शीर्ष दलों में नेतृत्व पर घमासान

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भारतीय चुनावी राजनीति में एक अजीब सी हवा चली है-बुजुर्ग नेताओं को अपमानित करने की. उन्हें सार्वजनिक तौर पर शर्मसार करने की नई शुरुआत हुई है. शीर्ष नेताओं का अपमान जिस तरह इस चुनाव में हो रहा है, वैसा पहले कभी नहीं हुआ. चुनाव से पहले भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री घोषित किया था और अब चुनाव के  दौरान उसी पार्टी के  नेता नरेंद्र मोदी का नाम उछाल कर आडवाणी को अपमानित किया जा रहा है. कांग्रेस भी मनमोहन सिंह का उपहास कर रही है. पांच साल तक वह प्रधानमंत्री रहे. सोनिया गांधी ने भी ऐलान कर दिया कि वही देश के  अगले प्रधानमंत्री होंगे. इसके  बावजूद कांग्रेस के  कई नेता राहुल गांधी को अगला प्रधानमंत्री बता कर मनमोहन सिंह जैसे ईमानदार और सीधे-सादे इंसान का मखौल उड़ा रहे हैं. अगर प्रधानमंत्री के  नाम पर अपनी ही पार्टी के  अंदर सर्वसम्मति नहीं है, तो इसका जायजा लेना जरूरी है कि देश की दो सबसे बड़ी पार्टियों के  पास विकल्प आख़िर क्या हैं?

shirsh-dalo-me-netritwa-parप्रियंका कांग्रेस का आख़िरी दांव हैं

पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव सोनिया गांधी की अग्निपरीक्षा है. यह दूसरा आम चुनाव है जिसमें सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने कांग्रेस के  लिए प्रचार किया है. 2004 के  चुनाव में जनता ने एनडीए सरकार के  ख़िला़फ वोट दिया था, न कि कांग्रेस को जनादेश दिया था. लोग एनडीए से नाराज थे. एनडीए अपनी ग़लतियों की वजह से चुनाव हार गया. नतीज़ा यह हुआ कि देश में पिछले पांच साल से उस यूपीए की सरकार चल रही है, जिसका नेतृत्व सोनिया गांधी कर रही हैं. इस बार पहली दफा देश की जनता यह तय करेगी कि उन्हें सोनिया गांधी के  नेतृत्व में भरोसा है या नहीं. सोनिया गांधी के  नेतृत्व में कई बड़े फैसले लिए गए. किसानों के  ऋणों को माफ करने की सरकार की सबसे बड़ी योजना आई. पूरे देश में बेरोज़गारों को रोज़गार देने के लिए योजनाएं चलाई गईं. हालांकि स्टाक मार्केट ज़मीन पर गिरा तो महंगाई आसमान छूने लगी. अब चुनाव आया है.

सोनिया गांधी पहली बार अपने सरकार के  समर्थन में वोट मांग रही हैं. पहली बार सोनिया गांधी के नेतृत्व पर देश की जनता का फैसला सुनने का वक्त आया है. कांग्रेस पार्टी का सबसे मज़बूत पक्ष ही उसकी सबसे कमज़ोर कड़ी है. सोनिया गांधी और राहुल गांधी के अलावा कांग्रेस के पास राष्ट्रीय स्तर के ऐसे नेता नज़र नहीं आ रहे हैं, जो चुनाव में हवा का रुख बदल सकते हों. नेता हैं भी, तो उन्हें आगे आने नहीं दिया जा रहा है. हालत यह है कि कांग्रेस में सोनिया और राहुल के अलावा कोई दूसरा ऐसा नेता नज़र नहीं आता जो विभिन्न राज्यों में भीड़ इकट्ठी कर सके, जिसमें लोगों का विश्वास हो. जनता के  बीच जिनकी साख हो. पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का चुनाव प्रचार पूरी तरह से सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर निर्भर है. जिस तरह 2004 के चुनावों में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के  रोड शो ने कमाल दिखाया और कांग्रेस की सीटें बढ़ गईं, उसी तरह इस बार भी कांग्रेस को इन दोनों का करिश्मा चलने का भरोसा है. इस बार इन दोनों के प्रचार का असर चुनाव पर क्या हुआ, यह तो परिणाम आने पर पता चलेगा लेकिन पहले यह समझना ज़रूरी है कि चुनाव के बाद कांग्रेस के पास क्या-क्या विकल्प होंगे.

