भाजपा एक कटी पतंग है?

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भाजपा एक ख़तरनाक दिशाहीनता की स्थिति में है और अपने विनाश की ओर दौड़ रही है. हैरानी की बात यह है कि दिल्ली में बैठे पार्टी  नेताओं को गलत़फहमी है कि इस कटी पतंग की डोर उनके हाथ में है और वे अपने हिसाब से पार्टी को चला रहे हैं.  भारतीय जनता पार्टी फिर बुरे कारणों की वजह से ख़बरों में हैं. चुनाव में हार और जीत होती रहती है, लेकिन भाजपा जीती बाजी को हारने का रिकॉर्ड बना रही है. महाराष्ट्र और हरियाणा के  चुनाव नतीजे इस बात के सीधे सबूत हैं कि कैसे भाजपा ग़लत रणनीति की वजह से चुनाव हार गई. महाराष्ट्र की हार तो वाकई शर्मनाक है. किसान ख़ुदकुशी कर रहे हैं, ग़रीब भूख से मर रहे हैं, मज़दूर बेरोज़गार हो रहे हैं, महाराष्ट्र्र के शहर रहने लायक़ नहीं बचे हैं, युवा रोज़गार के लिए भटक रहे हैं, दस साल से चली आ रही कांग्रेस- एनसीपी की सरकार से जनता नाराज़ थी और उनके वोट बैंक में डाका डालने के लिए तीसरा मोर्चा भी था. इसके बावजूद भाजपा चुनाव हार गई. ऐसा ही कुछ हरियाणा में भी था. स्थिति भाजपा के लिए अनुकूल थी, लेकिन नतीजे भाजपा के ख़िला़फ आए. राजनाथ जी, अब इन राज्यों में मिली हार के लिए किसका सिर कलम करेंगे या मौन धारण कर लेंगे?  पिछले कुछ दिनों की घटनाओं से यह सा़फ हो गया है कि पार्टी चंद नेताओं की जागीर बन गई है. ऐसे माहौल में ज़मीन से जुड़े, सीधे-सादे, अविवादित और शालीन किस्म के नेताओं को पार्टी में घुटन होने लगी है. भाजपा से कई वरिष्ठ नेताओं के  बयानों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. वे मीडिया के ज़रिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से कह रहे हैं कि पार्टी की सर्जरी की ज़रूरत है. ज़्यादातर कार्यकर्ताओं और क्षेत्रीय नेताओं का भाजपा नेतृत्व से विश्वास उठ चुका है. इन लोगों को लगता है कि पार्टी को बचाने के  लिए संघ को ही आगे आना पड़ेगा. इसकी वजह यह है कि जब से यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और अरुण शौरी ने चुनाव में हार के लिए ज़िम्मेदार कौन का सवाल उठाया है, तब से पार्टी अंतहीन ख़ेमेबाज़ी में फंस गई. कौन, किसे, कहां और कब निशाने पर ले लेगा, यह किसी को पता नहीं. जिन्हें यह षड्‌यंत्रकारी राजनीति पसंद है, वे तो पार्टी की बैठकों और कार्यवाही में हिस्सा ले रहे हैं, लेकिन ज़्यादातर नेता निष्क्रिय हो गए हैं. हैरानी की बात है कि आडवाणी एंड कंपनी यह सुनने को भी तैयार नहीं है कि पार्टी में कुछ गड़बड़ी भी है. जो पार्टी की बीमारी का खुलासा करता है, पार्टी उसे ही बीमार घोषित कर देती है. फिर अनुशासन का डंडा दिखा कर उसे बेइज़्ज़त करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जाती. पार्टी में हिटलर और स्तालिन किस्म के लोगों का राज़ है. प्रजातांत्रिक मूल्यों को मानना तो दूर, भाजपा में आजकल फासीवाद का बोलबाला है.

kati patang bjpमहाराष्ट्र, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश में मिली हार के बाद भाजपा में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं. चुनाव आयोग ने झारखंड में चुनाव का ऐलान कर दिया और राजस्थान की नेता प्रतिपक्ष वसुंधरा राजे ने इस्ती़फा दे दिया. राजनाथ सिंह के ख़िला़फ युद्ध का ऐलान कर दिया. इस्ती़फे के साथ तीन पेज का पत्र भी था, जिसका सार यह है कि वसुंधरा कोई मनोनीत नहीं, बल्कि विधायकों द्वारा चुनी हुई नेता प्रतिपक्ष हैं. फिर पार्टी ने किस आधार पर उन्हें हटाने का फैसला लिया? और अगर यह फैसला लिया भी गया तो उन्हें अपनी सफाई देने का मौक़ा क्यों नहीं दिया गया? राजस्थान के ही जसवंत सिंह के  साथ भी यही हुआ था. शिमला में चिंतन बैठक के पहले ही दिन राजनाथ सिंह ने फोन पर ही उन्हें निष्कासित करने का फैसला सुनाया था. उन्हें अपनी सफाई देने का मौक़ा नहीं दिया गया. अगर राजस्थान में हुई हार के  लिए वसुंधरा ज़िम्मेदार हैं तो उत्तर प्रदेश और पूरे देश में लोकसभा चुनाव में मिली हार के लिए राजनाथ सिंह ने इस्ती़फा क्यों नहीं दिया? वसुंधरा राजे के इस्ती़फे से तो यही समझा जा सकता है कि दिल्ली में बैठे भाजपा नेताओं के लिए पार्टी से ज़्यादा अपना अहंकार महत्वपूर्ण है. पार्टी गर्त में जा चुकी है. एक के  बाद एक प्रत्येक चुनाव में भाजपा हार रही है, लेकिन दिल्ली से देश की राजनीति करने वाले नेताओं को इस बात की चिंता है कि प्रेस कांफ्रेस के बाद पत्रकारों को बांटे जा रहे पर्चे के  नीचे हस्ताक्षर किसका है.

