बीजेपी के अस्तित्‍व पर संकट

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ग़रीब तो ग़रीब इस बार अमीर भी महंगाई की मार झेल रहे हैं. खाने पीने के सामान इतने महंगे हैं कि ग़रीबों की पहुंच से बाहर हो चुके हैं. जो साग-सब्जी, दूध दही और घी मिल भी रहे हैं वे ज़हर हैं. देश में मिलावट का ऐसा खेल चल रहा है जिससे इंसानियत शर्मसार हो चुकी है. शहरों में भी पीने का साफ पानी नहीं है. गांव में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल बुरा है. लोगों को ट्रेन में सफर करने में डर लगता है, पता नहीं कब कहां माओवादी हमला बोल दें. बेरोज़गारी इतनी है कि लगभग हर शहर और गांव में बेरोज़गारों की फौज़ तैयार हो रही है और समाज क्राइम की आग में जल रहा है. लुटेरे अपने कारनामों को दिनदहाड़े अंजाम दे रहे हैं. ऐसा लगता है मानो किसी राक्षस की तरह दुनिया भर की समस्याएं एक साथ एक समय पूरे देश पर छा गई हैं. ज़िंदगी मानों सांस लेने तक ही सिमटती जा रही है. सरकार ने जनता को निचोड़ने के लिए बाज़ारवाद को छुट्‌टा छोड़ दिया है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री भी इन समस्याओं से निपटने के बजाए हाथ खड़े कर चुके हैं. अब जनता किसके पास जाए. किससे मदद मांगे. जनता का हमदर्द कौन बने.

NITIN GADKARIIमुसीबतें हर आम इंसान और समाज पर आती हैं. हम लड़ते भी हैं. इस लड़ाई में अगर कोई हमदर्द न मिले तो लोग असहाय और बेसहारा महसूस करने लगते हैं. ऐसा लगने लगता है कि सब कुछ ख़त्म हो रहा है. इससे भी ख़तरनाक स्थिति तब पैदा होती है जब कोई ख़ुदगर्ज हमदर्द बनने का नाटक करता है. जब मदद के नाम पर धोखा देता है और जब मजबूरी का फायदा उठाने लगता है. भारत के लोग इसी मनःस्थिति से गुज़र रहे हैं. देश की स्थिति यह है कि बाज़ार ने लोगों के जीवन को नरक बना दिया है. अमीर हो या ग़रीब, महंगाई ने जनता की कमर तोड़ दी है. देश के 260 ज़िलों में सरकार विफल हो चुकी है. आज यहां माओवादियों का वर्चस्व है. सिपाही और अर्धसैनिक बलों की लाशों को देखकर जनता सिहर जाती है. घरों में बेरोज़गारों की तादाद बढ़ रही है क्योंकि नौकरी नहीं है. यह सब सरकार की संवेदनहीनता का नतीजा है. फिलहाल पेट्रोल और डीज़ल को बाज़ार के हवाले किया गया है. अगर सरकार पर अंकुश नहीं लगाया गया तो बाज़ार पूरी तरह देश को अपने क़ब्ज़े में ले लेगा. लेकिन इस त्रासदी का उपाय किसके पास है. जनता की तऱफ से लड़ाई कौन लड़े. अफसोस की बात यह है कि जिन पर सरकार की नीतियों के  ख़िला़फ लड़ने की ज़िम्मेदारी है, वो अपनी प्रासंगिकता और उपयोगिता खो चुके हैं.

यह देश का दुर्भाग्य है कि भारतीय जनता पार्टी विश्वसनीय विपक्ष की भूमिका निभाने में विफल हो गई है. इसे अपने कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों का एहसास ही नहीं है. महंगाई हो या बेरोज़गारी या फिर जनता से जुड़ी अन्य समस्याएं, भाजपा ने स़िर्फ खानापूर्ति के लिए धरना प्रदर्शन और संसद के अंदर हंगामा किया. वो भी स़िर्फ मीडिया में दिखने और दिखाने के लिए. प्रजातंत्र में विपक्ष का यह दायित्व है कि वह सरकार के कामकाज पर नज़र रखे, उस पर अंकुश लगाए, जनता का पक्षधर बनकर सरकार की नीतियों और योजनाओं पर सवाल उठाए, ग़रीबों-ग्रामीणों एवं शोषित वर्गों के लिए संघर्ष करे और उनकी अगुवाई करे और उनके साथ मिल कर उनकी मांगों के समर्थन में आंदोलन करे. अगर विपक्ष यह काम करता है तभी उसकी प्रासंगिकता और उपयोगिता होती है. अगर वह ऐसा नहीं करता तो ऐसे विपक्ष का क्या फायदा. फिर सरकार का निरंकुश बनना तो स्वाभाविक है. लोकतंत्र में जनता किसी पार्टी को इसलिए विपक्ष में बैठाती है, ताकि वह उसके दुख-तकलीफों को समझे और सरकार के ख़िला़फ आवाज़ बुलंद करे.