 

अगर कांग्रेस की सीटें कम हुईं तो क्या होगा

अगर इस चुनाव में कांग्रेस की सीटें कम हुईं तो सबसे ज़्यादा नुकसान सोनिया गांधी का होगा. सोनिया गांधी का राजनीतिक कद कम होगा. सरकार बनाना तो दूर कांग्रेस में ही सोनिया गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठने लगेंगे. ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि कांग्रेस के नेताओं को लगेगा कि सोनिया और राहुल गांधी चुनाव जितवाने की क्षमता नहीं रखते. कांग्रेस के नेता खुलकर सामने भले न कहें, लेकिन बंद दरवाजे के अंदर कहना शुरू कर देंगे कि हार की वजह सोनिया और राहुल गांधी रहे़. इसका दूसरा परिणाम यूपीए में देखने को मिलेगा. यूपीए में फिर से बिखराव होगा. जो पार्टियां पिछली बार कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनाने को सहमत थीं वे तीसरे मोर्चे या फिर एनडीए के साथ जा सकती हैं. कांग्रेस अकेली पड़ जाएगी. लालू यादव, मुलायम सिंह और रामविलास पासवान पहले ही यूपीए को छोड़ कर चौथा मोर्चा बना चुके हैं. इतना ही नहीं, लालू यादव तोे कांग्रेस को ही बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं. कांग्रेस के पास लालू के इन आरोपों का सक्षम जवाब नहीं है. अगर कोई कद्दावर मुस्लिम नेता होता तो कांग्रेस लालू का जवाब दे पाती. कांग्रेस में अजीबो-गरीब स्थिति है. पार्टी जिसे नेता मानती है उन्हें मुसलमानों का समर्थन नहीं है. और जो मुसलमानों के नेता हैं, उन्हें पार्टी नेता नहीं मानती. आम मुसलमान सलमान खुर्शीद को नेता नहीं मानते, लेकिन पार्टी मानती है. परवेज हाशमी मुसलमानों के नेता हैं, लेकिन पार्टी ने उन्हें सचिव बनाकर दिल्ली में बैठा रखा है. अगर बीजेपी सरकार बनाने में कामयाब हो जाती है तो देश में सेकुलर ताक़तों को कमज़ोर करने की भी जिम्मेदारी सोनिया गांधी पर आ जाएगी. अगर ऐसा हुआ तो मुसलमानों के बीच कांग्रेस की साख ख़त्म होगी. आगे आने वाले चुनावों में मुसलमान अगर कांग्रेस का साथ न दें तो इसकी जिम्मेदारी भी लोकसभा चुनाव में हुई कांग्रेस की गलतयि पर ही आएगी. वैसे कांग्रेस की असल परेशानी यह नहीं है.

चुनाव परिणामों को लेकर जिस तरह की भ्रम की स्थिति है, उसमें कुछ भी हो सकता है. ऐसे में अगर कांग्रेस की सीटें 100 के आसपास या उससे कम आती हैं तो इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि कांग्रेस टूट जाए. टूटे हुए कांग्रेस का एक धड़ा तीसरा मोर्चा और एनडीए का साथ दे सकता है. ऐसा इसलिए होगा क्योंकि नेता किसी पार्टी में तभी तक रहते हैं जब तक उन्हें उम्मीद हो कि पार्टी का टिकट उन्हें चुनाव जिताने के काम आ सकता है. चुनाव में अपना सब कुछ दांव लगाने वाले नेताओं को जब यह विश्वास हो जाए कि इस पार्टी के नेता जिता नहीं सकते तो पार्टी छोड़ने में और दूसरे विकल्पों की तलाश करने में वे अधिक समय नहीं लगाते हैं. अगर कांग्रेस की सीटें सौ के आसपास हो जाती है तो पार्टी की स्थिति किसी डूबते हुए जहाज की तरह हो जाएगी और नेताओं की स्थिति उस पर सवार यात्रियों की, जो अपनी जान बचाने के लिए किसी भी हद तक जाने को आतुर होंगे. ऐसी परिस्थिति में जब कांग्रेस के नेताओं का सोनिया गांधी और राहुल के  नेतृत्व पर से विश्वास उठ जाएगा तो पार्टी को बचाने के लिए कांग्रेस के पास एक ही रास्ता बचेगा. प्रियंका ही एक मोहरा हैं, जो कांग्रेस को इस स्थिति से उबार सकेंगी. क्योंकि प्रियंका को देखकर तो यहीे लगता है कि उनमें नेतृत्व के लिए सारी प्रतिभा और व्यक्तित्व है. कांग्रेस के नेताओं में सिर्फ प्रियंका ही यह भरोसा जगा सकती हैं कि पार्टी उन्हें चुनाव जिता सकती है.