भारतीय जनता पार्टी के नेता शायद समय को कोसते होंगे कि एक चुनाव खत्म होता नहीं कि दूसरा सिर पर आ जाता है. झारखंड चुनाव का ऐलान भी ऐसे व़क्त हुआ है, जब रांची में यशवंत सिन्हा कुंडली मारकर बैठे हैं. दिल्ली में बैठे नेताओं की कृपा से बाबूलाल मरांडी जैसे कई नेता या तो पार्टी छोड़ चुके हैं या निष्क्रिय बैठे हैं. यशवंत सिन्हा के सवालों का जवाब राजनाथ सिंह या आडवाणी एंड कंपनी अब तक नहीं दे पाई है. लोकसभा चुनाव में हार के  लिए ज़िम्मेदार कौन है, यह सवाल यक्ष प्रश्न की तरह अब भी संगठन के  सामने खड़ा है.

झारखंड के चुनाव की घोषणा होने के बाद दिल्ली के एयरकंडीशन कमरों में बैठे नेताओं को भी पसीना आ रहा है कि इस चुनाव से कैसे निपटा जाए. केंद्रीय नेतृत्व के  पास न तो पार्टी को संगठित करने का हौसला है और न ही व़क्त. ऐसे में स्थानीय स्तर के  नेता अपनी मनमानी करने से नहीं चूकते. ख़बर यह है कि भाजपा ने झारखंड में एक आंतरिक सर्वेक्षण करवाया, लेकिन इसमें भी बहुत बड़ी घपलेबाजी हुई. कई नेताओं ने सर्वे करने वाली एजेंसी को घूस देकर अपना नाम मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल करवा लिया.

अब दिल्ली में बैठे नेता इतनी भी हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं कि वे पार्टी में मौजूद ऐसे फर्जी लोगों के  ख़िला़फ कार्रवाई कर सकें. भाजपा अजीबोग़रीब स्थिति में फंसी नज़र आ रही है. पार्टी एक के बाद एक चुनाव हारती जा रही है.

नेता आपस में लड़ रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी चिंतित, भ्रमित, असंगठित, दिशाहीन और बिखरी नज़र आ रही है. महाराष्ट्र, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश में परास्त होने के  बाद और भाजपा के भीतर चल रहे गृहयुद्ध के बाद तो दिल्ली में कोई यह सोचने वाला भी नहीं बचा है कि पार्टी की साख कैसे बचाई जाए, विचारधारा में किस तरह के बदलाव लाए जाएं, संगठन में सुधार हो तो कैसे हो या फिर पार्टी को टूटने से कैसे बचाया जाए. कार्यकर्ता पूरी तरह मायूस हो चुके हैं. दिल्ली में भाजपा मुख्यालय में सक्रिय कार्यकर्ता तो यहां तक कह रहे हैं कि लगता है मानो कांग्रेस ने भाजपा में कुछ बड़े-बड़े एजेंट बैठा दिए हैं. वे पार्टी को उस हाल में पहुंचा देंगे कि अगले 20 साल तक कांग्रेस बिना किसी विरोध के देश पर राज करेगी.

चुनाव में हार और जीत कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन वाकओवर देना ज़रूर हैरान करता है. भाजपा के पास बड़े-बड़े रणनीतिकार हैं, जो अपना लोहा कई बार मनवा चुके हैं. वे कहां है? कहीं ऐसा तो नहीं कि भाजपा ने अब भगवान भरोसे चुनाव लड़ने की नई रणनीति बनाई है. संभव है कि वह यह मान बैठी हो कि जनता तो कांग्रेस सरकार के ख़िला़फहै ही, वह कांग्रेस के विरोध में वोट डालेगी तो भाजपा कुछ किए बिना ही जीत जाएगी. भाजपा संगठन की समस्या से अलग कुछ सोच ही नहीं पा रही है. पार्टी के नेता बस इसी दिमागी कसरत में लगे हुए हैं कि राजनाथ सिंह का कार्यकाल खत्म होगा तो उनकी जगह कौन लेगा और आडवाणी जी के बाद पार्टी का चेहरा कौन होगा. अब तक पार्टी में जो हुआ है वह तो ट्रेलर है, फिल्म अभी बाकी है.

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