प्रजातंत्र में विपक्ष को अपनी प्रासंगिकता और उपयोगिता साबित करनी होती है. उन्हें स़िर्फ संघर्ष ही नहीं करना होता है, बल्कि यह भी साबित करना होता है कि वह वर्तमान सरकार से ज़्यादा बेहतर काम कर सकता है, ताकि जनता उस पर भरोसा कर सके और उसे अगले चुनाव के बाद सरकार चलाने का मौक़ा दे. यही वजह है कि लोकतंत्र में विपक्ष की ज़िम्मेदारियां सत्तापक्ष से कहीं ज़्यादा होती हैं. लेकिन भारतीय जनता पार्टी क्या कर रही है. डीज़ल के दाम बढ़ गए लेकिन भाजपा के अंदर इस बात पर बहस हो रही है कि जसवंत सिंह और उमा भारती को पार्टी में वापस बुलाया जाए या नहीं. महंगाई के मुद्दे पर लालकृष्ण आडवाणी प्रेस कांफ्रेस नहीं करते लेकिन जसवंत सिंह को पार्टी में वापस लाने के लिए वह प्रेस के सामने आते हैं. जनता की मुसीबतों को कैसे दूर किया जाए या फिर सरकार की नीतियों के खिला़फ क्या रणनीति हो, यह भाजपा के लिए मुद्दा नहीं है लेकिन उमा की पार्टी में वापसी के मसले पर बैठकों का दौर चल रहा होता है. झारखंड में जूते और प्याज खाने के बाद भाजपा अब बिहार की रणनीति तैयार करने में जुट गई है. जनता की परेशानियों के बारे में क्या करना है, यह भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे में ही नहीं है. भारतीय जनता पार्टी और अध्यक्ष नितिन गडकरी को विपक्ष की ज़िम्मेदारी का एहसास ही नहीं है.

अभूतपूर्व त्रासदी झेल रही जनता और देश पर गहराए संकट के बीच भाजपा में किसी टीवी सीरियल की तरह रूठने और मनाने का ड्रामा चल रहा है. उनके व्यवहार से तो यही लगता है कि भारतीय जनता पार्टी भी सरकार की नीतियों का साथ दे रही है. ऐसा मानने की वजह यह भी है कि भाजपा ने वर्तमान आर्थिक नीति के खिला़फ अपनी कोई योजना या नीति का रोडमैप जनता के सामने नहीं रखा है. जब महंगाई से लड़ने का भाजपा के पास कोई तरीक़ा ही नहीं है तो जनता की नज़रों में अपनी मौजूदगी का एहसास करने के लिए भाजपा ने फिर से जिन्ना के भूत को बाहर निकाला है. जसवंत सिंह को पार्टी में वापस लेने का बहाना बना कर सुर्ख़ियां बटोरीं. भारतीय जनता पार्टी की कहानी अजब है. पहले आडवाणी जी ने जिन्ना को सेकुलर बताया तो उन्हें अध्यक्ष पद से इस्ती़फा देना पड़ा. आरएसएस और पार्टी संगठन ने आडवाणी के बयान को पार्टी की विचारधारा के विपरीत बताया था. कई महीनों तक आडवाणी को अज्ञातवास लेना पड़ा था. आडवाणी फिर वापस आ गए. चुनाव में उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया.

जिस बात पर आडवाणी ने स़िर्फ एक बयान दिया था, उसी बात पर जसवंत सिंह ने पूरी किताब लिख दी. पार्टी ने उन्हें बेइज़्ज़त करके बाहर का रास्ता दिखा दिया. एक साल भी नहीं बीते जसवंत सिंह को फिर पार्टी में वापस ले लिया गया. जब इन लोगों को वापस ही लेना था तो निकालने का फैसला क्यों लिया गया. समझने वाली बात यह है कि आज जो देश का माहौल है उसमें जनता को इस बात से क्या फर्क़ पड़ता है कि जिन्ना क्या थे और जसवंत सिंह भाजपा में रहें या न रहें. भारतीय जनता पार्टी देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है. प्रजातंत्र में एक मज़बूत विपक्ष जनता का अधिकार है. संसद में भाजपा कांग्रेस के  बाद दूसरे नंबर पर है और सात बड़े-बड़े राज्यों में सरकार चला रही है. अब जब भाजपा ही इस ज़िम्मेदारी को नहीं समझ सकती है तो देश की जनता क्या करे. भाजपा की इसी कमज़ोरी का फायदा उठाकर सरकार जनविरोधी नीतियां लागू कर रही है. जनता की त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार जितनी सरकार की नीतियां हैं, उतनी ही भाजपा की गैरज़िम्मेदारियां भी.

