हाफिज सईद और पाकिस्तान की मजबूरी

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hafiz saheedसाउथ अ़फ्रीका में भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच चल रहा था और न्यूयॉर्क में दोनों देशों के राजनयिकों की बैठक हो रही थी. क्रिकेट मैच से पहले टेलीविजन एंकर मूर्खों की तरह दिन भर चिल्लाते रहे. वे मैच को कुछ इस तरह पेश कर रहे थे मानो उनके बीच क्रिकेट का मैच नहीं, सीमा पर युद्ध हो रहा हो. इस मैच में भारत की टीम हार गई, लेकिन न्यूयॉर्क में हुई बैठक का नतीजा वही निकला, जो पहले से तय था. बातचीत असफल रही. दोनों देश अपनी-अपनी बातों पर अड़े रहे. भारत चाहता है कि पाकिस्तान मुंबई के आतंकी पर कार्रवाई करे, वहीं पाकिस्तान ने फिर अपना पुराना राग अलापा- सबूत पर्याप्त नहीं हैं. मुंबई हमले के ज़िम्मेदार आतंकी और आतंकवाद से जिस तरह भारत और पाकिस्तान की सरकारें निपट रही हैं, उससे आंतकियों को एक ही संदेश मिला है – भारत और पाकिस्तान में धमाके पर धमाके करते जाओ. यहां की जनता का ख़ून सस्ता है और यहां पकड़े जाने का कोई ख़तरा नहीं है.

प्रजातंत्र की ख़ूबियां हैं तो उसकी कुछ मजबूरियां भी हैं. फिलहाल पाकिस्तान में भी प्रजातंत्र है, जनता की चुनी हुई सरकार है. भारतवासियों की तरह ही आम पाकिस्तानी अमन और शांति चाहता है, लेकिन सरकार की अपनी मजबूरी है. पाकिस्तान की सरकार एक कमज़ोर सरकार है. सेना और आईएसआई इनकी पकड़ से बाहर हैं. यह ऐसी ख़तरनाक स्थिति है कि जिससे निपटने में ही सरकार उलझ गई है. उन्हें इस बात का डर है कि अगर आतंकियों और इस्लाम के नाम पर ज़हर घोलने वालों के ख़िला़फ कोई क़दम उठता है तो पाकिस्तान के अंदर गृह युद्ध के जैसा माहौल बन सकता है. भारत की सरकार कमोबेश ऐसी ही दुविधा में है. मुंबई के ग़ुनहगारों को लेकर रवैया इतना सख्त इसलिए भी है, क्योंकि महाराष्ट्र में चुनाव होने वाले हैं. अगर सरकार कोई नरम रवैया अपनाती है तो वह विरोधी पार्टियों के निशाने पर आ जाएगी.

पाकिस्तान की राजनीति पंजाबियत और इस्लाम की दो धुरियों के इर्द-गिर्द घूमती है. पाकिस्तान में सेना हो, व्यापार हो या फिर ब्यूरोक्रेसी, इन सब पर पंजाबियों का क़ब्ज़ा है. पाकिस्तान में चल रहे अलग-अलग आंदोलन, दरअसल पंजाबियों के ख़िला़फ लोगों का ग़ुस्सा है. जैसे कि बलूचिस्तान के लोग अलग राज्य की मांग इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि पाकिस्तान की सरकार स़िर्फ पंजाबियों के हित में सोचती है. पाकिस्तान के सरकारी तंत्र और संगठित क्षेत्रों पर पंजाबियों का एकाधिकार है, तो पाकिस्तान के समाज पर मौलाना और मौलवियों की मज़बूत पकड़ है.

पाकिस्तान में धर्म की राजनीति करने वाले नेताओं की अपनी ताक़त है. इन नेताओं को जनरल ज़िया के शासनकाल के दौरान हर तरह की मदद दी गई . वे ताक़तवर बन गए. आज यही लोग पाकिस्तान के धार्मिक लोगों का नेतृत्व करते हैं. ये लोग सीधे राजनीति से जुड़े हुए नहीं है. ये चुनाव नहीं लड़ते. मीडिया के सामने बहुत ही कम आते हैं, लेकिन जनता पर इनकी पकड़ इतनी मज़बूत है कि सरकार इनके ख़िला़फ कुछ भी करने से हिचकिचाती है. इस वर्ग के नेताओं में हा़फिज़ सईद का नाम सबसे ऊपर है.

