मुसलमानों को आरक्षणः यह चुनावी स्‍टंट है

Share via

muslim reservationराजनीति का खेल भी बड़ा अजीब है. इस खेल में हर खिलाड़ी सोचता कुछ है, बोलता कुछ है और करता कुछ और ही है. क्या कांग्रेस पार्टी सचमुच मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देना चाहती है या फिर यह स़िर्फ एक चुनावी स्टंट है. यह एक ऐसा सवाल है, जो हर व्यक्ति के मन में उठ रहा है. कांग्रेस अगर मुसलमानों के विकास के लिए वाकई कुछ करना चाहती है तो सालों से धूल फांक रही सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट पर उसने कार्रवाई क्यों नहीं की. चुनाव से पहले अचानक मुसलमानों को आरक्षण देने की बात क्यों याद आ गई. कांग्रेस पार्टी की रणनीति क्या है और उत्तर प्रदेश के चुनावों को लेकर राहुल गांधी की क्या-क्या मजबूरियां हैं, इसे समझना ज़रूरी है.

उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र यही कहा जा सकता है कि यहां हर राजनीतिक दल मुसलमानों को आरक्षण देने के  नाम पर खेल खेल रहा है. उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दलों में इस बात की प्रतियोगिता हो रही है कि कौन कितने बेहतर तरीक़े से मुसलमानों को बेवकूफ बनाकर उनके वोट ले सकता है. सभी पार्टियां मुसलमानों में कन्फ्यूज़न फैला रही हैं, क्योंकि उनकी नज़र राज्य की 18 फीसदी मुस्लिम आबादी पर है, जिसे वे आज तक स़िर्फ एक वोट बैंक समझती आई हैं.

मुस्लिम आरक्षण के पीछे कांग्रेस की रणनीति साफ है. एक तऱफ जनता महंगाई की मार झेल रही है, किसान आंदोलित हैं, विकास थम गया है, उद्योगों की हालत ख़राब है, स्टॉक एक्सचेंज में नुक़सान हो रहा है, ग़रीबों का जीना मुश्किल हो रहा है और दूसरी तऱफ एक के बाद एक घोटालों का ख़ुलासा हो रहा है, जिसमें कांग्रेस और सरकार के बड़े-बड़े नेताओं-मंत्रियों के नाम उजागर हो रहे हैं. केंद्र में कांग्रेस पार्टी की सरकार है, इसलिए लोग कांग्रेस को ज़िम्मेदार मान रहे हैं. इस बीच खुदरा बाज़ार में विदेशी पूंजी निवेश के मामले में सरकार की सहयोगी पार्टियों ने भी कांग्रेस का साथ छोड़ दिया. इन सबके ऊपर लोकपाल के लिए अन्ना हजारे ने ऐतिहासिक आंदोलन छेड़ दिया. कांग्रेस पार्टी अकेली और चारों तऱफ से घिरी हुई दिख रही है. इस बीच पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव भी होने हैं. पांच राज्यों में से एक राज्य उत्तर प्रदेश है और यही कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चिंता है. उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले होने वाला सबसे महत्वपूर्ण चुनाव माना जा रहा है. वह इसलिए, क्योंकि इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी के राहुल गांधी का भविष्य दांव पर लगा है.