भाजपा की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसके पास न तो कोई नई सोच है और न ही वह ख़ुद को अलग दिखाने की कोशिश में है. महंगाई के नाम पर भाजपा ने दिल्ली और दूसरे शहरों में विरोध प्रदर्शन तो किया लेकिन वह भी एक कार्यक्रम की तरह था. जैसे भाजपा कोई राजनीतिक दल नहीं बल्कि कोई इवेंट मैनेजमेंट कंपनी हो. भारतीय जनता पार्टी के बयानों और विरोध प्रदर्शनों में जनता के  प्रति संवेदना की कमी साफ-साफ दिखती है. जनता के साथ मिलकर जनता की आवाज़ उठाने की कला भाजपा भूल चुकी है.

दुनिया भर में कई दक्षिणपंथी पार्टियां हैं जो हमेशा नए-नए विचारों के साथ जनता को लुभाने और सरकार को घेरने में सफल होती हैं. भारतीय जनता पार्टी की समस्या यह है कि दुनिया बदल गई लेकिन इसकी विचारधारा, संगठन प्रणाली एवं कार्यप्रणाली वैसी ही है जैसी शुरुआत में थी. भाजपा में बदलाव नहीं है. हाल में चुनाव हार जाने के बाद पार्टी में विचारधारा और संगठन पर पुनर्विचार करने का व़क्त आया तो आश्चर्यजनक तरीक़े से पार्टी ने वही पुराना राग अलापना शुरू कर दिया और पार्टी की विचारधारा को श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीन दयाल उपाध्याय के विचारों से जोड़कर थम गए. यह बात और है कि इन दोनों की विचारधारा क्या है, यह पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं को ही पता नहीं है. बेचारी देश की जनता को तो यह भी मालूम नहीं है कि इन दोनों का भारतीय राजनीति और समाज में क्या योगदान है. समाजिक बदलाव, राजनीति, विदेश नीति और अर्थनीति पर उनके विचार क्या हैं. यह भारतीय जनता पार्टी की ही कमज़ोरी है. दोनों बड़े नेता हैं, विचारक भी हैं, लेकिन भाजपा ने उनके  विचारों को प्रचारित करने के लिए कुछ भी नहीं किया.

इससे तो यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पार्टी विचारधारा को ज़्यादा महत्व नहीं देती है. कार्यकर्ता का मनोबल समय के साथ-साथ घटता जा रहा है. समर्थक पार्टी से दूर जा रहे हैं फिर भी कार्यपद्धति में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं है. हिंदु धर्म ख़तरे में है, यूनिवर्सल सिविल कोड और राम जन्मभूमि जैसे मुद्दे को जनता ने नकार दिया है. तो फिर भारतीय जनता पार्टी आज भी उन्हीं विचारों, मुद्दों और विवादों में क्यों उलझी हुई है. भाजपा को पाकिस्तान और बंग्लादेश में धर्म के आधार पर बनी पार्टियों से सीख लेने की ज़रूरत है. इन दोनों देशों में जमात-ए-इस्लामी के उम्मीदवार चुनाव लड़ते हैं लेकिन उन्हें जन समर्थन नहीं है. नितिन गडकरी को पार्टी की कमान संभाले छह महीने हो चुके हैं. अपनी टीम चुनने में उन्हें चार महीने लग गए. उनकी टीम के चुनाव में देरी हुई लेकिन हैरानी की बात यह है कि अभी तक पार्टी के महासचिवों, उपाध्यक्षों और सचिवों को निर्धारित ज़िम्मेदारियां नहीं मिली हैं. इसलिए पार्टी का काम रुका हुआ है. गडकरी कहते हैं कोई जल्दबाज़ी नहीं है. पार्टी के  वरिष्ठ नेताओं में चिंता है. उन्हें लगता है कि गडकरी डी-फोकस्ड हैं. उन्हें पता नहीं है कि पार्टी को किस दिशा में लेकर जाना है.

