कांग्रेस सरकार इज़राइल की दोस्त है

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sonia gandhiइज़राइल के अ़खबारों में भारत-इज़राइल दोस्ती की कहानियां धड़ल्ले से छप रही हैं. दोनों देशों को एक नेचुरल फ्रेंड बताया जा रहा है. साथ में यह भी बताया जा रहा है कि किस तरह अमेरिका की यहूदी लॉबी ने अमेरिका, और भारत को एकजुट किया. यही यहूदी लॉबी भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील और इज़राइल से हथियार खरीदने की डील के  पीछे है. इस यहूदी लॉबी की ताक़त का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि न्यूक्लियर डील की वजह से कांग्रेस पार्टी ने अपनी सरकार को दांव पर लगा दिया था.

कुछ दिन पहले भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्णा के साथ-साथ देश के कई बड़े खुफिया और आला अधिकारी इज़राइल में थे. इज़राइली मीडिया के मुताबिक़, उनकी का़फी आवोभगत हुई. बताया गया कि यह भारत सरकार की तऱफ से अब तक का सबसे उच्च स्तरीय और सफल दौरा था. भारत सरकार अब तक इज़राइल के साथ रिश्ते को छिपाती रही है. लेकिन जिस तरह कांग्रेस के विदेश मंत्री ने इज़राइल के साथ क़रार किया है, वह चौंकाने वाला है. कांग्रेस सरकार ने बंगलुरु में इज़राइल को कांसुलेट खोलने की इजाज़त दी है. साथ में प्रत्यार्पण संधि भी की है. फिलहाल दोनों देशों के बीच 5 बिलियन डॉलर का व्यापार होता है, जो अब बढ़कर 15 बिलियन डॉलर होने वाला है. कांग्रेस सरकार इज़राइल के साथ मुक्त व्यापार समझौता करना चाहती है, ताकि इज़राइली सामान बिना रोक-टोक भारत में बिक सके. दिसंबर 2011 में इज़राइल के वित्त मंत्री यह ऐलान कर चुके हैं कि उनके लिए अमेरिका के बाद भारत सबसे महत्वपूर्ण देश है. मतलब यह कि अमेरिका के बाद इज़राइल का सबसे गहरा दोस्त भारत बन चुका है. हैरानी की बात है कि अमेरिका भी यह चाहता है कि इज़राइल और भारत की नज़दीकियां बढ़ें. बताया यह जाता है कि कांग्रेस सरकार और इज़राइल की दोस्ती के पीछे अमेरिका में सक्रिय यहूदी लॉबी अमेरिकन ज्यूइस एडवोकेसी ग्रुप भारत- इज़राइल के मज़बूत रिश्ते में अहम भूमिका निभा रहा है. यह यहूदी लॉबी अमेरिका की सरकार में का़फी द़खल रखती है. कांग्रेस सरकार को लगता है कि इस यहूदी लॉबी के सहारे न स़िर्फ इज़राइल के साथ, बल्कि अमेरिका के साथ भी रिश्ते मज़बूत होंगे. इस यहूदी लॉबी ने सबसे पहले बुश शासन के दौरान अमेरिका, भारत और इज़राइल को एक साथ किया और तीनों देशों की प्राथमिकता तय की. इसी यहूदी लॉबी की वजह से भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील पर साइन किया गया. इसी लॉबी की वजह से भारत, इज़राइल से सैन्य सामग्री खरीद रहा है.

मुंबई हमले के बाद भारत सरकार को इज़राइल की याद आई. पूरे देश में चौकसी रखने वाले हाईटेक यंत्रों का ठेका इज़राइल को दे दिया. समझने वाली बात यह है कि ये यंत्र सॉफ्टवेयर बेस्ड होते हैं. दोनों देशों की सरकारों में नज़दीकियां इतनी हैं कि इन यंत्रों को चलाने और मेंटेन करने में दोनों ही देशों की ख़ुफ़िया एजेंसियां एक साथ काम करती हैं. मतलब यह कि इन यंत्रों से प्राप्त जानकारी भारत सरकार के साथ-साथ इज़राइल के  पास भी होती है.