लोकपाल और अन्ना हजारे के आंदोलन की वजह से कांग्रेस घिर गई तो पार्टी में मंथन शुरू हुआ. यह मंथन भ्रष्टाचार ख़त्म करने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में पार्टी की साख कैसे बचाई जाए और उसके लिए रणनीति क्या बनाई जाए. अन्ना हजारे आंदोलन की धमकी दे रहे थे. उत्तर प्रदेश के चुनाव पर अन्ना का असर कैसा और कितना होगा, कांग्रेस पार्टी ने सबसे पहले इसका आकलन किया. कुछ दिनों पहले कुछ राज्यों में उपचुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस पार्टी सीटें जीतने में कामयाब हो गई. महाराष्ट्र में भी स्थानीय चुनाव हुए, जिनमें अन्ना हजारे के आंदोलन का असर नहीं दिखा. इसके अलावा एसी नेल्शन और स्टार टीवी का चुनावी सर्वे दिखाया गया, जिसमें कांग्रेस की स्थिति मज़बूत बताई गई. कांग्रेस पार्टी ने इन्हीं बिंदुओं को आधार बनाया. यह तय किया गया कि सरकार सुझावों को दरकिनार करके लोकपाल बिल लेकर आएगी और कांग्रेस पार्टी अन्ना हजारे से सीधी लड़ाई करेगी. यह भी तय किया गया कि सोनिया गांधी अन्ना हजारे को चुनौती देंगी और कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाएंगी. इस रणनीति का सार यही है कि अगर लोकपाल के मामले में सरकार अन्ना के आंदोलन की हवा निकालने में कामयाब हो गई तो कांग्रेस विजयी बनकर उभरेगी.

कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह भी पता है कि अगर अन्ना का आंदोलन फिर से कामयाब हो गया तो उत्तर प्रदेश में पार्टी को भारी नुक़सान हो सकता है. इससे निपटने के लिए उन्होंने एक अहम फैसला लिया. अन्ना के आंदोलन से होने वाले नुक़सान से निपटने के लिए मुस्लिम आरक्षण का मुद्दा उठाया जाएगा. कहने का मतलब यह कि अगर अन्ना आंदोलन नहीं करते हैं तो कांग्रेस मुस्लिम आरक्षण का मुद्दा नहीं उठाएगी और अगर अन्ना आंदोलन करते हैं तो मुस्लिम आरक्षण का मुद्दा उठाया जाएगा. यह भी तय किया गया कि इसके लिए संविधान में संशोधन नहीं किया जाएगा, बल्कि पिछड़ी जातियों को मिलने वाले 27 फीसदी आरक्षण के अंदर ही 4.5 फीसदी सीटें मुसलमानों को दी जाएंगी. समझने वाली बात यह है कि कांग्रेस की रणनीति का आधार न तो मज़बूत लोकपाल लाना है और न मुसलमानों को आरक्षण देना है. कांग्रेस की सारी रणनीति उत्तर प्रदेश के चुनाव पर आधारित है.

इस रणनीति को लागू करने में भी कांग्रेस पार्टी ने काफी मशक्कत की. पसंदीदा टीवी चैनलों और अख़बारों के रिपोर्टरों एवं संपादकों को प्रायोजित ख़बरें दी गईं. भ्रम फैलाया गया. कभी सीबीआई को लेकर अलग-अलग ख़बरें आती रहीं. कभी सीबीआई डायरेक्टर (प्रोसिक्यूशन) को नियुक्त करने की झूठी ख़बर फैलाई गई. मीडिया में कभी यह बताया गया कि सी और डी ग्रुप के कर्मचारी लोकपाल के अंदर हैं तो कभी यह भी ख़बर आई कि उन्हें बाहर रखा गया है. कांग्रेस के नेताओं को टीवी चैनलों पर बार-बार यह कहते सुना गया कि सरकार एक मज़बूत लोकपाल लेकर आ रही है. जब लोकपाल बिल लोगों के सामने आया तो पता चला कि बिल के आने से पहले की सारी ख़बरें झूठी थीं. इसका मतलब यही है कि सरकार लोगों में भ्रम फैला रही थी, ताकि अन्ना का आंदोलन असफल हो जाए. जहां तक बात मुस्लिम आरक्षण की है, उसके बारे में सलमान ख़ुर्शीद ने यह घोषणा कर दी कि सरकार मुसलमानों को आरक्षण देने का फैसला करने वाली है. सलमान ख़ुर्शीद ने इस मुद्दे की नींव रखी, स़िर्फ ऐलान किया कि जल्द फैसला लिया जाएगा. इसके बाद वह चुप हो गए. एक सप्ताह तक सारे सरकारी बिलों के बारे में बात होती रही. पेंशन बिल, फूड सिक्योरिटी बिल एवं लोकपाल बिल पर चर्चा होती रही, लेकिन कांग्रेस के एक भी नेता ने मुस्लिम आरक्षण की बात नहीं की. इस बीच राहुल गांधी का भी बयान आया, लेकिन वह बयान खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश के समर्थन में था. 22 दिसंबर को लोकपाल बिल पेश किया गया. उससे एक दिन पहले सोनिया गांधी का बयान आया कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं को अन्ना से डरने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन 22 दिसंबर की शाम को अन्ना हजारे का बयान आ गया. संसद में विपक्षी पार्टी और सहयोगी पार्टियों का रुख़ पता चल गया. कांग्रेस पार्टी को समझ में आ गया कि अन्ना और उनकी टीम को मनाया नहीं जा सकता. 22 तारीख़ की रात ख़बर आ गई कि केंद्रीय कैबिनेट ने मुसलमानों को आरक्षण देने के फैसले पर मुहर लगा दी है. कांग्रेस पार्टी ने अल्पसंख्यकों को पिछड़ी जाति के 27 फीसदी कोटे में से 4.5 फीसदी आरक्षण देने का फैसला लेकर एक नए राजनीतिक विवाद को जन्म दे दिया. अब सवाल यह उठता है कि क्या इस फैसले का फायदा कांग्रेस को होगा. दूसरा सवाल यह है कि क्या उत्तर प्रदेश के चुनाव में मुस्लिम वोटों का अलग-अलग पार्टियों में बंटवारा हो जाएगा.