वे राजनीतिक दल को किसी एनजीओ की तरह चलाना चाहते हैं जबकि अभी पार्टी को विचारधारा और नीति को लेकर साफ-साफ आदेश की ज़रूरत है. पार्टी कार्यालय में काम कर रहे भाजपा कार्यकर्ताओं व अधिकारियों को लगता है कि पार्टी स्थिर हो चुकी है. कुछ तो यह भी कहने लगे हैं कि अगर यही हाल रहा तो बिहार और उत्तर प्रदेश में पार्टी का हाल बद से बदतर हो जाएगा. गडकरी की समस्या यह है कि उनका ख़ुद का स्टेचर नेशनल लीडर का नहीं है. वह सबको एक साथ ख़ुश करना चाहते हैं, इसलिए ठोस निर्णय लेने में असमर्थ हैं. वह ज़्यादातर फैसले वरिष्ठ नेताओं के आदेश पर लेते हैं और उसके बाद उस फैसले से आहत हुए गुटों को ख़ुश करने में लग जाते हैं. जसवंत सिंह को वापस लेने का फैसला गडकरी ने आडवाणी के दबाव में लिया. हैरानी की बात यह है कि नितिन गडकरी ने जसवंत सिंह को वापस लेने का फैसला लेने के लिए पार्लियामेंटरी बोर्ड की मीटिंग भी नहीं बुलाई, जिसने जसवंत सिंह को निकालने का फैसला लिया था.

नरेंद्र मोदी जसवंत सिंह के निष्कासन के सूत्रधार थे. उन्हें ख़ुश करने के लिए राज्यसभा में राम जेठमलानी को लाया गया. मतलब यह है कि पार्टी किसी नीति पर नहीं अपितु नेताओं को ख़ुश करने के आधार पर चल रही है. वैसे किसी पुराने नेता को वापस पार्टी में जगह देना किसी भी पार्टी के लिए आम बात है. लेकिन जसवंत सिंह का वापस आना थोड़ा अलग है. जब जसवंत ने जिन्ना को सेकुलर बताया और नेहरू को विभाजन के लिए ज़िम्मेदार बताया तो भाजपा ने यह ऐलान किया था कि जिन्ना को सेकुलर कहना पार्टी की कोर-विचारधारा के बिल्कुल विपरीत है. भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने इसे भाजपा की विचारधारा पर हमला कहा था. जसवंत सिंह अपने बयानों से नहीं पलटे हैं, न ही उन्होंने कोई मा़फी मांगी, फिर भी उन्हें बीजपी ने पार्टी में वापस ले लिया. अब भारतीय जनता पार्टी की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह देश को यह बताए कि अब पार्टी की विचारधारा क्या है. क्या भाजपा जिन्ना को सेकुलर मानने लगी है. या फिर यह महज़ एक पॉलिटिकल पोस्चरिंग के अलावा कुछ नहीं है. एक इवेंट, बीजेपी का एक शो था. सच्चाई यह है कि बीजेपी के साथ फिलहाल कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है. शायद पार्टी को यह लगता हो कि इस तरह के कामों से जनता में यह मैसेज जाए कि पार्टी में कुछ हो रहा है. पार्टी मज़बूत हो रही है, लोग वापस आना चाह रहे हैं. लेकिन भाजपा की यह रणनीति भी कामयाब नहीं हो सकी क्योंकि इसके तुरंत बाद उमा भारती की वापसी पर पार्टी की गुटबाज़ी सामने आ गई.

देश की जनता त्रस्त है. सरकार एक के बाद एक जनता को परेशानी में डालने वाली नीतियों पर अमल कर रही है. इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि सरकार का कोई अल्टरनेटिव नज़र नहीं आ रहा है. भाजपा के नए अध्यक्ष से लोगों की उम्मीदें बढ़ी थीं, लेकिन वह भी असफल साबित हो रहे हैं. उन्हें आरएसएस ने पार्टी को सुधारने के लिए भाजपा का अध्यक्ष बनाया था लेकिन वह भी भाजपा के रंग में रंग गए. गुटबाज़ी पहले से कहीं ज़्यादा तीखी हो चुकी है. पुराने लोगों को वापस लाने की ज़रूरत इसलिए है क्योंकि नए नेता पैदा करने में भाजपा विफल रही है. पार्टी के अंदर चल रहे गृहयुद्ध की वजह से भाजपा ने जनता के सवालों को पीछे छोड़ दिया है. न कोई नई रणनीति है न ही कोई वैचारिक व आर्थिक रोडमैप है. दुख के साथ कहना पड़ता है कि भाजपा प्रासंगिकता और उपयोगिता को ही ख़त्म करने पर आमदा है.

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