अरुण जेटली का सपना

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arun-jethley-ka-sapnaहते हैं कि सपनों के पंख होते हैं. वे आसमान में उड़ते हैं. जिनके सपने ज़्यादा ऊंचाइयों पर उड़ते हैं, वे उतने ही सफल होते हैं  अरुण जेटली दरअसल भारत की राजनीति में एक ऐसा सिकंदर है, जो बिना जनता के आशीर्वाद के, बिना चुनाव जीते ही राष्ट्रीय स्तर काबन जाता है. मंत्री बन जाता है. ऐसे में अगर वह देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी का सर्वेसर्वा भी बन जाते हैं, तो इसमें शक़ की कोई गुंज़ाइश नहीं कि इस इंसान में कुछ ख़ास है. उनकी शख्सियत बेमिसाल है. उनका निशाना अचूक है. वाज़िब है, अरुण जेटली अगले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री के  उम्मीदवार के रूप में ख़ुद को देखना चाहते हैं. वह प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोए हुए हैं. भारतीय जनता पार्टी के अर्जुन हैं अरुण जेटली. राजनीति के खेल में उन्हें सिर्फ मछली की आंख नज़र आती है. उन्हें पता है कि भविष्य में क्या करना है. उनकी तैयारी बिल्कुल वैसी ही है, जैसी  भारतीय जनता पार्टी में की शैली रही है.

भाजपा का इतिहास देखें तो उसे अब तक शीर्ष के दो नेताओं ने अपने मनमाफिक़ अंदाज़ में चलाया. ये दो नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी हैं. इन दोनों के अलावा जो लोग भाजपा से जुड़ते गए, उन्हें पार्टी में सम्मान मिलता रहा, पद मिलते रहे, मंत्रालय भी दिया गया लेकिन पार्टी का नेतृत्व हमेशा इन्हीं दोनों नेताओं के हाथ में रहा. दोनों की नज़दीकियां किसी तीसरे को पार्टी के शीर्ष तक पहुंचने में दीवार बन कर खड़ी रही. दोनों की दोस्ती में जब कभी दरार दिखाई दी और किसी तीसरे ने इस मौक़े का फायदा उठाना चाहा, तो दोनों साथ हो गए. यही वज़ह है कि बलराज मधोक, मुरली मनोहर जोशी और केआर मल्कानी जैसे कई दिग्गज नेता इन दोनों की दोस्ती के  सामने घुटने टेक दिए. अटल और आडवाणी की जोड़ी का भाजपा संगठन पर पूरा एकाधिकार रहा. आज जिन नेताओं के  कंधे पर भाजपा चल रही है, वह इन्हीं दोनों के बनाए हुए हैं. इन दोनों ने अपने समकक्ष नेताओं को दरकिनार कर नए लोगों को पार्टी में इसलिए जगह दी, ताकि अपने नेतृत्व को सुरक्षित रखने में क़ामयाब रहें. भाजपा में आज भी यही चल रहा है. अरुण जेटली ख़ुद को अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी को आडवाणी की भूमिका में देखते हैं. जेटली और मोदी भी दोस्त हैं. जब भी गुजरात में चुनाव होता है तो चुनाव की तैयारी का सारा भार जेटली अपने सिर ले लेते हैं. अगर पार्टी में इसका विरोध होता है तो मोदी फौरन मांग रख देते हैं कि गुजरात का चुनाव जेटली की देखरेख में ही हो. आज भारतीय जनता पार्टी का आलम यह है कि जेटली और मोदी की जोड़ी ठीक उसी तरह काम कर रही है, जैसी कभी अटल और आडवाणी की जोड़ी करती थी.

अरुण जेटली राजनीति के  माराडोना हैं. उनसे गेंद छीनना आसान नहीं है. वह अपने प्रतिद्वंद्वियों को नचा कर गोलपोस्ट की तरफ बढ़ जाते हैं. अब तो मामला ऐसा है कि सिर्फ वही हैं और उनके सामने अकेला गोलकीपर खड़ा है. राजनाथ सिंह उनको कैसे रोक पाएंगे, यह देखना बाक़ी है. कुछ दिन पहले तक भाजपा में उमा भारती, गोविंदाचार्य, सुषमा स्वराज, प्रमोद महाजन, कल्याण सिंह, सुशील मोदी, वसुंधरा राजे सिंधिया, बाबूलाल मरांडी, तपन सिकदर, जूदेव जैसे नेताओं की भीड़ नज़र आती थी. अरुण जेटली समय पहले से ही इस बात को भांप चुके थे कि आने वाले समय में पार्टी में क्या होने वाला है.