वैसे उत्तर प्रदेश की राजनीति का मिज़ाज बदल रहा है. कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश की सभी पार्टियां सारी मशक्कत दलितों के दिलों को जीतने के लिए करती थीं. आज समाजवादी पार्टी, कांग्रेस पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और पीस पार्टी के बीच मुस्लिम वोटों के लिए प्रतियोगिता हो रही है. मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लालच दिया जा रहा है. समाजवादी पार्टी कहती है कि वह सबसे पहली पार्टी है, जो मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग कर रही है. सच्चाई यह है कि सालों से सरकारी आलमारी में सड़ रही रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट को जब चौथी दुनिया ने छाप दिया, तब मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा में जमकर हंगामा किया, जिसकी वजह से केंद्र सरकार को रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट संसद में पेश करनी पड़ी. ग़ौर करने वाली बात यह है कि सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट को कांग्रेस पार्टी की सरकार ने संसद में तो पेश कर दिया, लेकिन एक्शन टेकन रिपोर्ट के बिना. दो साल हो गए, लेकिन सरकार रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट को लागू करेगी या नहीं, इस पर कोई फैसला नहीं आया है. इसलिए कांग्रेस पार्टी की नीयत पर सवाल उठना लाज़िमी है. चुनाव से ठीक पहले यह शिगू़फा छोड़ देना कि सरकार मुसलमानों को आरक्षण देने वाली है, स़िर्फ एक चुनावी रणनीति का हिस्सा लगता है. मायावती भी मुसलमानों के वोटों के लिए अख़बारों में बड़े-बड़े इश्तेहार दे रही हैं, जिनमें यह बताया जा रहा है कि जो काम पिछले 40 सालों में सरकारें नहीं कर सकीं, वह पिछले 4 सालों में मायावती ने मुसलमानों के लिए किया है. मायावती अब अपने हर भाषण में मुसलमानों के बारे में कुछ न कुछ ज़रूर बोलती हैं. उन्होंने कांग्रेस की रणनीति पहले ही भांप ली थी, इसलिए वह पहले ही दिन से क़ानून में संशोधन करने की बात कर रही हैं.