कांग्रेस के शासनकाल में सत्ता के अलग-अलग केंद्रों पर यहूदी समर्थक अधिकारियों और विशेषज्ञों का क़ब्ज़ा हुआ. छात्रों का एक-दूसरे देश में जाने का सिलसिला तेज़ हुआ. देश भर में ऐसे रिसर्च इंस्टीट्यूट का जन्म हुआ, जिनका एकमात्र काम यह था कि देश में असुरक्षा की स्थिति को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करके हथियार खरीदने के लिए ज़मीन तैयार की जाए. कुछ ऐसी खबरें भी आईं कि इज़राइल के साथ हुए रक्षा सौदों में नौ फीसदी कमीशन की भी बंदरबांट हुई. इसके बाद भाजपा की सरकार ने इज़राइल से हथियार खरीदने का सिलसिला शुरू किया. इन डीलों से आए कमीशन और किक बैक की भी खबर आई. हैरानी की बात यह है कि न तो किसी ने इस मामले की तहक़ीक़ात करने के बारे में सोचा और न ही इसकी ज़रूरत समझी. खबरें आईं और चली गईं. क्या हमारे देश का सरकारी तंत्र इज़राइल के सामने इतना असहाय हो गया कि इससे जुड़ी किसी भी गड़ब़डी की तहक़ीक़ात करने की ज़रूरत नहीं समझी जाती. क्या अधिकारी इज़राइल का नाम सुनते ही मामले को दबा देते हैं. अगर नहीं, तो इज़राइल के साथ हुए रक्षा सौदे पर जांच के बारे में देश की जनता को क्यों नहीं बताया गया. इसका मतलब सा़फ है कि मोसाद के पैर भारत में इतने जम चुके हैं कि वह हमारे ही तंत्र का इस्तेमाल करता है, और हमारी सरकार को कानो-कान खबर तक नहीं होती. रक्षा सामग्री का निर्यात इज़राइल की आमदनी का मुख्य ज़रिया है. हैरानी की बात यह है कि भारत, इज़राइल से हथियार खरीदने वाला सबसे बड़ा देश बन चुका है. अब यह सोचने वाली बात है कि यह कमाल कैसे हुआ. जिस देश के साथ हमारे संबंध को अभी कुछ ही साल हुए हैं, उसके  हम इतने गहरे दोस्त कैसे बन गए. हमारे देश में जिस तरह से हथियार खरीदे जाते हैं, उससे तो यही लगता है कि बिचौलियों की भूमिका बहुत अहम है. इसका मतलब तो सा़फ है कि यह मामला स़िर्फ दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्रालयों के बीच तक सीमित नहीं है.

इज़राइल के मंसूबों का बीजारोपण हिंदुस्तान में आडवाणी की वजह से हुआ. लेकिन कांग्रेस की सरकार ने इस बीज को ऐसा सींचा कि सात साल में ही यह एक वटवृक्ष बन गया है. भाजपा की सरकार के बाद जब कांग्रेस की सरकार आई तो ऐसा लगा कि शायद इज़राइल के मंसूबों पर लगाम लगेगी ,लेकिन इससे ठीक उल्टा हुआ. जो काम शायद लालकृष्ण आडवाणी भी नहीं कर सके, वह काम कांग्रेस पार्टी की सरकार ने पिछले आठ साल में कर दिखाया.

सबसे बड़ा सवाल यह है कि इज़राइल, भारत के साथ क्यों नज़दीकियां बढ़ाना चाहता है. दोनों देशों की रणनीति क्या है, और दोनों देशों को इससे क्या फायदा मिलने वाला है. इज़राइल और भारत सरकार की नीतियों के केंद्र में है पाकिस्तान की तबाही और जम्मू-कश्मीर की आज़ादी. सुरक्षा अधिकारी बताते हैं कि इस गठजोड़ का मक़सद मिलजुल कर इस्लामिक आतंकवाद के खतरे से निपटना और पाकिस्तान का स़फाया करना है. इस गठजोड़ का आधार यह है कि दोनों देशों का दुश्मन एक ही है, मतलब इस्लामिक आतंकवाद और पाकिस्तान. भारत सरकार ने इज़रायल और अमेरिका के  साथ मिलकर आतंकवाद और पाकिस्तान के खिला़फ स्ट्राइक एंड क्रश यानी हमला करने और कुचलने की नीति बनाई. इस तरह भारत में मोसाद ने अपने पैर जमाने शुरू किए. भारत की खुफिया एजेंसी और मोसाद के बीच सहयोग बढ़ा. यह काम आडवाणी ने शुरू किया था, लेकिन इसे कांग्रेस अंजाम तक पहुंचा रही है. इस्लामिक आतंकवाद के खिला़फ लड़ने के नाम पर भारत और इज़राइल में नज़दीकियां इतनी बढ़ गई हैं कि दोनों ही देश एक-दूसरे की समस्या को समझते हैं. मिलजुल कर इसका हल भी निकालते हैं. मीडिया में क्या कहना है और किन चीज़ों से बचना है, सब योजनाबद्ध तरी़के से अंजाम दिया जाता है. इसमें इज़राइल की खुफिया एजेंसी मोसाद और भारत सरकार के अधिकारी शामिल होते हैं. यह कहना ग़लत न होगा कि इज़राइल को भाजपा ने भारत में पैर रखने की जगह दी, लेकिन कांग्रेस ने उसे पूरी छूट दे दी है.