अरुण जेटली की राजनीतिक उड़ान दिल्ली विश्वविद्यालय से ही शुरू हो गई थी. वह दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष भी रहे. और इमर्जेंसी के दौरान 19 महीने में उन्होंने जेल में बिताए. उसके बाद वह राष्ट्रीय राजनीति में आने की लगातार कोशिश करते रहे, लेकिन इसमें विफल रहे. फिर वकालत में जुट गए. जेटली को सबसे बड़ा ब्रेक तब मिला, जब 1989 में वीपी सिंह की सरकार ने उन्हें एडिशनल सोलिसिटर जनरल बनाया. उन्हें बोफोर्स कांड की जांच में जरूरी कागज़ातों को तैयार करने का दायित्व मिला. उसके बाद से उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. कानून का कोई रंग नहीं होता. चाहे वह शरद यादव हों, माधवराव सिंधिया या फिर लालकृष्ण आडवाणी-सबके वकील यही रहे.

जेटली लाज़वाब रणनीतिकार के  साथ-साथ क़िस्मत के भी धनी हैं. भाजपा में जहां कभी नेताओं की भीड़ थी, आज जेटली के लिए मैदान साफ हो गया है. एक-एक करके  भाजपा के बड़े नेता पार्टी से बाहर होते गए. कुछ को जेटली ने अपना निशाना बनाया और कुछ अपनी ग़लतियों से पार्टी से बाहर चले गए. गोविंदाचार्य की ज़ुबान क्या फिसली, विवाद गहरा गया. उन्होंने वाजपेयी को मुखौटा बता कर मुसीबत मोल ले ली. उनके एक ही वाक्य से भाजपा के सारे दरवाज़े उनके लिए बंद हो गए. उत्तरप्रदेश में पार्टी का झंडा बुलंद करने वाले और बाबरी मस्ज़िद को गिराने में अहम भूमिका निभाने वाले कल्याण सिंह पार्टी से बाहर हैं. प्रमोद महाजन की आकस्मिक मृत्यु अरुण जेटली के लिए वरदान बन गई. जहां तक सुषमा स्वराज की बात है तो वह अरुण जेटली का मुक़ाबला नहीं कर सकतीं. उमा भारती अपने ही गुस्से का शिकार हो गईं. बाक़ी जितने उभरते हुए नेता थे उनमें से कुछ ने अपनी अलग पार्टी बना ली या फिर अरुण जेटली के सामने घुटने टेक दिए. भाजपा में मोदी संघ से आए और जेटली के साथ हो गए. गुजरात में भाजपा की अंदरूनी कलह से दिल्ली में प्रवक्ता से सीधे मुख्यमंत्री बना दिए गए. भाजपा अब उस दौर में आ गई है, जब अटल और आडवाणी का राजनीतिक जीवन आख़िरी पड़ाव में है. अब यह साफ नज़र आने लगा है कि आने वाले समय में अटल और आडवाणी की जोड़ी की जगह भाजपा को जेटली और मोदी की जोड़ी ही चलाएगी. 

भाजपा में अरुण जेटली का रोल चुनाव के  दौरान बढ़ जाता है. वह पार्टी के सबसे महत्वपूर्ण नेता बन जाते हैं. टिकट बंटवारे से लेकर, पोल मैनेजमेंट, प्रचार-प्रसार और नारे आदि उन्हीं की सहमति से तय होते हैं. चुनाव प्रचार के दौरान अरुण जेटली ही तय करते हैं कि पार्टी किस मुद्दे को उठाएगी या किस विषय को छोड़ देगी.