मुसलमानों की कई जातियां सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी हैं, इसलिए केंद्र सरकार की नौकरियों और विश्वविद्यालयों में उन्हें भी आरक्षण का फायदा मिलता है. अन्य पिछड़ा वर्ग में मुसलमानों की कई जातियां आरक्षण ले रही हैं. हमारे संविधान में स़िर्फ धर्म के नाम पर आरक्षण देने की व्यवस्था नहीं है, इसलिए मुसलमानों को आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन करने की ज़रूरत पड़ेगी. कांग्रेस पार्टी आरक्षण का ऐलान तो करती है, लेकिन संविधान में संशोधन का नाम नहीं लेती, इसलिए उसकी नीयत पर सवाल खड़ा होता है. जब सलमान ख़ुर्शीद कहते हैं कि मुसलमानों को ओबीसी के कोटे से आरक्षण दिया जाएगा तो यह भी राजनीति से प्रेरित नज़र आता है. उत्तर प्रदेश में चुनावी फायदा उठाने के लिए यह एक सोची-समझी चाल है. इसके पीछे राजनीति यह है कि कांग्रेस अगर ओबीसी के कोटे से मुसलमानों को आरक्षण देगी तो समाजवादी पार्टी इसका विरोध करेगी. स़िर्फ समाजवादी पार्टी ही नहीं, बल्कि वे सभी पार्टियां विरोध करेंगी, जिन्हें ओबीसी का समर्थन प्राप्त है. यह बात भी समझना ज़रूरी है कि समाजवादी पार्टी मुसलमानों को आरक्षण देने का विरोध नहीं करती है. मुलायम सिंह की वजह से रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट संसद में पेश की गई, लेकिन कांग्रेस की रणनीति ऐसी है कि मुसलमानों को आरक्षण देने का समर्थन करने वाली पार्टियां भी विरोध में खड़ी हो जाएंगी. ऐसी हालत में इस घोषणा का अंजाम क्या होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है.  कांग्रेस अगर इस तरकीब से आरक्षण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर राजनीति करेगी तो यह कैसे माना जा सकता है कि वह वास्तव में मुसलमानों को आरक्षण देना चाहती है. मायावती भी यह ऐलान कर चुकी हैं कि उनकी पार्टी मुसलमानों को आरक्षण देने का समर्थन करती है और इसके लिए संविधान में संशोधन किया जाए.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है. सब कुछ कहने का मतलब यह है कि पार्टी राहुल गांधी को 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद पूर्ण बहुमत से प्रधानमंत्री बनाना चाहती है. ऐसा लगता है कि पार्टी के लिए अब राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के अलावा कोई और राजनीतिक या वैचारिक युद्ध नहीं बचा है. सोनिया गांधी के हर फैसले के पीछे की सोच यही है कि फैसला किस तरह राहुल गांधी के लिए फायदेमंद होगा. उत्तर प्रदेश का चुनाव राहुल गांधी के लिए अग्नि परीक्षा की तरह है. पार्टी को लगता है कि जिस तरह 2009 के चुनावों में 22 सीटें जीतकर वह समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के समकक्ष खड़ी हो गई, उसी तरह इस विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करेगी. कुछ टीवी चैनलों पर सर्वे रिपोर्ट दिखाई गई, जिसमें कांग्रेस की स्थिति मज़बूत नज़र आ रही है. अगर कांग्रेस पार्टी को 60 से ज़्यादा सीटें मिल जाती हैं तो कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी को विजेता माना जाएगा. हो सकता है कि चुनाव के बाद कांग्रेस की सहायता से ही उत्तर प्रदेश में अगली सरकार बने. ऐसी स्थिति पैदा हो, यही कांग्रेस की रणनीति है. अगर कांग्रेस पार्टी की सीटें पहले जितनी रहीं या घट गईं तो यह कांग्रेस पार्टी की नहीं, बल्कि राहुल गांधी और सोनिया गांधी की हार होगी. राहुल गांधी की काबिलियत और नेतृत्व पर सवाल तो उठेगा ही, 2014 में प्रधानमंत्री बनने का दावा भी खोखला साबित हो जाएगा. कांग्रेस पार्टी फिर से उसी राह पर चल पड़ेगी, जिस पर वह राजीव गांधी की हत्या के बाद चल पड़ी थी. हार के  बाद राहुल गांधी की मानसिक स्थिति क्या होगी, यह तो कहा नहीं जा सकता है, लेकिन पार्टी को मज़बूत बनाए रखने के लिए राहुल गांधी के अलावा किसी दूसरे नेता की तलाश करनी होगी, जिसे प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जा सके और वह प्रियंका गांधी हो सकती हैं.

