नागरिक का अधिकार है. जिस देश में 80 फीसदी लोगों की दैनिक आय दो डॉलर से कम हो, उस देश में ऐसी दलील देना अमानवीय है.

खुदरा व्यापार क्या है

खुदरा व्यापार का मतलब है कि जब कोई दुकानदार किसी मंडी या थोक व्यापारी के माध्यम से माल या उत्पाद ख़रीदता है और फिर अंतिम उपभोक्ता को छोटी मात्रा में बेचता है. खुदरा व्यापार का मतलब है कि उन सामानों की खरीद-बिक्री, जिन्हें हम सीधे इस्तेमाल करते हैं. रोज़मर्रा में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं या माल को हम किराने की दुकान, कपड़े की दुकान, रेहड़ी और पटरी वालों आदि से ख़रीदते हैं. ये दुकानें घर के आसपास होती थीं. फिर शहरों में एक नया दौर आया, जब बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल खुलने लगे, जहां बिग बाज़ार, रिलायंस आदि जैसे सुपर मार्केट में खुदरा सामान बिकने लगा. एक ही छत के नीचे इन बड़ी-बड़ी दुकानों में रोज़मर्रा के इस्तेमाल की वस्तुएं मिलने लगीं. हर शहर में इसका ट्रेंड चल पड़ा. पिछले कुछ सालों में इन मॉल्स का सबसे ज़्यादा विपरीत असर पारंपरिक खुदरा बाज़ार पर पड़ा. बड़े-बड़े शहरों में लोग मॉल्स का रुख करने लगे. अब इसी बाज़ार में विदेशी पूंजी को निमंत्रण भेजा जा रहा है. इसके बाद देश में बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियां शॉपिंग मॉल्स खोलेंगी, जहां रोज़मर्रा के इस्तेमाल से जुड़ी खुदरा वस्तुएं बिकेंगी. खतरा इस बात का है कि ये कंपनियां इतनी बड़ी हैं कि खुदरा बाज़ार में इनके आने से सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूपरेखा बदल जाएगी. इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि जब बड़ी-बड़ी कंपनियां खुदरा बाज़ार में आती हैं तो क्या होता है.

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