भाजपा में अरुण जेटली का रोल चुनाव के  दौरान बढ़ जाता है. वह पार्टी के सबसे महत्वपूर्ण नेता बन जाते हैं. टिकट बंटवारे से लेकर, पोल मैनेजमेंट, प्रचार-प्रसार और नारे आदि उन्हीं की सहमति से तय होते हैं. चुनाव प्रचार के दौरान अरुण जेटली ही तय करते हैं कि पार्टी किस मुद्दे को उठाएगी या किस विषय को छोड़ देगी. इस लोकसभा चुनाव के दौरान अब तक जो संकेत मिल रहे हैं, वे भारतीय जनता पार्टी के लिए निराशाजनक हैं. आडवाणी दिन-ब-दिन प्रधानमंत्री की कुर्सी से दूर होते जा रहे हैं. पार्टी के अंदर भी फुसफुसाहट शुरू हो चुकी है. पार्टी कार्यकर्ताओं कोे लगता है कि  जेटली का भविष्य पार्टी की जीत या हार से तय होगी. उन्होंने शायद जेटली का ग़लत अनुमान लगाया है. उनका पासा ऐसा है कि चित वह जीतेंगे और पट में सामने वाला हार जाएगा. यानी चुनाव के परिणाम कुछ भी हों, जीत जेटली की होनी है. वह भविष्य के सूरते हाल को समझ चुके हैं, भांप चुके हैं, इसलिए चुनाव की शुरुआत से ही उन्होंने राजनाथ सिंह पर दोषारोपण शुरू कर दिया. आक्रमण सबसे बेहतर बचाव है, यही जेटली के खेल का ़फार्मूला है. सुधांशु मित्तल के  सवाल पर जेटली ने ईमानदारी और मर्यादा का ऐसा सवाल खड़ा किया कि राजनाथ सिंह के  साथ-साथ भाजपा के  सारे वरिष्ठ नेता चारों खाने चित हो गए. उनकी बोलती बंद हो गई. सोचनी वाली बात यह है कि मित्तल भारतीय जनता पार्टी के  लिए नए नहीं हैं.

प्रमोद महाजन के  साथ उन्होंने पार्टी के लिए काफी दिनों तक काम किया. इस बार के  राजस्थान विधानसभा चुनाव में भी उनका योगदान रहा. असम गण परिषद के साथ गठजोड़ में भी उनकी भूमिका रही है. अचानक ऐसी क्या बात हो गई कि लोकसभा चुनाव में उन्हें जिम्मेदारी देने में मर्यादा और ईमानदारी का प्रश्न खड़ा हो गया?  मित्तल का मामला उठाकर जेटली ने राजनाथ सिंह और सुषमा स्वराज को नीचा दिखाने का काम किया. नवीन पटनायक के बीजू जनता दल (बीजद) के साथ भाजपा का साथ टूट, तो जेटली ने अपना दांव खेल दिया. अपनी गर्दन बचाते हुए उन्होंने इसका ठीकरा राजनाथ सिंह के माथे फोड़ दिया. वह राजनीति के चतुर और चालाक खिलाड़ी हैं. अरुण जेटली को अगर यह पता होता कि भाजपा चुनाव जीत रही है, तो वह इस सवाल को उठाते ही नहीं. यह काम अरुण जेटली की सूझबूझ वाला नेता ही कर सकता है. वह पार्टी उम्मीदवारों को तय करने वाली बैठकों में शामिल होते हैं और भाजपा के  चुनावी वॉररूम को दुरूस्त करने जाते हैं, लेकिन वरिष्ठ नेताओं के साथ केंद्रीय समिति की बैठकों का बायकाट कर देते हैं. चुनाव के बाद पैदा होने वाली स्थिति को वह समझ चुके हैं. इसलिए आक्रामक मुद्रा में हैं. पार्टी के  अलग-अलग नेताओं पर अलग-अलग तरीके से निशाना साध रहे हैं.

अरुण जेटली जानते हैं कि अगर उन्हें अपना सपना पूरा करना है, तो उनकी सबसे सटीक रणनीति क्या होनी चाहिए. भारतीय जनता पार्टी में अरुण जेटली लोकसभा चुनाव प्रचार के  शिल्पी हैं. वह भाजपा में इस बार किंगमेकर की भूमिका में हैं. आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने की आड़ में, चुनावी तैयारी के नाम पर जेटली पार्टी के अंदर अपना जाल बिछा चुके हैं. चुनाव के बाद उनके रास्ते आनेवाले हर संभावित नेता के लिए उन्होंने रणनीति तैयार कर ली है. वह सारे बड़े नेता जेटली के  निशाने पर हैं, जो चुनाव के बाद जेटली के रास्ते में रुकावट डाल सकते हैं. इस चुनाव में हुई सारी गड़बड़ियों का ठीकरा राजनाथ सिंह और दूसरे नेताओं के  माथे पर कैसे फोड़ा जाए, इसकी तैयारी अभी से ही शुरू हो चुकी है. मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज जैसे राष्ट्रीय नेताओं का दायरा एक-एक राज्यों में सिमटा दिया गया है.