यह सवाल इसलिए उठता है, क्योंकि ज़मीनी हक़ीक़त कांग्रेस के अनुकूल नहीं है. कांग्रेस पार्टी को मुसलमानों के वोटों की ज़रूरत है. मुस्लिमों के समर्थन के बिना वह उत्तर प्रदेश में सीटें नहीं जीत सकती. यही वजह है कि उसने मुस्लिम आरक्षण का मुद्दा उठाया है. इसके बावजूद विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए मुस्लिम वोट पाना आसान नहीं है. यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी की सीटें इसलिए बढ़ी थीं, क्योंकि मुसलमानों ने कांग्रेस का साथ दिया था. वह भी इसलिए, क्योंकि वरुण गांधी ने मुसलमानों के लिए बहुत ही ख़राब भाषण दिया था. कहीं आडवाणी प्रधानमंत्री न बन जाएं, इसलिए भी मुसलमानों ने कांग्रेस का हाथ मज़बूत किया था. मनमोहन सिंह ने मुसलमानों से कई वायदे किए थे. सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की वजह से कांग्रेस पर मुसलमानों का भरोसा जगा था. लोकसभा चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी के मुस्लिम नेता नाराज़ थे. आज़म ख़ान पार्टी के ख़िला़फ आग उगल रहे थे. इसका असर दिखा और मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी को छोड़ कांग्रेस का साथ दिया था. लेकिन अब हालात बदल गए हैं. मुसलमानों को कांग्रेस के वायदों पर भरोसा नहीं रहा. भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश के चुनाव में जीतने वाली नहीं है और न उसका कोई हिंदूवादी नेता मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में है. इसलिए कांग्रेस की रणनीति सफल होती नज़र नहीं आती है. कांग्रेस की दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके अपने कार्यकर्ता नाराज़ हो रहे हैं. जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आ रहा है, नाराज़ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ रही है. जिन युवाओं को राहुल गांधी ने पार्टी संगठन से जोड़ने की मुहिम चलाई, वे अब कांग्रेस के ख़िला़फ खड़े हैं. यह एहसास कांग्रेस के नेताओं को भी है. पहले राहुल गांधी ने अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा की थी, लेकिन माहौल बदलने की वजह से उन्हें अजित सिंह के साथ गठबंधन करना पड़ा. इससे कुछ सीटों पर कांग्रेस को फायदा तो होगा, लेकिन नुक़सान भी झेलना पड़ेगा. जहां-जहां अजित सिंह की पार्टी के उम्मीदवार खड़े होंगे, वहां-वहां कांग्रेस पार्टी को विद्रोह का सामना करना पड़ेगा. इन परिस्थितियों से निपटने के लिए कांग्रेस पार्टी ने मुसलमानों को आरक्षण देने का शिगू़फा छोड़ा है. चुनाव से पहले मुसलमानों को आरक्षण देने की बात उठाना महज़ एक चुनावी स्टंट है.