इससे एक बड़ा सवाल उठता है, क्या भारत और इज़राइल के बीच कोई सैन्य समझौता है, क्या ये दोनों देश स्ट्रेटजिक पार्टनर हैं या दोनों किसी स्ट्रेटजिक एलायंस का हिस्सा हैं. सैन्य संधि का मतलब होता है कि जब दो या दो से ज़्यादा देश एक तय लक्ष्य को पाने के लिए एकजुट होते हैं. इसमें शामिल देश एक-दूसरे को लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संसाधन मुहैया कराते हैं. दो देशों के बीच सैन्य संबंधों का आधार कोई खतरा होता है. वह खतरा किसी दुश्मन देश से हो सकता है. यह रिश्ता ऐसा होता है, जिसमें दोनों देशों को लगता है कि एक-दूसरे से हाथ मिलाने से ज़्यादा फायदा होगा. इस रिश्ते का सबसे बड़ा सबूत टेक्नोलॉजी ट्रांसफर होता है. टेक्नोलॉजी ट्रांसफर का मतलब यह है कि दोनों देश जब कोई यंत्र या हथियार बेचते हैं, तो साथ में उसे बनाने की तकनीक को भी दे देते हैं. यह तब होता है, जब दोनों देशों का कोई दीर्घकालिक एजेंडा हो. इसका मतलब यह भी है कि दोनों देशों का अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर एक नज़रिया है. इज़राइल-भारत संबंध के  बारे में जितनी जानकारी अब तक बाहर आई है, उससे यह लगता है कि दोनों देशों के बीच स्ट्रेटजिक पार्टनरशिप यानी सैन्य समझौता तो नहीं हुआ है. लेकिन शंका इस बात की है कि दोनों देशों के बीच जो क़रार हो रहे हैं, उनकी सही और पूरी जानकारी लोगों तक नहीं पहुंच पाती है. यही वजह है कि अ़खबारों में जब यह छपता है कि भारत के  साथ 1 बिलियन डॉलर का रक्षा सौदा हुआ है, लेकिन भारत में इसकी सुगबुगाहट नहीं होती और एक दिन के बाद अ़खबारों में यह खबर आ जाती है कि इज़राइल का सौदा किसी एशियन देश के साथ हुआ है, लेकिन देश का नाम छुपा दिया जाता है. कई विशेषज्ञ यह मानते हैं कि भारत-इज़राइल के रिश्ते में इतना पर्देदारी है कि इसे खुफिया सैन्य समझौता यानी सिक्रेट स्ट्रेटजिक पार्टनर कहा जा सकता है. इसके कई कारण भी हैं.

पहला सवाल तो यह है कि भारत अचानक से इज़राइल के हथियारों का दुनिया का सबसे बड़ा खरीददार कैसे बन गया. दूसरी बात यह कि दोनों देशों की नज़दीकियों का वह कौन सा गहरा राज़ है, जिससे इज़राइल न स़िर्फ हथियार बेच रहा है, साथ में टेक्नोलॉजी भी ट्रांसफर कर रहा है. सैन्य संबंध के अलावा यूपीए सरकार के दौरान इज़राइल-भारत की दोस्ती का ऐसा रंग च़ढा कि भारत, इज़राइल के सैन्य सामान का दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आयात करने वाला दोस्त बन गया. 2008 में इसरो ने इज़राइली सैटेलाइट पोलारिस  को लॉन्च किया. इसके तुरंत बाद 20 अप्रैल, 2009 को भारत ने इज़राइली स्टैलाइट रीसैट-2 को लॉन्च किया. इस इज़राइली सैटेलाइट का काम नक्शे तैयार करना है. इसके  बारे में पूरी जानकारी नहीं दी गई. हैरानी की बात है कि जब इसे लॉन्च किया जा रहा था, तब इसे दूरदर्शन पर नहीं दिखाया गया. इस सैटेलाइट के बारे में सही जानकारी तब मिली, जब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस आर रेड्डी की मृत्यु एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना हुई, तब इसी सैटेलाइट को उन्हें ढूंढने में लगाया गया था. मतलब यह कि यह एक खुफिया सैटेलाइट है. वैसे सरकार को यह बताना चाहिए कि इन सैटेलाइट के अलावा कांग्रेस सरकार के दौरान इज़राइल के कितने खुफिया सैटेलाइट को भारत से लॉन्च किया गया, जिनका काम इस्लामिक देशों पर नज़र रखना है. इसके अलावा 2008 में कांग्रेस सरकार ने ज़मीन से हवा में मार करने वाली स्पाइडर मिसाइल को साथ मिलकर बनाने का क़रार किया था.