 

अगर कांग्रेस की सीटें पहले से ज़्यादा हुई तो..

कांग्रेस की सीटें अगर बढ़ती हैं तो इसका सबसे ज़्यादा फायदा सोनिया गांधी को मिलेगा. भारतीय राजनीति में उनका कद बढ़ेगा. सोनिया उस मुकाम को हासिल करेंगी जो राजीव गांधी नहीं कर सके. यूपीए का पुनर्गठन होगा और कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनेगी. और इसके बाद ही तय होगा कि देश का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा. अनुभवहीनता का हवाला देकर राहुल गांधी ने खुद को प्रधानमंत्री की रेस से बाहर कर लिया. वह प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे. उनकी जगह कोई और प्रधानमंत्री होगा. यह कौन होगा, यह अभी तय नहीं है. मनमोहन सिंह के नाम पर लेफ्ट पार्टियां समर्थन भी नहीं देंगी. वैसे भी मनमोहन सिंह का स्वास्थ्य पहले जैसा नहीं है. इसलिए प्रधानमंत्री की कुर्सी पर वह दोबारा नहीं आएंगे, यह तय है. पार्टी में ऐसे दूसरे नेता हैं जो प्रधानमंत्री के  उम्मीदवार हो सकते हैं. प्रणव मुखर्जी, ए के एंटनी और दिग्विजय सिंह प्रधानमंत्री पद के  उम्मीदवार हो सकते हैं लेकिन इनके प्रधानमंत्री बनते ही कांग्रेस के कई दिग्गज नेता नाराज़ हो जाएंगे. कांग्रेस यह जोख़िम नहीं उठा सकती. आशंका है कि अगर ऐसा हुआ तो पार्टी के अंदर विश्वासघात और भितरघात का दौर शुरू हो जाएगा. कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या यह है कि गांधी परिवार के बाहर अब उनके पास ऐसा कोई भी नेता नहीं जो पार्टी के अंदर सर्वमान्य हो. ऐसे में प्रियंका ही कांग्रेस का आखिरी दांव होंगी. प्रियंका के प्रधानमंत्री बनने से कांग्रेस को कई फायदे होंगे. कई पार्टियां समर्थन देगी. पार्टी के अंदर अंतर्विरोध खत्म हो जाएगा. पार्टी नहीं टूटेगी. लोकसभा चुनाव के परिणाम जो भी हों, कांग्रेस के लिए प्रियंका ही आख़िरी दांव हैं. पार्टी को ज़्यादा सीटें मिलती हैं और कांग्रेस सरकार बनाने के स्थिति में आती है तो सिर्फ प्रियंका के नाम पर ही कांग्रेस के अंदर और बाहर से समर्थन देने वाली पार्टियों में सहमति बनने के आसार हैं. अगर कांग्रेस को कम सीटें आती हैं तो पार्टी को बचाने के लिए प्रियंका को ही मैदान में उतरना पड़ेगा.

प्रियंका ने समझदारी के साथ अपनी मार्केटिंग भी की है. सबसे पहले अपने को दादी इंदिरा गांधी जैसा बताया. सबूत में नाक दिखाई और कहा कि यह इंदिरा गांधी जैसी है और फिर अपनी साड़ियों के बारे में बताया कि वे तो उनकी दादी की ही हैं. इतना ही नहीं, साड़ियां भी वह इंदिरा जी की तरह ही पहनती हैं. प्रियंका ने संदेश दे दिया कि वह न केवल बहादुर हैं, विपक्ष का सामना भी कर सकती हैं और देश को बेहतर युवा नेतृत्व दे सकती हैं.