भारतीय जनता पार्टी के  कई उभरते हुए नेता व कार्यकर्ता मानते हैं कि किसी भी पढ़े-लिखे और तेज़तर्रार कार्यकर्ता को पार्टी में आगे नहीं बढ़ने दिया जा रहा है. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भारतीय जनता युवा मोर्चा से उन्हीं लोगों को प्रोत्साहन मिलता है जो दिमाग़ से ख़ाली और पॉकेट से भारी होते हैं. यही वजह है कि जब भी युवाओं की बात होती है तो भारतीय जनता पार्टी के  पास एक भी ऐसा नाम नहीं होता है जो आने वाले समय में युवाओं का नेतृत्व कर सके. भाजपा के  कार्यकर्ता नाराज़ हैं. उन्हें लगता है कि पार्टी में आगे बढ़ने के लिए क़ाबिलियत की नहीं, पैसे का भंडार होना जरूरी है. इन कार्यकार्तओं को लगता है कि चुनाव के  बाद पार्टी वरुण गांधी को भी अधर में छोड़ देगी. भारतीय जनता पार्टी को वरुण गांधी का साथ तो चुनावी मज़बूरी और संघ के  दबाव के कारण देना पड़ रहा है. पार्टी प्रवक्ताओं ने तो शुरू में वरुण के  बयानों को उनका अपना बयान बता कर उसे दरकिनार करने की कोशिश ही की थी. पार्टी ने अपने मुस्लिम मुखौटे मुख्तार अब्बास नक़वी और शाहनवाज़ हुसैन को आगे बढ़ा दिया, जो दिन भर टीवी पर यही कहते नज़र आ रहे थे कि यह भाजपा के  मर्यादा के  ख़िला़फ दिया गया बयान है. जेटली  की यही एक समस्या है कि अटल और आडवाणी की तरह उनके साथ नई पीढ़ी के तेज़तर्रार और पढ़े-लिखे नौजवानों की फौज़ नहीं हैं. अरुण जेटली की रणनीति साफ है. वह चुनाव के  बाद पार्टी की कमान अपने हाथों में लेना चाहते हैं. इस तरह भाजपा के शीर्ष में ख़ुद और मोदी को रखना चाहते हैं. इससे एक तीर से दो निशाना साधेंगे. पार्टी के अंदर मास लीडर की कमी को नरेंद्र मोदी पूरा करेंगे और पार्टी का पूरा कार्यभार अपने हाथ में ले लेंगे.

चुनाव के  बाद पार्टी में आडवाणी का रोल एक मार्गदर्शक का होगा. इन दोनों को लालकृष्ण आडवाणी का साथ भी मिलेगा. अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा की तरफ से मोदी के चेहरे के पीछे जेटली अपना एजेंडा चलाएंगे, क्योंकि वह जानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी अपने दम पर बहुमत नहीं ला सकती. इसलिए जब भी प्रधानमंत्री के चुनाव की बात आएगी, तो अरुण जेटली का उदारवादी चेहरा मोदी पर भारी पड़ेगा. लेकिन जेटली को चुनौती भाजपा नेताओं से ज्यादा संघ की ओर से मिलने वाली वाली है. यह देखना बाक़ी है कि जेटली के  इस खेल पर संघ क्या करता है. क्या संघ मूकदर्शक बन कर भाजपा को अपने हाथ से बाहर जाने देगा या फूट और बिखराव की राजनीति से इसे फिर से प्रभावित करेगा. भाजपा का एक धरा तो यह भी कहता है कि आने वाले समय में संघ मध्यप्रदेश के  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर अपना दांव लगाने वाला है. फिलहाल कहना मुश्किल है कि जेटली अपनी रणनीति में कितना सफल होंगे, लेकिन यह तय है कि परिणाम जो भी हो, लोकसभा चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी में नेतृत्व को लेकर महाभारत होगा. अरुण जेटली तब अर्जुन साबित होते हैं या फिर दुर्योधन, यह तो वक्त ही बताएगा.

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