हा़फिज मोहम्मद सईद जमात-उद-दवा का आमिर यानी अध्यक्ष है. हा़फिज़ सईद एक पंजाबी गूजर है. वह मियांवली ज़िले के जनुबी गांव का रहने वाला है. 1947 में आज़ादी के बाद हा़फिज़ का परिवार शिमला से लाहौर आया. इस दौरान इसके परिवार के 36 लोगों की मौत हुई थी. हा़फिज़ सईद ने साइंस के साथ-साथ सउदी अरब में इस्लामिक तालीम ली. सईद को जनरल ज़िया ने कौंसिल ऑफ इस्लामिक आइडियोलॉजी और लाहौर यूनिवर्सिटी में नियुक्तिदी थी. पाकिस्तानी महकमे के साथ-साथ उसके ताल्लुकात सउदी अरब के इस्लामिक संगठनों से भी है. हा़फिज़ सईद के आतंक का इतिहास भी पुराना है. 1990 में सईद ने लश्कर-ए-तैय्यबा का गठन किया. लश्कर के बारे में पाकिस्तान के अधिकारी भी कहते हैं कि लश्कर सउदी के पैसे और आईएसआई के संरक्षण में चलने वाला संगठन है. जब उस पर प्रतिबंध लगा तो उसने जमात-उद-दवा के नाम से अपना संगठन चलाना शुरू कर दिया. हैरानी की बात यह है कि इस संगठन का आतंकियों के साथ रिश्ता है, इसके बावजूद जमात-उद-दवा को एक एनजीओ मान कर पाकिस्तान की सरकार ने भूकंप पीड़ितों की सहायता के नाम पर उसे करोड़ों रुपए दिए. पाकिस्तान में मीडिया रिपोर्ट छापती रही, संयुक्त राष्ट्र के अधिकारी चेतावनी देते रहे, लेकिन पाकिस्तान की सरकार ने जमात-उद-दवा के ख़िला़फ कोई भी कार्रवाई नहीं की.

हा़फिज़ सईद की न स़िर्फ पाकिस्तान के सरकारी तंत्र पर पकड़ है, बल्कि वह उन्हें इस्तेमाल करना भी जानता है. वह अपनी इस ताक़त से वाक़ि़फ है कि अगर भारत में हुए हमले में नाम पर, उस पर कार्रवाई हुई तो पाकिस्तान सरकार की साख ख़त्म हो जाएगी. उस पर यह आरोप लगेगा कि यह सरकार अमेरिका और भारत के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली बन गई है. हा़फिज़ सईद का एक साथ पंजाबी और जिहादी होना ही पाकिस्तान की सरकार के लिए दुविधा पैदा करती है. यही वजह है कि भारत में हुए किसी आंतकी हमले के मामले में पाकिस्तान की सरकार हा़फिज़ सईद के ख़िला़फ कोई ठोस कार्रवाई नहीं कर सकती. अब सवाल यह है कि क्या हा़फिज़ सईद नाम का शख्स इतना महत्वपूर्ण है, जिसकी वजह से परमाणु हथियारों से लैस दो देश संवादहीनता की स्थिति में आ जाए. पाकिस्तान की मजबूरियां जगज़ाहिर हैं. इसके बावजूद अगर भारत अपनी जगह पर अड़ा रहता है, तो इसका क्या मतलब है? क्या भारत की सरकार हा़फिज़ सईद के लिए अपने पड़ोसी से हमेशा के लिए बातचीत बंद कर देगी या फिर भारत का यह रुख़ स़िर्फ महाराष्ट्र और हरियाणा में होने वाले चुनाव तक के लिए सीमित है? मुंबई के आंतकियों के मामले में क्या दोनों देशों की सरकारें अपनी-अपनी जनता को गुमराह कर रही हैं?

मुंबई हमले ने आंतकियों की पाकिस्तानी तंत्र में पैठ और दोनों देशों की मजबूरियों को उजागर किया है. मीडिया के भड़काने वाले रवैये से ऐसा महौल बन गया है कि दोनों देशों के सरकार की बुद्धि भी मंद पड़ गई है. सरहद के दोनों तऱफ अमनपसंद लोग भी बैकफुट पर आ गए हैं. दक्षिण एशिया में अगर आतंक के ख़िला़फ कोई ठोस लड़ाई लड़नी है तो भारत और पाकिस्तान की सरकारों को एक दूसरे की मजबूरियों को भी समझना पड़ेगा और उसी के मद्देनज़र उपाय भी निकालने होंगे. दोनों देश आपस में लड़ते रहें, उनके बीच संवादहीनता की स्थिति पैदा हो जाए, हैरानी की बात यह है कि आतंकवादी संगठन भी यही चाहते हैं. और दोनों देशों की सरकारें बड़ी निर्लज्जता से आतंकवाद से लड़ने के नाम पर यह काम कर रही हैं.

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