भाजपा में प्रधानमंत्री की तलाश

भाजपा ने पहले लालकृष्ण आडवाणी को भावी प्रधानमंत्री घोषित कर दिया. बैठकों और रैलियों में उन्हें प्रधानमंत्री जी कह कर पुकारा जाने लगा. मीडिया के जरिए आक्रामक प्रचार शुरू किया गया और दुनिया भर में अख़बार, इंटरनेट और टेलीविजन के जरिए यह बात फैला दी गई कि देश के अगले प्रधानमंत्री आडवाणी जी होंगे. लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को एक सर्वगुण संपन्न प्रधानमंत्री बता कर भाजपा वाले ही आडवाणी जी को अपमानित करने का काम कर रहे हैं. किसी एक ने कहा होता तो ग़लती मान कर भुलाया जा सकता था. किसी छोटे नेता ने कहा होता, तो भी उसे महत्वहीन समझा जा सकता था. लेकिन मोदी को भावी प्रधानमंत्री बताने वाले वे लोग हैं जो आडवाणी और बीजेपी के प्रचार-प्रसार के  कमांडर हैं. ये वे लोग हैं जिनका फैसला भारतीय जनता पार्टी का फैसला होता है. प्रधानमंत्री को लेकर भाजपा में चल रहे संवाद से यह समझना चाहिए कि अगर भारतीय जनता पार्टी को सरकार बनाने का मौका मिलता है तो प्रधानमंत्री कौन होगा, इस पर पार्टी की एक राय नहीं है. मतलब यह कि आडवाणी जी को चुनाव के बाद पार्टी प्रधानमंत्री बनाएगी या नहीं, अभी तय नहीं है. क्या आडवाणी प्रधानमंत्री बनेंगे? क्या आडवाणी के  चेहरे के  पीछे मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की तैयारी है? क्या मोदी आडवाणी के ख़िला़फ हैं? क्या आडवाणी का अपने ही कमांडरों पर से भरोसा उठ गया है?  मोदी का  नाम उछाले जाने के बाद आडवाणी ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिहं चौहान का नाम भावी प्रधानमंत्री के रूप में क्यों लिया? क्या आडवाणी की जगह मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह, अरुण जेटली या फिर खुद मोदी प्रधानमंत्री बन सकते हैं? भाजपा में चुनाव नतीजों के  आने से पहले ही नेतृत्व को लेकर महासंग्राम शुरू हो गया है.

यही वजह है कि आडवाणी के नेतृत्व पर सवाल उठने लगे हैं. अब तक जो संकेत मिल रहे हैं उससे भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है. यह साफ-साफ लग रहा है कि एनडीए को बहुमत नहीं मिलने वाला है. भाजपा के नेताओं को अब लगने लगा है कि सरकार बनाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. भाजपा की सीटें तो बढ़ेंगी लेकिन इतनी नहीं कि एनडीए को बहुमत मिल जाए. सरकार बनाने के लिए एनडीए से बाहर दूसरे दलों की जरूरत पड़ेगी. ये दूसरे दल चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी हो सकती है, जयललिता की अन्नाद्रमुक और पटनायक की बीजेडी. इन पार्टियों की समस्या है कि ये कांग्रेस के साथ नहीं जा सकतीं और खुद को भाजपा के एजेंडे का विरोधी भी बताती हैं. भाजपा को इन दलों का साथ उनकी ही शर्तों पर मिलेगा. ये दल भाजपा को तभी तक साथ देंगे जब तक इनकी सेकुलर छवि खराब नहीं हो रही हो. यह भी संभव है कि एनडीए के  बाहर की पार्टियां आडवाणी के नाम पर राजी न हों. हो सकता है कि जयललिता, नायडू और पटनायक शर्त रख दें कि वे भाजपा को तभी समर्थन देंगे जब प्रधानमंत्री के पद पर आडवाणी की जगह कोई और उदारवादी नेता हो. अगर ऐसा होता है तो आडवाणी पार्टी में अकेले पड़ जाएंगे. भारतीय जनता पार्टी को किसी अन्य नाम पर विचार करना होगा. वे नाम जसवंत सिंह हो सकते हैं या मुरली मनोहर जोशी. इन दोनों नेताओं के रिश्ते आडवाणी के  साथ ज़्यादा मधुर नहीं हैं. फिलहाल दोनों नेताओं को जेटली एंड कंपनी ने हाशिए पर कर दिया है. यही वजह है कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा का जवाब तलाशती भाजपा में तूफान है.

इस बात के संकेत लखनऊ में राजनाथ सिंह ने दिए. एक अंग्रेजी चैनल के रिपोर्टर ने जब सवाल किया कि अरुण जेटली और अरुण शौरी जैसे नेता मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे हैं, लेकिन आपने इस मामले में कोई बयान नहीं दिया, तो राजनाथ सिंह नाराज़ हो कर बीच इंटरव्यू से उठ गए. हाथों से इशारा कर कहने लगे कि क्या बकवास पूछ रहे हो. ऐसा कुछ नहीं होने वाला है. राजनाथ सिंह एक अनुभवी राजनेता हैं, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष हैं. रिपोर्टर के सवाल पर कह सकते थे कि भारतीय जनता पार्टी में नेताओं की कमी नहीं है या इनकी पार्टी में सामूहिक नेतृत्व की परंपरा है आदि-आदि. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. पार्टी के अंदर चल रहे घमासान को सार्वजनिक कर दिया. टेलीविजन के सामने राजनाथ सिंह की मुद्रा ने साफ कर दिया कि भाजपा में तलवारें निकल चुकी हैं. कौरवों और पांडवों की रणनीति तय हो चुकी है. चुनाव के परिणाम आते ही महाभारत शुरू होने वाला है. यह महाभारत सिर्फ एक ही सूरत में टल सकता है, अगर भाजपा की सीटें घट जाएं और एनडीए को सरकार बनाने का मौका न मिले.

आडवाणी जी राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हैं. भारतीय राजनीति में फिलहाल उनसे ज़्यादा अनुभवी कोई नहीं है. लेकिन पार्टी के  नेताओं ने जिस तरह से उन्हें उपहास का पात्र बना दिया है, उससे वह भी खिन्न हो गए हैं. पार्टी नेताओं की बयानबाजी से इतने क्षुब्ध हो चुके हैं कि उन्हें क्या, कहां और कैसे बोलना है, यह भी समझ में नहीं आ रहा है. तीसरे चरण के  मतदान के दौरान टीवी रिपोर्टरों ने जब भाजपा की उम्मीदों के  बारे में पूछा तो उन्होंने सबको हैरान कर दिया. पत्रकारों को उम्मीद थी कि वह कहेंगे कि भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलने वाला है या फिर अगली सरकार एनडीए की होने वाली है आदि-आदि. लेकिन वह कहने लगे कि भारत में मतदान को अनिवार्य बनाने के लिए क़ानून की ज़रूरत है. ज़्यादा लोग वोट दे सकें , इसके लिए चुनाव गर्मी में नहीं फरवरी के महीने में होना चाहिए. भारत एक मजबूत लोकतंत्र है. चुनाव के दिन आडवाणी जैसे अनुभवी नेता इस तरह का बयान दें, तो इसे क्या समझा जाए? क्या वह इतने परेशान हो चुके हैं कि उन्हें यही समझ में नहीं आ रहा है कि चुनाव के दौरान क्या बोलना चाहिए और किन विषयों को सेमिनारों के लिए छोड़ देना चाहिए? हो सकता है आडवाणी को शायद उनके साथ हो रहे भितरघात का आभास हो चुका हो. अपनी ही पार्टी से वह इतने तंग आ चुके हैं कि उन्होंने ़फैसला कर लिया है कि पार्टी के संदर्भ में कोई बात नहीं करेंगे.

नरेंद्र मोदी हाल ही में इंडिया टीवी के सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम-आप की अदातल – में नज़र आए. इसमें  किसी ने मोदी से पूछा कि आपने गुजरात का विकास किया है, अब आप पूरे देश के लिए  कब काम करेंगे? नरेंद्र मोदी जवाब में गोलमोल बातें करने लगे. प्रस्तोता रजत शर्मा ने अपने खास अंदाज़ में सीधा सवाल कर दिया कि जनता पूछ रही है मोदी जी कि आप देश के प्रधानमंत्री कब बनेंगे?  इस पर मोदी ने जवाब दिया कि फिलहाल तो आडवाणी जी ही प्रधानमंत्री बनेंगे. इस वाक्य के खत्म होते ही वह मंद-मंद मुस्कुराए. वह जिस अंदाज से मुस्कुराए उससे यह साफ हो गया कि मोदी क्या कहना चाह रहे थे. आप की अदालत कार्यक्रम में मौजूद जनता भी हंस पड़ी. तालियां बजीं. उनकी हंसी को देख कर गोविंदाचार्य की बात याद आ गई. मुखौटे वाली. मोदी बिना कुछ कहे यह बता गए कि आडवाणी तो मुखौटा हैं. पार्टी का असली चेहरा तो खुद मोदी हैं.

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