मुंबई हमले के बाद भारत सरकार को इज़राइल की याद आई. पूरे देश में चौकसी रखने वाले हाईटेक यंत्रों का ठेका इज़राइल को दे दिया. समझने वाली बात यह है कि ये यंत्र सॉफ्टवेयर बेस्ड होते हैं. दोनों देशों की सरकारों में नज़दीकियां इतनी हैं कि इन यंत्रों को चलाने और मेंटेन करने में दोनों ही देशों की खुफिया एजेंसियां एक साथ काम करती हैं. मतलब यह कि इन यंत्रों से प्राप्त जानकारी भारत सरकार के साथ-साथ इज़राइल के  पास भी होती है. इसका ग़लत इस्तेमाल हो सकता है. देश के कई मुस्लिम संगठनों ने इसके खिला़फ आवाज़ भी उठाई, लेकिन सरकारी तंत्र पर इज़राइल की पकड़ इतनी मज़बूत है कि देश की सरकार को इन खतरों की परवाह नहीं है. जनवरी 2009 में भारत ने इज़राइल से तीन फॉल्कन-अवास्क (एयरबोर्न वार्निंग एंड कंट्रोल सिस्टम) लिए, जिनका इस्तेमाल भारत, पाकिस्तान की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए करेगा. भारत सरकार ने इन खबरों को सामने नहीं आने दिया. लेकिन इज़राइल से खबर आई कि फॉल्कन डील के साथ-साथ इज़राइल भारत में आर्टिलरी शेल को बनाने वाली पांच फैक्ट्रियां लगाएगा. इसके अलावा कांग्रेस सरकार ने आंध्र प्रदेश में इज़राइल की सॉफ्टवेयर कंपनियों को खुली छूट दे रखी है. इज़राइल यहां न स़िर्फ रिसर्च प्रोजक्ट लगा रहा है, बल्कि हैदराबाद को एक सॉफ्टवेयर हब बनाना चाहता है, जहां रक्षा और चौकसी के  हाईटेक यंत्रों को बनाया जाएगा. नोट करने वाली बात यह है कि आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस की ही सरकार है. इस पर 250 मिलियन डॉलर का खर्च आएगा. भारत अब तक इज़राइल से नेवल क्राफ्ट, इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सिस्टम, पायलट रहित विमान के साथ सेना के आधुनिकीकरण के नाम पर कई खतरनाक हथियार खरीद चुका है. बताया यह जाता है कि इन सबके अलावा सरकार ने इज़राइल के साथ खु़फिया तरी़के से क्रूज मिसाइल, माइक्रो सेटेलाइट सिस्टम और लेजर गाइडेड सिस्टम का क़रार किया है.

अब सवाल यह है कि भारत सरकार ने इज़राइल की हथियार कंपनियों को देश में फैक्ट्री लगाने की अनुमति क्यों दी? क्या इन विषयों पर कभी संसद में चर्चा हुई? वैसे सरकार को इज़राइल के साथ किए गए क़रारों के लिए संसद की सहमति की ज़रूरत नहीं होती है, लेकिन कांग्रेस पार्टी यह बात भूल गई कि भारत की आज़ादी के पहले से ही महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने फिलिस्तीन के विभाजन का जमकर विरोध किया था. वे शुरू से ही इज़राइल के विरोधी रहे. 29 नवंबर, 1947 को भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इज़राइल के निर्माण के विरोध में वोट किया था. आज कांग्रेस सरकार जो कर रही है, वह भारत की विदेश नीति के बेसिक स्ट्रक्चर के खिला़फ है. भारत फिलिस्तीन का हमेशा से समर्थक रहा है. आज़ादी से पहले गांधी और नेहरू ने इज़राइल के निर्माण का विरोध किया था. इज़राइल के साथ भारत के रिश्ते कैसे हैं, यह 1948 से ही गुप्त रहा. यही वजह है कि दोनों देशों को अपने-अपने दूतावास खोलने में 44 साल लग गए. 1992 में नई दिल्ली में इज़राइली दूतावास और तेल अवीव में भारतीय दूतावास बना. इज़राइल और भारत के रिश्ते में बहुत बड़ा बदलाव तब आया, जब भारत में भाजपा की सरकार बनी. इज़राइल पहले से ही फिलिस्तीनियों के अधिकारों को कुचलता रहा है. कांग्रेस सरकार ने इस रिश्ते को आगे बढ़ाया और अरब देशों को नज़रअंदाज़ करके इज़राइल से दोस्ती कर ली. इस दोस्ती का मतलब यह है कि हमने फिलिस्तीन के मामले पर अपनी आंखें बंद कर ली हैं.

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