कोटे में कांटा

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव, ऊपर से लोकपाल पर अन्ना के आंदोलन का डर. कांग्रेस के लिए परेशानियां कम होने का नाम नहीं ले रही हैं. इस सबके बीच केंद्र सरकार ने अक्लियतों को 4.5 फीसदी आरक्षण देने का ऐलान कर दिया और कैबिनेट ने अपनी मंजूरी भी दे दी. यह आरक्षण ओबीसी कोटे के 27 फीसदी में से दिया जाएगा, लेकिन आरक्षण की यह राह इतनी आसान भी नहीं होने जा रही, क्योंकि कांग्रेस की इस सियासी चाल की सियासी मु़खाल़फत भी शुरू हो गई है. जहां भाजपा धर्म के आधार पर आरक्षण का विरोध कर रही है, वहीं समाजवादी पार्टी ने भी इसका खुलकर विरोध किया है. मुलायम सिंह का कहना है कि इससे ओबीसी को नुक़सान होगा. ज़ाहिर है, अगले कुछ दिनों में वे राजनीतिक दल भी इस निर्णय का विरोध करेंगे, जिनकी राजनीतिक ज़मीन ही ओबीसी आबादी तैयार करती है. इसके अलावा अक्लियती रिजर्वेशन के हिमायती भी 4.5 फीसदी कोटे से ख़ुश नहीं होने वाले हैं. उनकी दलील के मुताबिक़, जितनी आबादी है, उन्हें उतना रिज़र्वेशन मिलना चाहिए. ग़ौरतलब है कि मंडल कमीशन ने मुल्क में ओबीसी की आबादी 52 फीसदी बताई थी, जिसमें 8.4 फीसदी आबादी अक्लियतों की थी. आज स़िर्फ मुसलमानों की आबादी 15 से 16 फीसदी है. ज़ाहिर है, ऐसे में महज़ 4.5 फीसदी रिजर्वेशन से अक्लियत ख़ुश हो जाएंगे, कहना मुश्किल है. दूसरी तऱफ रंगनाथ मिश्र कमीशन ने तो 15 फीसदी रिज़र्वेशन की सिफारिश की थी, जिसमें से 10 फीसदी मुसलमानों और 5 फीसदी दीगर अक्लियतों के लिए. इस कमीशन ने एक और फॉर्मूला दिया था कि अगर 15 फीसदी मुमकिन न हो तो ओबीसी कोटे में से 8.5 फीसदी रिज़र्वेशन दिया जा सकता है. ऐसे में कांग्रेस की यह बाज़ी कहीं उल्टी न पड़ जाए.

पिछड़े मुसलमानों के पांच सवाल

ऑल इंडिया माइनॉरिटी ओबीसी फेडरेशन, उत्तर प्रदेश के जनरल सेक्रेटरी मोहम्मद आकिब अंसारी कांग्रेस की नीयत पर सवाल उठाते हैं. उनका मानना है कि कांग्रेस पार्टी के दो चेहरे हैं. उत्तर प्रदेश में जितने भी मुसलमान हैं, उनमें 70 फीसदी पिछड़ी जाति के हैं. मतलब यह कि उत्तर प्रदेश की जनसंख्या का 14 फीसदी हिस्सा मुस्लिम पिछड़ों का है. उन्होंने कांग्रेस पार्टी से पांच सवाल किए हैं. पहला यह कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में कांग्रेस के कितने मंत्री मुस्लिम हैं और उनमें से कितने पिछड़ी जाति के हैं. दूसरा सवाल यह कि उत्तर प्रदेश के कितने मुस्लिम सांसद राज्यसभा में है और उनमें से कितने पिछड़ी जाति के हैं. तीसरा सवाल यह कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी और कांग्रेस वर्किंग कमेटी में कितने मुसलमान हैं और उनमें से कितने पिछड़ी जाति के हैं. चौथा सवाल यह कि कांग्रेस पार्टी सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट कब लागू करेगी. पांचवां यह कि दलित मुसलमानों को लेकर संविधान की धारा 341 पर कांग्रेस की क्या राय है. अंसारी कहते हैं कि इन सवालों के जवाब जानने के बाद यह जानना ज़रूरी है कि जब उत्तर प्रदेश में 14 फीसदी मुस्लिम पिछड़े हैं तो फिर कांग्रेस पार्टी कितने पिछड़े मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने वाली है. कांग्रेस पार्टी 403 सीटों में से 213 पर अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर चुकी है. इनमें स़िर्फ कानपुर के अब्दुल मन्नान ही ऐसे मुस्लिम उम्मीदवार हैं, जो पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखते हैं. अब सवाल उठता है कि कांग्रेस पार्टी पिछड़े मुस्लिमों से भेदभाव क्यों कर रही है. अगर मुस्लिम समाज से ऐसे सवाल उठ रहे हैं तो कांग्रेस के लिए यह ख़तरे की घंटी है.

Share via

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *